गुरुवार, 12 नवंबर 2015

भाजपा की अन्तर्कलह के दिलचस्प संकेत


अरुण माहेश्वरी

भाजपा में आडवाणी समूह का प्रतिवाद अनायास ही भाजपा और संघ परिवार के बारे में विचार की बहुत दिलचस्प संभावनाओं से भरा दिखाई देता है।

भाजपा लंबे अर्से से संसदीय जनतंत्र के ढांचे में संविधान-सम्मत ढंग से सत्ता की एक प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में बनी हुई है, और आरएसएस इस ढांचे के बाहर का गोपनीय सत्ता-केंद्र है। इन दोनों के बीच पिछले लगभग 64 सालों से एक ऐसी संगति बनी हुई है जिसे ध्यान से देखें तो पायेंगे कि यह एक खास प्रकार की विश्रृंखलित संगति (broken symmetry) है। बिना किसी वास्तविक जैविक संपर्क की संगति; अतार्किक संगति। यह संगति वस्तुत: तभी प्रकट होती रही है जब भाजपा सत्ता पर होती है। उसी समय आरएसएस की एक गैर-संवैधानिक सत्ता-केंद्र वाली भूमिका प्रकट होने लगती है। अन्य दिनों में, दोनों अपने-अपने दड़बों में सिमटे होते हैं। भाजपा दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों की तरह संसद के अंदर और संसद के बाहर की गतिविधियों में लगी रहती है। और आरएसएस तो शुद्ध सांस्कृतिक संगठन की खाल ओढ़ लेता है।

आम तौर पर लोग कहते हैं कि ये दोनों संगठन अन्योनाश्रित है। यह बात एक सफेद झूठ और कोरे भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। सत्ता में अपनी भागीदारी के दावे के लिये आरएसएस द्वारा फैलाये जाने वाला भ्रम। क्योंकि सत्ता के संघर्ष में तो भाजपा के अलावा दूसरी भी अनेक पार्टियां हैं। जब दूसरी किसी पार्टी को अपने लिये ऐसे किसी बाहरी, गोपनीय ढंग के संचालक-संगठन की जरूरत नहीं महसूस होती है, जो खास परिस्थितियों में संविधानेत्तर सत्ता-केंद्र के तौर पर उभर कर आ जाता है, अन्यथा अपनी किसी दूसरी पहचान के साथ गुम रहता है,  तब फिर भाजपा के लिये ही ऐसे बाहरी संगठन का आसरा क्यों जरूरी है ! अन्य सभी राजनीतिक पार्टियों में कुछ लोग संगठन का काम देखते हैं, कुछ संसदीय संस्थाओं में भागीदारी का जिम्मा लिये होते हैं। लेकिन इनमें से किसी को भी कभी अपने को एक-दूसरे से स्वतंत्र समूह बताने की जरूरत नहीं होती है। वे सभी एक प्रकट संगति में काम करते हैं।

मसलन, सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को ही लिया जाए। उन पर आरोप लगाया जाता है कि वे अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री को संचालित करते हैं - गैर-संवैधानिक सत्ता-केंद्र की भूमिका अदा करते हैं। लेकिन कभी कोई यह नहीं कह सकता है कि प्रधानमंत्री की पार्टी और सोनिया गांधी की पार्टी अलग-अलग है।

इसीलिये, आरएसएस और भाजपा के बीच की संगति पूरी तरह से अतार्किक और विश्रृंखलित संगति दिखाई देती है। जब भाजपा सत्ता के बाहर होती है तो इनके बीच हितों की टकराहट का कोई नजारा देखने को नहीं मिलता। लेकिन जब-जब भाजपा सत्ता पर आती है, सत्ता पर अपने हक के साथ आरएसएस मैदान में उतर जाता है और समाज के सभी स्तरों पर अजीबो-गरीब तनाव के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। शिक्षा के भगवाकरण से लेकर, राममंदिर, धारा 370, गोमांस आदि की तरह के विषयों पर बवाल शुरू हो जाते हैं, जिनसे घोषित तौर पर भाजपा नीत मोर्चे और सरकारें बचने की बात कहते रहते हैं।

जन संघ के समय में, ‘77 में जनता पार्टी की सरकार के वक्त आरएसएस की वजह से ही दोहरी सदस्यता का पूरा अतार्किक और अनावश्यक विवाद पैदा हुआ। यह उसी विश्रृंखल संगति का परिणाम था जो इन दोनों संगठनों के बीच बनी हुई है। बाद के दिनों में, वाजपेयी-आडवाणी के सत्ता-काल में भी आरएसएस के साथ उनका हमेशा एक तनाव बना रहता था। यहां तक कि जिस गुजरात को संघ की प्रयोगशाला कहा जाता है, वहां भी 2002 के दंगों के बाद क्रमश: देखा गया कि नरेन्द्र मोदी आरएसएस के काबू में नहीं रहे। सिंघल-तोगडि़या कंपनी से उनके संबंध, बाबू बजरंगी और माया कोडनानी की तरह के अपराधियों को जेल जाने से बचाने के प्रति मोदी की उदासीनता के अंदर भी इसी तनाव की झलक मिलती है।

इस बार, 2014 के चुनाव में आडवाणी जैसे भाजपा के एक वरिष्ठ, कद्दावर नेता से बचने के लिए आरएसएस ने गुजरात के चौदह साल से महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का इस्तेमाल किया। मोदी सिर्फ एक व्यक्ति नहीं बेइंतहा साधन-संपन्न पूरा पैकेज था। मोदी को भी संघ का मोहरा बनना अपने लिए लाभदायी लगा। आडवाणी, जोशी की उम्र ने इनके काम को आसान कर दिया। मोदी विकास के नाम पर जीत गये, लेकिन उनके जीतने के बाद ही आरएसएस ने अपना हमेशा का घटिया सांप्रदायिक खेल शुरू कर दिया।

आज परिस्थिति यह हुई है कि एक विश्रृंखलित संगति वाले संगठन की गतिविधियों के कारण डेढ़ साल के अंदर ही मोदी की चमक का पूरा मुलम्मा उतर चुका है।  जिस व्यक्ति ने जादू की छड़ी घुमा कर भाजपा का मोदी पार्टी में कायांतर कर लिया, संघ की करतूतों ने इतने थोड़े से दिनों में उसकी हस्ती को हिला कर रख दिया है। चौदह साल तक जो व्यक्ति मुख्यमंत्री रहा, जो आज प्रधानमंत्री है, वह अचानक ही, आरएसएस को सत्ता का भागीदार बनाने के चक्कर में कोरा संघ प्रचारक दिखाई देने लगा। मोदी और उसके प्रमुख सिपहसलार अमित शाह की सूरत आज भाजपा के तेजी से पतन के लिये जिम्मेदार सबसे बड़े खलनायक की हो गई है। जनता के बीच मोदी-शाह का प्रतिनिधित्व करने वाले तत्व आरएसएस के अनपढ़, अज्ञानी गाली-ब्रिगेड के लोग है !

बहरहाल, इस पूरे प्रसंग में जो मूल बात हमें सबसे अधिक दिलचस्प लगती है,  वह आरएसएस और भाजपा के बीच के संबंध की ही बात है - एक अस्वाभाविक, अतार्किक और विश्रृंखलित संगति के संबंध की बात।

दरअसल जब भी कोई स्वतंत्र ढांचा तैयार किया जाता है, तो हमेशा उसकी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए उसके चारों ओर एक खाई खोदी जाती है ताकि उन अवांछित प्रभावों से उस ढांचे को बचाया जा सके, जो उसकी स्वतंत्रता को हानि पहुंचाने वाले होते हैं। यह बात हर चीज पर लागू होती है। व्यक्ति, परिवार और  संगठन पर ही नहीं, बल्कि विचारों के ढांचे पर भी। बेटे को उसके पैरों पर खड़ा करने के लिए बाप को उसे छोड़ देना पड़ता है। जब कोई संगठन अपने घोषित उद्देश्यों से भिन्न किसी उद्देश्य के लिए अपने से अलग किसी संगठन को तैयार करता है तो उसे उस खास उद्देश्य के लिये अपने ढंग से काम करने के लिये छोड़ दिया जाता है। वह उस उद्देश्य विशेष के लिये जरूरी अपने विकास के तर्कों और तत्वों को अपनाता है। यहां तक कि विचारों के ढांचों में भी, हर धारणा को खुद अपनी संगति बनानी होती है।

लेकिन आरएसएस के साथ दिक्कत यह है कि वह ऐसे लालची बाप की तरह है जो बेटे को संपन्न देख कर उसपर लद कर उसे चूसना चाहता है और उसकी दरिद्रता के दिनों में उसे अपने से परे करके, स्वतंत्र जूझने के लिये छोड़ देता है। या उसकी दशा उस महाजन की तरह की है जो मौका देखकर अपने सूद को वसूलने के लिये उत्पात मचाया करता है। संघ ने जब अपने राजनीतिक सरोकारों को शुरू में ही जन संघ और बाद में भाजपा के सुपुर्द कर दिया और खुद को आत्मिक जगत के विषयों तक सिमटा लिया, तो फिर क्यों बार-बार अनुकूल मौकों पर उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सर उठाने लगती है ! जो संगठन संसदीय जनतंत्र के ढांचे में पनप रही भाजपा नामक परिघटना से बाहर रहा है, वह जब अचानक ही अवतरित होकर बिल्कुल अलग प्रकार के उत्पात मचाना शुरू कर देता है, तो कुछ मिला कर जो अराजक, विश्रृंखल स्थिति पैदा हो सकती है, आज भाजपा उसी के परिणामों को भोग रही है।

हर परिस्थिति के विकास के अपने लक्षण होते हैं। और लक्षणों के साथ ही कुछ ऐसी चीजें भी होती है जिनके प्रभाव को रोक कर आगे बढ़ा जाता है। आरएसएस की बाबा आदम के जमाने की आइसिस-छाप, धर्म पर आधारित सामाजिक समझ के प्रभाव को रोक कर ही संसदीय जनतांत्रिक ढांचे में भाजपा अपना स्थान बना पाई है। अब फिर उसपर आरएसएस के विचारों का बलात-आरोपण इस पार्टी के ढांचे में कैसे-कैसे तनाव पैदा कर सकता है, आज के भाजपा के संकट में हम उसे आसानी से देख सकते है।

इसीलिये, इस संकट का अंतिम तार्किक परिणाम या तो आरएसएस के बलाघात से भाजपा के टूट कर बिखर जाने में हो सकता है या आरएसएस और भाजपा के रिश्तों में स्थायी दरार में। अगर सामयिक तौर पर इन परिणतियों को किसी प्रकार से टाल भी दिया गया तो भी यह दोनों संगठनों की कोशिकाओं के विकृतिकरण का, उन्हें प्राणघाती असाध्य रोग का शिकार बना देगा। शत्रुध्न सिन्हा, भोला सिंह, सी. पी. ठाकुर, आडवाणी, जोशी, शांता प्रसाद और यशवंत सिन्हा के प्रतिवाद के समूहवृंद में अक्सर भाजपा पर लद जाने वाले इस अलग प्रकार के संविधानेत्तर-सत्ता केंद्र के दबाव की चरमराहट की ध्वनि को आसानी से सुना जा सकता है। जो विचारों में विस्मृत हो चुका होता है, वह फिर जब अचानक यथार्थ में लौटता है तो कुछ लोगों में उसकी इस आकस्मिक वापसी से एक अलग प्रकार का सम्मोहन भी पैदा होता है। ऐसे लोग ही भाजपा के इस संकट से उद्धार में आरएसएस की कोई सकारात्मक भूमिका देख सकते हैं। वरना, जो इस संकट के मूल में है, उसे ही इसके निदान का कारण समझना सिवाय एक भ्रम के और कुछ नहीं हो सकता।


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