-अरुण माहेश्वरी
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जाँ थी कि फिर सँभल गई
आज हमें फ़ैज़ साहब की इन पंक्तियों को गाते रहने की इच्छा हो रही है ।
2019 में इस ग़ज़ल की और पंक्तियों को गाया जायेगा -
... दर्द का चाँद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई । '
सारे टीवी चैनल्स बिकाऊ है । चैनलों को ख़रीदने के मामले में आगे भी भाजपा दूसरी सभी पार्टियों की तुलना में ज्यादा ताक़तवर रहेगी । इसीलिये आगे के तीन साल तक टीवी चैनल लगातार झूठ उगलने के लिये अभिशप्त रहेंगे ।
अरुण शौरी ने मोदी के बारे में सही कहा है कि उनके पास अर्थ-व्यवस्था की कोई समझ नहीं है । आर्थिक मामलों में मोदी विफल रहेंगे लेकिन अख़बारों और चैनलों की हेडलाइन्स को लगातार ख़रीदते रहेंगे । मोदी-शाह की यह प्रवंचक कार्यनीति उनके लिये और पूरी भाजपा के लिये आत्म-प्रवंचना साबित होगी ।
मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत की बात से अपनी शुरूआत की थी और सच यह है कि भाजपा-मुक्त भारत से अपनी पारी का अंत करेंगे । अमित शाह ने अपने लोगों से जीत का अभ्यास करने की बात से शुरूआत की और सच यह है कि उनका अंत लगातार हार को सहने की वास्तविकता से होगा ।
भाजपा के प्रवक्ता सभी चैनलों पर कह रहे हैं कि पार्टी हार के कारणों पर विचार करेगी ।
सवाल है - कौन सी पार्टी ? भाजपा या मोदी पार्टी ?
मोदी-शाह जोड़ी तो भाजपा को हड़प चुकी है । अगर भाजपा को इस हार पर विचार करना है तो उसे एक नया जन्म लेना होगा ; मोदी-शाह जोड़ी को इतिहास के कूड़े पर फेंकना होगा ; और आरएसएस से अपने को यथासंभव दूर करना होगा । क्या भाजपा के लिये यह कभी भी संभव है ?
कहना न होगा, बिहार चुनाव का यह बिंदु भारत में भाजपा के पूरी तरह से अप्रांसगिक होते जाने के प्रारंभ का बिंदु साबित होगा ।
मोदी समूह का बार-बार एक ही भूल को दोहराते रहना ही उसकी नियति है ।
टीवी चैनलों पर अक्सर कुछ टिप्पणीकार बड़ी मासूमियत से यह सवाल करते पाये जाते हैं कि बार-बार मूंह की खाने के बावजूद यह पार्टी एक ही गलती को बार-बार दोहराती क्यों है? मसलन्, मोदी ने दिल्ली में जो भूलें की, हूबहू उन्हीं भूलों को उसने दिल्ली में क्यों दोहराया ? अथवा भाजपा को जिन भूलों की वजह से कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश में इतनी कीमत चुकानी पड़ी, वही भूलें उन्होंने फिर बिहार में क्यो कीं ?
क्या कहेंगे इन टिप्पणीकारों की मासूमियत को ? क्या वे यह नहीं जानते कि कोई भी घटना तब एक नियम का रूप ले लेती है जब उसे बार-बार दोहराया जाता है। पहली बार में कोई घटना किसी नियम का संकेत नहीं देती। घटनाओं की नियम-विहीन सी नजर आती श्रृंखलाओं के बीच से एक नियमित श्रृंखला को पाया जा सकता है ; विचारों के बार-बार दोहराव से विचारधारा को पहचाना जा सकता है।
जैसे, आजाद भारत में सांप्रदायिक दंगों के इतिहास में एक खास ढर्रा देखा गया है। पिछले लोक सभा चुनाव के पहले ही दंगों और सांप्रदायिक तनावों की एक पूरी श्रृंखला देखी गई। इन अनुभवों के आधार पर ही तो यह अनुमान लगाया जाता है कि यदि उत्तर प्रदेश का प्रशासन चौकन्ना न रहा तो उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर दंगे होंगे। बिहार में भी सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कम कोशिश नहीं की गई।
जाहिर है कि दंगों की घटनाओं की यही श्रृंखला भाजपा को बाकायदा एक सांप्रदायिक पार्टी बनाती है। सांप्रदायिक राजनीति का यह नियम उसके कामों और विचारों, दोनों में जाहिर होता है। भाजपा के चरित्र के मूल में उसकी विचारधारा है, लेकिन जैसे इतिहास के नियम कर्ता के बजाय उसके कार्यों से तैयार होते हैं, वैसे ही भाजपा की ठोस सांप्रदायिक पहचान उसकी भड़काऊ और दंगाई गतिविधियों से बनती है।
यही वजह है कि पार्टियों से जुड़ी किसी भी घटना की व्याख्या करने वाले पंडितों के लिए यह जरूरी होता है कि वह उनकी गतिविधियों की श्रृंखला की व्याख्याओं से जाहिर होने वाली विचारधारा को ठोस रूप में जाने। विचारधारा को तरजीह न देने वाले या न जानने वाले व्याख्याता ही इसप्रकार के निरर्थक, मासूम से सवाल कर सकते हैं।
एक मित्र ने लिखा कि “भाजपा के कुछ वर्तमान और भूतपूर्व नेता आज मन की बात बोल रहे हैं ,भाजपाई होकर भी विपक्षी से दिख रहे हैं तो हमें अच्छा लगता है, सूट करता है।ज़रा सोचिये अगर ये मंत्री या ऐसे ही कुछ बना दिये गए होते पहले ही, इनके अहम को चोट नहीं पहुँचाई गई होती, इनकी पूछ होती तो क्या ये मन की बात बोलना पसंद करते या बोलते तो वह उस कोटि की होती,जैसी कि मोदीजी की आकाशवाणी पर होती है।और आज जो मोदीजी की जयजयकार कर रहे हैं, कल मान लो उन्हें बाहर कर दिया जाए तो वे भी खरी-खरी बात कहने लगेंगे,इसलिए मौक़े के मुताबिक़ बोलनेवालों और जो हमेशा एक सा कड़ुवा बोलते हैं,उनमें आज भी हमें फ़र्क़ करना चाहिए।“
हमारा कहना है - जब कोई विचार कहीं से भी आता है तो वह किसी न किसी लक्षण का भी सूचक होता है। किसी भी वजह से क्यों न हो, वह एक दरार तो दर्शाता ही है। इससे यह मिथक दरकता है कि मोदी-शाह नेतृत्व चुनौती-विहीन है। आज हमें ये नेता संदिग्ध लग सकते हैं, लेकिन जब ऐसे ही विचारों का दोहराव होगा तो यही बाते उस पार्टी के अन्दर एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ मानी जाने लगेगी। जो चीज प्रथमत: कुछ समझ में नहीं आती, अजीब सी लगती है, वही क्रमश: चेतना में रूपांतरित होती है। चेतना के बनने का रास्ता हमेशा इसीप्रकार पहले चीज की गलत पहचान से ही पैदा होता है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। सबसे पहले उदय प्रकाश ने अपना सम्मान लौटाया। बहुतेरे ऐसे थे, जिन्होंने उनके इरादों पर संदेह किया। उनके बाद नयनतारा सहगल, फिर अशोक वाजपेयी - संदेहास्पदकता का भाव कमजोर होने लगा। और आज, उसे ही सब एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ समझ रहे हैं। इसीलिये देखने की जरूरत है कही जाने वाली बातों की सत्यता को, न कि कौन कह रहा है उसके व्यक्तित्व को।
सचमुच, भाजपा के प्रवक्ताओं के मुंह से ‘विकास’ एक अपशब्द की तरह लगने लगा है।
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जाँ थी कि फिर सँभल गई
आज हमें फ़ैज़ साहब की इन पंक्तियों को गाते रहने की इच्छा हो रही है ।
2019 में इस ग़ज़ल की और पंक्तियों को गाया जायेगा -
... दर्द का चाँद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई । '
सारे टीवी चैनल्स बिकाऊ है । चैनलों को ख़रीदने के मामले में आगे भी भाजपा दूसरी सभी पार्टियों की तुलना में ज्यादा ताक़तवर रहेगी । इसीलिये आगे के तीन साल तक टीवी चैनल लगातार झूठ उगलने के लिये अभिशप्त रहेंगे ।
अरुण शौरी ने मोदी के बारे में सही कहा है कि उनके पास अर्थ-व्यवस्था की कोई समझ नहीं है । आर्थिक मामलों में मोदी विफल रहेंगे लेकिन अख़बारों और चैनलों की हेडलाइन्स को लगातार ख़रीदते रहेंगे । मोदी-शाह की यह प्रवंचक कार्यनीति उनके लिये और पूरी भाजपा के लिये आत्म-प्रवंचना साबित होगी ।
मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत की बात से अपनी शुरूआत की थी और सच यह है कि भाजपा-मुक्त भारत से अपनी पारी का अंत करेंगे । अमित शाह ने अपने लोगों से जीत का अभ्यास करने की बात से शुरूआत की और सच यह है कि उनका अंत लगातार हार को सहने की वास्तविकता से होगा ।
भाजपा के प्रवक्ता सभी चैनलों पर कह रहे हैं कि पार्टी हार के कारणों पर विचार करेगी ।
सवाल है - कौन सी पार्टी ? भाजपा या मोदी पार्टी ?
मोदी-शाह जोड़ी तो भाजपा को हड़प चुकी है । अगर भाजपा को इस हार पर विचार करना है तो उसे एक नया जन्म लेना होगा ; मोदी-शाह जोड़ी को इतिहास के कूड़े पर फेंकना होगा ; और आरएसएस से अपने को यथासंभव दूर करना होगा । क्या भाजपा के लिये यह कभी भी संभव है ?
कहना न होगा, बिहार चुनाव का यह बिंदु भारत में भाजपा के पूरी तरह से अप्रांसगिक होते जाने के प्रारंभ का बिंदु साबित होगा ।
मोदी समूह का बार-बार एक ही भूल को दोहराते रहना ही उसकी नियति है ।
टीवी चैनलों पर अक्सर कुछ टिप्पणीकार बड़ी मासूमियत से यह सवाल करते पाये जाते हैं कि बार-बार मूंह की खाने के बावजूद यह पार्टी एक ही गलती को बार-बार दोहराती क्यों है? मसलन्, मोदी ने दिल्ली में जो भूलें की, हूबहू उन्हीं भूलों को उसने दिल्ली में क्यों दोहराया ? अथवा भाजपा को जिन भूलों की वजह से कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश में इतनी कीमत चुकानी पड़ी, वही भूलें उन्होंने फिर बिहार में क्यो कीं ?
क्या कहेंगे इन टिप्पणीकारों की मासूमियत को ? क्या वे यह नहीं जानते कि कोई भी घटना तब एक नियम का रूप ले लेती है जब उसे बार-बार दोहराया जाता है। पहली बार में कोई घटना किसी नियम का संकेत नहीं देती। घटनाओं की नियम-विहीन सी नजर आती श्रृंखलाओं के बीच से एक नियमित श्रृंखला को पाया जा सकता है ; विचारों के बार-बार दोहराव से विचारधारा को पहचाना जा सकता है।
जैसे, आजाद भारत में सांप्रदायिक दंगों के इतिहास में एक खास ढर्रा देखा गया है। पिछले लोक सभा चुनाव के पहले ही दंगों और सांप्रदायिक तनावों की एक पूरी श्रृंखला देखी गई। इन अनुभवों के आधार पर ही तो यह अनुमान लगाया जाता है कि यदि उत्तर प्रदेश का प्रशासन चौकन्ना न रहा तो उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव के पहले बड़े पैमाने पर दंगे होंगे। बिहार में भी सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कम कोशिश नहीं की गई।
जाहिर है कि दंगों की घटनाओं की यही श्रृंखला भाजपा को बाकायदा एक सांप्रदायिक पार्टी बनाती है। सांप्रदायिक राजनीति का यह नियम उसके कामों और विचारों, दोनों में जाहिर होता है। भाजपा के चरित्र के मूल में उसकी विचारधारा है, लेकिन जैसे इतिहास के नियम कर्ता के बजाय उसके कार्यों से तैयार होते हैं, वैसे ही भाजपा की ठोस सांप्रदायिक पहचान उसकी भड़काऊ और दंगाई गतिविधियों से बनती है।
यही वजह है कि पार्टियों से जुड़ी किसी भी घटना की व्याख्या करने वाले पंडितों के लिए यह जरूरी होता है कि वह उनकी गतिविधियों की श्रृंखला की व्याख्याओं से जाहिर होने वाली विचारधारा को ठोस रूप में जाने। विचारधारा को तरजीह न देने वाले या न जानने वाले व्याख्याता ही इसप्रकार के निरर्थक, मासूम से सवाल कर सकते हैं।
एक मित्र ने लिखा कि “भाजपा के कुछ वर्तमान और भूतपूर्व नेता आज मन की बात बोल रहे हैं ,भाजपाई होकर भी विपक्षी से दिख रहे हैं तो हमें अच्छा लगता है, सूट करता है।ज़रा सोचिये अगर ये मंत्री या ऐसे ही कुछ बना दिये गए होते पहले ही, इनके अहम को चोट नहीं पहुँचाई गई होती, इनकी पूछ होती तो क्या ये मन की बात बोलना पसंद करते या बोलते तो वह उस कोटि की होती,जैसी कि मोदीजी की आकाशवाणी पर होती है।और आज जो मोदीजी की जयजयकार कर रहे हैं, कल मान लो उन्हें बाहर कर दिया जाए तो वे भी खरी-खरी बात कहने लगेंगे,इसलिए मौक़े के मुताबिक़ बोलनेवालों और जो हमेशा एक सा कड़ुवा बोलते हैं,उनमें आज भी हमें फ़र्क़ करना चाहिए।“
हमारा कहना है - जब कोई विचार कहीं से भी आता है तो वह किसी न किसी लक्षण का भी सूचक होता है। किसी भी वजह से क्यों न हो, वह एक दरार तो दर्शाता ही है। इससे यह मिथक दरकता है कि मोदी-शाह नेतृत्व चुनौती-विहीन है। आज हमें ये नेता संदिग्ध लग सकते हैं, लेकिन जब ऐसे ही विचारों का दोहराव होगा तो यही बाते उस पार्टी के अन्दर एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ मानी जाने लगेगी। जो चीज प्रथमत: कुछ समझ में नहीं आती, अजीब सी लगती है, वही क्रमश: चेतना में रूपांतरित होती है। चेतना के बनने का रास्ता हमेशा इसीप्रकार पहले चीज की गलत पहचान से ही पैदा होता है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। सबसे पहले उदय प्रकाश ने अपना सम्मान लौटाया। बहुतेरे ऐसे थे, जिन्होंने उनके इरादों पर संदेह किया। उनके बाद नयनतारा सहगल, फिर अशोक वाजपेयी - संदेहास्पदकता का भाव कमजोर होने लगा। और आज, उसे ही सब एक ‘ऐतिहासिक जरूरत’ समझ रहे हैं। इसीलिये देखने की जरूरत है कही जाने वाली बातों की सत्यता को, न कि कौन कह रहा है उसके व्यक्तित्व को।
सचमुच, भाजपा के प्रवक्ताओं के मुंह से ‘विकास’ एक अपशब्द की तरह लगने लगा है।
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