शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

श्रीमान स्वपन दासगुप्त ! उदार हलके विचारों की लड़ाई लड़ते हैं और फासीवादी विचारवानों का सफाया करते हैं ! इन दो बातों के फर्क को क्या आप जानते हैं ?


(आज के ‘टेलिग्राफ’ में स्वपन दासगुप्त के लेख पर एक प्रतिक्रिया)
-अरुण माहेश्वरी

कहते हैं न कि जब हम किसी चीज को बिना जाने उसकी कमियों का बखान करने लगते हैं, तब हम किसी न किसी रूप में अपनी ही कमी का, अपने नजरिये की विकृतियों का बखान कर रहे होते हैं।

इसका एक क्लासिक उदाहरण है स्वपन दासगुप्त का यह लेख -‘‘ The Liberal world and its predetermined conclusions : Enemies of Liberty “(उदार दुनिया और उसके पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष : स्वतंत्रता के शत्रु)।
उनके लेख का निशाना साफ है - आज के भारत में असष्णिुता की परिस्थिति पर चल रही बहस। वे इसके लिये लंदन के कथित उदार जगत की एक कहानी गढ़ते हैं। बताते हैं कि फिलिस्तीनियों के ‘संघर्ष’ के इन पक्के समर्थकों ने गांधी और मंडेला की प्रशंसा की। लेकिन उगांडा के इदी अमीन और जिंबाब्वे के रोबर्ट मुगाबे को इन्होंने कभी नहीं स्वीकारा। उनके अनुसार, आज ऐसे ही घृणा के पात्रों की सूची में वे रूस के राष्ट्रपति पुतिन, सीरिया के राष्ट्रपति बशर-अल-असद को रखे हुए हैं। इसराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू और उनकी लिकुड पार्टी को भी यह हलका कभी नहीं स्वीकारता।

अपने इस लेख में उदारों की ‘घृणा के पात्रों’ की सूची में उन्होंने एक और नाम जोड़ा है - टर्की में हाल के चुनाव में विजयी राष्ट्रपति रिजेप ताय्येप एर्डोवान का नाम। वे लिखते हैं कि पिछले जून महीने के चुनाव में वहां किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, उसकी तुलना में अब एर्डोवान की न्याय और विकास पार्टी (एकेपी) को साफ बहुमत मिलने से जाहिर हुआ कि टर्की के लोगों ने स्थिरता और देश को एक निश्चित दिशा में ले जाने के पक्ष में मत दिया है।

इसके साथ ही, दासगुप्ता ने अपने छिछले इतिहास ज्ञान को उजागर करते हुए एर्डोवान की इस जीत की तुलना 1980 में इंदिरा गांधी की जीत और 2014 में मोदी की जीत से की है। जाहिर है कि सन् ‘77 के जनता पार्टी के प्रयोग की विफलता से उत्पन्न अस्थिर राजनीतिक स्थिति और 2014 के वक्त लगातार दस सालों से चल रही एक स्थिर कांग्रेस सरकार की स्थिति में समानता सिर्फ वही व्यक्ति देख सकता है, जिसके पास ऐतिहासिक तुलनात्मकता का न्यूनतम बोध भी न हो !

बहरहाल, दासगुप्ता के लेख का मकसद यह नहीं, बल्कि उदार हलकों की संकीर्णता जाहिर करना है। उनका क्षोभ इस बात पर है कि एर्डोवान जीत गये, पर लंदन के उदारवादी हलके इस जीत को पचा नहीं पा रहे हैं। चैनल फोर का संवाददाता कहता है - ‘‘चुनाव स्वतंत्र हुआ लेकिन क्या सही हुआ ?’’ (Election was free but was it fair?) । ‘एर्डोवान विभाजनकारी है, टर्की में एकाधिकारवाद कायम कर सकता है।’ चुनाव के दौरान एकेपी के कुछ नेताओ ने वहां के उदारवादियों को धमकाया था - ‘देख लेंगे।’ दासगुप्त कहते हैं कि भारत में यह एक साधारण बात है, अमित शाह का ‘जुमला’, लेकिन हर देश के अपने-अपने मानदंड होते है!

इसी प्रसंग में वे कहते हैं कि टर्की में क्या हो रहा है, इसे लंदन में ‘गार्जियन’ का पाठक नहीं, भारत का आदमी ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकता है। ‘बीबीसी के एक संवाददाता ने इस चुनाव से असंतुष्ट टर्की के एक मनोचिकित्सक से पूछा कि तब क्या आप ‘देश छोड़ देंगी’ तो उसका जवाब था - ‘क्यों, यह हमारा देश है’।’
इसप्रकार, उदार हलकों में घृणा के पात्र समझे जाने वाले इदी अमीन, मुगाबे, नेत्यानाहू , पुतिन, बशर-अल-असद के बाद एर्डोवान जैसे ‘मासूम’, उदार हलकों के पूर्वाग्रहों के ‘शिकार’ चरित्रों की दासगुप्ता की इस कहानी का एक संकेत यह भी है कि जो लोग इनसे नफरत करते हैं, वे उनके देश के नहीं, ‘लंदन के उदार हलको’ की तरह बाहर के, अर्थात विदेशी है। जैसे आज शाहरुख खान पाकिस्तानी है !

बहरहाल, हम ‘नफरत के पात्रों’ के पक्ष में दासगुप्ता की इस दलील में शुरू से उनके मुवक्किल के रूप में हिटलर को भी तलाश कर रहे थे। लेकिन इस कहानी में हिटलर का प्रवेश सीधे नहीं हुआ है, कहानी के अंत में, घुमा कर हुआ है। लेख के अंत में वे आगामी 13 नवंबर को लंदन के वैंबले स्टैडियम में मोदी की सभा का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि उदार तबकें इसकी तुलना न्यूरेमबर्ग में हिटलर की सभा से करेंगे।

इतिहास में घृणा के पात्रों के प्रति प्रीति जगाने के उनके इस उपक्रम की अंतिम पंक्ति है - ‘उदार हलके में सिर्फ एक मत, उनके अपने मत के लिए जगह है’।( In the liberal world, there is space for only one view - their own) ।

हम उनसे यही कहेंगे कि हिटलरों के जगत में मत-विरोध तो छोडि़यें, विरोध करने वाले के अस्तित्व मात्र के लिए भी कोई जगह नहीं होती है। विरोध से निपटने का उनका तरीका यहूदियों से निपटने के हिटलर के तरीकों से पैदा होता है। भारत में इसे ही डाभोलकर, पानसारे और कलबुर्गी पर आजमाया गया है। अखलाक को कुचल कर तमाम अल्पसंख्यकों को इसका संदेश पहुंचाया गया है। दलितों की हत्याओं से भी वही संदेश दिया जाता है।
स्वपन दासगुप्ता का यह लेख उनके उकसावेबाज चरित्र का ही एक प्रमाण है जिसके लिए एनजेएसी के बारे में टाइम्स नाउ की बहस के दौरान संविधानविद राजीव धवन ने उनकी खिलखिलाहट का तिरस्कार करते हुए कहा था - दासगुप्ता! बात कह कर हंसिये मत !

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