शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

पेरिस हमला और इसके बाद !

अरुण माहेश्वरी




तेरह नवंबर को पेरिस पर आतंकवादी हमले को यूरोप का 9/11 (11 सितंबर) कहा जा रहा है। सन् 2001 का 9/11 विश्व राजनीति का एक संदर्भ बिंदु बना जब यह कहा गया कि इसके बाद दुनिया वह नहीं रहेगी, जो तब तक थी। वह दुनिया की अकेली महाशक्ति पर सीधा हमला था। जो तालिबान खुद अमेरिका की उपज था, सोवियत संघ के पतन के बाद सोवियत संघ समर्थित  अफगानिस्तान की नजीबुल्लाह सरकार को हटा कर जिसे अफगानिस्तान की सत्ता सौंपी गई थी, उसीके खिलाफ महीने भर के अंदर अमेरिका ब्रिटेन को संग लेकर अपनी पूरी ताकत के साथ टूट पड़ा। तालिबान के सहयोगी अल कायदा के नेता बिन लादेन को, जिसने 9/11 की योजना बनाई थी, अमेरिका का एक नंबर दुश्मन घोषित किया गया। और देखते ही देखते, तीन महीने में तालिबान की जगह हामिद करजाई की सरकार बना दी गई। अफगानिस्तान अमेरिकी सेना के कब्जे में आगया।

इसके बाद सन् 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के पूरे इतिहास को हम जानते ही हैं। इराक पर कब्जा करने के बाद लगभग सात साल तक वहां प्रशासन को लेकर पश्चिम की ताकतें नाना प्रकार के प्रयोग करती रही। तभी 2010 में टूनिशिया से एक नये प्रकार का सरकार-विरोधी नागरिक आंदोलन शुरू हुआ, और देखते ही देखते वह अरब लीग के लगभग सभी देशों - मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन, सीरिया, अल्जीरिया, जार्डन, कुवैत, मोरक्को, सुडान, सऊदी अरबिया, ओमन, जिबोती, पश्चिमी सहारा - में फैल गया। पूरे मध्यपूर्व में तख्ता-पलट के अनोखे दृश्य दिखाई देने लगे। एक विशाल क्षेत्र में फैले इस एक प्रकार के गृह युद्ध को अरब वसंत के नाम से जाना जाता है। न जाने कितनी सरकारें उखाड़ कर फेंक दी गई, कितनी नई आई और फिर से उखाड़ दी गई। कई जगहों पर नागरिक स्वतंत्रता की मांगों को पूरी निष्ठुरता से कुचल दिया गया, तो कई जगहों की सरकारों ने इस तूफान का कहीं ज्यादा लचीलेपन से मुकाबला किया। लेकिन सच यह है कि अधिकांश स्थानों पर अरब वसंत के आंदोलन में भारी हिंसा का प्रयोग हुआ। अब तक लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है।   

कुल मिला कर, यह बात सही साबित हुई कि कम से कम अरब देशों, इस्लामिक राष्ट्रों के लिए 9/11 के बाद दुनिया वह नहीं रही जो इसके पहले हुआ करती थी। पेट्रोडालर की समृद्धि का पूरा महल धराशायी हो गया। अरब भूमि पर अबाध रूप में पश्चिमी ताकतों के घोड़े दौड़ने लगे। उखाड़-पछाड़ के खूनी खेल में अमेरिका ने तालिबान और अल कायदा के कई नये छोटे-बड़े संस्करणों को जन्म दिया, जिनमें पिछले साल ही एक महादानव इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) पैदा हुआ, जो खलीफाओं के राज्य की वापसी के नारे और अमेरिकी हथियारों से लैस होकर सीरिया और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अपना कब्जा जमाता चला गया। थोड़े से दिनों में ही आतंकवाद के  अर्थशास्त्र ने इसे इतना ताकतवर बना दिया कि अब वह अपने पश्चिमी आकाओं के लिये भस्मासुर बन चुका है। भूमध्य सागर और टर्की के रास्ते सीरिया, लेबनान, इराक से शरणार्थियों के जत्थे पर जत्थे यूरोप की धरती पर पहुंचने लगे। दो महीने पहले ग्रीक के एक टापू कोस के तट पर सीरियाई बच्चे आयलन कुर्डी के शव ने पूरे यूरोप में शरणार्थियों के प्रति नजरिये पर एक नयी बहस की शुरूआत की थी। कई यूरोपीय देशों ने पश्चिम एशिया के शरणार्थियों को शरण देने के अपने इरादों की घोषणा की। 

लेकिन दो महीने भी नहीं बीते, 13 नवंबर को पेरिस पर हुए आतंकवादी हमले ने लगता है जैसे सारे दृश्यपट को फिर एक बार एक झटके में बदल दिया। जो यूरोप कल तक शरणार्थियों के प्रति भाव-विह्वल था, इस हमले ने शरणार्थियों को उनकी घृणा का सबसे बड़ा पात्र बना दिया। ‘मानवतावादी और सहनशील’ यूरोप की चारों दिशाओं से प्रतिशोध, प्रतिशोध और प्रतिशोध की गूंजे सुनाई दे रही है। हंटिंगटन का ‘सभ्यता का संघर्ष’ फिर सर पर चढ़ कर बोल रहा है। स्लावोय जिजेक की तरह का मार्क्सवादी कहे जाने वाला अध्येता कह रहा है -‘आइसिस के आतंकवादियों के बारे में किसी गहरी समझ की जरूरत नहीं है, उन्हें वही कहा जाना चाहिए जो वे हैं - इस्लामिक फासिस्ट। जिजेक के मूंह से हंटिंगटन बोलने लगा है। उसका साफ मानना है कि ये शरणार्थी हमेशा पश्चिमी जीवन शैली के शत्रु बने रहेंगे, कभी यूरोपीय समाज में घुल-मिल नहीं पायेंगे। एक रूसी लेखक का उद्धरण देते हुए जिजेक ने अपने लेख में लिखा है - 
‘‘ये लोग थके हुए, क्रुद्ध और अपमानित है। इन्हें यूरोपीय मूल्यों, जीवनशैली और परंपराओं, बहु-संस्कृतिवाद या सहिष्णुता का कोई ज्ञान नहीं है। वे कभी भी यूरोप के कानूनों को नहीं मानेंगे। ...इतनी समस्याओं के साथ वे जिन देशों में आ गये हैं, उनका वे कभी भी उपकार नहीं मानेंगे, क्योंकि इन्हीं देशों ने तो पहले उनके स्वदेश में खून की नदियां बहाई है।...एंजेला मर्केल आधुनिक जर्मन समाज और यूरोप की सौगंध लेकर समस्या के लिये तैयार हो रही है...यह झूठ और मूर्खता है।’’

जिजेक यहां तक कह जाते हैं कि शरणार्थियों को लेकर भी एक अर्थशास्त्र काम कर रहा है, जो उनके प्रति सहानुभूति से पेश आने की दलीलें तैयार करवाता है। जिजेक ऐसी सभी मानवतावादी बातों को छोड़ कर आइसिस का और भी भारी हिंसा से मुकाबला करने पर बल देते हैं। 

इसप्रकार, पेरिस पर हुए इस हमले को क्यों 9/11 के बाद की परिस्थिति का दूसरा अध्याय कहा जा रहा है, इसकी एक झलक हमें स्लावोय जिजेक की बातों से मिल जाती है। पहले से ही जिस अरब दुनिया की कमर को तोड़ दिया गया है, अब इस दूसरे चरण में और भी हिंसक उपायों से कभी सभ्यता का पालना कही जाने वाली बेबिलोनिया-मेसोपोटामिया की इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिये नेस्तनाबूद किया जायेगा। पश्चिम के लोग ‘अपने’ यूरोप की नाक के तले इन पिछड़े हुए ‘जंगली और बर्बर’ लोगों को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकते ! इस पूरे क्षेत्र पर पश्चिमी देशों का प्रत्यक्ष शासन ही इनकी नियति है - ‘सभ्यता की रक्षा की अनिवार्य शर्त!’

पेरिस पर हमले के एक दिन पहले ही इराक में आतंकवादियों ने 26 लोगों की हत्या की थी, 60 को जख्मी किया। उसके एक दिन पहले लेबनान के बेरूत में 181 लोग इनके विस्फोटों से मारे गये। पाकिस्तान में पिछले महीने 107 लोग मरे। इसराइली आतंकवादियों ने पिछले महीने 56 फिलिस्तीनियों को मार डाला। लेकिन कहीं भी इन हत्याओं को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं सुनाई दी। ये आतंकवादी वही थे, जिन्होंने पेरिस पर हमला किया। लेकिन तब तक किसी को इसमें कोई इस्लामिक फासीवाद नहीं दिखाई दिया। लेकिन पेरिस पर हमले के साथ ही जैसे इस लड़ाई का पूरा चरित्र बदल गया। वैसे ही, जैसे 22 जून 1941 के दिन सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध का चरित्र बदल कर ‘जनयुद्ध’ होगया था !  पेरिस पर हमला सभ्यता पर हमला है ! अन्यथा, अब तक तो आइसिस का मामला बर्बरों का आपसी मामला और सभ्य देशों के हथियारों की बिक्री और आजमाईश का मामला भर था। 

यह है - 9/11 के बाद के अभियान के इस दूसरे चरण का लुब्बेलुबाब। जिजेक की तरह के चिंतकों को आतंकवादियों और शरणार्थियों का अर्थशास्त्र अच्छी तरह से समझ में आता है, लेकिन सामरिक-औद्योगिक गंठजोड़ के अर्थशास्त्र से वे आंख चुरा लेते हैं। पश्चिम एशिया के तेल भंडार से लेकर नाना प्रकार के खनिजों की खुली लूट के साम्राज्यवादी अर्थशास्त्र को वे बड़ी आसानी से ओझल कर देते हैं। पश्चिमी देशों पर लटक रही 2008 से भी बड़ी और घातक मंदी के अर्थशास्त्र को भी भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में 1929 की महामंदी थी। 

और, सभ्यता के मसलों को हथियारों और युद्ध के बल पर तय करने की यह मानसिकता पूरी मानव जाति के अस्तित्व के साथ कितना बड़ा खेल खेल रही है, इसका भी इन्हें जरा सा अहसास नहीं है। आज की दुनिया, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की, परमाणविक हथियारों, इस पूरी धरती का विनाश कर देने में सक्षम हथियारों की दुनिया है। जो आज भी इतिहास में बल प्रयोग की भूमिका से रोमांचित हैं, उन्हें इतिहास के वेग के वर्तमान दौर का अंदाज ही नहीं है। यह पूरी मानवता को तलवार की धार पर चलाने की तरह है। थोड़ी सी चूक हुई तो फिर इस ब्रह्मांड से मनुष्य नामक प्राणी का अस्तित्व ही खत्म हो सकता है। पूंजी का वैश्वीकरण हुआ है, लेकिन राजसत्ताओं का नहीं। राज्यों के बीच हिंसक प्रतिद्वंद्विता बनी हुई है। इसके खतरे के परिणामों का इन्हें अंदाज ही नहीं है। एक समय में रोजा लुक्सेमबर्ग ने कहा था - समाजवाद या बर्बरियत। लेकिन, सच यह है कि बर्बरियत भी तभी नसीब होगी जब मनुष्य नसीब वाला होगा ! 


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