कश्मीर की घाटियों में 'धर्म चर्चा' का एक समानांतर वैचारिक यात्रा वृत्तांत
-जगदीश्वर चतुर्वेदी की रवीन्द्रनाथ, मार्क्सवाद और धर्म संबंधी हाल की कुछ पोस्ट की प्रतिक्रिया में
-अरुण माहेश्वरी
जगदीश्वर जी, गुलमर्ग से पहलगाम के रास्ते में एक जाम में फँस कर आपके रवीन्द्रनाथ और धर्म विषयक लंबे लेख को पूरा पढ़ गया था । उसमें रवीन्द्रनाथ की धर्म चर्चा के संदर्भ में कतिपय मार्क्सवादियों और क्रांतिकारियों पर भी टीका-टिप्पणियाँ की गई थी । तभी, रास्ते से ही आपके लेख पर फेसबुक में मैंने एक छोटी सी टिप्पणी की थी और रवीन्द्रनाथ की बौद्धिक संरचना के गठन में भारतीय उपनिषदों की भूमिका को समझने पर ज़ोर दिया था ।
कोई भी बड़ा विचारक रातों-रात या जन्मजात बड़ा नहीं होता है । उसके पूरे वैचारिक व्यक्तित्व के विकास का अपना एक क्रम होता है । वह लगातार अपनी ही कई पूर्वधारणाओं को ख़ारिज करता हुआ कैसे विचार के नये क्षितिज खोलता है, उसी में उसका बड़प्पन निहित होता है । मैंने अपनी उस तात्कालिक प्रतिक्रिया में लिखा था -
"अभी पहलगाम के रास्ते में जाम में यह पूरा लेख पढ़ गया । पहलगाम पहुँच कर होटल में स्थिर होकर इस विषय पर जरूर आज कल में ही लिखूँगा । रवीन्द्रनाथ बचपन से ही औपनिषदिक ब्रह्म-चिंतन के परिवेश में संस्कारित हुए थे । उनकी यह पूरी चिंतन प्रणाली वेदांत की दीर्घ धारा से नि:सृत है । यह हेगेलियन भाववाद से ज़रा भी भिन्न नहीं है । हेगेल का परम विचार ही वेदांत का ब्रह्म दर्शन है । इस भाववादी द्वंद्ववाद में मानव मन की गहराइयों के प्रवेश के सारे उपादान मौजूद है । बिना इस द्वंद्वात्मकता के मनुष्य को समझा ही नहीं जा सकता है । मार्क्सवादी दर्शन ने इस द्वंद्ववाद को पूरी तरह से अपनाया है । इसीलिये एक विचारधारा के रूप में उसमें हर प्रकार के जड़सूत्रवाद से लड़ने की आंतरिक शक्ति और सामर्थ्य है । हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद से मार्क्सवादी भौतिकवादी द्वंद्ववाद में जो बुनियादी फर्क है, वह मानव जीवन पर उससे स्वतंत्र भौतिक परिस्थितियों के प्रभाव को लेकर है । मार्क्सवाद उसके प्रभाव की प्रमुखता को स्वीकारने के कारण उसे बदलने की सचेत कार्रवाइयों पर बल देता है । इसीलिये वह क्रांतिकारी भी है । इसीलिये सही कहा गया है कि मार्क्स ने हेगेल को, जो सिर के बल खड़ा था, पैर के बल खड़ा किया, लेकिन उसे ठुकराया नहीं था, बल्कि अपनाया था । इससे वेदांत के साथ हमारे व्यवहार का भी दिशा-निर्देश मिल सकता है ।
"बहरहाल, शांति से रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि को उसके मूल से समझना और भी ज्यादा दिलचस्प है और कब और कैसे खुद रवीन्द्रनाथ उसका अपने लेखन और चिंतन में अतिक्रमण करते हैं , यह भी देखने की चीज है । और यह तभी संभव हुआ है क्योंकि रवीन्द्रनाथ मूलत: एक लेखक थे और बदलते हुए मानव जीवन का संधान उनके लेखन कर्म का अभिन्न हिस्सा था ।
"रवीन्द्रनाथ का महत्व इसमें है कि वे एक साहित्यकार है जिनके पास गहरे तात्विक विषयों में प्रवेश की अन्तरदृष्टि होने के नाते उनकी रचनाएँ बेहद स्थाई महत्व की होती है । यह संयोग दुनिया में बहुत कम मिलता है । इस मामले में उनकी तुलना श्रेष्ठ मार्क्सवादी लेखकों से ही की जा सकती है । अगर वे लेखक न होते तो उनके वैचारिक भाषणों का दूसरे अनेक आध्यात्मिक गुरुओं से शायद ही कोई विशेष मान होता । "
जहाँ तक रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि और उनके चिंतन के विकास के क्रम का सवाल है , उनकी 150वीं जयंती पर अपने लेख 'रवीन्द्रनाथ की आध्यात्मिक पर आधारित विश्वदृष्टि' में मैंनें काफी विस्तार से, उनकी रचनाओं और लेखों के सिलसिलेवार उद्धरणों के साथ चर्चा की है । फेसबुक की बदौलत, इस रवीन्द्र जयंती के मौक़े पर हमने परसों ही उसे अपने ब्लाग के ज़रिये मित्रों से साझा किया था ।
आज सुबह-सुबह, इसी से जुड़ी आपकी एक और टिप्पणी 'मार्क्स और धर्म' को फेसबुक पर देखा । मार्क्स अपने वैचारिक जीवन के प्रारंभ के कई वर्षों तक जिस एक विषय से जूझते रहे थे, वह विषय धर्म ही था । जब तक उन्होंने इस विषय से जुड़े तमाम दार्शनिक और सामाजिक पक्षों को खंगाल कर पूरी तरह से जान नहीं लिया, वे अपने परवर्ती चिंतन की दिशा में एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा पाये थे । मार्क्स के बारे में अध्ययन का स्वयं में यह एक बेहद दिलचस्प पहलू है । हमने इसकी गहराई से पड़ताल करके 'उत्तरगाथा' पत्रिका में धर्म के विषय में चली एक बहस को समेटते हुए उसी पत्रिका में एक लंबा लेख लिखा था - 'धर्म और मार्क्स' । उस बात को काफी साल बीत चुके हैं । जहाँ तक मुझे याद है उस बहस में भी हिंदी के कई नामी-गिरामी लेखकों ने हिस्सा लिया था, जैसे आपने अपने लेख में उदयप्रकाश की बातों का हवाला दिया है । हमारा वही लेख हमारी किताब 'चतुर्दिक 2, धर्म, संस्कृति और राजनीति' का पहला लेख है । उस लेख के क्रम में जो बात हमारे सामने आई, वह यही थी कि धर्म के प्रति मार्क्स के दृष्टिकोण और अन्य घोषित नास्तिकतावादियों के दृष्टिकोण में कुछ बुनियादी फर्क है । इसके अलावा हमने यह भी पाया कि जब कोई व्यक्ति किसी विषय को पूरी गहराई में जाकर उसे आद्योपांत जान लेता है, तभी वह उस विषय से पूरी तरह से मुक्त भी हो जाता है । मार्क्स सालों तक इस विषय से जूझते रहे और जब वे इसके सारे रहस्य को भेद कर राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन और अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के विकास की दिशा में बढ़ गये तो फिर कभी उन्होंने धर्म के विषय की ओर मुड़ कर देखा तक नहीं । यह खुद में एक बहुत दिलचस्प तथ्य ही नहीं है, बल्कि पूरे मानव चिंतन को दी गई उनकी एक सबसे बड़ी सौग़ात है । उन्होंने मनुष्य को धर्म नामक तत्व से सदा के लिये मुक्ति पाने का एक सैद्धांतिक आधार प्रदान कर दिया । मार्क्स के बाद धार्मिक विमर्श कोई अंतिम विमर्श नहीं, बल्कि मानव चिंतन के विकास की एक और कड़ी भर बन कर रह गया, जिसके हज़ारों सालों के एकाधिपत्य को देखते हुए आप एक काफी महत्वपूर्ण कड़ी जरूर कह सकते हैं ।
बहरहाल, रवीन्द्रनाथ और धर्म के विषय में आपके लेख की उत्तेजक टिप्पणियों ने मुझे धर्म और मार्क्सवाद के अलावा भारतीय चिंतन में धर्म के स्थान के बारे में अभी कुछ लिखने के लिये उत्तेजित किया था । अपनी उक्त तात्कालिक प्रतिक्रिया में हमने यही कहा था कि आगे यात्रा में फ़ुर्सत निकाल कर इस विषय पर कुछ विस्तार से लिखना चाहूँगा । रवीन्द्रनाथ और उपनिषदों के बारे में हमारी बात तो उनकी 150वीं जयंती पर लिखे गये लेख में आ ही गई है । इसी प्रकार 'मार्क्स और धर्म' लेख में इस विषय पर मार्क्स के दृष्टिकोण पर काफी विस्तार से लिखा जा चुका है । अब रही बात 'भारतीय चिंतन में धर्म' की ।
'पर्यटनवाद जिंदाबाद' के नारे के अपने सुख और इसकी गहमा-गहमी के बीच स्वाभाविक यही था कि हम एक प्रकार की विचार-शून्य आध्यात्मिकता की शरण में चले जाते । लेकिन पता नहीं क्यों , आपके लेख का विषय इस परिवेश में भी हमें घेरे रहा है और अभी तो इस पर सोचना एक प्रकार के प्रीतिकर भटकाव जैसा लग रहा है । संभव है, इसमें शायद इस कश्मीर घाटी का भी कुछ अपना योगदान भी है । क्योंकि जब श्रीनगर की एक पहाड़ी के शिखर पर दूर से ही हमने शंकराचार्य के भव्य मठ की झलक देखी, तभी हमारे दिमाग़ में इस घाटी में बस गये भारत के एक श्रेष्ठतम दार्शनिक, तांत्रिक, सौन्दर्यशास्त्री, तर्कशास्त्री, संगीतकार, कवि और नाटककार अभिनवगुप्त और उनके शैवमत और अद्वैत की भव्यता की भी याद आगई थी ।
आज दुनिया के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक किसी भी संक्रमण के बिंदु को एक ऐसी घटना के रूप में देखते है जो सिर्फ नये भविष्य का ही निर्माण नहीं करती, बल्कि उलट कर अतीत की गहरी गुहा में जा कर उसके भी पूरी तरह से एक नये आख्यान की रचना करती है । इस प्रकार संक्रमणकारी घटना अतीत की भी पुनर्रचना करती है, तमाम पूर्व-धारणाओं को नये सिरे से परिभाषित करती है । जिजेक इसे हेगेल की शब्दावली में एक 'परम प्रत्यावर्तन '(Absolute Recoil) कहते हैं और सबसे अधिक ग़ौर करने लायक बात यह है कि वे इसी 'परम प्रत्यावर्तन' में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नये रूप को स्थापित करने का दावा करते हैं । अभिनवगुप्त का 'प्रत्याभिज्ञान' भी तो बिल्कुल यही, एक प्रत्यावर्तन ही तो था । उन्होंने भी संक्रमण को सिर्फ वर्तमान के संदर्भ में नहीं, बल्कि अतीत तक गहरे धस कर वर्तमान के तमाम संदर्भों को नए रूप में परिभाषित करने की शक्ति के रूप में देखा था । मज़े की बात यह है कि अभिनवगुप्त के इसी दर्शन से, परिवर्तन के बिंदु से अर्जित शक्ति और बौद्ध दर्शन के वज्रयान के योग से आगे उनकी तंत्र विद्या का विकास हुआ - इस शक्ति ने सिद्धि और विभूति के ज़रिये चमत्कारी तंत्र विद्या को जन्म दिया । अभिनवगुप्त के 'तंत्रलोक' में परिवर्तन के संयोग का यह बिंदु, जहाँ से जीवन और विचार का एक नया लोक उद्घाटित होता है, संभोग के क्षण में बदल जाता है । स्त्री को पुरुष की शक्ति का केंद्र बना कर उसमें प्रवेश से वे पुरुष की आत्मोपलब्धि, खुद के पुनर्राविस्कार की तांत्रिकता का शास्त्र तैयार करते है, और हम जानते ही हैं कि परवर्ती समय में इस तंत्र विद्या के तहत स्त्री के शरीर के साथ कितने प्रकार के विकट और विकृत प्रयोगों का एक सिलसिला हमारे यहाँ शुरू हो जाता है । सचमुच यह देख कर आश्चर्य होता है कि जिजेक भी अपने दार्शनिक विमर्श में बेहिचक पोर्नोग्राफ़ी के प्रसंगों का धड़ल्ले से प्रयोग करने के लिये काफी बदनाम है !
बहरहाल, धर्म संबंधी चर्चा के क्रम में अभिनवगुप्त, उनके 'प्रत्याभिज्ञान' और तंत्रविद्या और जिजेक तथा उनके 'परम प्रत्यावर्तन ' और पोर्नोग्राफ़ी की इस अनायास और किंचित अप्रासंगिक सी दिखाई दे रही चर्चा के बावजूद जब हम भारतीय चिंतन के संदर्भ में धर्म की स्थिति के बारे में सोचते हैं तो यह उतनी अप्रासंगिक भी नहीं जान पड़ती है । 'प्रत्याभिज्ञान' का एक दार्शनिक पहलू था और तंत्र विद्या के रूप में उसका एक भ्रष्ट कर्मकांडी रूप सामने आया था । कमोबेस इसी प्रकार भारतीय चिंतन में भी धर्म का कोई एक ही निश्चित रूप नहीं रहा है -दर्शनशास्त्रीय स्तर पर भी और कर्मकांडी स्तर पर भी । उपरोक्त चर्चा के प्रारंभ से ही एक बात तो साफ़ है कि रिलीजन या वर्च्यूज के जिस अर्थ में आज धर्म को देखा जाता है, वैसा सुदूर अतीत में न पश्चिम में था और न ही भारतीय चिंतन में । एक लंबे काल तक दोनों जगह धार्मिक और दार्शनिक विमर्श के बीच कोई फर्क नहीं था । वह मनुष्य की पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक जिज्ञासाओं के भी केंद्र में था । हेगेल का 'परम विचार' तक कहीं न कहीं ईश्वर से जुड़ता था और व्यवहार के धरातल पर राज्य के संचालक के नाते राजा में ईश्वर के अंश को देखता था । इसप्रकार कहीं भी धर्म का कोई एक रूढ़ स्वरूप नहीं रहा है ।
कुमारिल के 'मीमांसा सूत्र' का पहला वाक्य ही है - 'अथातो धर्म-जिज्ञासा' - अर्थात धर्म के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा । उनकी इस धर्म-जिज्ञासा में वेदों का सबसे केंद्रीय स्थान था । उनके यहाँ धर्म का मतलब है वैदिक आदेश-निर्देश, वैदिक यज्ञ और इनसे भी महत्वपूर्ण है वैदिक विधि-निषेध । इसे आदमी के मंगल का अंतिम, अत्यांतिक मार्ग माना गया, तमाम संदेहों और प्रश्नों से परे । स्वर्गादि शुभ फलों के प्रदाता वैदिक यज्ञों के रूप में जब वे धर्म की विस्तृत व्याख्या करते हैं तो उससे यही जाहिर होता है कि दूरदर्शितापूर्ण कार्यों से वांछित फल की प्राप्ति ही धर्म है, बशर्ते इसे प्राप्त करने में वैदिक विधि-निषेधों का बाक़ायदा पालन किया गया हो । मसलन्, आदमी को चोट पहुँचाना अवांछनीय है, इसीलिये शत्रु को चोट पहुँचाना भी धर्म नहीं है । इस धर्म को श्रुति के द्वारा विधि-निषेधों से जाना जा सकता है ।
इस प्रकार साफ़ है कि मीमांसक कुमारिल की धर्म की अवधारणा में ईश्वर या किसी रहस्यवादी धार्मिक भावावेश का कोई स्थान नहीं था । इसमें किसी प्रकार के संवेगों, रहस्यात्मकता भावों या बुद्धि या विचारों का भी कोई ख़ास स्थान नहीं था । यह मूलत: श्रुति-आदेशों के निष्ठापूर्ण पालन से जुड़ा हुआ कार्य था । इसमें अहिंसा का एक स्थायी तत्व जरूर था, जो जीने और जीने दो की मानव जीवन की एक बुनियादी शर्त थी । वेदों पर इसकी निर्भरशीलता सिर्फ विधि-निषेधों के ज्ञान के लिये थी, और किसी वजह से नहीं । शत्रु की हत्या से एक व्यक्ति को तात्कालिक सुख मिलने पर भी वैदिक आदेशों से वर्जित होने के कारण उससे भविष्य में अनिवार्यत: दुख पैदा होगा, इसीलिये उसे उन्होंने धर्म के बाहर ही रखा था ।
कहने का मतलब यह है कि धर्म के इस रूप में किसी प्रकार के रहस्यवाद के लिये कोई जगह नहीं थी । मुझे लगता है, वेदों और धर्म के इस रूप के संबंधों की मोटे तौर पर एक तुलना आज के संविधान और उसके क़ानूनी प्राविधानों से की जा सकती है । परवर्ती स्मृतियों में धर्म के इस विचार का नाना प्रकार की नैतिकताओं और सद्गुणों के रूप में विकास होता चला गया । इस मामले में स्थिति यहाँ तक चली गई थी कि यदि कोई कार्य वांछित है, जिसकी बुद्धि और विवेक अनुमति देता है, तो उसकी पुष्टि वेदों अथवा स्मृति पुराणों में न होने पर भी इस बिनाह पर उसे धर्म माना जाने लगा कि उसका उल्लेख वेदों में हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं दे रहा है ।
इस प्रकार, भारतीय चिंतन में वैदिक आदेशों के पालन, सत्य और अहिंसा के नैतिक सद्गुणों और आत्म- ज्ञान की यौगिक क्रियाओं के रूप में धर्म संबंधी अवधारणाओं के विकास की अपनी यह एक अलग और लंबी कहानी है जिसे हम आज तक 'मानव धर्म' के रूप में दोहराते रहते हैं । लेकिन भारतीय पुराणों में भागवत पुराण इस विषय के एक और ही नये पहलू को सामने लाता है । इसमें ईश्वर भक्ति और उपासना के पहलू को धर्म के एक सर्वप्रमुख पहलू के रूप में रखा जाता है । भागवत में कहा गया है कि ईश्वर की 'अहैतुक' और 'अप्रतिहत' भक्ति ही धर्म है । यह भारतीय दर्शन के इतिहास में धर्म के बारे में विचार की एक बिल्कुल नई दिशा कही जा सकती है । ईश्वर भक्ति को न उत्पन्न करने वाले धर्म को इसमें 'निष्फल धर्म' बताया गया है । वैदिक आदेशों से चालित धर्म को तात्कालिक सुख का प्रदाता बताया गया । स्थायी और परम सुख तो सिर्फ ईश्वर भक्ति से हासिल किया जा सकता है । इसे वैदिक धर्म से उत्कृष्ट माना गया ।
भागवत के पहले श्लोक में ही 'परम सत्य' की आराधना की गई है , जो परमेश्वर ही है । इसे ही ब्रह्मन, परमात्मन् आदि कई नामों से पुकारा जाने लगा । इस अरूप ब्रह्मन में एक मायावी शक्ति को, तमाम प्रकार की सृष्टियों की शक्ति को देखा जाने लगा । भागवत में कई जगह परमेश्वर की चर्चा शुद्ध चैतन्य के रूप में की गई है । इस प्रकार, परमेश्वर का आंतरिक सत्य, उसका शुद्ध चैतन्य रूप, उसकी बाहरी सत्ता 'माया' और अन्य तमाम जीवों में अधिष्ठित उसकी सत्ता के एक त्रिगुणात्मक रूप में ब्रह्मन को देखा गया । इसके साथ ही दिक्-काल से मुक्त वैकुण्ठ की कल्पना की गई जहाँ इस परमेश्वर का वास है । और, परम सत्य, जिसे परम सत्ता कहा गया, उसके सगुण रूपों की कल्पनाओं से उस पूरे धर्म व्यवसाय की पैदाईश होती है जो मंदिरों, मठों, गिरजाघरों और मस्जिदों की तरह के नये वर्चस्वकारी सत्ता केंद्रों के विकास तक जाता है , जिसे हम धर्म के शुद्ध कर्मकांडी रूप में आज अपने जीवन में देखते हैं ।
जगदीश्वर जी, इस चर्चा का सिर्फ यही मतलब है कि आपने अपने लेख में जिस प्रकार से भारतीय चिंतन में धर्म के एक साधारण और सर्वकालिक रूप की चर्चा करते हुए उसे अपनाने की बात की है , वह यथार्थ में बिल्कुल भी वैसा सुनिश्चित नहीं है, न भारतीय चिंतन की परंपरा में और न ही हमारे जीवन की ठोस वास्तविकता में । यदि हम इसकी चर्चा 'मानव धर्म' की अवधारणा के रूप में करना चाहे तो आज के राष्ट्रीय राज्य में इस धर्म का अकेला वैदिक ग्रंथ राज्य का संविधान होता है । मनुष्य के सामाजिक आचरण उसके आदेशों - निर्देशों से चालित होते हैं । चूँकि हम राष्ट्रीय जनतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे है, इसलिये हम अपने संविधान की बात करते है । इसे ही यदि आप वैश्विक संदर्भ में देखना चाहे तो इसमें एक ओर आज की पूँजीवादी वैश्विकता के क़ायदे- क़ानून है और दूसरी ओर मार्क्सवादी अन्तरराष्ट्रीयतावाद है, पूरे मानव जीवन और सोच- विचार को बिल्कुल नये रूप में ढालने की शक्ति का विचार - जीवन के क्रांतिकारी रूपांतरण का विचार, वास्तविक संक्रमणकारी विचार । हमारे अनुसार तो आज के समय में परम प्रत्यावर्तन किसी धर्म से नहीं, इस नये सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावादी प्रत्यय और इससे जुड़े लगातार प्रयोगों से ही मुमकिन है ।
जगदीश्वर जी, एक प्रवाह में, पहलगाम की परम शांत वादियों में, धर्म की तरह के विषय पर हमने यह एक काफी लंबी यात्रा कर ली है । मैं नहीं जानता इसमें कितना कह पाया हूँ, कितना नहीं । और प्रामाणिकता के पहलू तो अलग है ही । कोलकाता लौट कर अपने इस नोट पर ज्यादा प्रामाणिक तथ्यों के साथ काम करने की कोशिश करूँगा । फिर भी अपने इस नोट को तमाम मित्रों से उसी प्रकार साझा कर रहा हूँ, जिस प्रकार पिछले पाँच दिनों से इन वादियों की ख़ुशगवार तस्वीरों को साझा करता रहा हूँ । सचित्र यात्रा वृतांत के साथ इस प्रकार की विचार-यात्रा के सुख भी कम नहीं हैं । उम्मीद है मित्रों भी कुछ ऐसा ही लगेगा ।
इस प्रकार की वैचारिक उत्तेजना देने के लिये आपको बहुत धन्यवाद ।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी की रवीन्द्रनाथ, मार्क्सवाद और धर्म संबंधी हाल की कुछ पोस्ट की प्रतिक्रिया में
-अरुण माहेश्वरी
जगदीश्वर जी, गुलमर्ग से पहलगाम के रास्ते में एक जाम में फँस कर आपके रवीन्द्रनाथ और धर्म विषयक लंबे लेख को पूरा पढ़ गया था । उसमें रवीन्द्रनाथ की धर्म चर्चा के संदर्भ में कतिपय मार्क्सवादियों और क्रांतिकारियों पर भी टीका-टिप्पणियाँ की गई थी । तभी, रास्ते से ही आपके लेख पर फेसबुक में मैंने एक छोटी सी टिप्पणी की थी और रवीन्द्रनाथ की बौद्धिक संरचना के गठन में भारतीय उपनिषदों की भूमिका को समझने पर ज़ोर दिया था ।
कोई भी बड़ा विचारक रातों-रात या जन्मजात बड़ा नहीं होता है । उसके पूरे वैचारिक व्यक्तित्व के विकास का अपना एक क्रम होता है । वह लगातार अपनी ही कई पूर्वधारणाओं को ख़ारिज करता हुआ कैसे विचार के नये क्षितिज खोलता है, उसी में उसका बड़प्पन निहित होता है । मैंने अपनी उस तात्कालिक प्रतिक्रिया में लिखा था -
"अभी पहलगाम के रास्ते में जाम में यह पूरा लेख पढ़ गया । पहलगाम पहुँच कर होटल में स्थिर होकर इस विषय पर जरूर आज कल में ही लिखूँगा । रवीन्द्रनाथ बचपन से ही औपनिषदिक ब्रह्म-चिंतन के परिवेश में संस्कारित हुए थे । उनकी यह पूरी चिंतन प्रणाली वेदांत की दीर्घ धारा से नि:सृत है । यह हेगेलियन भाववाद से ज़रा भी भिन्न नहीं है । हेगेल का परम विचार ही वेदांत का ब्रह्म दर्शन है । इस भाववादी द्वंद्ववाद में मानव मन की गहराइयों के प्रवेश के सारे उपादान मौजूद है । बिना इस द्वंद्वात्मकता के मनुष्य को समझा ही नहीं जा सकता है । मार्क्सवादी दर्शन ने इस द्वंद्ववाद को पूरी तरह से अपनाया है । इसीलिये एक विचारधारा के रूप में उसमें हर प्रकार के जड़सूत्रवाद से लड़ने की आंतरिक शक्ति और सामर्थ्य है । हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद से मार्क्सवादी भौतिकवादी द्वंद्ववाद में जो बुनियादी फर्क है, वह मानव जीवन पर उससे स्वतंत्र भौतिक परिस्थितियों के प्रभाव को लेकर है । मार्क्सवाद उसके प्रभाव की प्रमुखता को स्वीकारने के कारण उसे बदलने की सचेत कार्रवाइयों पर बल देता है । इसीलिये वह क्रांतिकारी भी है । इसीलिये सही कहा गया है कि मार्क्स ने हेगेल को, जो सिर के बल खड़ा था, पैर के बल खड़ा किया, लेकिन उसे ठुकराया नहीं था, बल्कि अपनाया था । इससे वेदांत के साथ हमारे व्यवहार का भी दिशा-निर्देश मिल सकता है ।
"बहरहाल, शांति से रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि को उसके मूल से समझना और भी ज्यादा दिलचस्प है और कब और कैसे खुद रवीन्द्रनाथ उसका अपने लेखन और चिंतन में अतिक्रमण करते हैं , यह भी देखने की चीज है । और यह तभी संभव हुआ है क्योंकि रवीन्द्रनाथ मूलत: एक लेखक थे और बदलते हुए मानव जीवन का संधान उनके लेखन कर्म का अभिन्न हिस्सा था ।
"रवीन्द्रनाथ का महत्व इसमें है कि वे एक साहित्यकार है जिनके पास गहरे तात्विक विषयों में प्रवेश की अन्तरदृष्टि होने के नाते उनकी रचनाएँ बेहद स्थाई महत्व की होती है । यह संयोग दुनिया में बहुत कम मिलता है । इस मामले में उनकी तुलना श्रेष्ठ मार्क्सवादी लेखकों से ही की जा सकती है । अगर वे लेखक न होते तो उनके वैचारिक भाषणों का दूसरे अनेक आध्यात्मिक गुरुओं से शायद ही कोई विशेष मान होता । "
जहाँ तक रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि और उनके चिंतन के विकास के क्रम का सवाल है , उनकी 150वीं जयंती पर अपने लेख 'रवीन्द्रनाथ की आध्यात्मिक पर आधारित विश्वदृष्टि' में मैंनें काफी विस्तार से, उनकी रचनाओं और लेखों के सिलसिलेवार उद्धरणों के साथ चर्चा की है । फेसबुक की बदौलत, इस रवीन्द्र जयंती के मौक़े पर हमने परसों ही उसे अपने ब्लाग के ज़रिये मित्रों से साझा किया था ।
आज सुबह-सुबह, इसी से जुड़ी आपकी एक और टिप्पणी 'मार्क्स और धर्म' को फेसबुक पर देखा । मार्क्स अपने वैचारिक जीवन के प्रारंभ के कई वर्षों तक जिस एक विषय से जूझते रहे थे, वह विषय धर्म ही था । जब तक उन्होंने इस विषय से जुड़े तमाम दार्शनिक और सामाजिक पक्षों को खंगाल कर पूरी तरह से जान नहीं लिया, वे अपने परवर्ती चिंतन की दिशा में एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा पाये थे । मार्क्स के बारे में अध्ययन का स्वयं में यह एक बेहद दिलचस्प पहलू है । हमने इसकी गहराई से पड़ताल करके 'उत्तरगाथा' पत्रिका में धर्म के विषय में चली एक बहस को समेटते हुए उसी पत्रिका में एक लंबा लेख लिखा था - 'धर्म और मार्क्स' । उस बात को काफी साल बीत चुके हैं । जहाँ तक मुझे याद है उस बहस में भी हिंदी के कई नामी-गिरामी लेखकों ने हिस्सा लिया था, जैसे आपने अपने लेख में उदयप्रकाश की बातों का हवाला दिया है । हमारा वही लेख हमारी किताब 'चतुर्दिक 2, धर्म, संस्कृति और राजनीति' का पहला लेख है । उस लेख के क्रम में जो बात हमारे सामने आई, वह यही थी कि धर्म के प्रति मार्क्स के दृष्टिकोण और अन्य घोषित नास्तिकतावादियों के दृष्टिकोण में कुछ बुनियादी फर्क है । इसके अलावा हमने यह भी पाया कि जब कोई व्यक्ति किसी विषय को पूरी गहराई में जाकर उसे आद्योपांत जान लेता है, तभी वह उस विषय से पूरी तरह से मुक्त भी हो जाता है । मार्क्स सालों तक इस विषय से जूझते रहे और जब वे इसके सारे रहस्य को भेद कर राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन और अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के विकास की दिशा में बढ़ गये तो फिर कभी उन्होंने धर्म के विषय की ओर मुड़ कर देखा तक नहीं । यह खुद में एक बहुत दिलचस्प तथ्य ही नहीं है, बल्कि पूरे मानव चिंतन को दी गई उनकी एक सबसे बड़ी सौग़ात है । उन्होंने मनुष्य को धर्म नामक तत्व से सदा के लिये मुक्ति पाने का एक सैद्धांतिक आधार प्रदान कर दिया । मार्क्स के बाद धार्मिक विमर्श कोई अंतिम विमर्श नहीं, बल्कि मानव चिंतन के विकास की एक और कड़ी भर बन कर रह गया, जिसके हज़ारों सालों के एकाधिपत्य को देखते हुए आप एक काफी महत्वपूर्ण कड़ी जरूर कह सकते हैं ।
बहरहाल, रवीन्द्रनाथ और धर्म के विषय में आपके लेख की उत्तेजक टिप्पणियों ने मुझे धर्म और मार्क्सवाद के अलावा भारतीय चिंतन में धर्म के स्थान के बारे में अभी कुछ लिखने के लिये उत्तेजित किया था । अपनी उक्त तात्कालिक प्रतिक्रिया में हमने यही कहा था कि आगे यात्रा में फ़ुर्सत निकाल कर इस विषय पर कुछ विस्तार से लिखना चाहूँगा । रवीन्द्रनाथ और उपनिषदों के बारे में हमारी बात तो उनकी 150वीं जयंती पर लिखे गये लेख में आ ही गई है । इसी प्रकार 'मार्क्स और धर्म' लेख में इस विषय पर मार्क्स के दृष्टिकोण पर काफी विस्तार से लिखा जा चुका है । अब रही बात 'भारतीय चिंतन में धर्म' की ।
'पर्यटनवाद जिंदाबाद' के नारे के अपने सुख और इसकी गहमा-गहमी के बीच स्वाभाविक यही था कि हम एक प्रकार की विचार-शून्य आध्यात्मिकता की शरण में चले जाते । लेकिन पता नहीं क्यों , आपके लेख का विषय इस परिवेश में भी हमें घेरे रहा है और अभी तो इस पर सोचना एक प्रकार के प्रीतिकर भटकाव जैसा लग रहा है । संभव है, इसमें शायद इस कश्मीर घाटी का भी कुछ अपना योगदान भी है । क्योंकि जब श्रीनगर की एक पहाड़ी के शिखर पर दूर से ही हमने शंकराचार्य के भव्य मठ की झलक देखी, तभी हमारे दिमाग़ में इस घाटी में बस गये भारत के एक श्रेष्ठतम दार्शनिक, तांत्रिक, सौन्दर्यशास्त्री, तर्कशास्त्री, संगीतकार, कवि और नाटककार अभिनवगुप्त और उनके शैवमत और अद्वैत की भव्यता की भी याद आगई थी ।
आज दुनिया के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक किसी भी संक्रमण के बिंदु को एक ऐसी घटना के रूप में देखते है जो सिर्फ नये भविष्य का ही निर्माण नहीं करती, बल्कि उलट कर अतीत की गहरी गुहा में जा कर उसके भी पूरी तरह से एक नये आख्यान की रचना करती है । इस प्रकार संक्रमणकारी घटना अतीत की भी पुनर्रचना करती है, तमाम पूर्व-धारणाओं को नये सिरे से परिभाषित करती है । जिजेक इसे हेगेल की शब्दावली में एक 'परम प्रत्यावर्तन '(Absolute Recoil) कहते हैं और सबसे अधिक ग़ौर करने लायक बात यह है कि वे इसी 'परम प्रत्यावर्तन' में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नये रूप को स्थापित करने का दावा करते हैं । अभिनवगुप्त का 'प्रत्याभिज्ञान' भी तो बिल्कुल यही, एक प्रत्यावर्तन ही तो था । उन्होंने भी संक्रमण को सिर्फ वर्तमान के संदर्भ में नहीं, बल्कि अतीत तक गहरे धस कर वर्तमान के तमाम संदर्भों को नए रूप में परिभाषित करने की शक्ति के रूप में देखा था । मज़े की बात यह है कि अभिनवगुप्त के इसी दर्शन से, परिवर्तन के बिंदु से अर्जित शक्ति और बौद्ध दर्शन के वज्रयान के योग से आगे उनकी तंत्र विद्या का विकास हुआ - इस शक्ति ने सिद्धि और विभूति के ज़रिये चमत्कारी तंत्र विद्या को जन्म दिया । अभिनवगुप्त के 'तंत्रलोक' में परिवर्तन के संयोग का यह बिंदु, जहाँ से जीवन और विचार का एक नया लोक उद्घाटित होता है, संभोग के क्षण में बदल जाता है । स्त्री को पुरुष की शक्ति का केंद्र बना कर उसमें प्रवेश से वे पुरुष की आत्मोपलब्धि, खुद के पुनर्राविस्कार की तांत्रिकता का शास्त्र तैयार करते है, और हम जानते ही हैं कि परवर्ती समय में इस तंत्र विद्या के तहत स्त्री के शरीर के साथ कितने प्रकार के विकट और विकृत प्रयोगों का एक सिलसिला हमारे यहाँ शुरू हो जाता है । सचमुच यह देख कर आश्चर्य होता है कि जिजेक भी अपने दार्शनिक विमर्श में बेहिचक पोर्नोग्राफ़ी के प्रसंगों का धड़ल्ले से प्रयोग करने के लिये काफी बदनाम है !
बहरहाल, धर्म संबंधी चर्चा के क्रम में अभिनवगुप्त, उनके 'प्रत्याभिज्ञान' और तंत्रविद्या और जिजेक तथा उनके 'परम प्रत्यावर्तन ' और पोर्नोग्राफ़ी की इस अनायास और किंचित अप्रासंगिक सी दिखाई दे रही चर्चा के बावजूद जब हम भारतीय चिंतन के संदर्भ में धर्म की स्थिति के बारे में सोचते हैं तो यह उतनी अप्रासंगिक भी नहीं जान पड़ती है । 'प्रत्याभिज्ञान' का एक दार्शनिक पहलू था और तंत्र विद्या के रूप में उसका एक भ्रष्ट कर्मकांडी रूप सामने आया था । कमोबेस इसी प्रकार भारतीय चिंतन में भी धर्म का कोई एक ही निश्चित रूप नहीं रहा है -दर्शनशास्त्रीय स्तर पर भी और कर्मकांडी स्तर पर भी । उपरोक्त चर्चा के प्रारंभ से ही एक बात तो साफ़ है कि रिलीजन या वर्च्यूज के जिस अर्थ में आज धर्म को देखा जाता है, वैसा सुदूर अतीत में न पश्चिम में था और न ही भारतीय चिंतन में । एक लंबे काल तक दोनों जगह धार्मिक और दार्शनिक विमर्श के बीच कोई फर्क नहीं था । वह मनुष्य की पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक जिज्ञासाओं के भी केंद्र में था । हेगेल का 'परम विचार' तक कहीं न कहीं ईश्वर से जुड़ता था और व्यवहार के धरातल पर राज्य के संचालक के नाते राजा में ईश्वर के अंश को देखता था । इसप्रकार कहीं भी धर्म का कोई एक रूढ़ स्वरूप नहीं रहा है ।
कुमारिल के 'मीमांसा सूत्र' का पहला वाक्य ही है - 'अथातो धर्म-जिज्ञासा' - अर्थात धर्म के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा । उनकी इस धर्म-जिज्ञासा में वेदों का सबसे केंद्रीय स्थान था । उनके यहाँ धर्म का मतलब है वैदिक आदेश-निर्देश, वैदिक यज्ञ और इनसे भी महत्वपूर्ण है वैदिक विधि-निषेध । इसे आदमी के मंगल का अंतिम, अत्यांतिक मार्ग माना गया, तमाम संदेहों और प्रश्नों से परे । स्वर्गादि शुभ फलों के प्रदाता वैदिक यज्ञों के रूप में जब वे धर्म की विस्तृत व्याख्या करते हैं तो उससे यही जाहिर होता है कि दूरदर्शितापूर्ण कार्यों से वांछित फल की प्राप्ति ही धर्म है, बशर्ते इसे प्राप्त करने में वैदिक विधि-निषेधों का बाक़ायदा पालन किया गया हो । मसलन्, आदमी को चोट पहुँचाना अवांछनीय है, इसीलिये शत्रु को चोट पहुँचाना भी धर्म नहीं है । इस धर्म को श्रुति के द्वारा विधि-निषेधों से जाना जा सकता है ।
इस प्रकार साफ़ है कि मीमांसक कुमारिल की धर्म की अवधारणा में ईश्वर या किसी रहस्यवादी धार्मिक भावावेश का कोई स्थान नहीं था । इसमें किसी प्रकार के संवेगों, रहस्यात्मकता भावों या बुद्धि या विचारों का भी कोई ख़ास स्थान नहीं था । यह मूलत: श्रुति-आदेशों के निष्ठापूर्ण पालन से जुड़ा हुआ कार्य था । इसमें अहिंसा का एक स्थायी तत्व जरूर था, जो जीने और जीने दो की मानव जीवन की एक बुनियादी शर्त थी । वेदों पर इसकी निर्भरशीलता सिर्फ विधि-निषेधों के ज्ञान के लिये थी, और किसी वजह से नहीं । शत्रु की हत्या से एक व्यक्ति को तात्कालिक सुख मिलने पर भी वैदिक आदेशों से वर्जित होने के कारण उससे भविष्य में अनिवार्यत: दुख पैदा होगा, इसीलिये उसे उन्होंने धर्म के बाहर ही रखा था ।
कहने का मतलब यह है कि धर्म के इस रूप में किसी प्रकार के रहस्यवाद के लिये कोई जगह नहीं थी । मुझे लगता है, वेदों और धर्म के इस रूप के संबंधों की मोटे तौर पर एक तुलना आज के संविधान और उसके क़ानूनी प्राविधानों से की जा सकती है । परवर्ती स्मृतियों में धर्म के इस विचार का नाना प्रकार की नैतिकताओं और सद्गुणों के रूप में विकास होता चला गया । इस मामले में स्थिति यहाँ तक चली गई थी कि यदि कोई कार्य वांछित है, जिसकी बुद्धि और विवेक अनुमति देता है, तो उसकी पुष्टि वेदों अथवा स्मृति पुराणों में न होने पर भी इस बिनाह पर उसे धर्म माना जाने लगा कि उसका उल्लेख वेदों में हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं दे रहा है ।
इस प्रकार, भारतीय चिंतन में वैदिक आदेशों के पालन, सत्य और अहिंसा के नैतिक सद्गुणों और आत्म- ज्ञान की यौगिक क्रियाओं के रूप में धर्म संबंधी अवधारणाओं के विकास की अपनी यह एक अलग और लंबी कहानी है जिसे हम आज तक 'मानव धर्म' के रूप में दोहराते रहते हैं । लेकिन भारतीय पुराणों में भागवत पुराण इस विषय के एक और ही नये पहलू को सामने लाता है । इसमें ईश्वर भक्ति और उपासना के पहलू को धर्म के एक सर्वप्रमुख पहलू के रूप में रखा जाता है । भागवत में कहा गया है कि ईश्वर की 'अहैतुक' और 'अप्रतिहत' भक्ति ही धर्म है । यह भारतीय दर्शन के इतिहास में धर्म के बारे में विचार की एक बिल्कुल नई दिशा कही जा सकती है । ईश्वर भक्ति को न उत्पन्न करने वाले धर्म को इसमें 'निष्फल धर्म' बताया गया है । वैदिक आदेशों से चालित धर्म को तात्कालिक सुख का प्रदाता बताया गया । स्थायी और परम सुख तो सिर्फ ईश्वर भक्ति से हासिल किया जा सकता है । इसे वैदिक धर्म से उत्कृष्ट माना गया ।
भागवत के पहले श्लोक में ही 'परम सत्य' की आराधना की गई है , जो परमेश्वर ही है । इसे ही ब्रह्मन, परमात्मन् आदि कई नामों से पुकारा जाने लगा । इस अरूप ब्रह्मन में एक मायावी शक्ति को, तमाम प्रकार की सृष्टियों की शक्ति को देखा जाने लगा । भागवत में कई जगह परमेश्वर की चर्चा शुद्ध चैतन्य के रूप में की गई है । इस प्रकार, परमेश्वर का आंतरिक सत्य, उसका शुद्ध चैतन्य रूप, उसकी बाहरी सत्ता 'माया' और अन्य तमाम जीवों में अधिष्ठित उसकी सत्ता के एक त्रिगुणात्मक रूप में ब्रह्मन को देखा गया । इसके साथ ही दिक्-काल से मुक्त वैकुण्ठ की कल्पना की गई जहाँ इस परमेश्वर का वास है । और, परम सत्य, जिसे परम सत्ता कहा गया, उसके सगुण रूपों की कल्पनाओं से उस पूरे धर्म व्यवसाय की पैदाईश होती है जो मंदिरों, मठों, गिरजाघरों और मस्जिदों की तरह के नये वर्चस्वकारी सत्ता केंद्रों के विकास तक जाता है , जिसे हम धर्म के शुद्ध कर्मकांडी रूप में आज अपने जीवन में देखते हैं ।
जगदीश्वर जी, इस चर्चा का सिर्फ यही मतलब है कि आपने अपने लेख में जिस प्रकार से भारतीय चिंतन में धर्म के एक साधारण और सर्वकालिक रूप की चर्चा करते हुए उसे अपनाने की बात की है , वह यथार्थ में बिल्कुल भी वैसा सुनिश्चित नहीं है, न भारतीय चिंतन की परंपरा में और न ही हमारे जीवन की ठोस वास्तविकता में । यदि हम इसकी चर्चा 'मानव धर्म' की अवधारणा के रूप में करना चाहे तो आज के राष्ट्रीय राज्य में इस धर्म का अकेला वैदिक ग्रंथ राज्य का संविधान होता है । मनुष्य के सामाजिक आचरण उसके आदेशों - निर्देशों से चालित होते हैं । चूँकि हम राष्ट्रीय जनतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे है, इसलिये हम अपने संविधान की बात करते है । इसे ही यदि आप वैश्विक संदर्भ में देखना चाहे तो इसमें एक ओर आज की पूँजीवादी वैश्विकता के क़ायदे- क़ानून है और दूसरी ओर मार्क्सवादी अन्तरराष्ट्रीयतावाद है, पूरे मानव जीवन और सोच- विचार को बिल्कुल नये रूप में ढालने की शक्ति का विचार - जीवन के क्रांतिकारी रूपांतरण का विचार, वास्तविक संक्रमणकारी विचार । हमारे अनुसार तो आज के समय में परम प्रत्यावर्तन किसी धर्म से नहीं, इस नये सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावादी प्रत्यय और इससे जुड़े लगातार प्रयोगों से ही मुमकिन है ।
जगदीश्वर जी, एक प्रवाह में, पहलगाम की परम शांत वादियों में, धर्म की तरह के विषय पर हमने यह एक काफी लंबी यात्रा कर ली है । मैं नहीं जानता इसमें कितना कह पाया हूँ, कितना नहीं । और प्रामाणिकता के पहलू तो अलग है ही । कोलकाता लौट कर अपने इस नोट पर ज्यादा प्रामाणिक तथ्यों के साथ काम करने की कोशिश करूँगा । फिर भी अपने इस नोट को तमाम मित्रों से उसी प्रकार साझा कर रहा हूँ, जिस प्रकार पिछले पाँच दिनों से इन वादियों की ख़ुशगवार तस्वीरों को साझा करता रहा हूँ । सचित्र यात्रा वृतांत के साथ इस प्रकार की विचार-यात्रा के सुख भी कम नहीं हैं । उम्मीद है मित्रों भी कुछ ऐसा ही लगेगा ।
इस प्रकार की वैचारिक उत्तेजना देने के लिये आपको बहुत धन्यवाद ।
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