शुक्रवार, 20 मई 2016

पश्चिम बंगाल के चुनाव


-अरुण माहेश्वरी

पश्चिम बंगाल के चुनाव पर पहले भी कुछ लिखने से बचता रहा। अब परिणामों के बाद भी कुछ खास लिखने का मन नहीं कर रहा।

ऐसा नहीं है कि ये चुनाव इतने ढर्रेवर प्रकार के थे कि इनमें किसी की कोई विशेष दिलचस्पी नहीं हो सकती थी। उल्टे, इनमें नाटकीय तत्वों की कोई कमी नहीं थी। सबसे बड़ी चीज तो कांग्रेस और वाममोर्चा का अघोषित गठबंधन था। ‘अघोषित’ इसलिये क्योंकि कुछ लोगों को यह अवैद्य संबंधों के किस्म की नापाक सी चीज लग रही थी, जिसे खुले आम स्वीकार लेने पर उनके सतीत्व पर आंच आ सकती थी। लेकिन, ‘घोषित -‘अघोषित’ कुछ भी क्यों न हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसमें राजनीतिक सिद्धांतकारों की हैरत के वे सारे उपादान मौजूद थे जिन पर आगे भी लगातार टीका-टिप्पणियों के जरिये दफ्ती की तलवारें भांजते हुए वे अपने राजनीतिक आदर्शों की लड़ाई का अभ्यास चला सकते हैं।

इसके अलावा, शारदा, नारदा, फ्लाईओवर, सिंडिकेट की तरह के विषय भी कम दिलचस्प नहीं थे। बांग्ला चैनलों पर इन विषयों की एक साथ बाढ़ सी आ गई थी।  यह एक ऐसा नजारा था कि शायद कइयों को किसी अतियथार्थवादी (surrealist) चित्र की तरह लगने लगा। इसे यथार्थ माने या कोई नया विभ्रम, समझ के परे होगया। चुनाव के बाद तो अब डंके की चोट कहा जा रहा है कि ये सब अविद्या से उत्पन्न जगत-मिथ्या के सदृश थे - ‘बंगाल में भ्रष्टाचार है ही नहीं’।

बहरहाल, सवाल उठता है कि अगर यह सब जगत-मिथ्या ही था तो इस जगत का ‘ब्रह्म सत्य’ क्या था ? चुनाव परिणामों को देख कर तो लगता है, यह सारा जगत जिस एक ब्रह्म सत्य की माया के रूप में सामने आया वह वही पुराना वाममोर्चा का चौतीस साल का शासन और सीपीएम का सांगठनिक जंजाल ही था। आज भले वह शासन अतीत का विषय हो और सीपीएम का संगठन महज किसी मृतक का कंकाल। लेकिन इसमें शक नहीं कि पांच साल पीछे के अतीत की छाया और कंकाल का रूप ले चुके संगठन का डर ही इस चुनाव पर छाये रहे। यह चुनाव नहीं गोया, अतीत में गहरे जाकर उसे पोछ डालने का आज भी जारी उपक्रम भर था। परास्त और लुप्त हो चुके वाममोर्चा को ही फिर एक बार हराया गया।

दरअसल, सिर्फ पश्चिम बंगाल की ही बात क्यों की जाए ! जब पूरे भारत को हजारों साल पहले के अतीत में घुस कर उसे मिटाने के काम में नियोजित करने की योजनाएं बन रही है, तब पश्चिम बंगाल के लोगों के लिये तो पांच साल पहले की बात अतीत नहीं, एक जीवित सचाई है। पिछले पांच सालों में न सिर्फ उसी दौर के शुरू किये गये प्रकल्पों पर कुछ काम किये गये, बल्कि उसी दौर की अन्य वैचारिक विरासतों को भी, जिंदा या मुर्दा, बाकायदा ढोया गया। जो फ्लाईओवर गिरा, उसका प्रारंभ उसी काल में हो चुका था, तो टाटा को राज्य से अलविदा भी उसी काल में किया जा चुका था। वाममोर्चा सरकार ने अपने नये भूमि कानून को पारित करके भी उस पर अमल नहीं किया। बनिस्बत, जिस क्रांतिकारी भूमि सुधार मंत्री रज्जाक मोल्ला ने उस पर अमल में सबसे बड़ी बाधा पैदा की, वही आज तृणमूल की जमात में शामिल हो कर उसकी क्रांतिकारिता के बिल्ले को चमका रहा है।

कुल मिला कर, पांच साल बाद भी पश्चिम बंगाल वहीं खड़ा था, जहां पहले था। और इसके साथ ही यथार्थ या विभ्रम, किसी भी रूप में क्यों न हो, उसके राजनीतिक जीवन के मुद्दे भी वे ही रह गये, जो पांच साल पहले थे। ठहरे हुए पानी की तलछट के तौर पर कुछ गंदगियां जरूर पैदा हुई, लेकिन उनसे बाकी और कुछ नहीं बदला। पांच साल पहले जो पराजित हुआ था, वह किसी भी रूप में मिटा नहीं था। फलत:, न टाटा वापस आयें और न औद्योगीकरण का कोई दूसरा रास्ता बना।

ऐसे में, जब चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस और वाममोर्चा का गठबंधन बना, तो एक बार के लिये लगा था कि शायद यह किसी जादूई चिराग का काम करें और अतीत के छायाभास से चल रहे एक निरर्थक युद्ध का अंत हो। कुछ हलकों द्वारा नीम अंधेरे नीम उजाले के रहस्य में लिपटे इस गठबंधन से अतीत को विदा करके चुनावों को वर्तमान की नई जमीन पर लड़े जाने की उम्मीद लगाई जा रही थी। लगा था कि यह जादूई चिराग किसी नई राह को रौशन करेगा - जब आज पर रोशनी गिरेगी तो अतीत सचमुच व्यतीत होगा, जिसे जाना तो जा सकता है लेकिन फिर से जिंदा नहीं किया जा सकता। हेगेल के शब्दों में ‘‘स्वर्ग का उल्लू तभी उड़ान भरता है जब रात के रंग गहराने लगते हैं।’’(The owl of Minerva takes its flight only when the shades of night are gathering.)

लेकिन ऐसा हुआ नहीं। गाड़ी वहीं अटकी रह गई, जहां पांच साल, बल्कि उसके भी पहले अटक गई थी। ये चुनाव परास्त को ही एक बार फिर परास्त करके, मृत को ही फिर एक बार मार कर शव-साधना से शक्ति अर्जित करने की तंत्रविद्या का उल्लास भर बन कर रह गये। औद्योगीकरण से तात्पर्य समग्र जीवन का एक रूपांतरण होता है, इस सत्य की साधना में वाममोर्चा के बलिदान ने उस मार्ग को इतना कठिन कर दिया है कि आगे कौन, कब और कैसे इस दिशा में कोई कदम बढ़ा पायेगा, यह सवाल आज भी भविष्य के अंधेरे में ही है। ये चुनाव इस दिशा में बढ़ने की संभावना पैदा कर पायेंगे, इस पर यथेष्ट संदेह के कारण ही इसके परिणाम पश्चिम बंगाल के राजनीतिक जीवन में कोई घटना नजर नहीं आते।

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