गुरुवार, 12 मई 2016

सोनमर्ग की यात्रा के अनूठे अनुभव के बाद : सचमुच देखना भी क्या चीज़ है !


-अरुण माहेश्वरी


आज सोनमर्ग के अभिभूत कर देने वाले प्राकृतिक दृश्यों के अनुभव के बाद फ़ेसबुक पर जब हमने कुछ चुनिंदा तस्वीरों को पोस्ट किया तो उसके साथ लिखा कि "सोनमर्ग के ग्लेशियर्स की यह यात्रा अपने में एक ऐसा अनुभव था जिसे बयान करना मुश्किल है । हम सचमुच इस समय किसी और ही दुनिया में चले गये थे । ये तस्वीरें उस अनुभव का अंश ही बयान करती हैं -"।

दूर-दूर तक फैली सफ़ेद झक्क पहाड़ियों का एक अनंत विस्तार, उस पर तेज़ बारिश से छाई हुई एक पारदर्शी धुँध, तेज़ हवा और कड़ाके की ठंड । इसमें स्लेजिंग के तखतों के साथ दौड़ते-भागते लोग, घोड़ेवालों की गहमा-गहमी और चार बॉंस पर टांग दी गई हवा में फड़फड़ाती प्लास्टिक की सीटों के कमज़ोर से शेड के नीचे चाय, काफ़ी, कहवा और न जाने क्या खाने-पीने की चीज़ें बेचने को आतुर आदमी के कर्मोद्दम का एक दूसरा ही लुभावना नज़ारा । ऐसे एक प्राकृतिक और कर्मरत मनुष्य के सौन्दर्य के योग से बने अभावनीय दृश्य में से अपनी पसंद की कुछ चुनी हुई तस्वीरों को साझा करते हुए इसके अलावा और क्या कहा जा सकता था कि जो देखा, जो अनुभव किया, उसका शब्दों से बयान नहीं किया जा सकता है । यह सचमुच कुछ ऐसा ही था जैसे कोई अपने प्रियतम को देख कर जिस तृप्ति का अहसास करता है, उसे कभी भी पूरी तरह से शब्दों से, यहाँ तक कि किसी आलिंगन से भी व्यक्त नहीं कर सकता है । प्रेम करके वह सिर्फ़ इस समग्र अनुभूति के चौखटे में सामयिक तौर पर अपने को रख देता है, लेकिन उस देखने के समग्र अहसास को ख़ारिज नहीं कर पाता है ।

सचमुच, कोई विचार या चेतना की कितनी ही बात क्यों न कर लें, आदमी के शब्दों से पहले उसके सामने हमेशा दृश्य ही आया करता है । देख कर ही तो हम अपने चारों ओर की दुनिया में अपनी जगह खोज पाते हैं । हम शब्दों से भले उसे व्यक्त करें, लेकिन शब्द उस चारों ओर के परिवेश का विकल्प नहीं बन सकते । क्या यही वजह नहीं है कि हमारे देखने और जानने के बीच का संबंध हमेशा काफी हद तक अपरिभाषित ही रहता है ! सरियलिस्ट कलाकार मैगरिटा ने अपनी एक कला कृति में दृष्ट और शब्द के बीच के फ़र्क़ को 'सपनों की कुंजी' (Key of dreams) कहा है ।

हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि देखने की क्रिया में आदमी के अपने चयन का एक पहलू भी काम करता रहता है । हम वही देखते है जिसकी ओर अपनी नज़र डालते हैं । जिस बात ने बर्फ़ की चादर में ढंके इन जन-शून्य अनंत पहाड़ों को देख कर  हमें सबसे ज़्यादा परेशान किया वह यह थी कि हमारे देखने का तात्पर्य तो हमेशा यह भी होता है कि हमें भी देखा जा रहा हैं । अन्य की नज़रों से दो-चार होने से ही तो यह पता चलता है कि हम इस दृश्य- जगत के अंग है । जब हम कहते है कि हम उस जगह को देख रहे हैं, तो प्रकारांतर से यह भी कहते है कि वहाँ से हमें भी देखा जा सकता है । लेकिन एक ऐसे दृश्य के अनंत विस्तार से साक्षात्कार, जिसमें हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि वहाँ से हमें देखने वाला कोई दूसरा नहीं है, तब इसके सिवाय दूसरी कोई अनुभूति पैदा नहीं हो सकती है कि जैसे हम 'किसी और ही दुनिया में आ गये हैं ।'

सामने मनुष्यों का कोई संसार नहीं, सायं-सांय करती बर्फ़ीली तेज़ हवा में जैसे कोहरे में लिपटी कोई अंतहीन सफ़ेद चादर फड़फड़ा रही है । यहाँ दृष्टि के आदान-प्रदान की कोई गुंजाइश भी नहीं है । ऐसे में हमारे पास कहने और जानने के लिये खुद के ही शब्दों के आंशिक सत्य के अलावा और क्या रह जाता है? जीवन के शायद इसी, एकतरफ़ा संवाद के सच को ही सभी प्रकार के रहस्यवाद की जड़ कहा जा सकता है । ऐसे में शब्दों की तुलना में तस्वीरों से, भले ही फ़ोटोग्राफ़ी से ही क्यों न हो, बनाये गये बिंब बहुत ज़्यादा सार्थक लगने लगते हैं ।

फ़ोटोग्राफ़ी को भी सिर्फ़ चीज़ों को दर्ज करने की कोरी यांत्रिकता कहना उचित नहीं है । हर बिंब की तरह ही इससे रचे गये बिंब भी अक्सर अपने विषय की सीमाओं के पार जाने की सामर्थ्य रखते हैं । इसमें भी तमाम बिंबों की तरह ही देखने की एक दृष्टि निहित रहती है । जैसे हमारे इन साझा किये गये फ़ोटोग्राफ़ में 'पर्यटनवाद जिंदाबाद' की दृष्टि बहुत साफ़ तौर पर देखी जा सकती है ।

हम जानते है कि बिंब अक्सर कुछ पहले से अनुपस्थित चीज़ों के निर्माण के लिये बनाये जाते है । लेकिन परवर्ती समय में उनसे यह पता चलने लगता है कि कोई चीज़ या व्यक्ति एक समय कैसे दिखते थे, या घुमा कर कहे तो किसी चीज़ या व्यक्ति को एक समय में दूसरे कैसे देखते थे । और इसीसे आगे  बिंब या प्रतिमा को गढ़ने के पीछे के नज़रिये की सिनाख्त होती है ।

इस कश्मीर यात्रा के प्रारंभ से ही हमारा सारा ज़ोर तमाम प्रकार की अस्मिताओं के सवालों को दरकिनार करके मनुष्य की अपनी प्राणी-सत्ता के साथ, शुद्ध रूप में एक पर्यटक की तरह इस यात्रा का लुत्फ़ उठाने और मानव-मानव के मिलन की अकूत संभावनाओं से भरे इस भू स्वर्ग को महसूस करने पर रहा । सोनमर्ग के ग्लेशियर्स के इन अनूठे अनुभवों के आह्लाद ने हमारे इस मिशन को और भी पूरा किया । अब और एक दिन श्रीनगर में बिता कर हम फिर दिल्ली होते हुए इन वादियों को अलविदा कहके कोलकाता में अपनी दुनिया में लौट जायेंगे ।

उन सभी मित्रों को धन्यवाद जो किसी न किसी रूप में हमारी इस सम्मोहक यात्रा के साक्षी बने हैं ।

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