गुरुवार, 12 मई 2016

कश्मीर में बीते तीन दिनों के बाद

कश्मीर में बीते अब तक के तीन दिनों के बाद -

हम कश्मीर आए हैं । शुद्ध शैलानी के तौर पर । मनुष्य समाजों द्वारा अपनी गढ़ी हुई और हमेशा बदलती अस्मिताओं से जुड़े तमाम मसलों को दरकिनार करते हुए, देखने, जानने और उपभोग करने की मनुष्य की शुद्ध प्राणी-सत्ता की नैसर्गिकता के साथ । और, कहना न होगा, इन तीन दिनों में ही, सालों से कथित तौर पर धधक रहे इस 'भू-स्वर्ग' पर इस प्रकार आना हमें बहुत ही मोहक लग रहा है ।

श्रीनगर, गुलमर्ग,पहलगाम  - कहीं भी जैसे तिल धरने की जगह नहीं है । गुलमर्ग में गंडोला से चौदह हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर बर्फ़ के पहाड़ों तक जाने के लिये हज़ारों लोगों की इतनी लंबी लाईन थी कि हमें तो मन मसोस कर ही रह जाना पड़ा । किराये पर लिये गये ग़म बूट और प्लास्टिक के यूज एंड थ्रो वाले सस्ते से हाथ के मोज़े किसी काम न आ सके ।

सिर्फ पर्यटन के लिये कश्मीर में पहुँच रहे ये लाखों लोग बिना किसी दूसरे स्वार्थ के, न धर्म-कर्म से किसी मोक्ष की प्राप्ति के लिये या न किसी वैज्ञानिक शोध-अनुसंधान के लिये, महज अपनी कुछ मूलभूत मानवीय आकांक्षाओं की तृप्ति के लिये, यहाँ आ रहे हैं । जिस क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में देश और दुनिया के तमाम कोनों से शुद्ध मानवीय अंत:करण के साथ लोगों का आना हो, वही क्षेत्र दरअसल भू-स्वर्ग कहलाने का हक़दार हो सकता है । कश्मीर आज हमें इसीलिये सचमुच भू-स्वर्ग लग रहा है ।

कश्मीर का प्राकृतिक सौन्दर्य तो पहले भी था और आज भी है । लेकिन कितने साल हो गये, मनुष्यों की स्वार्थपूर्ण अस्मिताओं और वर्चस्व- प्रतिवर्चस्व के खेल ने इसे आतंक से भरा एक नर्क बना रखा था । अभी इन वादियों से ख़ौफ़ के बादल कुछ छँटे हुए दिखाई दे रहे हैं । शैलानियों के साथ स्थानीय लोगों की अंतरंगता इतनी साफ़ है कि उस पर धर्म और मज़हब के भेद-भाव की कोई छाया देखना भी किसी पाप से कम नहीं है । और, साथ ही ध्यान देने की बात यह भी है कि हमें कश्मीर भारत के दूसरे किसी भी हिस्से से रंच मात्र भी भिन्न नहीं लग रहा है ।

वही ग़रीबी, वही विषमता, वैसा ही भ्रष्टाचार और शहरों में वैसी ही गंदगी, जो पूरे भारत में हैं, समान रूप से कश्मीर में भी है । और स्वाभाविक तौर पर यहाँ भी आम आदमी के दिलो-दिमाग़ में इनसे मुक्ति की उतनी ही प्रबल इच्छाएँ भी है । समान रूप से हक़ों की लड़ाइयाँ और वैसा ही सरकारी दमन भी है । हमारे टैक्सी ड्राइवर के शब्दों में अब्दुल्ला-मुफ़्ती-उमर फारूक- यासीन मल्लिक-गिलानी की राजनीतिक दुकानदारियां हैं और सीआरपी के कैंपों की तरह ही पत्थरबाजों की गिरोहबंदी भी है । देश-व्यापी समानताओं की इसी पृष्ठभूमि में, राजनीतिक नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्नों से परे, यहाँ की पीडीपी-भाजपा सरकार भी है ।

कश्मीर की यह स्वाभाविक लय ही है कि पिछले दिनों जब यहाँ एनआईटी में कुछ बाहरी छात्रों ने तिरंगा फहराने को लेकर एक संघी-छाप राष्ट्रवाद का विवाद पैदा करने की कोशिश की तो उससे शुद्ध क़ानून और व्यवस्था के एक मसले के तौर पर निपटा गया । यहाँ तक कि कश्मीरी पंडितों के एक बड़े समूह ने भी ऐसे तिरंगाधारी झूठे राष्ट्रवादियों की कड़ी भर्त्सना की ।

एक पर्यटक के नाते हम इस स्वाभाविकता की लय का बाक़ायदा लुत्फ़ ले पा रहे हैं ।

कहते है पर्यटन तो यथार्थ को किसी दूरस्थ खिड़की से देखना होता है । लेकिन धरती की ऐसी समंजित तस्वीर को देख कर ही तो कल्पना चावला ने अंतरीक्ष से कहा था कि आह, इस खूबसूरत पृथ्वी पर स्वार्थों की कितनी मार-काट मची हुई है ! पर्यटकों के अंतर में बसी यह सुंदरता की तस्वीर ही शायद असुंदरता से नफ़रत का भाव पैदा कर सकती है !

कश्मीर के इन हालात को देख कर हमारा यह विश्वास दृढ़ हो रहा है कि  शायद अकेले 'पर्यटनवाद ज़िंदाबाद' के नारे से ही इस भू-स्वर्ग की अपनी हमेशा की ख्याति को फिर से पाया जा सकता है । कश्मीर कोई अजूबा नहीं है । यह अकल्पनीय प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ अपने अंतर में मानव-मानव को मिलाने वाली सबसे पवित्र भूमि की संभावनाओं को छिपाये हुए हैं ।

कश्मीर ज़िंदाबाद !

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