रविवार, 29 मई 2016

Close the history with respect

राष्ट्रपति ओबामा की वियतनाम यात्रा के संदर्भ में हमारे पुराने संस्मऱण -



अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अभी वियतनाम की यात्रा पर गये थे । वहां उनका भारी स्वागत हुआ। चालीस साल पहले तक जो अमेरिका वियतनाम को नेस्तनाबूद कर देने की लड़ाई में उतरा हुआ था, आज उसी का राष्ट्रपति उस धरती पर जाकर वहां के लोगों से सीधे बात कर रहा है। वह कहता है कि हम दो देशों के अनुभव से दुनिया बहुत कुछ सीख सकती है। सीख सकती है कि लोगों के हृदय बदल सकते हैं। हम अपने अतीत के बंदी होकर नहीं रह सकते।
ओबामा की इन बातों से अनायास ही अढ़ाई साल पहले की हमारी वियतनाम यात्रा की यादें ताजा होगई। उस यात्रा के बाद हमने जो लिखा था, आज उसे मित्रों से साझा करके बहुत अच्छा लग रहा है।
9 अक्तूबर 2013 को हम वियतनाम पहुंचे थे और वही से 17 अक्तूबर 2013 को हमने यह पोस्ट लिखी थी - जनरल जियाप, वियतनाम और इतिहास का प्रश्न। हम जब वियतनाम में थे, तभी वहां वियतनाम युद्ध के किवंदंती नायक जनरल जियाप की मृत्यु के बाद उनके अंतिम संस्कार की सरकारी रश्में पूरी हो रही थी। वह टिप्पणी इस प्रकार थी -

जनरल जियाप, वियतनाम और इतिहास का प्रश्न

आठ अक्तूबर को हम हो चि मिन्ह शहर पंहुचे । चार दिन पहले ही वियतनाम के मुक्ति युद्ध के एक किंवदंती पुरुष जनरल जियाप की १०२ साल की उम्र में मृत्यु हुई थी । सोच रहे थे कि वियतनाम में शोक का माहौल होगा । प्रकृत अर्थ में वियतनाम को पूरी तरह आज़ाद हुए ४० साल भी पूरे नहीं हुए हैं । सन् '७५ में ही तो उसका एकीकरण हुआ, तमाम विदेशी सेनाएँ वियतनाम की धरती से पूरी तरह हटीं और इस नवोदित स्वतंत्र राष्ट्र को शांति से जीने का मौक़ा मिला ।

जनरल जियाप इस राष्ट्र के उन चंद नायकों में एक थे, जिनकी बदौलत तक़रीबन दो सौ साल बाद वियतनाम विदेशी सैनिकों के जुएँ से पूरी तरह आजाद हो पाया था । ख़ास तौर पर दियेन बियेन फू की जिस लड़ाई में दुनिया के इतिहास में पहली बार गोरों की किसी सेना को ग़ैर-गोरों की सेना के हाथों लड़ाई के मैदान में धूल चाटनी पड़ी थी, उस लड़ाई में फ़्रांसीसी सेना के ख़िलाफ़ वियतकांग के सैनिकों की कमान जनरल जियाप के हाथ में ही थी ।

'बर्फ़ में ढंके ज्वालामुखी', हो चि मिन्ह के शब्दों में 'युवती की तरह ख़ूबसूरत' जनरल जियाप का एक और नाम था - लाल नेपोलियन । माओ के गुरिल्ला युद्ध में दीक्षित जियाप जानते थे कि ज़मीनी लड़ाई में व्यापक जनता के सहयोग से अधुनातन सेना के भी छक्के छुड़ाये जा सकते हैं । हांलाकि तब तक द्रोण की तरह के आकाश से निशाने पर अचूक वार करने की तकनीक आज के जितनी विकसित नहीं हुई थी ।

दियेन बियेन फू उत्तर-पश्चिम वियतनाम की घनी पहाड़ियों के बीच किसी कटोरे जैसी घाटी है, जिसे फ़्रांसीसी सेना ने उसके पहाड़ी घेरे की वजह से ही अपने लिये सबसे सुरिक्षत समझा था । उन्हें यक़ीन नहीं था कि इन पहाड़ों को चीर कर कोई उन पर हमला कर पायेगा । द्वितीय िवश्वयुद्ध में जापानियों ने यहाँ एक मज़बूत हवाईपट्टी बनाई थी, और फ़्रांसीसियों को इस पट्टी पर भी बहुत भरोसा था कि कुमुक और उसके लिये रसद को पंहुचाने में उनको कोई परेशानी नहीं होगी ।

लेकिन जियाप ने कहा कि जब बकरी इन ऊँची पहाड़ियों के शिखरों पर चढ़ सकती है तो आदमी भी चढ़ सकता है । और यदि एक आदमी चढ़ सकता है तो हज़ारों की फ़ौज भी चढ़ सकती है । गुरिल्ला युद्ध के इन बुनियादी सोच के साथ जियाप ने शत्रु को औचक पकड़ने की नेपोलियन की रणनीति को जोड़ा । पहाड़ों से लेकर घाटी तक खंदकों का जाल बिछा कर फ़्रांसीसी सेना के बिल्कुल निकट तक घेरेबंदी कर ली और जब नियत समय पर हल्ला बोला तो फ़्रांसीसी सेना के बेहतर हथियार, अमेरिकी एम-२४ टैंकों के परखचे उड़ते दिखाई दिये । दियेन बियेन फू में पराजित फ़्रांस वियतनाम छोड़ कर जाने और १९५४ के जेनेवा कांफ्रेंस पर हस्ताक्षर करने के लिये मजबूर हुआ ।

सामरिक नेतृत्व के अलावा जनरल जियाप वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च राजनीतिक नेतृत्व के भी अंग थे ।

ऐसे जनरल जियाप की मृत्यु पर पूरे वियतनाम में शोक के माहौल के बारे में हमारा अनुमान ग़लत नहीं था । लेकिन हो चि मिन्ह शहर में ऐसा कोई वातावरण न देख कर दूसरे दिन हमने मेकांग डेल्टा की यात्रा के अपने टूरिस्ट गाइड थामस से बात छेड़ दी । जियाप के शोक की बात सुनते ही उसने बताया कि अब तक उनके प्रति श्रद्धांजलि का कार्यक्रम हनोई में चल रहा था । अगले दिन, अर्थात १० अक्तूबर से १२ अक्तूबर तक हो चि मिन्ह सिटी में चलेगा । इस दौरान शहर के रीयूनिफिकेशन प्रासाद में उनकी तस्वीर पर बड़ी संख्या में शहर और गाँव के कतारबद्ध लोग फूल चढ़ायेंगे । इसके बाद हनोई में उनका अंतिम संस्कार किया जायेगा ।

थामस से बात करने से पता लगा कि वह एक पढ़ा-लिखा, राजनीतिक तथ्यों का जानकार नौजवान है । उसने ट्रैवलिंग के पेशे में स्नातक किया है, और इसी नाते अपने देश के इतिहास से जुड़े तथ्यों की पूरी जानकारी रखता है । इसीलिये और विषयों पर भी बात शुरू हो गयी । मैंने उससे पूछा कि वियतनाम पर अमेरिकियों ने जो ज़ुल्म किये, उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, फिर भी अमेरिका ही वियतनाम में अधिक से अधिक निवेश कर रहा है और यहां की सरकार भी उसका सबसे अधिक स्वागत करती है ।

हमने चीन-वियतनाम संबंधों और १९७९ में इनके बीच के सीमा-संघर्ष की बात भी उठाई ।

एक शैलानी से १९७९ के चीन-वियतनाम संघर्ष की बात सुन कर थामस बेहद हैरान होगया।

उसने कहा, हम वियतनाम के लोग भी कभी उस घटना का ज़िक्र नहीं करते । हमारे लिये १९७५ ही युद्ध का अंतिम इतिहास है । इसके साथ ही उसने यह जोड़ा कि वियतनाम सरकार की यह साफ़ राय है कि इतिहास को सम्मान के साथ बंद कर दिया जाना चाहिए । ' Close the history with respect.' इतिहास के प्रति पूरा सम्मान है, लेकिन उसे वर्तमान पर बोझ नहीं बनने देना चाहिए । अर्थात इतिहास की सीख और शिक्षा का मान होने पर भी वह एक बंद अध्याय है ।

हो चि मिन्ह शहर में देखे युद्ध के अवशेषों के संग्रहालय और जनरल जियाप की कीर्तियों के प्रति वहाँ के लोगों के गहरे सम्मान के बावजूद आज वियतनाम युद्ध की स्मृतियों से कोसों आगे निकल चुका है । पूरे वियतनाम में चल रहा आधुनिक निर्माण का महायज्ञ भी इसी सच्चाई का बयान कर रहा है ।

हमारे जैसे अति प्राचीन इतिहास के तमाम अवशेषों के बोझ से दबे राष्ट्र के लिये भी ससम्मान इतिहास की विदाई की इस छोटी सी बात का क्या कम महत्व है ?



इस पोस्ट पर कई मित्रों ने टिप्पणियां की थी लेकिन उदय प्रकाश जी की टिप्पणी तीखी और विस्तृत भी थी। उन्होंने लिखा -
Uday Prakash :" लेकिन समस्या यह भी है कि हाल फिलहाल (१ ९ ७ - ७ ९) का विएतनाम जैसा इतिहास हमारे पास नहीं है . फिर ग्लोबल कार्पोरेट एकानामी गरीब-वंचित लोगों को , भले ही विकास के ज़रिये लूट और संहार के माध्यम से , बेहतर आर्थिक सुविधा, चैरिटी और चांस, लाटरी, अपराध और जुए से श्रम-मुक्त कमाई मुहैय्या करती है , जो पुरानी समाजवादी व्यवस्था नहीं कर सकी, इसलिए इसे फिलहाल बेहतर माना जाने लगा है. इस 'बेहतरी का भ्रम' वे लोग और फैला रहे हैं, जो पुरानी अर्थ-व्यवस्था में 'मध्यवर्गीय' और इस नयी अर्थ-व्यवस्था में 'नव-अमीर' हो चुके हैं. ट्रेवेल एजेंसी चलाने वाले लोग, जैसा थामस है या काल सेंटर्स में काम करते एम् एन सी के युवा जिस सर्विस क्लास से आते हैं , वह पुराने मज़दूर वर्ग का नया अनुवाद नहीं है.
फिर आपने एक जगह यह लिखा है :
' हांलाकि तब तक द्रोण की तरह के आकाश से निशाने पर अचूक वार करने की तकनीक आज के जितनी विकसित नहीं हुई थी '
इसका आशय समझ में नहीं आया. क्या अगर ड्रोन की तकनीक उस समय होती , तो क्या जन . जियाप की अगुआई के बावजूद विएतनाम युद्ध हार जाता ?
अभी का उदाहरण लें. अफगानिस्तान में ड्रोन के इस्तेमाल के बावज़ूद अमेरिकी-नाटो फौजें वापस लौट रही हैं . अफगानिस्तान एक दूसरा उदाहरण है, जिसे अभी तक कोई कोलोनियलाइज नहीं कर सका. ब्रिटेन, रूस और अब अमेरिका .
आज सुबह ही अमेरिका के एक दोस्त से बात हो रही थी . शट डाउन इसीलिए है कि 'विकास' और 'बाज़ार' का रास्ता भयावह आर्थिक विषमता और सामाजिक असंतुलन के हालात पैदा कर रहा है. चाहे ओबामा हों या राहुल या मोदी या कोई कम्युनिस्ट, आज गरीबों की बात करने, उनके पक्ष में बोलने के लिए सभी मज़बूर हैं. ..और अगर इतिहास का अंत कहीं हो रहा है , तो यही वह जगह है, जहां पहले के लेफ़्ट और राइट के बीच की विभाजक रेखा धुंधलॆ हो चुकी है. बल्कि मिट चुकी है।"

इसके साथ ही उदयप्रकाश जी ने यह आग्रह किया था कि

Uday Prakash : Arun Maheshwari ji ..is bahas ko aage baDhaayaa jaaye ..!

हमने भी उन्हें लिखा - बहुत ज़रूरी बातें आपने उठाई है । इन पर पूरी गंभीरता से चर्चा होगी । आज हम लौट रहे है ।


इसके बाद ही फिर कोलकाता लौट कर 20 अक्तूबर को हमारी पोस्ट थी -

“उदय जी,

‘जनरल जियाप, वियतनाम और इतिहास का प्रश्न’ पर आपकी तीखी और सार्थक टिप्पणी के लिये धन्यवाद। खास तौर पर आपका आग्रह कि ‘इस बहस को आगे बढ़ाया जाए’ और भी अच्छा लगा।

फेसबुक का अर्थ ही है दूरदराज बैठे मित्रों के साथ एक जीवंत सार्थक विमर्श, एक वर्चुअल गोष्ठी। लेकिन अक्सर सुचिंतित टिप्पणियां भी ‘समझदारों’ की लाइक्स और ‘उत्साहियों’ की अजीबो-गरीब, आशय-खोजी नोक-झोंक और फब्तियों से आगे नहीं जा पाती। अनोखे प्रकार के उकसावेबाजों की धमाचौकड़ियों का नजारा दिखाई देने लगता है। फिर भी, आश्वस्ति की बात यह है कि इस पूरी अराजकता में भी एक व्यवस्था है; इसके जरिए मुद्दे की बात दूसरे किसी भी माध्यम की तुलना में कम दूरी तक नहीं जाती है।

बहरहाल, अपनी टिप्पणी में उठाये गये विषयों पर बहस को आगे लेजाने का मेरा आग्रह भी किसी से कम नहीं है। इसलिये और भी क्योंकि लेखक हमेशा प्रचारक नहीं होता। वह हमेशा किसी विमर्श का अंशीदार ही हो सकता है।

ट्रैवल गाईड थॉमस की बातों में एक नये ‘उपभोक्ता’ की लिप्सा की छाया देखकर आपका बरसना खास तौर पर बहुत प्रिय लगा। लेकिन ‘Close the history with respect’ वाली उसकी बात का मेरे लिये बिल्कुल भिन्न संदर्भ था। मेरे दिमाग में वियतनाम और समाजवाद के अलावा बौद्ध धर्म का तर्कप्रधान और मध्यममार्गी पहलू भी काम कर रहा था। बुद्ध का एक प्रमुख कथन की धर्म का बेड़े की तरह इस्तेमाल करो, पार उतरने के लिये न कि उसे बोझ बना कर ढोने के लिए।

‘‘धर्म कोलोपम है। यह निस्तार के लिये है, ग्रहण के लिए नहीं। इसीलिये जो ज्ञानी है, उनको धर्म का परित्याग करना चाहिए, अधर्म का भी।‘‘

अंध-परंपरा से मुक्त निरीक्षण के लिये प्रेरित करने वाली नैतिकता और आध्यात्मिकता की तर्कसम्मत और हृदयग्राही व्याख्या ही बौद्धों की शक्ति थी जो मार्क्सवादियों को भी आकर्षित करती रही है। आनंद को कहे बुद्ध के अंतिम शब्द थे : ‘‘सब संस्कार अनित्य है। अपने निर्माण के लिए बिना प्रमाद यत्नशील हो। तुम अपने लिए स्वयं दीपक हो। ‘अत्तदीपा विहरथ‘ - दूसरे का सहारा न ढूंढ़ो।‘‘

उदय जी, वियतनाम का अपने ‘पुनर्निर्माण में बिना किसी प्रमाद’ के लगने और ‘इतिहास को ससम्मान विदा करने’ की थॉमस की उक्ति को हम अपनी जिद से खारिज नहीं कर सकते। बौद्ध धर्म तापसों का धर्म नहीं है। दुनिया ने आधुनिक तापसों का एक सबसे विभत्स रूप कंबोडिया के पौल पॉट में देखा है।

अब हम दूसरी बात पर आते हैं - ‘‘हांलाकि तब तक द्रोण की तरह के आकाश से निशाने पर अचूक वार करने की तकनीक आज जितनी विकसित नहीं हुई थी।‘‘
आपने लगभग क्षेपक की तरह, कुछ अवांतर ढंग से ही आए इस वाक्य को बहुत सही पकड़ा है। मैं जानता हूं कि यह वाक्य अनायास ही नहीं लिखा गया था। बिल्कुल आशयपूर्ण था और आपने एकदम सही, इससे हमारे आशय को साफ करने की मांग की है।

जहां तक वियतनाम की मुक्ति युद्ध में जीत अथवा हार का सवाल है, इस वाक्य से उसका कोई संबंध नहीं है। हम उत्तर-औपनिवेशिक काल में रह रहे हैं। जब दुनिया में कहीं भी उपनिवेशवाद कायम नहीं रह सका, मुक्ति की आकांक्षा का दमन नहीं हो सका तो फिर वियतनाम में क्या होता !

यहां संकेत सिर्फ युद्ध के खास-खास तरीकों की सीमाओं और संभावनाओं की ओर है। इसका प्रमुख आशय आज के समय में गुरिल्ला युद्ध के रास्ते की सीमाओं की ओर संकेत करना है। इस बारे में अफगानिस्तान का आपका उदाहरण सही नहीं लगता। इराक को तबाह करके अमेरिका लौट गया, तो इसे युद्ध के मैदान में अमेरिका की पराजय नहीं कहा जा सकता। भारत के माओवादी ‘तापसों‘ की रणनीति का भी एक सवाल है।
हमने अपनी टिप्पणी में कहा है कि दुनिया के इतिहास में पहली बार युद्ध के मैदान में गोरों की सेना यदि कहीं गैर-गोरों के हाथों पराजित हुई तो वह वियतनाम है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि दुनिया में और कहीं राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष नहीं हुए या उपनिवेशवादियों को उपनिवेशों को आजाद करके भागना नहीं पड़ा। किसी भी रणनीति की सफलता देश-काल की परिस्थितियों, इतिहास और भूगोल के भी सवालों से निरपेक्ष नहीं हो सकती।

इन तमाम बातों के बाद भी आपकी यह बुनियादी चिंता कि विकास से वास्तविक तात्पर्य क्या है, पूरी तरह जायज है और इसपर हमें आगे खुल कर बात करने की जरूरत है।

अमेरिकी ‘शट डाउन’ का प्रसंग एक भिन्न प्रसंग है। 17 दिन बाद उनकी इस आंतरिक राजनीतिक समस्या का समाधान होगया है। चूंकि मामला अमेरिका का है, जहां घटने वाली हर चीज के अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव होते हैं, इसीलिये इसपर इतनी बात हो रही है। लेकिन अकेली इस घटना ने अमेरिकी जनता के सामने उनके सिनेटरों की पोल खोल दी है। स्थिति यह बतायी जा रही है कि लोग इस मामले में अपने सिनेटरों के चरित्र को देख कर यह कह रहे हैं कि इनमें से अधिकांश को आगामी चुनाव में छांट कर बाहर कर देना चाहिए। हेल्थ केयर का सवाल अमेरिकी मतदाताओं के लिये एक बेहद संवेदनशील प्रश्न है। इसपर एक सैद्धांतिक रुख अपना कर ओबामा ने निश्चित तौर पर अपने विरोधियों को बुरी स्थिति में डाला है।“

आज ओबामा की वियतनाम यात्रा और उनके भाषणों के संदर्भ में फेसबुक पर अपनी पोस्ट और उस पर हुई थोड़ी सी बहस को स्मरण करना अच्छा लग रहा है। उम्मीद है, मित्रों को भी यह सार्थक लगेगा।





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