मंगलवार, 24 मई 2016

ईरान में प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के जमाने के कामों को आगे बढ़ाया


-अरुण माहेश्वरी

प्रधानमंत्री ईरान गये। हमारे पुराने फारस, सन् 2000 ईस्वी पूर्व के आर्यामा या आई-यार्मा में, अर्थात ‘आर्यों के स्थान’ में और पश्चिम वालों के पर्शिया में। एक समय यह फारस ही हमारा पिछवाड़ा हुआ करता था। लेकिन इधर सात समंदर पार से भी दूर लगने लगा था।

अब पश्चिम ने अपनी नाकेबंदी तोड़ी, तो फारस का दरवाजा दुनिया के लिये एक बार फिर खुल गया है। इसमें प्रवेश के लिये सारी दुनिया के नेताओं की कतार में शामिल होकर हमारे प्रधानमंत्री भी वहां पहुंच गये।

प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति हसन रूहानी के बीच दोनों देशों के बीच संपर्क की बात चली। चाहबहार बंदरगाह का विषय तो आना ही था। दक्षिणपूर्व ईरान में ओमान की खाड़ी में चाहबहार बंदरगाह एक ऐसा बिंदु है जहां से पाकिस्तान की दखलंदाजी को दरकिनार कर सीधे अफगानिस्तान, रूस और मध्य एशिया से परिवहन के संपर्क को साधा जा सकता है। ‘90 के जमाने में भारत ने ही ओमान, ईरान, उज़्बेकिस्तान, कज़ाखिस्तान, तुर्कमेनिस्तान को लेकर अश्बागात संधि के अन्तर्गत इस बंदरगाह के एक हिस्से को तैयार किया था। अब उसने इस संधि में शामिल होने का निर्णय किया है । भारत ने और निवेश करके इस बंदरगाह को आगे और विकसित करने की इच्छा जाहिर की। प्रधानमंत्री की इस यात्रा में जब इसके करारनामे पर हस्ताक्षर किये जा रहे थे, उसी मौके पर हमारे प्रधानमंत्री ने गालिब का एक फारसी शेर पढ़ा -

‘‘ज़नूनत गर्बे नफ़्से ख़ुद तमाम अस्थ
जे काशी पे बाँ काशाँ ऩीम गाम अस्थ।’’

(मन में ठान ले तो काशी और काशाँ (ईरान का एक शहर) के बीच की दूरी आधा कदम भर रह जायेगी।)

प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से इस शेर को सुन का राष्ट्रपति रूहानी धीमे से मुस्कुरा रहे थे। और, कहते हैं कि उनके पीछे खड़े इराक के विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ़ अपने साथी को कुहनी मार रहे थे।

प्रधानमंत्री ने अपनी इस यात्रा में ईरान के साथ भारत के प्राचीन संबंधों की जरूर कई मर्तबा दुहाई दी होगी। रूहानी ने भी भारत को अपना पुराना दोस्त कहा। लेकिन रूहानी यह कहने से नहीं चूके कि आज जो हो रहा है, वह पश्चिम की नाकेबंदी के खत्म होने की बदौलत ही हो रहा है।

हाल में हम कश्मीर गये थे। कहते हैं कि कश्मीर का भूगोल, वहां की आबोहवा, और वहां के लोग भी ईरान से बहुत मिलते-जुलते हैं। आल्प्स-हिमालय के भंजतंत्र (फोल्ड सिस्टम) में बसा ईरान उत्तर और दक्षिण में एलबुर्ज और जर्गस के ऊंचे पर्वतों से घिरा हुआ है जिसके मध्य का पठार ठीक उसी प्रकार चार हजार फुट की ऊंचाई पर है, जैसे हमारा श्रीनगर। इतिहास में ईसापूर्व सोलहवीं सदी में ईरान की एलाम की प्राचीन सभ्यता और उसकी समकालीन मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी की सभ्यता को उत्तर से आए घोड़े पर सवार आर्यों ने समान रूप से रौंद कर अपने अधीन कर लिया था और इन दोनों देशों के ही मूल निवासी बन गये। जरतुश्त धर्म और भारत के वैदिक धर्म में तथा अवेस्था और वेदों में अनोखी समानताएं हैं। भारत की तरह ही ईरान भी कई धर्मों का, ईसाई, बौद्ध और जरत्शु धर्म का मिलन-स्थल रहा। हमारे कश्मीर के कई सुदूर पहाड़ी अंचलों की भाषा पश्तो है, इंडो-ईरानियन मूल की एक प्रमुख भाषा। सेब, चेरी, खुबानी, अंजीर, तरबूज, अंगूर जो ईरान में सबसे अधिक पैदा किये जाते हैं, तो हमारे यहां कश्मीर भी इन्हीं चीजों के लिये विख्यात है। इसीप्रकार, कालीन, दरियां, और हस्तकला की दूसरी कारीगरियों के मामले में भी ईरान और कश्मीर में अनोखा साम्य है। और, आर्यों की कद-काठी तो अपनी जगह है ही। ईरान में अरबों की जीत के साथ इस्लाम आया, और कश्मीर ने भी हिंदू राजा होने के बावजूद पूरी तरह से इस्लाम को अपना लिया। इतना फर्क जरूर रहा कि ईरान ने इस्लाम के शिया पंथ को अपनाया, जबकि कश्मीर सहित अन्यत्र सुन्नी पंथ को ही ज्यादातर अपनाया गया। इसीलिये फारस कभी सूफियों के लिये मुफीद जगह नहीं रही। भारत के लोग यहां से आए महमूद गजनवी और नादिरशाह के शैतानी किस्सों को काफी जानते हैं।

बहरहाल, ईरान कभी हमारा पड़ौसी भले रहा हो, आज नहीं है। इसीलिये मोदी जी की ईरान यात्रा पर हम निश्चिंत थे कि उन पर पड़ौसियों पर धौंस जमाने का भूत सवार नहीं हो पायेगा। मोदी जी जिस संघ की पाठशाला से तैयार हुए हैं, उसके गुरू गोलवलकर अपने पूर्वजों की ‘तेजस्वी वृत्ति’ का बड़ी शान से जिक्र करते हुए कहते थे कि ‘‘हमारे लोगों में यह कहने का साहस था कि जो हमारी स्वभावसिद्ध समाज-व्यवस्था को नहीं मानता वह म्लेच्छ है।’’ यह साहसी ‘तेजस्विता’ राजनय में क्या गुल खिलाती है, इसे हम पड़ौसी मुल्कों के साथ अपने संबंधों में इधर आई तेज गिरावट में देख सकते हैं। ईरान के साथ हमारी प्राचीन संस्कृति की साझा विरासत के बाद उसके दूसरी दिशा में बढ़ जाने पर उसके प्रति इस प्रकार की ‘तेजस्वी’, ‘म्लेच्छों’ वाली समझ कितनी बेहुदा होती, इसे आसानी से समझा जा सकता है।

कहने का तात्पर्य यही है कि ईरान में मोदी जी ने सन् ‘90 में शुरू किये गये कामों को ही आगे बढ़ाने की बात की। वहां वे ‘कांग्रेसी-विहीन भारत’ के झूठे आवेश से बचे रहे और उन्होंने संघी तेवर को तरजीह नहीं दी। उसी सीमा तक उनकी यह यात्रा सफल भी हुई।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें