-अरुण माहेश्वरी
इतना कुछ घट रहा है लेकिन मोदी जी मौन है । जब रामनाथ गोयनका पुरस्कार के कार्यक्रम में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा प्रेस और सरकार के बीच छत्तीस के रिश्ते को ही जनतंत्र के लिये आदर्श रिश्ता बता रहे थे, तब मोदी जी फटी आँखों से उन्हें घूर रहे थे । झा के भाषण के कुछ देर पहले ही मोदी जी ने कहा था - भारत फिर कभी कोई आपातकाल को न दोहराये ! और दूसरी ओर, ऐन उसी समय, उनकी सरकार का सूचना और संस्कृति मंत्रालय बेबात ही देश के एक सबसे प्रमुख टीवी चैनल को एक दिन के लिये प्रसारण न करने की सज़ा सुना रहा था !
इसलिये यह कहना उचित नहीं होगा कि मोदी जी की सरकार कुछ कर नहीं रही है ! वे कुछ तो कर रहे हैं या भले कुछ न भी करते दिखाई दें, तब भी कुछ कर गुज़रने की इच्छाएँ (वासनाएँ) जरूर पाल रहे हैं ।
मोदी सरकार के पंगुपन पर मित्र जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपनी एक पोस्ट में लिखा है - "परफॉर्म किए बिना पीएम मोदी ने ढाई साल काट लिए,लगता यही है मोदीजी पीएम बनकर पीएम ऑफिस में टहलने चले आए हैं और टहलकर चले जाएंगे।"
उनकी इस पोस्ट पर हमने टिप्पणी की है -
" दरअसल वे किसी ऐसे अघटन की प्रतीक्षा में है, जिसका कोई इतिहास नहीं होगा, सीधे स्वर्ग से अवतरण होगा । वह तत्व जिसकी कोई तात्विक मीमांसा नहीं हो पायेगी ।
"वे अभी गोटियां सज़ा रहे हैं, 2017 की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति, दोनों पदों पर कोई कट्टर संघी बैठा होगा । इसके पहले न्यायपालिका और प्रेस को संत्रस्त करके वे चाहते हैं इन्हें गूँगा कर दिया जाए । इन सारी तैयारियों के बाद, वे आयेंगे अपने असली चेहरे में, मौन के रहस्यों के सभी पर्दों को फाड़ कर, अपने सबसे ख़ूँख़ार पंजों, नख-दंतों के साथ । कहेंगे हिरणकश्यप के वध के लिये नृसिंह अवतार हुआ है । और तब वध होगा हमारे जनतंत्र का, संविधान का, नागरिक स्वतंत्रताओं का ।
" लेकिन अफ़सोस कि ऐसे इतिहास-विहीन अवतरण की कामना जब जीवन के छोटे-छोटे यथार्थ से ही टकराती है तो उसका क्या हस्र होता है, हम जानते हैं । अभी उत्तर प्रदेश में ही इनको मुँह की खानी है ।"
इसमें हम अब वामपंथियों की दशा को और जोड़ना चाहेंगे । वे भी बाहर की दुनिया के सारे विषयों को भूल कर अपने अंतर को साधने की योग-साधना में लगे हुए जान पड़ते हैं । पिछले दिनों उनके एक प्रमुख नेता प्रकाश करात 'भाजपा फासीवादी है या महज सर्वाधिकारवादी ' की तरह की अपनी ही छेड़ी एक झूठी बहस के जाल में फँस गये थे । अभी उनसे कोई पूछे तो कहेंगे - इन पचड़ों में पड़ने के बजाय जरूरी है अभी अपनी एकता को बनाये रखो । वे भी सटीक समय में सटीक वार करने की वासना पाले हुए अभी के पूरे दृश्य से वामपंथ को प्राय: नदारद किये हुए हैं ।
हमें यह सब 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश प दम निकले' वाला दुखांतकारी क़िस्म का मामला ही लगता है । यह तय है कि वर्तमान की चालाकियों से कभी भविष्य की दिशा तय नहीं होगी । फिर भी, जनतंत्र के लिये ख़तरे तमाम हैं । मोदी की फासीवादी बदहवासी के ख़तरें और वामपंथ की चरम निष्क्रियता के भी ख़तरें।
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