गुरुवार, 24 नवंबर 2016

नोटबंदी के राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक पहलू


-अरुण माहेश्वरी

नोटबंदी के मोदी जी के औचक क़दम से मची अफ़रा-तफ़री पर कुछ लोग सचमुच भ्रमित है । यह अफ़रा-तफ़री सभी स्तरों पर है । इससे पैदा होने वाले ग़ुस्से, भ्रम और विचार के भी एक नहीं, अनेक रूप है । इनमें खासी संख्या में वे भी शामिल हैं जो ढर्रेवर राजनीति से उकताए हुए हैं और समझते हैं कि मछलियों के अच्छे स्वास्थ्य के लिये ही पानी में कुछ न कुछ हलचल का होना जरूरी है । इनके रेडिकलिज्म में कुँए में कूद जाना भी एक प्रकार का रेडिकलिज्म ही है ।

बहरहाल, मोदी जी के इस क़दम के आर्थिक पक्षों का सही-सही मूल्यांकन करना सीधा-सरल काम नहीं है । इसने देश के अर्थ जगत में एक भारी अस्थिरता पैदा कर दी है, इसमें कोई शक नहीं है । और हमेशा आर्थिक अस्थिरता का पहला शिकार समाज का सबसे कमजोर तबका होता है, इसे भी अलग से बताने की जरूरत नहीं है । दिल्ली की मंडियों से लेकर छोटे-छोटे कल-कारखानों में ताला लगना, ठेकेदारों का काम रुक जाना और दिल्ली जैसे शहर से रेलों में भर-भर कर लोगों का गांवों की ओर पलायन करना यही दर्शाता है ।

इसके साथ ही यह बात सौ टका साफ है कि मोदी जी का यह कदम आर्थिक कारणों से नहीं, शुद्ध रूप में राजनीतिक कारणों से उठाया गया कदम है । आज ये तथ्य सबके सामने है कि भारत में काला धन का बमुश्किल एक प्रतिशत हिस्सा नगदी में है । इसी प्रकार जाली नोटों की संख्या तो 0.025 प्रतिशत मात्र है । इन विषयों पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं ।

और जहां तक राजनीति का सवाल है, राजनीति में नाटकीय तत्वों की एक बड़ी भूमिका से भला कौन इंकार करेगा ! नरेंद्र मोदी जीते, भाजपा-आरएसएस सब मोदी पार्टी बन गए और देखते-देखते बुद्धिजीवियों, मुसलमानों और दलितों को धमकाने में ही उन्होंने अपने कार्यकाल का आधा समय बिता दिया । लोगों ने मोदी को विदेशों में घूमते और दिन में दस बार नई-नई पोशाकें बदलते जरूर देखा लेकिन बाक़ी जीवन उसी पुराने, बँधे-बँधाए ढंग से जारी रहा । मोदी जी ने खुद को रैम्प पर चलने वाले फ़ैशन मॉडल का प्रतीक बना लिया, पार्टी को अमित शाह का गिरोह और रामदेव सरीखे बाबा को उद्योगपति-अर्थशास्त्री-विचारक-योगी । इस प्रकार की एक तिकड़ी से राजनीति की एक नई धुरी तो बनती दिखाई दी, लेकिन यह अजीबो-ग़रीब गुह्य तत्वों की धुरी थी, जिसमें किसी के लिये भी किसी आशा का कोई नया तत्व नहीं दिखाई देता है ।

बहरहाल, ऐसे ही एक समय में, अपने कार्यकाल के मध्यान्ह में मोदी जी ने विमुद्रीकरण का यह एक ऐसा नया क़दम उठाया है जिसकी मिसाल दुनिया में कुछ बनाना स्टेट (अराजक राज्य) माने गये देशों के बदहवास शासनों के अलावा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती । 1991 में सोवियत संघ में गोर्बाचेव ने अपने शासन के अंतिम दिनों में बाज़ार में रूबल की संख्या को कम करने के लिये ऐसा क़दम उठाया तो सोवियत संघ ही उठ गया । नब्बे के दशक में जेयरे के तानाशाह मोबुतु ने यह क़दम उठाया तो उससे पैदा हुई अराजकता से वह फिर कभी उभर ही नहीं पाया और 1997 में  उसको उखाड़ फेंका गया । म्यांमार में 1987 में अपनी अस्सी फ़ीसदी मुद्रा को बंद कर दिया गया, तभी से वहाँ के सैनिक शासन के खिलाफ जनता की लड़ाई कभी नहीं रुकी । म्यांमार की सैनिक जुंटा को दुनिया के एक बेहद दमनकारी शासक के रूप में याद किया जाता है । घाना में ऐसा ही एक क़दम उठाया गया था, जिससे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय और ज्यादा बढ़ गया । इसी प्रकार नाइजीरिया के सैनिक शासक मुहम्मुदु बुहारी ने भी एक कोशिश की थी जिससे हासिल कुछ नहीं हुआ । कुल मिला कर यह बदहवास तानाशाहों का अपनी जनता को सताने का एक प्रिय औज़ार रहा है ।

मोदी जी ने भी आज अपने को दुनिया के इन सभी बदनाम शासकों की क़तार में शामिल कर लिया है ।

इसके अलावा इस विषय का एक और, मोदी जी का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस विषय पर हम जितना सोचते हैं, इसकी गहरी तहों में बैठे एक अजीबो-गरीब प्रेत संसार का घना अंधेरा आंखों के सामने छाने लगता है। फ्रायड ने यहूदियों की धार्मिक परंपरा का विश्लेषण करते हुए मूसा की हत्या के हिंसक प्रकरण की चर्चा की है। वह कहता है कि इससे जुड़े छुद्र हिंसक भाव के प्रेत से वह धार्मिक परंपरा कभी अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बनिस्बत, उसने उनमें सामान्य जीवन के प्रति नकार से चिपके रहने की एक ऐसी जिद पैदा कर दी कि जिसके चलते यहूदी लोग हजारों साल से बिना किसी देश और बिना किसी साझा सांस्थानिक परंपरा के भी बरकरार है। इसी संदर्भ में फ्रायड ने लिखा है कियह सच है कि कोई भी व्यक्ति किसी संप्रदाय का पूर्ण सदस्य तब तक नहीं बन पाता है जब तक वह उस संप्रदाय के प्रकट विचारों और विश्वासों के साथ ही उसकी परंपरा से जुड़ी नाना प्रकार की मिथकीय बातों के प्रेतात्मक पक्षों को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लेता है।

इस लिहाज से, यह सच है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) नामक एक गोपनीय प्रकार के संगठन के प्रचारक के नाते उसके वैसे ही एक ‘पूर्ण सदस्य’ है, जो इसके संस्कारों के नाम पर इसके अंदर गहरे तक पैठी सभी मिथकीय बातों की ग्रंथियों को अपने अंदर पाले हुए हैं। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं।

आरएसएस के सभी अध्येताओं ने इस बात को नोट किया है कि उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के इस गोपनीय संगठन को समाज के जिस तबके से सबसे अधिक समर्थन मिलता रहा है, वह है छोटे-बड़े दुकानदारों और व्यवसायियों का तबका। इन छोटे व्यवसासियों के अन्यथा एक प्रकार के नीरस और उबाऊ जीवन में आरएसएस उनकी हिंदू पहचान की भावना के साथ एक थोथे शौर्य और रोमांच का बोध पैदा करता रहा है; उनके आत्म-केंद्रित जीवन में कुछ सार्थकता का अहसास उत्पन्न करता है।

व्यवसायियों के मूलत: ऐसे, नगदी लेन-देन से काम करने वाले तबके के बीच काम करने वाले आरएसएस का नेतृत्व इन व्यापारियों की कर बचाने की करतूतों से परिचित होने के नाते अपने जेहन में कहीं न कहीं इस भ्रम को पाला हुआ है कि दुनिया का सारा काला धन या तो व्यापारियों के गोदामों में पड़े बोरों में बंद है, या उनकी तिजोरियों और आलमारियों में सहेज कर रखी गई नोटों की गड्डियों में। इसीलिये इनके पास अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में लगातार प्रवहमान काले धन के बारे में कभी कोई सही अवधारणा नहीं बन पाई है। यह वही तबका है जो अपनी धार्मिक मिथकीय कथाओं को भी इतना बड़ा सत्य मानता है कि उसके बड़े से बड़े नेता को वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भी यह कहते हुए हिचक नहीं होती कि हमारे वेदों में तो आधुनिक विज्ञान और तकनीक तक की सारी चीजें मौजूद है।

कुल मिला कर, आज की दिक्कत यह है कि इस संकीर्ण मानसिकता के लोग आज देश की सत्ता पर आगये हैं। उन्होंने वादा किया था कि काला धन को खत्म करेंगे,  लेकिन यह धन कैसे और कहां है, इसके बारे में इनके पास कोई सही ज्ञान नहीं है, सिवाय इसके कि चंद लोगों के गोदामों में पड़े बोरा और तिजोरियों में। इनके सलाहकार भी कुछ विचित्र प्रकार के लोग है, जैसे बाबा रामदेव, जिन्होंने चुनाव के पहले इन व्यापारियों को खुश करने के लिये आयकर को ही खत्म कर देने का तुगलकी प्रस्ताव रखा था। कहते हैं, ऐसा ही एक पुणे स्थित संघी संगठन है -अर्थक्रांति, जिसके किसी अनिल बोकिल ने मोदी जी को नगदी पर धावा बोलने के इस कदम के बारे में समझाया था।

और यही वजह है कि नगदी रखने वाले आम लोग, किसान, मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार तो मोदी की नजर में एक नंबर के खलनायक हो गये और अंबानी, अडानी से लेकर माल्या, ललित मोदी आदि बिल्कुल दूध के धुले, साइबर दुनिया में प्लास्टिक मनि के बादशाह, सफेद धन के प्रतीक पुरुष हो गये। अनिवासी भारतीय, जिनमें से कई रोजाना भारतीय अर्थ-व्यवस्था में पैदा होने वाले काले धन को गोरा करने के गोरखधंधों में लगे हुए हैं, उन सबके साथ मोदी जी की खूब छन रही है, लेकिन आम लोग, किसान, मजदूर और छोटे दुकानदार उनकी आंखों में शूल की तरह चुभते दिखाई देते हैं।

आरएसएस के अंदर की ऐसी ही एक और ग्रंथी है - जाली नोट और आतंकवादियों की ग्रंथी। इसका उनके अंदर की मुस्लिम-विरोधी नफरत से भी एक गहरा संबंध है। मजे की बात यह है कि आज वे सत्ता में है, भारत सरकार के सभी प्रकार के सांख्यिकी और निगरानी के संस्थानों पर उनका नियंत्रण है। इनके जरिये वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में जाली नोटों की संख्या आदि के बारे में, और आतंकवादियों के काम करने के तौर-तरीकों के बारे में आसानी से ज्यादा वस्तुनिष्ठ समझ कायम कर सकते हैं। लेकिन, ये ऐसे हैं कि उन संस्थानों की ओर झांकना भी पसंद नहीं करते। इन्हें डर लगता है कि जिन ग्रंथियों के साथ उनका पूरा अस्तित्व जुड़ा हुआ है, उनमें ही कहीं इन संस्थानों के दिये तथ्यों से दरार न पड़ने लग जाए और  उनकी संघी अस्मिता का पूरा महल ही न ढह जाए। यह एक प्रकार से इनके लिये अस्तित्व का संकट है।

जाली नोटों के बारे में स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की तरह का भारत का सबसे प्रतिष्ठित संगठन जो तथ्य दे रहा है, उससे पता चलता है कि अब तक भारत में कुल नगदी का महज 0.025 प्रतिशत भी जाली नोटों का नहीं है। इसी प्रकार, आतंकवादी अपनी करतूतों के लिये नगदी रुपयों का ही अनिवार्य तौर पर व्यवहार करते हैं, इसके बारे में भी कोई सबूत नहीं है।

फिर भी, यह मोदी जी की संघी मानसिकता की विडंबना है कि वे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस करके छोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसे तथ्यों की ओर नजर भी नहीं डाल सकते। उल्टे जिन सभी अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस कदम को एक बुरी अर्थनीति कहा है, मोदी जी कहते हैं, वे सचाई को नहीं जानते। सचाई तो संघी प्रचारक की अपनी ग्रंथी है !

यह सब देख कर पुन: फ्रायड का ही खयाल आता है जो कहता है कि आदमी की दमित भावनाओं में इतनी भयानक शक्ति होती है कि वह उसे किसी भी प्रकार की भयानक से भयानक गल्तियों के रास्ते में धकेल सकती है। आरएसएस में रहते हुए जिन बेतुकी बातों को मोदी जी ने अपने अंदर पाल रखा है, कहना न होगा, वे ही अब अनुकूल परिस्थितियों में ऐसी विध्वंसक दमित भावनाओं के रूप में प्रकट हो रही है।

पता नहीं वे कैसे, अपने प्रचारक जीवन की संकीर्णताओं से मुक्त होंगे।

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