-अरुण माहेश्वरी
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 2015 का सकल घरेलू उत्पादन ( जीडीपी) लगभग 125 लाख करोड़ रुपये के बराबर था। पिछले लगभग डेढ़ दशक में तकरीबन सात प्रतिशत की दर से इसमें वृद्धि हुई है। 2006 में यह 945 बिलियन डालर था और 2016 में लगभग 2100 बिलियन डालर। सरकारी आकलन के अनुसार ही भारत में अभी हर साल जीडीपी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा काला धन के रूप में पैदा होता है। अर्थात अभी एक साल में कम से कम लगभग 25 लाख करोड़ रुपये।
मोदी जी की नोट-बदली स्कीम से 500 और 1000 के पुराने नोटों का चलन बंद करके कुल 13 लाख करोड़ की नगदी को निशाना बनाया गया है। इस प्रकार पिछले 20 साल में जमा हुए कम से 350 लाख करोड़ रुपये के काले धन में से एक प्रतिशत से भी कम को, क्योंकि 13 लाख करोड़ की पूरी नगदी तो काला धन नहीं है। अगर इसमें से तीन लाख करोड़ भी काला धन निकल आता है तो वह पिछले 20 सालों में जमा काला धन के एक प्रतिशत से भी कम होगा।
हम समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत के काला धन के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम को लक्ष्य करके मोदी जी ने पूरे देश में क्यों ऐसी उथल-पुथल मचा दी कि पिछले कई दिनों से पूरा देश ठप हो गया है ? जितना काला धन मिलेगा, उससे बहुत ज्यादा अर्थ-व्यवस्था को नुकसान हो जायेगा।
इस विषय पर हम जितना सोचते हैं, मोदी जी के मनोविज्ञान की गहरी तहों में बैठे एक अजीबो-गरीब प्रेत संसार का घना अंधेरा आंखों के सामने छाने लगता है। फ्रायड ने यहूदियों की धार्मिक परंपरा का विश्लेषण करते हुए मूसा की हत्या के हिंसक प्रकरण की चर्चा की है। वह कहता है कि इससे जुड़े छुद्र हिंसक भाव के प्रेत से वह धार्मिक परंपरा कभी अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बनिस्बत, उसने उनमें सामान्य जीवन के प्रति नकार से चिपके रहने की एक ऐसी जिद पैदा कर दी कि जिसके चलते यहूदी लोग हजारों साल से बिना किसी देश और बिना किसी साझा सांस्थानिक परंपरा के भी बरकरार है। इसी संदर्भ में फ्रायड ने लिखा है कियह सच है कि कोई भी व्यक्ति किसी संप्रदाय का पूर्ण सदस्य तब तक नहीं बन पाता है जब तक वह उस संप्रदाय के प्रकट विचारों और विश्वासों के साथ ही उसकी परंपरा से जुड़ी नाना प्रकार की मिथकीय बातों के प्रेतात्मक पक्षों को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लेता है।
इस लिहाज से, यह सच है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) नामक एक गोपनीय प्रकार के संगठन के प्रचारक के नाते उसके वैसे ही एक ‘पूर्ण सदस्य’ है, जो इसके संस्कारों के नाम पर इसके अंदर गहरे तक पैठी सभी मिथकीय बातों की ग्रंथियों को अपने अंदर पाले हुए हैं। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं।
आरएसएस के सभी अध्येताओं ने इस बात को नोट किया है कि उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के इस गोपनीय संगठन को समाज के जिस तबके से सबसे अधिक समर्थन मिलता रहा है, वह है छोटे-बड़े दुकानदारों और व्यवसायियों का तबका। इन छोटे व्यवसासियों के अन्यथा एक प्रकार के नीरस और उबाऊ जीवन में आरएसएस उनकी हिंदू पहचान की भावना के साथ एक थोथे शौर्य और रोमांच का बोध पैदा करता रहा है; उनके आत्म-केंद्रित जीवन में कुछ सार्थकता का अहसास उत्पन्न करता है।
व्यवसायियों के मूलत: ऐसे, नगदी लेन-देन से काम करने वाले तबके के बीच काम करने वाले आरएसएस का नेतृत्व इन व्यापारियों की कर बचाने की करतूतों से परिचित होने के नाते अपने जेहन में कहीं न कहीं इस भ्रम को पाला हुआ है कि दुनिया का सारा काला धन या तो व्यापारियों के गोदामों में पड़े बोरों में बंद है, या उनकी तिजोरियों और आलमारियों में सहेज कर रखी गई नोटों की गड्डियों में। जैसी कि आरएसएस वालों की सबसे बड़ी कमी है, वे हर प्रकार के बुद्धिजीवियों अर्थात ज्ञान चर्चा से नफरत करते है और कूपमंडुक की तरह अपने छोटे से संसार के अनुभवों को ही जीवन का संपूर्ण सत्य मान कर चलते हैं, इसीलिये इनके पास अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में लगातार प्रवहमान काले धन के बारे में कभी कोई सही अवधारणा नहीं बन पाई है। यह वही तबका है जो अपनी धार्मिक मिथकीय कथाओं को भी इतना बड़ा सत्य मानता है कि उसके बड़े से बड़े नेता को वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भी यह कहते हुए हिचक नहीं होती कि हमारे वेदों में तो आधुनिक विज्ञान और तकनीक तक की सारी चीजें मौजूद है। खैर।
कुल मिला कर आज की दिक्कत यह है कि इस संकीर्ण मानसिकता के लोग आज देश की सत्ता पर आगये हैं। उन्होंने वादा किया था कि काला धन को खत्म करेंगे, लेकिन यह धन कैसे और कहां है, इसके बारे में इनके पास कोई सही ज्ञान नहीं है, सिवाय इसके कि चंद लोगों के गोदामों में पड़े बोरा और तिजोरियों में। जो 99 प्रतिशत काला धन पूरी अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में निरंतर प्रवाहमान है, इसके बारे में ये थोड़ा भी सोच पाने में असमर्थ है। इनके सलाहकार भी कुछ विचित्र प्रकार के लोग है, जैसे बाबा रामदेव, जिन्होंने चुनाव के पहले इन व्यापारियों को खुश करने के लिये आयकर को ही खत्म कर देने का तुगलकी प्रस्ताव रखा था। कहते हैं, ऐसा ही एक पुणे स्थित संघी संगठन है -अर्थक्रांति, जिसके किसी अनिल बोकिल ने मोदी जी को नगदी पर धावा बोलने के इस कदम के बारे में समझाया था।
और यही वजह है कि नगदी रखने वाले आम लोग, किसान, मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार तो मोदी की नजर में एक नंबर के खलनायक हो गये और अंबानी, अडानी से लेकर माल्या, ललित मोदी आदि बिल्कुल दूध के धुले, साइबर दुनिया में प्लास्टिक मनि के बादशाह, सफेद धन के प्रतीक पुरुष हो गये। अनिवासी भारतीय, जिनमें से कई रोजाना भारतीय अर्थ-व्यवस्था में पैदा होने वाले काले धन को गोरा करने के गोरखधंधों में लगे हुए हैं, उन सबके साथ मोदी जी की खूब छन रही है, लेकिन आम लोग, किसान, मजदूर और छोटे दुकानदार उनकी आंखों में शूल की तरह चुभते दिखाई देते हैं।
आरएसएस के अंदर की ऐसी ही एक और ग्रंथी है - जाली नोट और आतंकवादियों की ग्रंथी। इसका उनके अंदर की मुस्लिम-विरोधी नफरत से भी एक गहरा संबंध है। मजे की बात यह है कि आज वे सत्ता में है, भारत सरकार के सभी प्रकार के सांख्यिकी और निगरानी के संस्थानों पर उनका नियंत्रण है। इनके जरिये वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में जाली नोटों की संख्या आदि के बारे में, और आतंकवादियों के काम करने के तौर-तरीकों के बारे में आसानी से ज्यादा वस्तुनिष्ठ समझ कायम कर सकते हैं। लेकिन, ये ऐसे हैं कि उन संस्थानों की ओर झांकना भी पसंद नहीं करते। इन्हें डर लगता है कि जिन ग्रंथियों के साथ उनका पूरा अस्तित्व जुड़ा हुआ है, उनमें ही कहीं इन संस्थानों के दिये तथ्यों से दरार न पड़ने लग जाए और उनकी संघी अस्मिता का पूरा महल ही न ढह जाए। यह एक प्रकार से इनके लिये अस्तित्व का संकट है।
जाली नोटों के बारे में स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की तरह का भारत का सबसे प्रतिष्ठित संगठन जो तथ्य दे रहा है, उससे पता चलता है कि अब तक भारत में कुल नगदी का महज 0.025 प्रतिशत भी जाली नोटों का नहीं है। इसी प्रकार, आतंकवादी अपनी करतूतों के लिये नगदी रुपयों का ही अनिवार्य तौर पर व्यवहार करते हैं, इसके बारे में भी कोई सबूत नहीं है।
फिर भी, यह मोदी जी की संघी मानसिकता की विडंबना है कि वे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस करके छोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसे तथ्यों की ओर नजर नहीं डाल सकते ! उल्टे जिन सभी अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस कदम को एक बुरी अर्थनीति (bad economy) कहा है, मोदी जी कहते हैं, वे सचाई को नहीं जानते।
सचाई तो सिर्फ संघी प्रचारक की अपनी ग्रंथियों में होती है !
यह सब देख कर पुन: फ्रायड का ही खयाल आता है जो कहता है कि आदमी की दमित भावनाओं में इतनी भयानक शक्ति होती है कि वह उसे किसी भी प्रकार की भयानक से भयानक गल्तियों के रास्ते में धकेल सकती है। आरएसएस में रहते हुए जिन बेतुकी बातों को मोदी जी ने अपने अंदर पाल रखा है, कहना न होगा, वे ही अब अनुकूल परिस्थितियों में ऐसी विध्वंसक दमित भावनाओं के रूप में प्रकट हो रही है।
पता नहीं वे कैसे, अपने प्रचारक जीवन की संकीर्णताओं से मुक्त होंगे।
बहरहाल, इस खास विषय में, भारत के विपक्ष ने मोदी जी को पतली गली से बच निकलने का एक रास्ता सुझाया है। कहा है कि वे अभी भी अर्थ-व्यवस्था की पूरी तबाही की दिशा में बढ़ा दिये गये कदम को वापस लेकर इज्जत के साथ निकल सकते हैं। देखने की बात यही है कि वे कब और कैसे विपक्ष की इस सलाह को मानते हैं, या पूरी बर्बादी तक जाकर भी वे अपनी संघी अस्मिता से जुड़ी जिद से चिपके रहते हैं !
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 2015 का सकल घरेलू उत्पादन ( जीडीपी) लगभग 125 लाख करोड़ रुपये के बराबर था। पिछले लगभग डेढ़ दशक में तकरीबन सात प्रतिशत की दर से इसमें वृद्धि हुई है। 2006 में यह 945 बिलियन डालर था और 2016 में लगभग 2100 बिलियन डालर। सरकारी आकलन के अनुसार ही भारत में अभी हर साल जीडीपी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा काला धन के रूप में पैदा होता है। अर्थात अभी एक साल में कम से कम लगभग 25 लाख करोड़ रुपये।
मोदी जी की नोट-बदली स्कीम से 500 और 1000 के पुराने नोटों का चलन बंद करके कुल 13 लाख करोड़ की नगदी को निशाना बनाया गया है। इस प्रकार पिछले 20 साल में जमा हुए कम से 350 लाख करोड़ रुपये के काले धन में से एक प्रतिशत से भी कम को, क्योंकि 13 लाख करोड़ की पूरी नगदी तो काला धन नहीं है। अगर इसमें से तीन लाख करोड़ भी काला धन निकल आता है तो वह पिछले 20 सालों में जमा काला धन के एक प्रतिशत से भी कम होगा।
हम समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत के काला धन के एक प्रतिशत हिस्से से भी कम को लक्ष्य करके मोदी जी ने पूरे देश में क्यों ऐसी उथल-पुथल मचा दी कि पिछले कई दिनों से पूरा देश ठप हो गया है ? जितना काला धन मिलेगा, उससे बहुत ज्यादा अर्थ-व्यवस्था को नुकसान हो जायेगा।
इस विषय पर हम जितना सोचते हैं, मोदी जी के मनोविज्ञान की गहरी तहों में बैठे एक अजीबो-गरीब प्रेत संसार का घना अंधेरा आंखों के सामने छाने लगता है। फ्रायड ने यहूदियों की धार्मिक परंपरा का विश्लेषण करते हुए मूसा की हत्या के हिंसक प्रकरण की चर्चा की है। वह कहता है कि इससे जुड़े छुद्र हिंसक भाव के प्रेत से वह धार्मिक परंपरा कभी अपने को मुक्त नहीं कर पाई है। बनिस्बत, उसने उनमें सामान्य जीवन के प्रति नकार से चिपके रहने की एक ऐसी जिद पैदा कर दी कि जिसके चलते यहूदी लोग हजारों साल से बिना किसी देश और बिना किसी साझा सांस्थानिक परंपरा के भी बरकरार है। इसी संदर्भ में फ्रायड ने लिखा है कियह सच है कि कोई भी व्यक्ति किसी संप्रदाय का पूर्ण सदस्य तब तक नहीं बन पाता है जब तक वह उस संप्रदाय के प्रकट विचारों और विश्वासों के साथ ही उसकी परंपरा से जुड़ी नाना प्रकार की मिथकीय बातों के प्रेतात्मक पक्षों को भी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर लेता है।
इस लिहाज से, यह सच है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक (आरएसएस) नामक एक गोपनीय प्रकार के संगठन के प्रचारक के नाते उसके वैसे ही एक ‘पूर्ण सदस्य’ है, जो इसके संस्कारों के नाम पर इसके अंदर गहरे तक पैठी सभी मिथकीय बातों की ग्रंथियों को अपने अंदर पाले हुए हैं। वे उससे मुक्त नहीं हो सकते हैं।
आरएसएस के सभी अध्येताओं ने इस बात को नोट किया है कि उग्र हिंदुत्व की विचारधारा के इस गोपनीय संगठन को समाज के जिस तबके से सबसे अधिक समर्थन मिलता रहा है, वह है छोटे-बड़े दुकानदारों और व्यवसायियों का तबका। इन छोटे व्यवसासियों के अन्यथा एक प्रकार के नीरस और उबाऊ जीवन में आरएसएस उनकी हिंदू पहचान की भावना के साथ एक थोथे शौर्य और रोमांच का बोध पैदा करता रहा है; उनके आत्म-केंद्रित जीवन में कुछ सार्थकता का अहसास उत्पन्न करता है।
व्यवसायियों के मूलत: ऐसे, नगदी लेन-देन से काम करने वाले तबके के बीच काम करने वाले आरएसएस का नेतृत्व इन व्यापारियों की कर बचाने की करतूतों से परिचित होने के नाते अपने जेहन में कहीं न कहीं इस भ्रम को पाला हुआ है कि दुनिया का सारा काला धन या तो व्यापारियों के गोदामों में पड़े बोरों में बंद है, या उनकी तिजोरियों और आलमारियों में सहेज कर रखी गई नोटों की गड्डियों में। जैसी कि आरएसएस वालों की सबसे बड़ी कमी है, वे हर प्रकार के बुद्धिजीवियों अर्थात ज्ञान चर्चा से नफरत करते है और कूपमंडुक की तरह अपने छोटे से संसार के अनुभवों को ही जीवन का संपूर्ण सत्य मान कर चलते हैं, इसीलिये इनके पास अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में लगातार प्रवहमान काले धन के बारे में कभी कोई सही अवधारणा नहीं बन पाई है। यह वही तबका है जो अपनी धार्मिक मिथकीय कथाओं को भी इतना बड़ा सत्य मानता है कि उसके बड़े से बड़े नेता को वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भी यह कहते हुए हिचक नहीं होती कि हमारे वेदों में तो आधुनिक विज्ञान और तकनीक तक की सारी चीजें मौजूद है। खैर।
कुल मिला कर आज की दिक्कत यह है कि इस संकीर्ण मानसिकता के लोग आज देश की सत्ता पर आगये हैं। उन्होंने वादा किया था कि काला धन को खत्म करेंगे, लेकिन यह धन कैसे और कहां है, इसके बारे में इनके पास कोई सही ज्ञान नहीं है, सिवाय इसके कि चंद लोगों के गोदामों में पड़े बोरा और तिजोरियों में। जो 99 प्रतिशत काला धन पूरी अर्थ-व्यवस्था की धमनियों में निरंतर प्रवाहमान है, इसके बारे में ये थोड़ा भी सोच पाने में असमर्थ है। इनके सलाहकार भी कुछ विचित्र प्रकार के लोग है, जैसे बाबा रामदेव, जिन्होंने चुनाव के पहले इन व्यापारियों को खुश करने के लिये आयकर को ही खत्म कर देने का तुगलकी प्रस्ताव रखा था। कहते हैं, ऐसा ही एक पुणे स्थित संघी संगठन है -अर्थक्रांति, जिसके किसी अनिल बोकिल ने मोदी जी को नगदी पर धावा बोलने के इस कदम के बारे में समझाया था।
और यही वजह है कि नगदी रखने वाले आम लोग, किसान, मजदूर, छोटे-बड़े दुकानदार तो मोदी की नजर में एक नंबर के खलनायक हो गये और अंबानी, अडानी से लेकर माल्या, ललित मोदी आदि बिल्कुल दूध के धुले, साइबर दुनिया में प्लास्टिक मनि के बादशाह, सफेद धन के प्रतीक पुरुष हो गये। अनिवासी भारतीय, जिनमें से कई रोजाना भारतीय अर्थ-व्यवस्था में पैदा होने वाले काले धन को गोरा करने के गोरखधंधों में लगे हुए हैं, उन सबके साथ मोदी जी की खूब छन रही है, लेकिन आम लोग, किसान, मजदूर और छोटे दुकानदार उनकी आंखों में शूल की तरह चुभते दिखाई देते हैं।
आरएसएस के अंदर की ऐसी ही एक और ग्रंथी है - जाली नोट और आतंकवादियों की ग्रंथी। इसका उनके अंदर की मुस्लिम-विरोधी नफरत से भी एक गहरा संबंध है। मजे की बात यह है कि आज वे सत्ता में है, भारत सरकार के सभी प्रकार के सांख्यिकी और निगरानी के संस्थानों पर उनका नियंत्रण है। इनके जरिये वे भारतीय अर्थ-व्यवस्था में जाली नोटों की संख्या आदि के बारे में, और आतंकवादियों के काम करने के तौर-तरीकों के बारे में आसानी से ज्यादा वस्तुनिष्ठ समझ कायम कर सकते हैं। लेकिन, ये ऐसे हैं कि उन संस्थानों की ओर झांकना भी पसंद नहीं करते। इन्हें डर लगता है कि जिन ग्रंथियों के साथ उनका पूरा अस्तित्व जुड़ा हुआ है, उनमें ही कहीं इन संस्थानों के दिये तथ्यों से दरार न पड़ने लग जाए और उनकी संघी अस्मिता का पूरा महल ही न ढह जाए। यह एक प्रकार से इनके लिये अस्तित्व का संकट है।
जाली नोटों के बारे में स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की तरह का भारत का सबसे प्रतिष्ठित संगठन जो तथ्य दे रहा है, उससे पता चलता है कि अब तक भारत में कुल नगदी का महज 0.025 प्रतिशत भी जाली नोटों का नहीं है। इसी प्रकार, आतंकवादी अपनी करतूतों के लिये नगदी रुपयों का ही अनिवार्य तौर पर व्यवहार करते हैं, इसके बारे में भी कोई सबूत नहीं है।
फिर भी, यह मोदी जी की संघी मानसिकता की विडंबना है कि वे देश की पूरी अर्थ-व्यवस्था को तहस-नहस करके छोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसे तथ्यों की ओर नजर नहीं डाल सकते ! उल्टे जिन सभी अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस कदम को एक बुरी अर्थनीति (bad economy) कहा है, मोदी जी कहते हैं, वे सचाई को नहीं जानते।
सचाई तो सिर्फ संघी प्रचारक की अपनी ग्रंथियों में होती है !
यह सब देख कर पुन: फ्रायड का ही खयाल आता है जो कहता है कि आदमी की दमित भावनाओं में इतनी भयानक शक्ति होती है कि वह उसे किसी भी प्रकार की भयानक से भयानक गल्तियों के रास्ते में धकेल सकती है। आरएसएस में रहते हुए जिन बेतुकी बातों को मोदी जी ने अपने अंदर पाल रखा है, कहना न होगा, वे ही अब अनुकूल परिस्थितियों में ऐसी विध्वंसक दमित भावनाओं के रूप में प्रकट हो रही है।
पता नहीं वे कैसे, अपने प्रचारक जीवन की संकीर्णताओं से मुक्त होंगे।
बहरहाल, इस खास विषय में, भारत के विपक्ष ने मोदी जी को पतली गली से बच निकलने का एक रास्ता सुझाया है। कहा है कि वे अभी भी अर्थ-व्यवस्था की पूरी तबाही की दिशा में बढ़ा दिये गये कदम को वापस लेकर इज्जत के साथ निकल सकते हैं। देखने की बात यही है कि वे कब और कैसे विपक्ष की इस सलाह को मानते हैं, या पूरी बर्बादी तक जाकर भी वे अपनी संघी अस्मिता से जुड़ी जिद से चिपके रहते हैं !
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