शनिवार, 1 जुलाई 2017

जीएसटी भारत के लोगों के लिये सर्वनाशी साबित हो सकता है


-अरुण माहेश्वरी

भारत की तरह के एक विफल राज्य में बहुत सारे लोग छोटे-मोटे धंधों से जीवन यापन करते हैं । जीएसटी आम आदमी के लिये जीविका के इस स्वतंत्र चयन को बुरी तरह से प्रभावित और बाधित करेगा । अब बनिये की दुकानदारी पहले की तरह कोई आसान चीज नहीं होगी । दुकान में ही सुबह से शाम तक जीवन काटने की ख़ास बनिया संस्कृति का भी नाश होगा । व्यापार पर अधिक पूँजी वाले संगठित क्षेत्र का एकाधिकार होगा । आज का दुकानदार या उसकी संततियां, अगर वे भाग्यशाली हुए तो, बड़े व्यापारियों की गुमाश्ता सेना में शामिल होंगे । वैसे इसकी भी संभावना कम है । मनुष्यों का काम छीनने के लिये मशीनें, रोबोट पहले से तैयार है ।
दुनिया के सामने रोज़गार-विहीन विकास आज की सबसे विकट सचाई है । पश्चिम के देशों में बड़े-बड़े मॉल में सिर्फ पाँच-दस कर्मचारियों की उपस्थिति भावी भारत की तस्वीर पेश कर रही है ।

बड़े और संगठित क्षेत्र के विक्रेता का सामान गली की परचून की दुकान से हर हाल में सस्ता होगा, क्योंकि वह जीएसटी के इनपुट का लाभ सरकार से वसूल कर पायेगा और वसूले गये जीएसटी की चोरी के बावजूद एक अंश ग्राहक को भी देने में समर्थ होगा । इसीलिये हर परचूनी के ज़िंदा रहने की संभावना को अब ख़त्म माना जा सकता है ।

मार्क्स ने कहा था - 'पूँजी का संचय सर्वहारा की वृद्धि है ।' कुल मिला कर यह पूँजीवाद का वही विजय रथ है जो अपने पीछे न जाने कितनी लाशों, कितनी बर्बादियों और मनुष्य के ख़ून और पसीने का कीचड़ छोड़ता जाता है ।
इसीलिये हमने कहा है कि जनता से अधिकतम कर वसूलने की नई कर-प्रणाली पर जश्न, लाश के चारों ओर प्रेतों के नृत्य की तरह है ।

रोमन इतिहासकार टैसितस ने बताया है कि रोम के सम्राट नीरो ने अपनी दावत के लिये बग़ीचे को रौशन करने की ख़ातिर अपने कुछ बंदियों को ज़िंदा जला दिया था । हमारे पत्रकार पी साईनाथ ने लिखा है कि सालों से मैं यह नहीं समझ पाया कि नीरो की ऐसी दावत के अतिथि कैसे लोग रहे होंगे ? तीस जून की रात दिल्ली के जश्न में शामिल लोगों में नीरो के अतिथियों की एक सूरत देखी जा सकती है ।

आगे मोदी जी जीएसटी को लेकर पर फिर एक बार नोटबंदी वाली मुद्राओं के साथ देश भर में घूमेंगे ; और उसी तरह शहरों-क़स्बों में उजड़ते हुए लोगों की जाने जायेगी । भाजपा और आरएसएस के लोग इन मरते लोगों को फिर से एक बार लड्डू खिलाये जायेंगे ।

कुछ ऐसे अर्थशास्त्री बाजार में उतरे हुए दिखाई देंगे जिनका दावा होगा कि जीएसटी से बाजार का विस्तार होगा और इससे मंदी में फंसे हुए बाजार में सचलता आजायेगी । करों से न बाज़ार का विस्तार होता है और न संकुचन । बाजार निर्भर करता है आम लोगों की क्रय शक्ति पर । और किसी भी वजह से आमदनी में कटौती से बाजार नहीं बढ़ सकता । जीएसटी ही बाजार की गति का कोई मूल मंत्र होता तो दुनिया के जिन तमाम देशों में जीएसटी है, वहाँ मंदी या कोई भी आर्थिक संकट कभी पैदा ही नहीं होना चाहिए था । जो कहते हैं, देश भर में समान कर से बाजार का विस्तार होगा, वे या तो अर्थनीति के बारे में कुछ नहीं जानते या प्रवंचकों के दल के हैं ।
जो लोग कह रहे हैं कि जीएसटी से जीडीपी में एक प्रतिशत की वृद्धि होगी, उनके बारे में ख़ुद इस सरकार के नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय तक ने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि यह बात कोरी बकवास है । देबराय ने मोदी सरकार के जीएसटी के पूरे ढाँचे को ही दोषपूर्ण घोषित कर दिया है ।

इसी प्रकार, महज कर-प्रणाली में बदलाव से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का दावा भी शुद्ध प्रवंचना है । नोटबंदी के वक़्त भी यही सब कहा गया था । रोज़गार-विहीन लोग समाज में तमाम प्रकार की अराजकताओं के, लूट-खसोट के भी कारण बनेंगे । ब्राज़ील, नाइजीरिया की तरह के देश इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । यह कर वसूलने वाली नौकरशाही के भ्रष्टाचार में एक नई छलाँग का कारण बनेगा ।

जीएसटी का सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास पर । इससे क्षेत्रीय असमानता स्थायी हो जायेगी । करों में छूट से कई पिछड़े हुए इलाक़ों का विकास संभव हुआ था । वह संभावना अब ख़त्म होगा ।
इस प्रकार, जीएसटी के इन सभी प्रभावों को समझते हुए इनसे बचने के उपयुक्त उपायों के बिना इसे लागू करना हमारी अर्थ-व्यवस्था के लिये सर्वनाशी साबित होगा । बड़े-बड़े पूँजीपति जरूर इससे लाभान्वित होंगे ।


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