-अरुण माहेश्वरी
अखबारों में हैं कि सीपीएम की केंद्रीय कमेटी की बैठक में फिर इस बार लकीर के फकीर बहुमत ने पिछली पार्टी कांग्रेस के निर्णय के हवाले से भाजपा और कांग्रेस के साथ समान दूरी रख कर चलने पर बल दिया और उसी के नाम पर सीताराम येचुरी को कांग्रेस के समर्थन से राज्य सभा में जाने से रोक दिया ।
हम नहीं समझ पा रहे, ये कौन से लोग हैं जिनके लिये समय की सूईं किसी एक प्रस्ताव, एक सिद्धांत, एक नारे या किसी एक किताब में अटक जाया करती है ! यह क्रांतिकारी लफ्फाजी का एक निकृष्ट उदाहरण है । इनके बारे में अगर कुछ अच्छा सोचे तो लेनिन की शब्दावली में – “ये लोग नारे, शब्द, युद्धघोष दुहराते हैं, परंतु वस्तुगत यथार्थता का विश्लेषण करने से डरते हैं ।“
“क्रांतिकारी लफ्फाजी की बीमारी क्रांतिकारी पार्टी को बहुधा ऐसी परिस्थितियों में होती है, जब वे पार्टियां सर्वहारा और टुटपुंजिया तत्वों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सूत्रबद्ध, एकीकृत और उनका परस्पर गुंथन करती है और जब क्रांतिकारी घटना-प्रवाह बड़ी द्रुत गति से पड़ने वाली दरारें प्रदर्शित करता है । क्रांतिकारी लफ्फाजी का अर्थ है संबद्ध घड़ी में घटना-प्रवाह में पड़ने वाली दरार के दौरान, संबद्ध हालात के अंतर्गत वस्तुगत परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना क्रांतिकारी नारों को दोहराना । नारे श्रेष्ठ, मनमोहक, नशीले होते हैं, परंतु उनके लिये आधार-भूमि नहीं होती ; ऐसा है क्रांतिकारी लफ्फाजी का सार ।“
और अगर इन बहुमतवादियों के इधर के कई सालों के इतिहास को देखें तो कहना होगा, गुटबाजी का यह एक और नग्न उदाहरण भर है । मजे की बात यह है कि सीपीएम की इसी केंद्रीय कमेटी ने बंगाल पार्टी को निर्देश दिया कि वह सीताराम की जगह राज्य सभा के लिये कोई दूसरा ऐसा उपयुक्त निर्दल उम्मीदवार की तलाश करें जिसे कांग्रेस भी अपना समर्थन दे सके । अर्थात् पार्टी कांग्रेस का जो प्रस्ताव, कांग्रेस से समान दूरी बना कर चलने का प्रस्ताव, सीताराम के चयन के रास्ते की बाधा बना था, वह पार्टी-समर्थित निर्दलीय के रास्ते में बाधा नहीं बना !
यह सच है कि आज जिस प्रकार हर उपाय से मोदी-शाह कंपनी देश के हर कोने में अपनी सरकारें स्थापित करने में लगी हुई है, उस पर सिर्फ संसदीय जनतंत्र के दायरे में विचार करने पर ऐसा लग सकता है कि इसका एक स्वाभाविक परिणाम भारत में राष्ट्रपति प्रणाली की द्विदलीय व्यवस्था की स्थापना होगा । लेकिन यह अपने आप में एक कोरा सुधारवादी अनैतिहासिक नजरिया होगा । यह सबसे पहले तो आरएसएस नामक संगठन की तात्विक सचाई से आंख मूंदना होगा । दूसरा, भारत की तरह के एक पिछड़े हुए पूंजीवादी-सामंती देश में संसदीय जनतंत्र की अपनी ताकत को बढ़ा-चढ़ा कर देखना भी होगा ।
इसीलिये मोदी-शाह की रणनीति को संसदीय जनतंत्र के किसी नये रूप के विकास के तौर पर देखने के बजाय संसदीय जनतंत्र के अंत की हिटलरी रणनीति के तौर पर देखने की जरूरत है । और जैसे ही आप इस परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेंगे, भाजपा और कांग्रेस के साथ समान दूरी बना कर चलने की सीपीआई(एम) की घोषित नीति की निस्सारता को समझने में कोई चूक नहीं होगी और इस नीति से यथाशीघ्र मुक्ति की जरूरत को भी समझा जा सकेगा ।
इसीलिये जरूरी है परिस्थिति की यथार्थता को देखने की न कि किसी आकर्षक क्रांतिकारी नारे से चिपक कर रहने की । यह सब सीपीआई(एम) के बहुमतवादियों के अब तक के इतिहास को देखते हुए कोरी लफ्फाजी की ओट में शुद्ध गुटबाजी के अलावा और कुछ नहीं कहलायेगा ।
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