सोमवार, 31 जुलाई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (20)


-अरुण माहेश्वरी
(फिर से नितांत निजी पारिवारिक कारणों से लगभग एक महीने के अंतराल के बाद)

दर्शनशास्त्र की ओर रुझान

कानून के बारे में बहसों की बारीकियों पर गौर करते हुए भी यह साफ नहीं हो पा रहा था कि मार्क्स कानून के अध्ययन की ओर बढ़ेंगे या नहीं । पिता को लिखे पत्र में उन्होंने कानून के प्रशासनिक पक्षों के बजाय न्याय शास्त्र के विषय पर अपनी रुचि जाहिर की थी । पिता को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी । वे खुद न्यायशास्त्र को ही ज्यादा महत्व दे रहे थे । इसीलिये उन्होंने बेटे को लिखा कि उनका इस विषय में कुछ नहीं कहना है, ‘जिस विषय में तुम्हारी रुचि हो, उस दिशा में काम करो । गैन्स की कक्षाओं के अलावा इसी काल में ‘राइनिश जाइतुंग’ अखबार में लगातार तीन सालों तक उनके लेखों से भी यही पता चलता है कि उनका अधिक से अधिक बल एक न्याय विवेक की अवधारणा को विकसित करने पर ही रहता था ।

सन् 1839 तक आते-आते यह साफ हो गया था कि दर्शनशास्त्र मार्क्स के दिमाग पर छा चुका था । आगे डाक्टरेट के लिये उन्होंने इसे ही अपनाया । इसी बीच पिता की मृत्यु (10 मई 1838) हो गई । तत्कालीन प्रशिया के सांस्कृतिक और राजनीतिक घटना-क्रम बर्लिन के कैफे स्टेले में चलने वाली बहसों को साहित्य और कला से दर्शन, धर्मशास्त्र और राजनीति की बहसों की ओर मोड़ दिया था । मार्क्स की मानसिकता से भी यही जाहिर हो रहा था ।


'विचार को खुद उसमें देखों' का हेगेलीय प्रभाव तब उन पर छाया हुआ था । लेकिन समस्या विचार और यथार्थ को जिस प्रकार हेगेल एकमेव करके देखते थे, वैसा दिखाई नहीं देता था । 1831 में हेगेल की मृत्यु हुई, लेकिन उसके बाद का घटना-क्रम विचार की गति से उल्टा दिखाई देता था ।

हेगेल वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जर्मनी की दुनिया को एक सार्वलौकिक भावना से जोड़ा था । 1803 में नेपोलियन की पराजय के बाद भी प्रशिया ने यदि उसके कामों को आगे बढ़ाया होता तब भी हेगेल की बात में सच्चाई नजर आती । उस लिहाज से देखें तो 1818 में बर्लिन विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र की पीठ पर हेगेल की नियुक्ति को ही नेपोलियन के सुधारों की कड़ी में देखा जा सकता है ।


1820 में हेगेल ने अपने Philosophy of History के लेक्चर्स में कहा कि स्वतंत्रता के आधुनिक इतिहास में सुधार के दो समानांतर रास्तों को पाया जा सकता है । पहला जर्मन सुधारवाद से शुरू हुआ जिसमें लुथर ने धर्म को बाहरी नियंत्रण से मुक्त करके जर्मनों में आध्यात्मिकता के, मननशीलता के गुणों को विकसित किया । इसी से कांट के दर्शन का जन्म हुआ और आदमी परंपरागत तमाम विश्वासों से मुक्त हुआ । दूसरा रास्ता राजनीतिक था जिससे फ्रांसीसी क्रांति हुई । इसने अपनी सभी कमियों के बावजूद ऐसी परिस्थिति पैदा की जिसमें मनुष्य की आंतरिक और आत्मिक स्वतंत्रताओं को अब बाह्य राजनीतिक और सांस्थानिक रूपों में व्यक्त किया जा सकता था । हेगेल का मानना था कि अब इस आत्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के योग को जर्मनी में रूपायित किया जा रहा है । प्रशिया में एक विवेकसंगत सुधार कार्यक्रम पर शांतिपूर्ण ढंग से अमल किया जा रहा है, जिसे फ्रांसीसी क्रांति में हिंसा और बल के प्रयोग से किया गया था ।

दरअसल, हेगेल के इस रुख के पीछे उऩके निजी कारणों की भी थोड़ी पड़ताल की जा सकती है । जैसा कि हम जानते हैं, हेगेल की जब बर्लिन विश्वविद्यालय में नियुक्ति हुई थी, प्रशिया में अभिव्यक्ति की आजादी, प्रकाशन की आजादी और संगठन बनाने की आजादी की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी । विश्वविद्यालय में हेगेल का विरोध करने वालों की कमी नहीं थी । प्रशियाई साम्राज्य के पूरे क्षेत्र में उत्तेजना फैलाने वालों के दमन का अभियान (Persecution of demagogues) की हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं । हेगेल ने अपने Philosophy of Rights (1821) के प्राक्कथन में इसीलिये भविष्य में किसी नये कानून के निर्माण की कोई बात नहीं की, उल्टे तत्कालीन स्थितियों की ही पैरवी की थी । उन्होंने 1830 के जमाने में  यूरोप में चल रही तूफानी गतिविधियों के साथ अपने को नहीं जोड़ा था ।


हेगेल का एक प्रसिद्ध कथन था कि “यह चिंतन और तर्क का युग है । इस युग में जो आदमी हर चीज का, वह चीज चाहे जितनी खराम क्यों न हो, कोई अच्छा कारण नहीं बता सकता, उस आदमी की कीमत ज्यादा नहीं समझी जाती । दुनिया में जो भी गलत काम किया गया है, वह हमेशा सर्वोत्तम कारणों से किया गया है ।“


इसी दौर में प्रशिया में ईसाई धर्म में ईंजीलपंथी (Evangelical) धारा ने नये सिरे से सिर उठाया । बाइबल को ही किसी भी विषय में अंतिम मानने वाली इस धारा का मानना था कि प्रबोधन के विचार ही विवेकवाद और नास्तिकता के मूल में है और यही फ्रांसीसी क्रांति की भयावहता के रूप में जाहिर हुई थी । इस प्रकार साफ है कि 1815 के बाद की बर्लिन की दुनिया क्रांति और धार्मिक बहुलता के अस्वीकार की दुनिया थी, यह फ्रांसीसी क्रांति से पूरी तरह से अलग दुनिया थी । ऐसे समय में जब कांट ने परंपरागत धर्मशास्त्र और आधिभौतिकता पर प्रहार किया, उससे पुराणपंथी पोंगापंथियों की दुनिया में खलबली मची । इसी माहौल में ईसाई तत्ववाद और रूमानी मध्ययुगीनता के नवोदय की प्रवृत्तियों से टकराते हुए युवा हेगेलपंथ (Young Hegel) का गठन हुआ ।

(क्रमशः)


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