बुधवार, 2 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (22)


-अरुण माहेश्वरी

हेगेल की मृत्यु के बाद

14 नवंबर 1831 के दिन हेगेल की मृत्यु हुई और इसके साथ ही हेगेल के खिलाफ एक भारी बौद्धिक अभियान शुरू हो गया । हेगेल के मित्र और सालों से चुप शेलिंग ने अपने ही युवाकालीन विचारों के ठुकराते हुए हेगेल के मत पर बिल्कुल नग्न रूप से दार्शनिक हमला छेड़ दिया । उन्होंने अपने निजी ईश्वर को तर्क या विवेक की जंजीरों से मुक्त करने का बीड़ा उठाया । जिस व्यक्ति ने तीन दशक पहले किसी एक समग्रता के भाव में मानवता की बाकी सभी चीजों को ले आने का डट कर विरोध किया था, उसी ने चंद सालों बाद ही ईश्वर की अवधारणा को किसी भी तर्क से परे एक शुद्ध अवधारणा के तौर पर रखते हुए ईसाई धर्म की मनुष्य के पतन वाली भाषा को अपना लिया । ईश्वर को इस संसार का सृष्टा बताते हुए सनातन रूप से इससे अलग बताया गया । संसार के सामने उसने अपने को जितना प्रकट किया वह किसी विवेक अथवा तर्क के जरिये नहीं, बल्कि उद्घाटन या प्रकटीकरण के जरिये किया ।

फ्रेडरिख विल्हेल्म जोसेफ शेलिंग

यह सच है कि ईसाई धर्म के पक्ष में शेलिंग की इन बातों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन कोई भी उनकी अवहेलना नहीं कर पा रहा था । हेगेल ने अपने Science of Logic (1816) के शुरू में तर्क से यथार्थ तक जाने की जो बात कही थी, शेलिंग की तरह के लोगों के हमलों की प्रतिक्रिया में हेगेल के उसी सूत्र को पकड़ कर स्वातंत्र्य चेतना और प्राणी सत्ता की प्राथमिकता पर फिर से बल देने वाले दार्शनिक सामने आए ।


शेलिंग की बातों की गूंज राजा के पक्ष में राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में भी सुनाई देने लगी । तभी सेविनी के कट्टर विवेकवाद-विरोधी मित्र फ्रेडरिख जूलियस स्टेह्ल ने अपनी Philosophy of Right (Philosophy of law)  प्रकाशित की और वे ही एडुआर्ड गैन्स की जगह बर्लिन विश्वविद्यालय में कानून की पीठ पर आये । उन्होंने हेगेल पर यह आरोप लगाया कि हेगेल का दर्शनशास्त्र इस भारी भ्रम का शिकार था कि ईश्वर को विवेक के जरिये जाना जा सकता है । इस प्रकार हेगेल उस ईश्वरीय विधान को नष्ट करने का अपराधी था जिसमें ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा का हनन होता है । यह उनके अनुसार राजा की स्वतंत्रता को भी बाधित करता है । जैसे ईश्वर की इच्छा प्राणी और विवेक में निहित होने पर भी उनसे बाधित नहीं है, ठीक उसी प्रकार सम्राट की सार्वभौमिकता एक राज्य में निहित होने पर भी संवैधानिक बाधाओं से सीमित नहीं है ।


इसी प्रकार, हेगेल के अनुयायी भी दो भागों में बट गये । दक्षिणपंथी और वामपंथी । हेनरिक, गैब्लर, गास्चेल की तरह के दक्षिणपंथी अनुयायी हेगेल के दर्शनशास्त्र में ईसाई सनातनपंथ को देखते थे और तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था का पूरी तरह से समर्थन करते थे । और इनके विपरीत डेविड स्ट्रास, बावर बंधु, ब्रुनो, एडगर, आर्नोल्ड रूज, लुडविग फायरबाख थे जो हेगेल की बातों की क्रांतिकारी व्याख्या किया करते थे ।
1830 के दशक के मध्य तक संरक्षणवादियों और यूरोप में चल रही परिवर्तन की आंधी के समर्थकों के बीच तेज बहसों के अपने राजनीतिक पहलू साफ थे । '30 के समय के ही राजनीतिक तूफानों की प्रतिक्रिया में राजा ने तब तक की मामूली उदारतावादी स्वतंत्रताओं को भी खत्म कर दिया । राज्य ने हाइने, लुडविग बोर्ऩ की तरह के युवा लेखन पर पाबंदी लगा दी । अकादमिक नियुक्तियों तक में राजनीतिक पहलुओं की कहीं ज्यादा जांच की जाने लगी । इसकी वजह से लुडविग फायरबाख, डेविड स्ट्रास, आर्नोल्ड रूज, ब्रुनो बावर आदि कई उस वक्त के प्रमुख बौद्धिकों को वंचित किया गया ।


इसी काल में डेविड स्ट्रास की दो खंडों में 'आलोचनात्मक नजरिये से जीसस की जीवनी' (The Life of Jesus, Critically Examined) प्रकाशित हुई जिसे उस पूरे काल को परिभाषित करने वाली एक घटना कहा जाता है । स्ट्रास ने कहा कि ईसाई धर्म में ईश्वरीय और मानवीय के बीच के संबंध में निहित विवेकसंगत सत्य को तभी अच्छी तरह से समझा जा सकता है जब हम बाइबल की कथाओं के अति-प्राकृतिक तत्वों को उनसे अलग करके पढ़ेंगे । स्ट्रास द्वारा ईसा मसीह के उपदेशों की इस आलोचना को ब्रुनो बावर ने और आगे बढ़ाया, लेकिन इस विषय पर दोनों के बीच आपस में अच्छा खासा विवाद भी हुआ । इन सबके साथ ही युवा हेगेलपंथियों और धर्म के संरक्षणवादी समर्थकों के बीच जो बहस शुरू हुई वह ऊपर से देखने में जितनी ही धर्मशास्त्र संबंधी क्यों न दिखाई दें, उसके पीछे साफ राजनीतिक एजेंडा काम कर रहे थे ।


जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, बर्लिन में मार्क्स इन युवा हेगेलपंथियों के डाक्टर्स क्लब से जुड़ गये थे । और कहना न होगा मार्क्स के अपने दार्शनिक और राजनीतिक दृष्टिकोण का विकास इस पूरी धर्म संबंधी बहस के बीच से ही होता है, जिसपर हम आगे अलग से विस्तार से चर्चा करेंगे ।

(क्रमशः) 

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