सोमवार, 7 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (28)


-अरुण माहेश्वरी

धर्म मनुष्य के परायेपन का एक मूल कारक है 

“यहूदी प्रश्न पर'' लेख में ही मार्क्स एक नागरिक समाज में धर्म की स्थिति का जिक्र करते हुए कहते हैं कि “मनुष्य धर्म को सार्वजनिक कानून से निजी कानून में निर्वासित करके खुद को राजनीतिक तौर पर धर्म से मुक्त कर लेता है।... अब धर्म पूरे समुदाय का सारतत्व नहीं रहा बल्कि विभेद का सारतत्व हो गया। यह समुदाय से, स्वयं से तथा अन्य मनुष्यों से मनुष्य के अलगाव की अभिव्यक्ति हो गया है, जैसा कि वह अपने मूल रूप में था।''

धर्म मूलत: मनुष्य के स्वयं से, अन्य मनुष्यों से तथा समाज से अलगाव की अभिव्यक्ति है, इसी सूत्र के साथ मार्क्स ने “परायेपन''(Alienation)  के बारे में अपने विचारों के सूत्रीकरण की ओर कदम बढ़ाया था और इसके साथ ही उस ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टि की आधारशिला रखी जिस पर उनके बाद के पूरे जीवन का कृतित्व टिका हुआ है।

“परायेपन'' (Alienation) की बात का उत्स ईसाई और यहूदी धर्मशास्त्र की इस मान्यता में ही है कि जब आदमी ईश्वर कृपा से गिर जाता है तो वह पराया हो जाता है। यह पराया मनुष्य ईसा मसीह के जरिये फिर से ईश्वर की कृपा प्राप्त करता है। हेगेल ने इस सूत्र के आधार पर चेतना के जरिये परायीकृत मनुष्य की प्रगति का भाववादी द्वन्द्वात्मक सिद्धांत पेश किया था। लेकिन फायरबाख ने इस पूरी अवधारणा को ही उलट कर यह स्थापित किया कि धर्म परायेपन से उबारने के बजाय परायेपन का कारण होता है, यह वास्तविक दुनिया से मनुष्य के अलगाव का प्रतीक और उसकी अभिव्यक्ति है। फायरबाख ईश्वर को ही एक परायीकृत मनुष्य मानते थे।
मार्क्स ने धर्मशास्त्र के दायरे के अंदर की इस बहस से ही “परायेपन'' पद को चुना था और इसे राजनीतिक अर्थशास्त्र के अपने अध्ययन से जोड़कर यह स्थापित किया कि पूंजीवादी समाज में मनुष्य के परायेपन की पहचान की कुंजी उसके परायीकृत श्रम की पहचान में है। आदमी अपने श्रम का मालिक नहीं, बल्कि दास बन जाता है। और मार्क्स इस बात पर बल देते हैं कि इसकी वजह आदमी के श्रम की निजी प्रकृति नहीं, बल्कि समाज-व्यवस्था है।

यहूदी धर्म की आलोचना करते हुए मार्क्स एक जगह लिखते हैं — “सिद्धांत, कला, इतिहास, और एक लक्ष्य के तौर पर स्वयं मनुष्य के प्रति अनादर का भाव, जो यहूदी धर्म में निहित है, वह वास्तविक है, सचेत दृष्टिकोण है, संपत्तिवान आदमी की नैतिकता है । खुद प्राणियों के आपसी संबंध, आदमी और औरत के बीच के संबंध, इत्यादि व्यापार की वस्तु बन जाते हैं ! औरतें खरीदी और बेची जाती है ।“




इसी सिलसिले में मार्क्स यहूदी धर्म और फिर ईसाई धर्म की चर्चा करते हुए अनोखी टिप्पणी करते हैं कि “ईसाईयत जुडाइज्म से पैदा हुई । वह फिर उसीमें विलीन हो गई ।...

“ईसाईयत जुडाइज्म का सूक्ष्म विचार है, जुडाइज्म ईसाईयत का सामान्य व्यवहारिक प्रयोग, लेकिन यह प्रयोग सिर्फ तभी आम हो पाया जब ईसाईयत एक विकसित धर्म के रूप में सैद्धांतिक तौर पर मनुष्य को अपने से और प्रकृति से पूरी तरह अलग कर पाया ।“(MECW, Vol.3, Page – 172-173)

मार्क्स इसमें आगे कहते हैं — “बेचना परायेपन का व्यवहारिक पहलू है । मनुष्य जब तक धर्म की जकड़ में रहता है, वह उसे अपने से परायीकृत रूप दे कर, थोड़ा अनोखा रूप देकर अपनी मूल प्रकृति को वस्तुनिष्ठ बना पाता है ताकि अपनी अहमवादी जरूरत के दबाव में वह व्यवहारिक तौर पर सक्रिय रह सके, और व्यवहार में, अपने से किसी पराये प्राणी के प्रभुत्व में अपने उत्पादों और अपनी सक्रियता के प्रयोग से ऐसी चीजें पैदा कर सके जिन पर एक बिल्कुल अलग तत्व - धन - के महत्व को आरोपित कर सके ।“ (MECW, Vol. – 3, page 174)

धर्म को इस परायेपन की आत्मा कहा जा सकता है। परायेपन का मूल कारण सामाजिक-आर्थिक जीवन में है । धर्म उसी हद तक इस परायेपन से जुड़ा होता है जिस हद तक वह इसे एक वैद्यता का, नैतिकता का, सनातनता का, प्रकृति का और पवित्रता का रूप प्रदान करता है। धर्म से परायेपन को शक्ति मिलती है क्योंकि वह मनुष्य में सांसारिक विषयों के प्रति विराग पैदा करता है, सामाजिक बुराइयों को दैविक बताकर उन्हें न्यायोचित बताता है, गरीबों और उत्पीड़ित जनों को कर्म सिद्धान्त के बल पर वर्तमान के दुखों को अगले जन्म में सुख पाने की खुशी के साथ सहने की शिक्षा देता है। मार्क्स कहते हैं कि इससे एक वर्गों में विभाजित समाज में स्वर्ग और नरक की तरह के विचार अपरिहार्य रूप में पैदा हो जाते हैं क्योंकि उनसे भविष्य में काल्पनिक न्याय की आशा बंधती है तथा वर्तमान में वास्तविक न्याय पाने की इच्छा खत्म होती है। वर्ग विभाजित समाज में धर्म विभाजन को स्थायी तथा द्वेष को स्वाभाविक बनाता है।

इसीलिए धर्म के बारे में मार्क्स की समग्र आलोचना के ढांचे में जहां धर्म से निपटने के लिए धर्म को पैदा करने वाली सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की आलोचना का असीम महत्व है, वहीं स्वयं धर्म की विचारधारा की आलोचना का भी अपना स्थान है। लेकिन धर्म के खिलाफ धावा बोलने के जोश में यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को बदलने का संघर्ष ही वास्तव अर्थों में धर्म की जड़ों पर प्रहार करने वाला संघर्ष है। अफीम के नशे में कल्पना लोक में विचरण करता हुआ मनुष्य अपने जीवन की मुसीबतों के बोझ को उठा लेता है। मनुष्य को इस कल्पना लोक से धरती पर सिर्फ पाठ पढ़ा कर नहीं उतारा जा सकता है, सिर्फ वैचारिक अभियान से उसे सारे भ्रमों से मुक्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि उन परिस्थितियों को बदलना होगा जो भ्रमों को जीवन के लिए अनिवार्य बनाती है।



मार्क्स द्वारा धर्म की आलोचना के एक समग्र ढांचे की तस्वीर पेश करने के उद्देश्य से ही यहां मार्क्स और एंगेल्स की प्रसिद्ध कृति “जर्मन विचारधारा''(1846)  से एक अंश को उद्धृत करना भी प्रासंगिक होगा जिसमें मार्क्स कहते हैं, “नैतिकता, धर्म, आध्यात्म, विचारधारा की अन्य सभी बातों तथा चेतना के उनके मेल खाते रूप अब अपनी स्वतंत्र हैसियत का दिखावा गंवा चुके हैं। उनका अपना कोई इतिहास, कोई विकास नहीं है, बल्कि मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन के विकास तथा अपने भौतिक आदान-प्रदान के जरिये अपने वास्तविक अस्तित्व के साथ ही अपनी सोच तथा अपनी सोच के उत्पादों को बदला करता है।''

गैलेलियो की मृत्यु के लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष बाद रोमन कैथोलिक चर्च उनकी खोज को स्वीकार कर उन्हें फिर से स्थापित करता है, यह अकेला तथ्य ही धर्म और उसकी समस्याओं के भौतिक यथार्थ के विकास के काफी पीछे घिसटते हुए चलने की वास्तविकता को दर्शाता है। यही सच्चाई है कि आदमी की बौद्धिकता का इतिहास उत्पादन और उत्पादन संबंधों के इतिहास से अलग करके नहीं लिखा जा सकता। इसी प्रकार मानसिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का भी कोई कार्य भौतिक जीवन की यथार्थ परिस्थितियों में परिवर्तन से काट कर सम्पन्न नहीं हो सकता। धर्म के अंत के लिए सिर्फ विज्ञान की नहीं, सामाजिक क्रांति की भी जरूरत है।

धर्म यदि सिर्फ एक बौद्धिक विकृति ही होती तो उसे एक भ्रम या झूठ साबित करके ही समाप्त किया जा सकता था। चूंकि मार्क्स ऐसा नहीं मानते इसीलिए वे सांस्कृतिक परिवर्तन की तरह ही धर्म के क्षेत्र में परिवर्तन को भी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ जोड़ कर देखने पर बल देते हैं। विचारों के किसी भी इतिहास को उसे बनाने वाले मनुष्य के भौतिक इतिहास से काटकर देखना एक कोरी कल्पना या अटकलबाजी के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।

(क्रमशः)

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