रविवार, 12 नवंबर 2017

अभिनवगुप्त पर ब्राह्मणवाद का ग्रहणः एक नोट


—अरुण माहेश्वरी



'वागर्थ' पत्रिका के जुलाई 2017 के अंक में अनायास ही राधावल्लभ त्रिपाठी के अभिनवगुप्त ( 950 – 1016 AD) की कविताओं पर लेख ने हमारा ध्यान खींच लिया । लेख का शीर्षक है  'अभिनवगुप्त की कविता'

लेख के पहले पैरा में ही कश्मीर के इस दार्शनिक, सौन्दर्यशास्त्री, भाषाशास्त्री, कवि और धर्मगुरू के महत्व को बहुत खूबसूरती से रखते हुए लिखा गया है किसी चक्रवर्ती राजा को भी ऐसा सम्मान न मिला होगा, जैसा सम्मान अभिनवगुप्त को अपने जीवन काल में और उसके बाद लगभग एक सहस्त्राब्दी तक दिया गया ।

इस कथन के बाद की पंक्ति है —“कश्मीर के उस समय के नाजुक हालातों में अभिनवगुप्त की लोकोद्धारक मसीहा जैसी छवि बनाई गई, उसके पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है । इन सबसे अभिनवगुप्त का जो आभामंडल बना, उससे एक अनर्थ यह हुआ कि उनकी असाधारण उपलब्धियों के विमर्श में उनकी कविता उपेक्षित और विस्मृत होती गई । विद्वान भूल गए कि अभिनवगुप्त एक कवि भी है ।

और, इसी आधारभूमि पर राधावल्लभ जी आगे अभिनवगुप्त के कवि रूप का परिचय देने के लिये अपने इस लेख की पूरी इमारत को खड़ा करते हैं ।

यहां हम त्रिपाठी जी के उपरोक्त कथन को थोड़ा ध्यान से पढ़ने, रुक कर उसका किंचित विखंडन करने का आग्रह करना चाहेंगे ।

सबसे पहले तो 'कश्मीर के उस समय (अभिनवगुप्त के समय) के नाजुक हालात' पर बात करते हैं । क्या थे वे हालात ?

दूसरा वे कहते हैं, “अभिनवगुप्त की लोकोद्धारक मसीहा (शैवागमों की भाषा में उपाय, अर्थात मुक्तिदायी – अ.मा.) जैसी छवि बनाई गई, उसके पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है ।

'लोकोद्धारक मसीहा अभिनवगुप्त' से त्रिपाठी जी का क्या तात्पर्य है ? उन्होंने अभिनव की प्रशस्ती में खुद लिखा है कि “किसी चक्रवर्ती राजा को भी ऐसा सम्मान न मिला होगा, जैसा सम्मान अभिनवगुप्त को अपने जीवन काल में और उसके बाद लगभग एक सहस्त्राब्दी तक दिया गया ।

जाहिर है, अभिनव कभी शासक नहीं रहे, और उनके बारे में न्यूनतम जानकारी रखने वाले भी जानते हैं कि उनकी न कभी वैसी कोई मंशा या वासना रही । तब उनकी 'लोकोद्धारक मसीहा' की छवि कैसे बनी ?

तीसरा, त्रिपाठी उनकी 'आसाधारण उपलब्धियों' की चर्चा करते हैं । वे 'असाधारण उपलब्धियां' क्या थी ?

चौथा, त्रिपाठी कहते हैं उनकी ऐसी छवि बनाने के “पीछे कोई रणनीति रही हो, यह हो सकता है । सवाल उठता है, कौन सी रणनीति ? किसे अपदस्थ करके किसे स्थापित करने की रणनीति ?

आगे वे कहते हैं, इन सबसे अभिनवगुप्त का जो आभामंडल बना, उससे एक अनर्थ यह हुआ कि उनकी असाधारण उपलब्धियों के विमर्श में उनकी कविता उपेक्षित और विस्मृत होती गई । अर्थात उनका कवि रूप चर्चा में न आ सका ।

त्रिपाठी जी के इस कथन की भंगिमा से यह भी जाहिर होता है कि अभिनव के इस विलक्षण आभामंडल से एक नहीं कई अनर्थ हुए थे जिनमें से एक, उनके विस्मृत कवि रूप पर प्रकाश डालने हेतु उन्होंने इस लेख की निर्मिति की है । अब यहीं पर यह प्रश्न भी उठ जाता है कि अभिनवगुप्त के इस विलक्षण आभामंडल के निर्माण से और कौन-कौन से अनर्थ हुए ?

और अंतिम बात त्रिपाठी जी यह कहते हैं कि लगभग एक सहस्त्राब्दी तक सम्मान के ऊंचे पद पर रहने के कारण विद्वानों ने उनके कवि को विस्मृत कर दिया । सवाल उठता है कि एक सहस्त्राब्दी, अर्थात सन् 2000 तक, लगभग आज तक 'चक्रवर्ती राजा' की तरह के सम्मानित स्थान पर रहने के उपरांत अभिनव की आज स्थिति क्या है और क्यों है ?

हम यहां सबसे पहले अभिनवगुप्त के समय के कश्मीर के 'नाजुक हालात' पर बात करते हैं । जब अभिनवगुप्त के स्तर के एक धर्मगुरू, दार्शनिक, भाषा शास्त्री, सौन्दर्यशास्त्री और कवि के संदर्भ में कोई देशकाल की बात करता है तो यह स्वाभाविक तौर पर ही तत्कालीन भारत के समग्र सांस्कृतिक हालात का मसला ही हो सकता है, धर्म, दर्शन, भाषाशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र से जुड़ा मसला । तो क्या थे वे हालात ?

उत्पलदेव की ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका और उसकी वृत्ति के अनुवादक रफायल तोरेल्ला ने इसी अनुदित पुस्तक की अपनी भूमिका में कश्मीर में उस काल का एक चित्र खींचते हुए लिखा है कि शंकराचार्य के ठीक बाद 9वीं सदी के कश्मीर के सांस्कृतिक परिदृश्य में तत्कालीन भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धार्मिक-दार्शनिक प्रवृत्तियों की प्रमुख बाते पाई जाती हैं और उनके अंदर क्या कुछ नया विकसित हो रहा है जो उन्हें अपनी जड़ों से काफी दूर ले आया, और किन बातों का क्षय हो रहा हैं, उनके लक्षणों को भी देखा जा सकता हैं । कश्मीर घाटी में बौद्ध धर्म की परंपरा (जिसकी जड़ें वहां प्राचीन काल से थी) यथार्थवादी धाराओं  और विज्ञानवाद, दोनों रूपों में मौजूद थी जिसका तथाकथित महान 'तर्कशास्त्रीय पंथ' के रूप में विकास हुआ । यह बौद्ध धर्म की अभी की उन अनेक धाराओं में समग्र रूप में प्रस्फुटित हुई नहीं दिखाई देती हैं, जिनसे बौद्ध धर्म के आज के अनुयायी, उसके विरोधी और उसके विद्वान उसकी पहचान करते हैं । ब्राह्मणवादी कुलीन तो तब भी दिग्नाग और धर्मकीर्ति के सिद्धांतों के प्रत्युत्तर को साधने में ही डूबे हुए थे, कश्मीर में जिनके चलन को राजा जयपद के दरबार में बुलाये गये धर्मोत्तर द्वारा आगे और बढ़ाया जाना था । (राजतरंगिनी, IV5.498)  इसीसे जयन्त भट्ट की 'न्याय मंजरी' और भास्वर्यज्ञ की 'न्याय भूषण' के स्तर की अत्यंत महत्वपूर्ण कृतियों की रचना हुई । इसके अलावा ब्राह्मणों के दायरे में भी, जिसे दूसरा पक्ष कहा जा सकता है, शंकर से स्वतंत्र वेदांत की और धाराओं का भी विकास हुआ था । इन सब धाराओं को इनमें मौजूद ब्राह्मण, माया, अविद्या, विवर्त आदि की तरह के कुछ बुनियादी तत्वों के अलग-अलग विन्यासों और उनके भिन्न-भिन्न नामों के आधार पर अलग करके देखा जाता है । मीमांसक पंथों की भी गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं । इनके अलावा इसी काल में साहित्य की आलोचना और सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की परंपरा भी काफी विकसित हुई । (Ingalls,1990 : 1-10) इसी प्रकार व्याकरण और सामान्य भाषाशास्त्र के अध्ययन की भी उतनी ही महत्वपूर्ण परंपरा मिलती है जिसमें भृतहरि की विरासत का एक प्रमुख स्थान है ।(Raffaele Torella, The Isvarapratyabhijnakarika of Utpaldeva with the author’s Vritti, page – IX)

एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में 'लोकोद्धारक' अभिनवगुप्त की छवि को यदि किसी एक बिंदु से समझा जा सकता है तो वह सिवाय एक 'धर्मगुरू' के अतिरिक्त और किसी रूप में नहीं हो सकती है क्योंकि राजा के अतिरिक्त सिर्फ धर्मगुरू ही हो सकता है जिसकी आम तौर पर लोक में एक उद्धारकर्ता की छवि हुआ करती है । अर्थात कश्मीरी शैव मत के एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी दार्शनिक और धर्मगुरू की छवि, जिसने दर्शनशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र की दीर्घ शास्त्रीय परंपरा के विकास को एक बिल्कुल नये स्तर तक ले जाने के साथ ही धर्म-प्राण जनता के हृदय में एक स्थायी स्थान बनाने के तमाम कर्मकांडी तौर-तरीकों को भी आयत्त किया था और वेदांती, पंचरात्र की वैष्णव परंपरा और बौद्धों की मंदिर और पूजा पाठ की परंपरा के विपरीत साधना के एकांतिक निजी मार्ग वाले शैवमत को भी कश्मीर में उन्होंने बाकायदा एक सांस्थानिक रूप दे दिया था । इसीलिये जब भी कोई अभिनवगुप्त के 'लोकोद्धारक' रूप पर चर्चा करता है तो वह अनिवार्य रूप में धर्मगुरू अभिनवगुप्त की ही चर्चा कर रहा होता है ।

भारत में धर्मों के इतिहास के बारे में सभी जानते हैं कि यहां पंचरात्र की तरह ही शैवमत के सारे तत्व वैदिक काल से भी पहले से मौजूद रहे हैं । बाद में वैदिक मत के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ इसी मत के आधार पर लगातार सवाल उठाये जाते रहे, शैवमत के आगम ग्रंथों के अलावा जात-पात विरोधी कई धार्मिक पंथों का भी विकास हुआ जिनमें प्रमुख रूप से जो सबसे बड़े धर्म पैदा हुए उनमें बौद्ध धर्म का विस्तार तो सारी दुनिया में हुआ लेकिन हमारे यहाँ जैन धर्म और सबसे नये सिख धर्म के पीछे भी शैव मत के एकेश्वरवाद के तमाम सूत्र मौजूद थे, जो शंकर की वेदांती मान्यता के खिलाफ इस जगत को मिथ्या नहीं मानते थे बल्कि इसे ईश्वर के ही अनेक रूप, एक शिव के नाना रूपों में प्रकाश को मानने के कारण हर मनुष्य में ईश्वर को देखते थे और मनुवादी वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे । बौद्धों, जैनों और वैष्णवों के अलावा लगभग 92 शैवागमों पर आधारित शैवमत ब्राह्मणवादी वैदिक मत के खिलाफ भारत की व्यापक जनता का सबसे बड़ा धार्मिक मत रहा है, जिसे धर्म के कारोबारी ब्राह्मणों ने अपने कारोबार के हित के लिये ही ख़ुद भी मान कर चलने में ही अपनी भलाई को देखा और ब्रह्मा, विष्णु के साथ ही शिव को भी बैठा दिया । ब्रह्मा प्रतीक थे वैदिक ब्रह्म के, विष्णु पंचरात्र से जुड़े वैष्णव मत के और शिव शैवमत के ।

लेकिन और गहराई से देखने पर यह जाहिर होता है कि शैवागमों पर आधारित दक्षिण के शैव मत से लेकर उत्तर में कश्मीर के शैवमत और अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा दर्शन का वैदिक मत से गहरा मतभेद रहा है । इसमें 11वीं सदी में इस्लाम के समानतावादी जात-पात विरोधी विचारों के आगमन के साथ ही भारत की जनता में शैवमत और वैष्णव मत की धारा को काफी बल मिला । मजे की बात यह है कि जहाँ तक इस्लामिक शासकों का सवाल है, खास तौर पर मुग़लों ने अपने दरबार में ब्राह्मणों को ज्यादा स्थान दिया बनिस्बत शैव गुरुओं को । शैवमत के गुरू और उनके अनुयायी स्वातंत्र्य के प्रति अपनी मूलभूत आस्था के कारण ही शासकों से दूर रहते थे और अपने तांत्रिक दार्शनिक विचारों तथा क्रियाओं के विकास के कार्यों में मसगूल । इसलिये भी बादशाहों का दरबार उन्हें रास नहीं आता था, लेकिन संस्कृत के पंडित ब्राह्मण उनके संरक्षण से अपने सामाजिक रुतबे को कायम रखने में सिद्धहस्त थे । आज जिसे हिंदी पट्टी कहा जाता है, इसमें राम नहीं, वैष्णव भक्तों का, नाथपंथी शैवों का और इस्लाम का ही प्रभुत्व रहा है । राम हजारों साल से एक महाकाव्य के ऐसे अत्यंत लोकप्रिय नायक थे, जिसने भारतवर्ष सहित पूरे जम्बू द्वीप में न जाने कितने लेखकों-कवियों की कल्पना को प्रेरित किया । ए के रामानुजन के तीन सौ रामायणों वाले लेख से ही पता चलता है इस चरित्र से जुड़ी कथाओं की व्याप्ती का । लेकिन जिसे एक ईश्वरीय सत्ता कहते है, उसके निर्माण में तुलसी के रामचरितमानस की बड़ी भूमिका रही है । वैसे, शुरू से ही उन्हें मनु की सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करने वाले एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में कल्पित किया गया था जो मुगल काल में सहज ही सामाजिक पटल पर अपनी ताकत को गँवा चुके ब्राह्मणों के लिये एक संबल और आस्था के प्रतीक बन गये ।

बहरहाल, वैदिक धर्म और शैवमत के बीच के टकरावों के, जो अतीत में किसी न किसी रूप में ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच खूनी संघर्षों के जरिये भी व्यक्त हुआ करते थे, लंबे इतिहास पर विस्तार से जाने के बजाय सबसे दिलचस्प होगा, इस विषय के बिल्कुल ताज़ा उदाहरण कर्नाटक में लिंगायतों द्वारा ख़ुद को हिंदू धर्म से पूरी तरह स्वतंत्र एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने के लिये शुरू हुए ज़बर्दस्त आंदोलन की बिल्कुल हाल की घटनाओं को देखना । कल्पना कीजिये कि वैदिक धर्मों के प्रति शैव मत में कितनी गहरी अनास्था और तिरस्कार की भावना रही होगी कि आज भी 12वीं सदी के वीरशैव मत के कवि और दार्शनिक बासव के वचनों पर आधारित लिंगायत मतावलंबी हिंदू घर्म को ठुकराते हुए लिंगायत को अलग धर्म मानने की आवाज उठा रहे हैं !

अभी चंद रोज पहले, इसी 10 सितंबर 2017 को लिंगायतों के कर्नाटक के सिद्दगंगा मठ के 110 साल की उम्र के वयोवृद्ध गुरू शिवकुमार स्वामी ने ज़ोरदार शब्दों में सरकार से यह माँग की है कि लिंगायत को पूरी तरह से स्वतंत्र, हिंदू धर्म से हर मायने में भिन्न एक अलग धर्म की मान्यता दी जाए । दक्षिण के शैवमत की यह धारा, कर्णाटक के बासवन्ना (12वीं सदी) के अनुयायी लिंगायतों (वीरशैव पंथ) ने अपने मंदिरों-मठों से यह आंदोलन छेड़ रखा हैं । वे वेदों को नहीं, बासव के 'वचनों' को अपना धर्मग्रंथ मानते हैं । बासव ने जिस पंथ की स्थापना की थी, वह वैदिक धर्मों के विरोध का पंथ था । इस एकेश्वरवादी धारा में परम सत्य अभेद है और इसी मान्यता पर बासव ने वेदों और शास्त्रों की मान्यताओं की व्याख्या के बारे में ब्राह्मणों के एकाधिपत्य को ठुकरा दिया था । वीरशैव, तिरूनेलवली शैव, पिल्लई, नडार, नाथों, नेपाल के पाशुपतों, कापालिकों की इस परंपरा के मठ और अनुयायी महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडू, केरल, गुजरात के व्यापक क्षेत्रों में फैले हुए हैं । लिंगायत हिंदू धर्म को ठुकरा कर अपनी मूलभूत अस्मिता को हासिल करना चाहते हैं । इसके पहले अगस्त महीने में इनके तक़रीबन दो लाख अनुयायियों ने एक सभा करके यह प्रस्ताव पारित किया था । इनके वयोवृद्ध शिवकुमार स्वामी ने जब अपने इस निश्चय का ऐलान किया तो कर्नाटक की ही नहीं, पूरी भाजपा और आरएसएस में आतंक की सिहरन दौड़ गई । उसी दिन नरेन्द्र मोदी के दूत स्वामी के पास उन्हें मनाने पहुंच गये तथा और भी राजनीतिज्ञों का ताँता  लग गया । लेकिन सत्ता के दबावों से सदा मुक्त रहने की शैव परंपरा के अनुसार ही शिवकुमार स्वामी और उनके घोषित वारिस पर भी इसका कोई असर नहीं पड़ा है और वे अपनी इस सुचिंतित राय पर पूरी तरह से अटल है । यहाँ गौर करने की एक और बात यह भी है कि आज कर्नाटक में लिंगायतों की आबादी लगभग 17 प्रतिशत है । इनके अनुयायी बड़ी संख्या में केरल, तमिलनाड, आंध्र और महाराष्ट्र में भी फैले हुए हैं और चुनावों में इस संप्रदाय के लोग व्यवहारत: भाजपा के वोट बैंक बने हुए थे । कर्नाटक के सबसे बदनाम भाजपा के मुख्यमंत्री और आज भी सबसे शक्तिशाली नेता येदियुरप्पा भी लिंगायत हैं ।

कश्मीर के पंडितों के बारे में भी ऐसे तमाम अध्ययन देखने को मिल जायेंगे जिनसे पता चलता है कि हिंदी वलय के हिंदुओं के साथ धार्मिक रीति-रिवाजों और पर्व-उत्सवों के बारे में वे बहुत कुछ अलग हैं ।

दक्षिण के शैव मत से लेकर कश्मीर और उसके बीच के विशाल क्षेत्र में सिद्धों-नाथों की लंबी परंपरा के जो तमाम सूत्र मिलते हैं, आज भले ही इनमें अंतर्निहित मूलभूत वैविध्य को एक हिंदू धर्म की चादर से ढाप दिया जा रहा हो, लेकिन यह एक स्थापित सत्य है कि यह विविधता किसी एक हिंदू धर्मशास्त्रीय धारा के अलग-अलग रूपों की विविधता भर नहीं थी । नाना शैवागमों पर आधारित शैवमत और वेद-उपनिषदों की परंपरा और जैसा कि हमने पहले ही कहा, बौद्ध और वैष्णव परंपरा में निश्चित तौर पर कुछ मूलभूत मतभेद रहे हैं जो आज तक किसी न किसी रूप में हमारे सामाजिक जीवन में रह-रह कर प्रकट होते रहते हैं । हम भारत के धर्मशास्त्रीय दायरे में दिखाई दे रहे आज के कुछ प्रकट विरोधों के प्रति इसलिये भी ज्यादा आकर्षित है क्योंकि इन विरोधों में दर्शनशास्त्रीय चिंतन के ऐसे अनेक सूक्ष्म बिंदुओं को पाया जा सकता है जिनसे हम भारतीय दर्शनशास्त्र को एक जड़ और अवरुद्ध से दिखाई देते अद्वैतवादी स्वरूप से मुक्त करके तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की एक बहुत विकसित भारतीय तर्कशास्त्रीय प्रणाली तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं ।

इसीलिये राधावल्लभ त्रिपाठी ने अभिनवगुप्त के जरिये हुए यदि कुछ अनर्थों की ओर इशारा किया है तो, हम उनमें अनर्थ तो बहुत दूर की बात, बल्कि उनसे मिल रहे अनेक शुभ संकेतों को उनकी संभावनापूर्ण तार्किक परिणति तक ले जाने की प्रस्तावना करना चाहते हैं ।

वैसे भी आज जिस समय हम यह चर्चा कर रहे हैं, उस समय ऐसे कुछ और भी विषयों को लेकर कई भ्रमों का अंत हुआ है । मसलन् भारत में आर्यों के आगमन का विषय ही लिया जा सकता है । नाना कारणों से इस विषय में तमाम भाषाशास्त्रीय और साहित्यिक-सांस्कृतिक और दूसरे साक्ष्यों के बावजूद नितांत सांप्रदायिक राजनीति के हितों को साधने और हिंदुओं की 'पुण्यभूमि' को लेकर एक प्रकार का झूठा गर्वबोध हासिल करने  के लिये इसे एक विवादित विषय बना दिया गया था । मजे की बात यह है कि इससे हिंदी के साहित्यकारों के एक तबके में भी भारत के इतिहास को लेकर अचानक एक प्रकार का अजीबोग़रीब सात्विक उत्साह दिखाई देने लगा । आर्य संबंधी ऐतिहासिक अध्ययन में चूँकि संस्कृत और भारोपीय भाषाओं के सूत्रों का काफी प्रयोग हुआ हैं, इसीलिये भाषा के औज़ारों से ही काम करने वाले साहित्यकारों में अपनी ऐतिहासिक अध्ययन की योग्यता के बारे में कोई भ्रम पैदा हो जाएँ तो आश्चर्य की बात नहीं थी ! आर्यों के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्यों में भाषा और साहित्य से जुड़े तत्वों की प्रचुरता, लेकिन पुरातात्विक तत्वों की भारी कमी और आर्यों के आगमन के पहले सिंधु घाटी की सभ्यता के प्रभूत पुरातात्विक साक्ष्यों के बावजूद भाषा और साहित्य के साक्ष्यों की कमी ने कल्पनाशील साहित्यकारों को सहज ही इस बात के लिये प्रेरित कर दिया कि क्यों न सिंधुघाटी की सभ्यता के पुरातात्विक साक्ष्यों में आर्यों के साहित्य और भाषा को स्थापित करके इस भारत भूमि को हर लिहाज से विश्व की सबसे उन्नत सभ्यता का क्षेत्र घोषित कर दिया जाए ! मुहनजोदाड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी के सभ्यता के अवशेषों में भाषा और लिपि के जो भी चिन्ह मिले हैं, वे आज तक पढ़े नहीं जा सके हैं । इसे ऐतिहासिक अध्ययन की वैज्ञानिक प्रणालियों की एक बड़ी कमी मान कर इतिहासकारों को इतिहास को पढ़ने की तमीज़ सिखाने, रोमिला थापर आदि के वर्षों के काम को चुटकियों में उड़ा देने के लिये ग़ैर-इतिहासकारों की एक पूरी टुकड़ी मैदान में उतर पड़ी थी। हिटलर के अनुयायियों के प्रभाव-विस्तार के काल में यह स्वाभाविक ही था कि उसके भारतीय अनुयायी यह ठान लें कि हिटलर यदि आर्यों की श्रेष्ठता का मिथक गढ़ सकता है तो उसी की तर्ज़ पर आर्यों की मूल भूमि भारतीय उपमहाद्वीप को मान कर दुनिया में हिंदू श्रेष्ठता की पताका हम क्यों नहीं फहरा सकते हैं ! 

मध्य एशिया के रूमानिया से लेकर रूस तक फैले पोंटो कैस्पियन मैदान के इलाके में जहां पृथ्वी पर सबसे पहले घोड़ों को पालतू बनाया गया था, वहीं से घोड़ों पर चढ़ कर आक्रमणकारियों के तौर अपनी भाषा और पितृ-सत्तात्मक समाज तथा जातिवाद की सामाजिक व्यवस्था के साथ आर्यों के भारत में आने के तमाम साक्ष्यों के होने के बावजूद ये लोग तमाम कुतर्कों के जरिये यह स्थापित करने में लग गये कि आर्यों को बाहर से आया मानने के बजाय क्यों न उनके यहाँ से बहिर्गमन के सिद्धांत को स्वीकारा जाए । सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेष भारत में एक अत्यंत विकसित सभ्यता की उपस्थिति को प्रमाणित करते हैं और वेद-पुराण एक विकसित सभ्य जाति की श्रेष्ठ भाषा और साहित्य को साबित करते हैं, इसलिये इस महान भूमि को ही संस्कृत सहित सभी भारोपीय भाषाओं के उद्गम-स्थल के तौर पर क्यों न माना जाए ?

इसमें हिंदी में साहित्यकार भगवान सिंह ने अपनी पुस्तक 'हड़प्पा और वैदिक सभ्यता' के जरिये जो शुरुआत की उसे आश्चर्यजनक ढंग से मार्क्सवादी रामविलास शर्मा ने परवान चढ़ाने की कोशिश की । जो इतिहासकार उपलब्ध साक्ष्यों की गहराई से छानबीन करके आर्यों के आगमन की बातें कह रहे थे, उन पर एक प्रकार के हीनता- बोध का लांक्षण लगाने से भी ये चूकते नहीं थे ।

बहरहाल, अब प्राचीन इतिहास में खास तौर पर आबादियों के देशांतर से संबंधित तथ्यों की जांच की इतनी वैज्ञानिक आनुवंशिक (genetic) विधि विकसित हो गई है कि अब ऐसे विषय अटकलबाजी के विषय नहीं बचे हैं । इस विषय में हाल में जो सबसे प्रामाणिक आनुवंशिक तथ्यों के आधार पर अध्ययन किया गया है उससे साफ हो गया है कि भारत की तरह के एक नाना भाषा-भाषी आदिवासी और गैर-आदिवासी आबादियों के मिश्रित क्षेत्र की जटिलताओं के बावजूद यहां ईसा पूर्व 5000-3500 साल पहले ताम्र युग में मध्य एशिया से मुख्यतः पुरुषों का आगमन हुआ था जिन्होंने यहां पितृ-सत्तात्मक जातिवादी-विभाजन का सामाजिक ढांचा तैयार किया । (देखें - https://bmcevolbiol.biomedcentral.com/track/pdf/10.1186/s12862-017-0936-9?site=bmcevolbiol.biomedcentral.com A genetic chronology for the Indian Subcontinent points to heavily sex-biased dispersals Marina Silva1† , Marisa Oliveira2,3† , Daniel Vieira4,5, Andreia Brandão2,3, Teresa Rito2,6,7, Joana B. Pereira2,3, Ross M. Fraser8,9, Bob Hudson10, Francesca Gandini1 , Ceiridwen Edwards1 , Maria Pala1 , John Koch11, James F. Wilson8,12, Luísa Pereira2,3, Martin B. Richards1*† and Pedro Soares)

इस लेख में इस प्रसंग को लाने का एक मात्र तात्पर्य यह है कि आर्यों का आगमन तो इस Holocenic (पिछले साढ़े ग्यारह हजार साल के नये युग) काल में भी बहुत बाद की घटना है, भारतीय समाज में अन्य जातियों के समाजों का अस्तित्व उसके काफी पहले से चला आ रहा हैं जिनके ज्ञान और नीति-नैतिकता का सब कुछ वेदों-उपनिषदों और संस्कृत साहित्य पर आधारित नहीं था और आक्रमणकारी आर्यों के वर्चस्व के बावजूद उनका सब कुछ खत्म नहीं हुआ था ।

और जब हम इन संदर्भों में भारत में शैवमत की अति प्राचीन परंपरा को, वेदों से भी पुरानी परंपरा को देखते हैं, तब हमें 11वीं सदी अर्थात सिर्फ हजार साल पहले के, और आज तक 'विक्रमादित्य से भी ऊंचे आसन पर विराजमान' माने जा रहे इस मत के 'लोकोद्धारक' अभिनवगुप्त और उनके जरिये हुए 'अनर्थों' के विचारों की एक अलग ही असलियत दिखाई देने लगती है ।

जहां तक अभिनवगुप्त के मत का सवाल है, उनका एक अध्येता हार्वे पाल आल्पर खास तौर पर रेखांकित करता है कि दुर्भाग्य से शैवमत की अलग-अलग धाराओं पर अलग से जितने काम हुए हैं, उनमें न इंडोलोजिस्टों ने और न धार्मिक इतिहासकारों ने ठहर कर यह जानने की कोशिश की है कि शैवमत नाम की चीज से वे क्या समझते हैं ? सच यह है कि भारतीय जीवन में धर्मों के बारे में पश्चिमी विद्यार्थी मुख्यतः किसी न किसी रूप में ईसाई धार्मिक संगठनों के ढांचे के दायरे में ही सोचते रहे हैं । इसीलिये शैव मत को खुद में स्वतंत्र एक 'धर्म', हिंदू धर्म का ही एक 'पंथ' मान लिया गया, अथवा इन दो देशव्यापी भिन्न ढांचों में, आदर्शों, विश्वासों और कर्मकांडों की एक आकारहीन 'धारा' जिसमें 'शिव' शब्द के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष उल्लेख के आधार पर सबको एक साथ कर दिया गया है। (Harvey Paul Alper ; Abhinavgupta’s concept of cognitive power : A translation of the Jnanasaktyahnika of the Isvarpratyabhijnavimarsini with commentary and introduction ; A dissertation in Religious Thought; 1976, page- 2)

हार्पर ने बहुत साफ शब्दों में शैवमत को इस तरह से सिर्फ भारतीय संदर्भ की एक ज्ञानमीमांसा के तौर पर देखने से इसकी तमाम उपधाराओं के अध्ययन में पैदा होने वाली कठिनाइयों पर विस्तार से चर्चा की है और इसीलिये इस बात पर जोर दिया है कि अभिनव को 9वीं सदी के कश्मीर की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, उस वक्त के धार्मिक परिवेश की पृष्ठभूमि में । उन्हें इस प्रकार से देखा जाना चाहिए ताकि धर्म के इतिहास में उनके स्थान को तय किया जा सके ।“ राधामोहन त्रिपाठी उनके कवि रूप को स्थापित करना चाहते हैं, आल्पर उनका स्थान भारत के धर्मों के कहीं ज्याद बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं ।

वैसे तो यह सही है कि शैवागमों को पूरी तरह से वेद-विरोधी या गैर-वैदिक नहीं कहा जा सकता है । लेकिन अगर हमें भारतीय धर्मशास्त्र में आगमिक तत्वों की कोई ठोस पहचान करनी है तो वह कुछ नकारात्मक दिशा से हो सकती है कि जो बौद्ध, वेदांती और वैयाकरणी सामग्री पर निर्भरशील नहीं है वे आगमिक हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे मिशेल फुको कहता है कि पश्चिमी दर्शनशास्त्र के पूरे इतिहास को प्लैटोवाद से इंकार का इतिहास कहा जा सकता है । जैसे एलेन बदउ यूरोप में आधुनिक दर्शन के इतिहास को देकार्तेवाद से इंकार का इतिहास कहते हैं । 

जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि भारत में आर्यों के साथ पितृ-सत्तात्मक समाज आया और समाज के जातिवादी विभाजन की मनुवादी वैदिक परंपरा भी आई, जिसे पुराने पंचरात्र के सूत्रों से जोड़ कर वैष्णवों ने जन-जन तक पहुँचाने का काम किया । और भारत के शैवमत अथवा पंचरात्र से जुड़े वैष्णव मत में भी ऐसे अनेक तत्व पाए जाते हैं जो मनुवादी समाज के कायदे-कानूनों को अस्वीकारते हैं । और इस नकारवाद के सकारात्मक उत्तरण में ही पूरा शैव मत, अपने 92 शैवागमों के साथ शामिल है । 92 उपधाराओं को समेटे हुए शैवमत की एक धारा, और इसमें अभिनवगुप्त की विशेषता यह थी कि उन्होंने शैवमत के परंपरागत विकास में उत्पलदेव के क्रांतिकारी अवदान 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' में सोमनंदा(875/900-925/950) के अवदान को अपने तंत्रालोक और प्रत्यभिज्ञादर्शन की व्याख्या के जरिये भारतीय दर्शन की भाववादी धारा के एक सबसे सुसंगत रूप में विकसित किया । हजारों सालों के बीच से रचित 92 शैवागमों को एक संगत रूप के अंतर्गत विन्यस्त किया ।

हम इस प्रसंग को यहां इसलिये ला रहे है कि यह साफ तरह से कहा जा सके कि अभिनवगुप्त (1) धर्मशास्त्रीय कसौटी पर शैवमत के थे, वे शैवागमों की पदावली का ही प्रयोग किया करते थे, इसीलिये उनके यहां ईश्वर, परमेश्वर एक मात्र शिव थे; (2) चेतना की परम सत्ता को मानते हुए निश्चित तौर पर आध्यात्मिक चिंतन की परंपरा से जुड़े हुए थे जिसमे ध्यान, योग भी शामिल है और इसमें वे चित्त और संविद की तरह के पदों का आम तौर पर प्रयोग करते थे ; (3) उन्हें दूसरों से अलगाने वाला सबसे महत्वपूर्ण पहलू चेतना से ही संबद्ध आत्मवाद का है, जिसमें व्यक्ति की प्रमुखता, कर्त्तृत्व, स्वातंत्र्य और विमर्श की प्रधानता है । चेतना को वास्तविक जगत का अमूर्तन कहते हैं, लेकिन आत्मवाद में वास्तविक जगत को चेतना में निहित माना जाता है। अभिनवगुप्त के आत्मवाद में वह अस्तित्व से जुड़ी हुई है । विचारधारा के रूप में चेतना और अस्तित्व में निहित चेतना के बीच के फर्क के अर्थ को ऐसा कोई भी व्यक्ति पकड़ सकता है जो पश्चिम में भाववाद और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के बीच के फर्क के प्रसंग से परिचित है ; अभिनव का अन्य (4) पहलू सौन्दर्यात्मकता का पहलू है, जिसमें आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक' पर उनकी टीका आती है । उनके प्रमुख दर्शनशास्त्रीय ग्रंथ 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' की तुलना में यह एक गौण प्रसंग होने पर भी यह सच है कि एक सौन्दर्यशास्त्री के रूप में उनके इस काम का भी अतीव महत्व है । इसी संदर्भ  में चमत्कार, स्फुरण, औचक उपलब्धि की तरह के व्यक्ति के रचना कर्म में स्फोट के अंतिम चरण को परिभाषित करने वाले उनके तमाम पद और अवधारणाएं आते हैं ।

फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अभिनव के दर्शन के ईश्वर के सामने उनकी पूजा-आराधना के ईश्वर का कम महत्व नही है। मनुष्य के आत्म-विस्तार के अपने तंत्रशास्त्र में वे मंत्रों के जाप, पूजा-पाठ, धूप-नैवेद्य आदि कर्मकांडों को उसके आत्म-विस्तार ( स्वात्मप्रकाश) का प्रथम सोपान कहते हैं । यह साधक द्वारा गुरू के उपदेशों को आत्मसात करने का वह स्तर है जहां से उसमें ज्ञान की सृष्टि होती है । यह ज्ञान भी तर्क के जरिये (सत्तर्क) आगे साधक की भूमिका को बदल देता है, उसमें स्व और सर्व का भेद मिट जाता है और तंत्रालोक की भाषा में उसमें 'परमेश द्वारा भावित दशा का स्फुरण' होता है । इस आत्म-साक्षात्कार स्वरूप ज्ञान को आत्मसात करने के बाद मनुष्य को किसी मंत्र, मुद्रा, जाप की जरूरत नहीं रहती । उपायों का समूह शिव को प्रकाशित नहीं करता है । विवेकशील व्यक्ति में एक कल्याण का भाव स्वाभाविक रूप में होता है । ऐसे स्वात्म-विश्रांत स्वतः आलोकमय साधक को समाधि योग, ब्रह्म मंत्र, मुद्रा, जप आदि की चर्या जहर की तरह लगने लगती है ।

इस प्रकार अभिनवगुप्त के तंत्रालोक और प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी की यही विशेषता है कि इसमें धर्मशास्त्रीय और भाववादी चिंतन की श्रेणियों और पदावलियों को अलग-अलग नहीं किया जाता है। यही वह कारण भी है जिसके कारण एक दर्शनशास्त्री, धर्मशास्त्री, धर्मगुरू और भाषाशास्त्री, सौन्दर्यशास्त्री, और कवि की बहु-मुखी भूमिका में अभिनवगुप्त बिल्कुल स्वाभाविक और समान गति रखने वाले पारंगत साधक के रूप में दिखाई देते हैं । और जब आप एक बार इस स्वात्मविश्रांत, स्वतः आलोकित स्वातंत्र्य-प्रिय धर्मगुरू के सच को आत्मसात कर लेंगे तो त्रिपाठी जी की तरह कभी यह नहीं कहेंगे कि उनके आभामंडल ने उनके कवि रूप को पीछे ठेल दिया !

और, इसीलिये उनके कवि रूप की अपेक्षाकृत कम चर्चा को कोई इसी वजह से घटित अनर्थ नहीं कहेगा कि उनके अन्य रूप कम महत्वपूर्ण थे । विगत हजार साल में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व के हर कालखंड में अभिनव इसीलिये उपेक्षित रहे क्योंकि उनकी दार्शनिक और धर्मशास्त्रीय उपस्थिति ब्राह्मणवादी सोच के लिये हमेशा एक चुनौतीभरी उपस्थिति रही है । उनका बहुविध विपुल लेखन और उसमें मनुष्य के गहन स्वातंत्र्य बोध का अनंत विस्तार उन्हें किसी भी अन्य भारतीय दार्शनिक की तुलना में एक अनन्य स्थान का अधिकारी बना देता है । शंकर भी उनके सामने फीके दिखाई देते हैं । शंकर का वेदांत संसार को मिथ्या कहता है क्योंकि वह इस संसार के आवरण के बाहर का स्वातंत्र्य का कोई पथ नहीं बताता । शैवमत में पशुभाव को व्यक्ति भाव, तुच्छता और बौनेपन का भाव मानते हुए आत्म-विस्तार के लिये जिस पशुपति भाव की बात कही गयी है वह संसार की माया, उसके आवरणों से परे जाने का भाव है जिसके सामने जगत मिथ्या का वेदांती सिद्धांत निःसार है । इस संसार को परम शिव की लीला मान कर मनुष्य को वह हमेशा बंधनों से मुक्ति की दिशा में बढ़ता हुआ देखता है । शिव यहां विश्वरूप, विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण है, जीवन-मृत्यु के किसी भी क्रम से मुक्त । शंकर के वेदांत में चित्त (ब्रह्म) निष्क्रिय है ।

पश्चिमी भाववादी दार्शनिकों में हाइडेगर को आत्मवादी सोच का एक परम उदाहरण और एक चरम चुनौती के तौर पर भी माना जाता है । वे ऐतिहासिकता की समस्या को एकदम भिन्न अनैतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर पेश करते हैं । अतीत के गह्वर के अंत तक जाने वाली ऐसी ऐतिहासिकता के रूप में जिसमें किसी ऐतिहासिक परम के उद्घाटन का कोई स्थान नहीं है । एक अनैतिहासिक औपचारिक-अतिन्द्रिय विश्लेषण (ahistorical formal-transcendental analysis) के जरिये प्राणी सत्ता के अस्तित्व और काल का संयोग मूलगामी ऐतिहासिकता में प्रत्यावर्त्तित होता है ।...हाइडेगर का इतिहासीकरण अतिन्द्रिय क्षितिजों का इतिहासीकरण है । इसमें प्राणीसत्ता स्वयं यथार्थ का एक संयोग बिंदु बन जाती है, इतिहास का एक परम विषय । मनुष्य परिमित है और ऐतिहासिक संयोग भी । परिमिति के इसी ढांचे में प्रच्छन्नता और प्रगटीकरण का वह क्रम चलता है जिसके अंत में वास्तव में कुछ भी नहीं होता है । यह एक अनैतिहासिकता है, लेकिन वही इतिहासीकरण का एक औपचारिक ढांचा है । (Slavoj Zizek, Absolute Recoil, Towards a new foundation of Dialectical Materialism, Verso, Page – 116)

गौर करने लायक बात यह है कि जिजेक हाइडेगर के इसी मूलगामी इतिहासीकरण के आधार पर उसे पौर्वात्यवाद से, खास तौर पर निर्वाण के शून्यवाद से पूरी तरह से अलगाते हैं । उनके अनुसार निर्वाण का शून्यवाद हाइडेगर के सोच के क्षितिज में निरर्थक है ; यह यथार्थ से प्रच्छन्नता की छाया को भी दूर करने का उपक्रम है । और मजे की बात यह है कि अभिनवगुप्त भी बिल्कुल इसी आधार पर बौद्ध दर्शन की अकाट्यता को अस्वीकारते हुए लिखते हैः

रागाद्यकलुषोऽस्म्यन्तःशून्योऽहं कर्तृतोज्झितः ।
इत्थं समासव्यासाभयां ज्ञानं मुञ्चति तावतः ।। (तंत्रालोक, 1/33)

“मैं राग आदि के द्वारा मलिन नहीं हूँ (यह विज्ञानवादी बौद्धों का मत है), मैं अन्तःशून्य हूँ (यह माध्यमिकों का सिद्धांत है), मैं कर्तृत्व से रहित हूँ (यह सांख्यों का मत है) इस प्रकार का संपूर्ण रूप से अथवा पृथक-पृथक होने वाला ज्ञान उतने से ही मुक्ति प्रदान करता है। अर्थात बौद्ध वैष्णव आदि आगमों में प्रतिपादित ज्ञान एक सीमा के अन्तर्गत ही बंधन से मुक्त कर सकते हैं, सभी प्रकार के पाशों से मुक्ति नहीं दिला सकते । बौद्ध विचारों से सम्भवतः बौद्ध और वैष्णव विचारों से सम्भवतः वैष्णव ही मुक्त हो सकते हैं ।

कब एक भाष्यकार अपने विषयों की गहन व्याख्याओँ की प्रक्रिया में खुद एक विचारों का प्रवर्त्तक, चिंतक और दार्शनिक में रूपांतरित हो जाता है, अनुमान ही नहीं लगता । अभिनवगुप्त ने अपना सारा जीवन सहस्त्र सालों के बीच लिखे गये शैवागमों के सूत्रों की व्याख्या में खपा कर अपनी प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में बहु-विध यथार्थ को आत्मसात करते हुए ज्ञान-दीप्ति का जो उदाहरण पेश किया, उसकी दार्शनिक और सौन्दर्यशास्त्रीय उपलब्धियां ही नहीं, उनके संपूर्ण चिंतन को, मनुष्य के आत्म-विस्तार की साधना के उनके तंत्रालोक को मानव मुक्ति की दिशा में भाववादी चिंतन की यात्रा के एक महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हमेशा माना जायेगा । उन्होंने मनुष्य के अंतर की संरचना, उसके मन-मस्तिष्क से लेकर जटिल शारीरिक गठन तक की संरचना में प्रवेश करके उसकी मुक्ति के पथ को खोजने की कोशिश की थी । उनके समस्त प्रयासों की एक ही मूल प्रेरणा थी कि मनुष्य जन्म से स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं हो सकता है । एक भाववादी चिंतक की तरह वे मानते थे कि जीवन के यथार्थ में इस स्वतंत्रता के रास्ते में जितनी भी बाधाएं क्यों न हो, मनुष्य के अंतर को कुछ इस प्रकार साधा जा सकता है कि जागतिक जीवन की बाधाएं उनके सामने तुच्छ हो जाए । अंतहीन लालसाओं से भरे, लेकिन किसी से भी कोई अपेक्षा न रखने वाले स्वातंत्र्य के भैरव भाव में उन्होंने मनुष्य की मुक्ति के परम प्रकाश के स्फोट को देखा था । यह बिल्कुल वैसा ही रहा है जैसे हेगेल ने स्वतंत्रता को मानव इतिहास की प्रमुख चालिका शक्ति के रूप में देखा था । मार्क्स ने स्वतंत्रता की मनुष्य की इसी प्रचेष्टा को सभ्यता के इतिहास की प्रकट गति के संदर्भ में वर्ग संघर्ष का एक सामाजिक रूप दिया और अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के बल पर ऐतिहासिक भौतिकवाद की पूरी ऐतिहासिक श्रृंखला को चाक्षुस बना दिया । वे भी समाज की मुक्ति में यदि प्रत्येक व्यक्ति की मुक्ति देखते थे तो प्रत्येक व्यक्ति की मुक्ति में समाज की मुक्ति के लक्षणों को देखने से नहीं चूकते थे ।

अभिनवगुप्त के स्फोट की पूरी अवधारणा बहु-आयामी जीवन में उन संयोगों का पहला संकेत देती है जहां से जीवन अपने एक वृत्त से मुक्त हो कर एक बिल्कुल नये वृत्त में प्रवेश करता है । जहां सिर्फ वर्तमान नहीं, अतीत तक की गहरी तहों तक जा कर जीवन-वृत्त का पूरा खोल ही उलट जाता है । अभिनव के इस पूर्ण प्रत्यावर्त्तन के तत्व को हम साफ तौर पर हेगेल के Total recoil से जोड़ सकते हैं ।

इस पूरी चर्चा से एक बात साफ है कि शैवमत का अपना कोई एक धर्म ग्रंथ नहीं रहा है, जिसे आम तौर पर किसी भी स्वतंत्र धर्म के अस्तित्व के लिये जरूरी माना जाता है । लेकिन यही वह बात है जो शैव मत को दूसरे धर्मों से अलग भी करती है । यह अनेक आगम ग्रंथों पर आधारित एक अति-प्राचीन धारा है जिसे आगमिक धर्म की धारा कहा जाता है और इसके बाहर की वैदिक, बौद्ध या वैष्णव धारा को इसमें नैगमित धारा माना जाता है । शैव मत के 11 वीं सदी के अब तक के इस सबसे अप्रतिम गुरु, दार्शनिक, भाषाशास्त्री और कवि अभिनवगुप्त ने अपने समय तक के 92 शैवागमों का उल्लेख करते हुए यह बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि ये सभी परस्पर-विरोधी नहीं, बल्कि आवयविक रूप से एक है । इनमें से प्रत्येक के अनुयायी मुक्ति की दिशा में अनुसंधानरत रहे हैं, ये संसार और जीवन में वैविध्य को स्वीकारते हैं, वैविध्य में एकता और पुन: एकता में वैविध्य इनकी मूलभत मान्यता है । यथार्थ के विविध पक्षों पर मनन का इनका यही तरीक़ा है । जीवन में विकल्पमूलकता और निर्विकल्प स्वातंत्र्य की खोज इनकी आस्था का विषय है ।

किसी भी समाज में समरसता कायम करने के लिये मनुष्य की प्राणीसत्ता में स्वातंत्र्य के तत्व के असीम महत्व को मानते हुए अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जातिवाद - इन्हें आठ पाश अर्थात आठ बंधन बताया है । इनके परित्याग को ही इन पाशों पर विजय प्राप्त कर चुके पशुपति नाथ का संदेश बताया है । शूद्र को भी शिक्षा पाने का अधिकार है । वे कहते है कि कोई विप्र है लेकिन पापी है और कोई शूद्र है लेकिन पुण्यात्मा है - इसमें जाति-विचार कहाँ आता है ? इसीलिये वे शुद्धि को वस्तु का धर्म नहीं, बल्कि एक दुराग्रह मानते थे । एक ऐसे शैव मत का, जिसके लाभ से संस्कृत साहित्य को नैगमिक धारा की श्रेष्ठता को बनाये रखने की जिद के चलते ही काफी हद तक वंचित रखा गया था, हज़ार साल के अंतराल पर लिंगायतों आदि के जरिये, पुनरोदय का संकेत ही ब्राह्मणवादियों के माथे पर लकीरें खींचने के लिये काफी है ।

इस विषय के अंत की ओर बढ़ने के पहले यहां हम एक और बात की ओर संकेत करना चाहेंगे । महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं । पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे । इसीलिये जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि उन्हें फिर पुराने ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए । पांडवों के इस संन्यास के जरिये व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के बजाय राज्य-विहीन मानव की स्वातंत्र्य सत्ता का संदेश-वाहक बनाते हैं, शैवमत के भैरव-भाव का प्रतीक, जिस पाशुपत (अन्तर्यामी) के बारे में वे न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ चर्चा करते हैं । न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं यह किसी भी राज्य से, बंधन से मुक्ति का भाव राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की भी एक परिकल्पना है । रवीन्द्रनाथ के शब्दों में 'आमरा सबाई राजा' (हम सब राजा है) का संदेश । और मजे की बात यह है कि अपने इस राजनीतिक संदेश के साथ अभिनवगुप्त समाज में वह मान अर्जित करते हैं, जिसे राधावल्लभ त्रिपाठी चक्रवर्ती राजा से कहीं ज्यादा सम्मान बताते हैं । वे दमनकारी हर सत्ता के विरोधी थे, इसीलिये चिर-विध्वंसक रहे । हर प्रकार के सत्ताधारियों के लिये बड़ी चुनौती बन कर व्यापक जन के हृदय पर राज करते रहे । और इसीलिये हर प्रकार के पुरोहितवाद के चक्षु-शूल ।


आज जिस काल में हम लिंगायतों के अलग धर्म के समर्थक प्रगतिशील लिंगायत एम एम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की उग्र ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के ध्वजाधारियों के द्वारा हत्याओं के दौर में जीने को मजबूर हैं, तब राधावल्लभ त्रिपाठी का अनायास ही कवि अभिनवगुप्त को प्रकाश में लाने के अपने सत् कार्य की विलक्षणता को बताने के लिये अभिनव के काल-खंड को नाजुक बताना और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण में कई अनर्थों की ओर इशारा करना हमारे कान खड़े करने के लिये काफी है । त्रिपाठी की उदारवादी सोच से हम परिचित है और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे धर्म रक्षार्थ भारतीय जीवन और दर्शन की मूल वैविध्यता को ही अपना मूल आधार बनाने वाले शैवमत के खिलाफ खड़ग्हस्त हुए हैं । फिर भी अपने किन्हीं खास कारणों से ही जब वे अभिनवगुप्त की दर्शनशास्त्रीय, धर्मशास्त्रीय उपलब्धियों को पृष्ठभूमि में डालने की कोशिश करते दिखाई देते हैं, तब उसका बिना प्रतिवाद किये यू ही नजरंदाज नहीं किया जा सकता है । खास तौर पर तब, जब कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं में हम शैवमत-विरोध की हिंसक अभिव्यक्ति अपने सामने देख पा रहे हैं । कर्नाटक विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहते हुए बसव के 'वचन' साहित्य पर उनके अमूल्य काम को सारी दुनिया स्वीकारती है । गौरी लंकेश भी लिंगायत थी । नास्तिक और वामपंथी विचारों की होने पर भी लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग मानती थी और इस पर कई मर्तबा उन्होंने लिखा भी था । कन्नड़ भाषा के बौद्धिक समुदाय की इन दो प्रमुख लिंगायत हस्तियों की एक ही प्रकार से सुनियोजित निर्मम हत्याएँ और इनमें उग्र हिंदुत्ववादियों (ऐसआईटी के अनुसार 'सनातन संस्था वालों) का हाथ होने के बारे में मिल रहे सबूतों से साफ पता चलता है कि हिन्दुत्ववादी ताक़तें शैव मत की विभिन्न धाराओं के इस नये उभार को अपने लिये कितना खतरनाक मान रही है ! आरएसएस का एकचालिकानुवर्तित्व का सिद्धांत कि संघ के एक मठ के निर्देशों पर पूरे भारत का संचालन किया जाए, भारत के मूलभूत, वैविध्य में एकता और एकता में वैविध्य को स्वीकार कर चलने के इस प्राचीनतम मत के विरुद्ध है और इसीलिये यह शैव मत की उस मूलभूत भावना के भी विरुद्ध है जिसके तत्वों को आत्मसात करके ही वास्तव में हिंदू धर्म ने भी भारत में अपने को आज तक मज़बूती से कायम कर रखा है । ऐसे में अकादमिक कामों पर भी प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप से उनके दबावों की एक प्रतिछवि हमें राधावल्लभ त्रिपाठी के लेख में भी नजर आई ।

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