-अरुण माहेश्वरी
जी एस टी की पृष्ठभूमि
मोदी जी और आरएसएस के सारे ट्रौल-अट्रौल देश-विदेश में घूम-घूम कर पूर्व के साठ सालों के कांग्रेस शासन की जितनी ही लानत-मलामत क्यों न करें, अपने आज के निकम्मेपन के लिये उनकी नालायकी पर ठीकरा क्यों न फोड़ें, एक बात साफ है कि 30 जून की रात जब वें संसद के सेंट्रल हॉल में जीएसटी के नाम पर राष्ट्र के लिये जिस नये गंतव्य का जश्न मनाने जा रहे थे, तब तक इसके लिये जमीन तैयार करने का पूरा श्रेय यदि किसी एक दल को जाता था तो वह कांग्रेस के अलावा दूसरा कोई दल नहीं था । कांग्रेस के साथ मिल कर ही राष्ट्र के संघीय ढाँचे के साथ ही राष्ट्रीय एकता और अखंडता के दृढ़ पक्षधर वामपंथी दलों के नेतृत्वकारी लोगों ने भी इस दिशा में बढ़ने के रास्ते को प्रशस्त करने में एक अहम भूमिका अदा की थी । पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री असीम दाशगुप्त की अध्यक्षता में ही जीएसटी प्रणाली का मूलभूत मसौदा तैयार किया गया था । और, जीएसटी के रास्ते में सबसे अधिक बाधाएँ डालने का अपराधी अगर अब तक कोई एक दल था तो वह सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी थी । 2004 से 2014 तक, जब तक मोदी जी केंद्र में सत्ता पर नहीं आएँ, भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों सहित ख़ुद मोदी जी भी इसके सख़्त विरोधियों में से एक थे ।
जीएसटी का प्रमुख लक्ष्य है - एक देश एक कर । आजादी के बाद लगभग 1970 के दशक तक तो दुनिया के देशों को इसी बात पर यकीन नहीं था कि भारत की तरह का इतनी विविधताओं से भरा हुआ, बिल्कुल अलग-अलग संस्कृतियों और जातीय पहचान वाला देश कभी एक रह पायेगा । अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए तो पूरी ताकत के साथ भारत के बल्कनाइजेशन, अर्थात उसे प्रत्येक राष्ट्रीयता के आधार पर अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने की योजनाओं में लगी हुई थी । सत्तर के दशक में ही असम में भूमि पुत्रों के नारों के साथ चले हिंसक आंदोलन के समय ही सीआईए की 'आपरेशन ब्रह्मपुत्र' योजना का पर्दाफ़ाश हुआ था । भारत की आजादी के ठीक बाद अमेरिका ने भारत में सामाजिक तनावों के बारे में जो व्यापक शोध कराया था, उसमें ख़ास तौर पर भारत में विभाजनकारी ताक़त के रूप में उसने आरएसएस को चिन्हित किया था और कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिये उसे ही अपना मोहरा बनाने की पूरी योजना तैयार की थी । पचास के दशक में अमेरिका की एशिया पैसिफ़िक संस्था की ओर से कराई गई जे ए क़ुर्रान, जूनियर की थिसिस -'आरएसएस : मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडिया' इसका सबसे बड़ा प्रमाण है ।
बहरहाल, भारत के बारे में सारी दुनिया में लगाये जा रहे ऐसे क़यासों को पूरी तरह से धत्ता बताते हुए तमाम झंझावातों के बीच से, भारतीय जनतंत्र ने अपनी आंतरिक शक्ति और लचीलेपन का परिचय दिया और देखते ही देखते यहाँ प्रादेशिक ताक़तों और राष्ट्रीय ताक़तों के बीच का फर्क कम होता चला गया । आज क्षेत्रीय ताक़तें राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण में कम महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं करती है । इसके अलावा, विगत तमाम सालों में भारतीय अर्थ-व्यवस्था का जिस हद तक एकीकरण होता चला गया, उसीने भारत के राजनीतिक एकीकरण को भी समान रूप से मज़बूत किया है । आज दुनिया में कोई भी ताकत भारत को तोड़ने के बारे में सोचने में लगभग असमर्थ है ।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अब पूरे भारत में एक समान कर-प्रणाली को लागू करने की बात को सोच पाना और उस पर अमल कर पाना संभव हो पा रहा है । यह भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय शक्तियों को शामिल कर पाने के लचीलेपन का परिणाम है । संघीय ढाँचे के प्रति निष्ठा, सत्ता के विकेंद्रीकरण और जनतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादाओं के बने रहने के कारण ही यह मुमकिन हो पा रहा है ।
यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि आरएसएस की मूलभूत विचारधारा संघीय ढाँचे के विरुद्ध एकीकृत शासन प्रणाली की विचारधारा है । इसीलिये उनके सत्ता में रहते इस बात की हमेशा गहरी आशंका बनी रहेगी कि जीएसटी की तरह की एकीकृत कर-प्रणाली का प्रयोग वह किसी एकीकृत शासन प्रणाली, एकदलीय या एक व्यक्ति की तानाशाही में करने की कोशिश करे । आज जितने नग्न रूप में राजनीतिक विरोधियों को सीबीआई के ज़रिये परेशान करने की कार्रवाइयाँ की जा रही हैं, वह उनके इसी नज़रिये का प्रमाण है । और, जीएसटी की प्रणाली भी आज यदि पूरी तरह से अपने परिकल्पित रूप में सामने नहीं आ पाई है, आज भी इसमें यदि अनेक प्रकार के स्लैब बरक़रार है तो उसके मूल में मोदी सरकार के इरादों के प्रति तमाम राजनीतिक दलों और क्षेत्रीय ताकतों में गहरे अविश्वास की एक बड़ी भूमिका है ।
बहरहाल, जीएसटी एक प्रकार की एकीकृत कर-प्रणाली है जो भारत के संघीय ढाँचे के किंचित विपरीत दिखाई पड़ने पर भी, काफी हद तक पर आज के एकीकृत भारत के यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है । जहाँ तक आम जनता को इससे राहत या कष्ट का सवाल है, यह साफ है कि वह कभी भी सरकार की कर-प्रणाली से मुक्त तो नहीं रह सकती है ! उस पर आज भी करों का बोझ लदा रहता है, आगे भी रहेगा ।
यह मुमकिन है कि कुछ बहुत छोटे कारोबारियों को एक बार के लिये इस नई प्रणाली को अपनाने में दिक़्क़त आएं । लेकिन भारतीय अर्थ-व्यवस्था का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिसमें बड़े इजारेदारों की तुलना में छोटे-छोटे कारोबारियों का कोई ज्यादा लाभ हो सकता हो । क़ानून की कमज़ोरियों और शक्तियों का भी अधिकतम लाभ बड़े लोग ही उठा पाते हैं । जहाँ तक कर बचाने के नाम पर पुर्जियो पर चलने वाले धंधों का सवाल हैं, वे पहले जिस प्रकार चलते रहे हैं, आज भी उसी प्रकार इंस्पेक्टरों और पुलिस की हफ्तावारी की देख-रेख में जारी रहेंगे । वे क़ानून और व्यवस्था के विषय ज्यादा हैं, न कि किसी कर-प्रणाली के विषय ।
जीएसटी और लघु और मंझोले व्यापारी
शुरू से यह भी एक साफ आशंका थी कि जीएसटी भारत के लोगों के लिये सर्वनाशी साबित हो सकता है । भारत की तरह के एक विफल राज्य में बहुत सारे लोग छोटे-मोटे धंधों से जीवन यापन करते हैं । जीएसटी आम आदमी के लिये जीविका के इस स्वतंत्र चयन को बुरी तरह से प्रभावित और बाधित करेगा । अब बनिये की दुकानदारी पहले की तरह कोई आसान चीज नहीं होगी । दुकान में ही सुबह से शाम तक जीवन काटने की ख़ास बनिया संस्कृति का भी नाश होगा । व्यापार पर अधिक पूँजी वाले संगठित क्षेत्र का एकाधिकार होगा । आज का दुकानदार या उसकी संततियां, अगर वे भाग्यशाली हुए तो, बड़े व्यापारियों की गुमाश्ता सेना में शामिल होंगे । वैसे इसकी भी संभावना कम है । मनुष्यों का काम छीनने के लिये मशीनें, रोबोट पहले से तैयार है ।
दुनिया के सामने रोज़गार-विहीन विकास आज की सबसे विकट सचाई है । पश्चिम के देशों में बड़े-बड़े मॉल में सिर्फ पाँच-दस कर्मचारियों की उपस्थिति भावी भारत की तस्वीर पेश कर रही है । बड़े और संगठित क्षेत्र के विक्रेता का सामान गली की परचून की दुकान से हर हाल में सस्ता होगा, क्योंकि वह जीएसटी के इनपुट का लाभ सरकार से वसूल कर पायेगा और वसूले गये जीएसटी की चोरी के बावजूद एक अंश ग्राहक को भी देने में समर्थ होगा । इसीलिये हर परचूनी के ज़िंदा रहने की संभावना को अब ख़त्म माना जा सकता है ।
मार्क्स ने कहा था - 'पूँजी का संचय सर्वहारा की वृद्धि है ।' कुल मिला कर यह पूँजीवाद का वही विजय रथ है जो अपने पीछे न जाने कितनी लाशों, कितनी बर्बादियों और मनुष्य के ख़ून और पसीने का कीचड़ छोड़ता जाता है । इसीलिये हम कह सकते हैं कि जनता से अधिकतम कर वसूलने की नई कर-प्रणाली पर जश्न, लाश के चारों ओर प्रेतों के नृत्य की तरह है । रोमन इतिहासकार टैसितस ने बताया है कि रोम के सम्राट नीरो ने अपनी दावत के लिये बग़ीचे को रौशन करने की ख़ातिर अपने कुछ बंदियों को ज़िंदा जला दिया था । हमारे पत्रकार पी साईनाथ ने लिखा है कि सालों से मैं यह नहीं समझ पाया कि नीरो की ऐसी दावत के अतिथि कैसे लोग रहे होंगे ? तीस जून की रात दिल्ली के जश्न में शामिल लोगों में नीरो के अतिथियों की एक सूरत देखी जा सकती है ।
तभी यह भी साफ था कि मोदी जी जीएसटी को लेकर पर फिर एक बार नोटबंदी वाली मुद्राओं के साथ देश भर में घूमेंगे ; और उसी तरह शहरों-क़स्बों में उजड़ते हुए लोगों की जाने जायेगी । भाजपा और आरएसएस के लोग इन मरते लोगों को फिर से एक बार लड्डू खिलाने जायेंगे । कुछ ऐसे अर्थशास्त्री बाजार में उतरे हुए दिखाई देंगे जिनका दावा होगा कि जीएसटी से बाजार का विस्तार होगा और इससे मंदी में फंसे हुए बाजार में सचलता आजायेगी ।
करों से न बाज़ार का विस्तार होता है और न संकुचन । बाजार निर्भर करता है आम लोगों की क्रय शक्ति पर । और किसी भी वजह से आमदनी में कटौती से बाजार नहीं बढ़ सकता । जीएसटी ही बाजार की गति का कोई मूल मंत्र होता तो दुनिया के जिन तमाम देशों में जीएसटी है, वहाँ मंदी या कोई भी आर्थिक संकट कभी पैदा ही नहीं होना चाहिए था । जो कहते हैं, देश भर में समान कर से बाजार का विस्तार होगा, वे या तो अर्थनीति के बारे में कुछ नहीं जानते या प्रवंचकों के दल के हैं ।
जो लोग कह रहे हैं कि जीएसटी से जीडीपी में एक प्रतिशत की वृद्धि होगी, उनके बारे में ख़ुद इस सरकार के नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय तक ने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि यह बात कोरी बकवास है । देबराय ने मोदी सरकार के जीएसटी के पूरे ढाँचे को ही दोषपूर्ण घोषित कर दिया है ।
इसी प्रकार, महज कर-प्रणाली में बदलाव से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का दावा भी शुद्ध प्रवंचना है । नोटबंदी के वक़्त भी यही सब कहा गया था । रोज़गार-विहीन लोग समाज में तमाम प्रकार की अराजकताओं के, लूट-खसोट के भी कारण बनेंगे । ब्राज़ील, नाइजीरिया की तरह के देश इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । यह कर वसूलने वाली नौकरशाही के भ्रष्टाचार में एक नई छलाँग का कारण बनेगा ।
जीएसटी का सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास पर । इससे क्षेत्रीय असमानता स्थायी हो जायेगी । करों में छूट से कई पिछड़े हुए इलाक़ों का विकास संभव हुआ था । वह संभावना अब ख़त्म हो जायेगी ।
इस प्रकार, जीएसटी के इन सभी प्रभावों को समझते हुए इनसे बचने के उपयुक्त उपायों के बिना इसे लागू करना हमारी अर्थ-व्यवस्था के लिये सर्वनाशी साबित होगा, यह आशंका निराधार नहीं थी । बड़े-बड़े पूँजीपति जरूर इससे लाभान्वित होंगे ।
कुछ चैनलों ने यहां तक चीख़ना शुरू कर दिया था कि जीएसटी चीन को चकनाचूर कर देगा; पाकिस्तान को ख़त्म; विदेशों में जमा काला धन देश में आ जायेगा । लेकिन वास्तव में जीएसटी क्रमश: एक ऐसी पहेली के रूप में सामने आया जिसके खतरनाक परिणाम साफ दिखाई देने लगे थे । इसके बारे में प्रधानमंत्री जितनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगे उसी अनुपात में वह उतना ही रहस्यमय, एक अबूझ पहेली की शक्ल लेने लगा । 'एक देश, एक कर' - जिस बात पर संसद में आधी रात को भूतों की तरह का जश्न मनाया गया, शुरू में ही यह पता चल गया था कि इसी बात का इस पूरे फसाने में कोई स्थान ही नहीं है । इसमें न एक राष्ट्र है और न एक कर ही ।
पेट्रोलियम पदार्थों, बिजली, शराब और रीयल इस्टेट की तरह के सबसे अधिक राजस्व पैदा करने वाले चार प्रमुख क्षेत्रों को इस जीएसटी से बाहर रखा गया है । अर्थात इन चारों चीज़ों पर प्रत्येक राज्य में करों की दर अलग-अलग होगी जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्ज़ी से तय करेगी । अर्थात्, 'एक राष्ट्र' का दावा कोरा धोखा है । यही हाल है 'एक कर' के दावे का है । इसमें अब तक कर की दरों के सात स्लैब सामने आए हैं - 0%, 0.25%, 3%, 5%, 12%, 18% और 28% । सरकार के लोग शुरू से सरासर झूठ बोलने लगे कि आगे वे इन सब स्लैब्स को कम करके एक अथवा दो तक सीमित कर देंगे । इसके विपरीत सचाई यह थी कि इसमें अधिकतम 28 प्रतिशत की दर को बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की व्यवस्था रखी गई थी । इसके अलावा आज जिस चीज पर जितना प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, कल उसे बदल कर दूसरे स्लैब में नहीं डाला जायेगा, इसकी शुरू से कोई गारंटी नहीं रही। 30 जून की आधी रात के चंद घंटों पहले तक कुछ चीज़ों को एक स्लैब से निकाल कर दूसरे स्लैब में डाला गया । अर्थात, आगे भी कर की दरों के मामले में हमेशा पूरी अराजकता की स्थिति बनी रहेगी ।
इसीलिये जीएसटी का भारी उत्सव मनाने के लिये जो तमाम बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे, वास्तविकता में उन बातों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जिस चीज का वैसा कोई अस्तित्व ही न हो, फिर भी उसका ढोल पीटा जाएँ, तो इसे धोखा या अबूझ पहेली नहीं तो और क्या कहा जायेगा ?
यही नहीं, जीएसटी प्रणाली में गरीब और अमीर एक दर से कर देंगे - यह कहना भी एक सफ़ेद झूठ था । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही साफ हो जाता है कि इस व्यवस्था में गरीब ज़्यादा दर से कर देगा और अमीर कम दर से । सुपर मार्केट में चीज़ें सस्ती होगी, मोहल्ले की परचून की दुकान, यहाँ तक कि पटरी वाले की चीज़ें भी महँगी होगी । सुपर मार्केट वाले इनपुट क्रेडिट का भरपूर लाभ लेंगे, परचूनिया कुछ नहीं ले पायेगा । बड़े व्यापारी अपने कारोबार के विस्तार और आधुनिकीकरण के ख़र्च का एक हिस्सा भी इसी जीएसटी के इनपुट क्रेडिट से उठा लेंगे । परचूनिया जीएसटी की पूरी जमा राशि सरकार को देने के लिये मजबूर होगा ।
इसी सिलसिले में मोदी जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक अभिनव खोज की कि सीए, अर्थात् मुनीम अर्थनीति की सेहत की रक्षा करता है ! क्यों न उन्हें इस महान खोज के लिये अर्थनीति में नोबेल पुरस्कार का हक़दार माना जाएँ ! चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के संस्थान के आयोजन को संबोधित करते हुए मोदी जी भारत में सीए लोगों को लाखों सेल कंपनियों के होने का राज कुछ इस प्रकार बता रहे थे, जैसे इन लोगों के लिये यह कोई रहस्य रहा हो ! व्यापार से जुड़े तमाम लोग मोदी के अर्थ-रक्षकों, इन सीए की भूमिका को वैसे ही जानते हैं, जैसे आरएसएस के गो रक्षकों की वास्तविक भूमिका को जानते हैं । ये ही तो कर चोरी की अनीतियों की जड़ में हैं ।
संघ के प्रचारकों की मनोवैज्ञानिक सचाई यह भी है कि वे हमेशा दुकानदारों की सोहबत में रहते आए हैं । इसीलिये उनके प्रति इनमें एक स्वाभाविक ईर्ष्या दबी रहती है । इसी प्रकार, संघ वालों में भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल न होने का एक अपराध बोध भी है , जिसके कारण अब वे हर रोज एक आजादी की जंग लड़ते रहते हैं । इन्होंने राममंदिर आंदोलन को आजादी की दूसरी जंग कहा था, फिर नोटबंदी को और अब प्रधानमंत्री जीएसटी को भी आजादी की जंग बता रहे हैं । नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक इनकी नीतियों के इन मनोवज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।
नोटबंदी के दिनों की तरह ही भाजपा के नेताओं और प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिला कर इसे नोटबंदी की तरह ही काला धन को ख़त्म करने से जुड़ी मोदी सरकार की एक और मुहिम बता रहे हैं । लेकिन सच कहा जाए तो आज भारत के प्रधानमंत्री की बातों का दो कौड़ी का भी मूल्य नहीं रह गया है । शायद ही कोई उनकी कही बातों पर यक़ीन करता होगा ! वे क्रमश: विज्ञापनों के प्रवंचक प्रचारक भर दिखाई देने लगे हैं । मोदी-मोदी का प्रायोजित शोर इस सच को नहीं छिपा सकता है । भारत के सर्वोच्च पदाधिकारी की विश्वसनीयता में इस प्रकार तेज़ी से गिरावट हमारे जनतंत्र के लिये बहुत घातक साबित हो सकती है । इनकी नीतियों से सामाजिक जीवन में फैल रही अराजकता विकल्प के अभाव में बर्बर तानाशाही का भी रास्ता भी प्रशस्त कर सकती है ।
फासीवाद ऐसे ही आता है
नोटबंदी के भूचाल के झटके थमे भी नहीं कि जीएसटी की भागमभाग, अर्थनीति के क्षेत्र में व्यापक अराजकता से जीडीपी में तेज़ी से गिरावट, बैंकों से क़र्ज़ों में, अर्थात औद्योगिक क्षेत्र में निवेश में भारी कमी, ग्रामीण क्षेत्र तो क़र्ज़-माफ़ी के ज़रिये ज़िंदगी की भीख माँग रहा है । इसके अलावा, देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का विस्फोट । इन सब पर सरहदों पर भारी तनाव - पाकिस्तान की सीमाओं पर लगातार गोलीबारी, कश्मीर में आए दिन पाकिस्तानी मदद से आतंकवादियों के हमले और अब भूटान की सीमा पर चीन से ऐसी तनातनी कि चीन ने युद्ध तक की धमकी दे दी है ।
वस्तुत: नोटबंदी को अभी भी कानून की परीक्षा में पास होना है ! इसी 4 जुलाई 2017, अर्थात नोटबंदी के लगभग आठ महीने बादए सुप्रीम कोर्ट ने नोटबदली के एक मामले में केंद्र सरकार से यह मांग की है कि जो लोग 'सच्चे कारणों से' अमान्य कर दिये गये नोट को बैंक में जमा नहीं करा पाए उन्हें इन रुपयों को जमा कराने का एक मौका दिया जाना चाहिए, क्योंकि कानून की पूरी प्रक्रिया का पालन किये बिना उनसे उनका रुपया छीना नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक संविधान पीठ ने सालिसिटर जैनरल से कहा कि "कोई व्यक्ति विदेश में हो सकता है या उस समय बीमार हो सकता है या जेल में हो सकता है। यदि मैं यह साबित कर देता हूं कि यह मेरा रुपया है तो आप मुझे अपनी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं। वह गलत होगा। भले ही जांच के बाद आप ऐसे सभी दावों को खारिज कर दें, लेकिन इस वास्तविक समस्या का रास्ता आपको खोजना होगा।"
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, जीएसटी तो एक पहेली ही बनता जा रहा है ! इस पहेली को बुझाने के लिये हजारों रुपये की किताबें, सीडी और नाना प्रकार की सामग्रियों से बाजार पट गया है। कुछ ऐसे लोग भी बाजार में उतर गये हैं जो लोगों को जीएसटी के बारे में पूरा कोर्स करके उसकी डिग्रियां भी बांटने का काम करेंगे। व्यापार से जुड़े लोगों की दशा यह है कि वे इस नये कर पर जितना दिमाग लगा रहे हैं, उतना ही यह मामला उनकी समझ के बाहर जाता जा रहा है। राज्य सरकारों ने अपने बिक्री कर, चुंगी आदि के दफ्तरों पर एक बार के लिये ताला लगा दिया है। पता नहीं राज्य और केंद्र के बीच इस कर की वसूली के बारे में यह कैसी समझ बनी है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से के कर को लेकर पूरी तरह से निश्चिंत दिखाई देती हैं।
हम नहीं जानते कि क्या राज्य सरकारों को केंद्र से ऐसा कोई आश्वासन दिया गया है कि जीएसटी के मातहत करों की उगाही कम हो या ज्यादा, राज्यों को उनके पुराने हिसाब के अनुसार एक न्यूनतम राशि केंद्र सरकार अपने कोष से दे देगी । अगर ऐसा है तो यह आने वाले दिनों में केंद्र और राज्यों के बीच वित्त के मामले में एक भयावह तनाव का कारण बन सकता है। सचमुच, अभी की अराजकता को देख कर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।
ऊपर से प्रधानमंत्री को विदेश यात्राओं का नशा ! वे दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदार बन कर तमाम हथियारों के सारे सौदागर से गलबहिया करते घूम रहे हैं । आरएसएस के लोग ख़ुश है कि यही तो है उनके 'हिंदुओं के सैन्यीकरण' का इप्सित लक्ष्य ! लेकिन किसी भी विवेकवान व्यक्ति को इन सबके बीच भारत की पूर्ण तबाही के मंज़र दिखाई दे सकते हैं । आर्थिक दुरावस्था और देश के अंदर और देश की सीमाओं पर युद्ध - किसी भी राष्ट्र के लिये इससे बड़ा अशनि संकेत क्या हो सकता है । इनके साथ ही जुड़ कर आती है सभ्यता की बाक़ी सारी निशानियों के अंत की कहानी । जनतंत्र के, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के, नागरिक अधिकारों के, आपसी भाईचारे के अंत की कहानी । अंध-राष्ट्रवाद की इसी आंधी में फासीवाद के आगमन की ध्वनि साफ सुनी जा सकती है ।
पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों ने साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ मिल कर कुछ इसी प्रकार उन देशों की बर्बादी की कहानियाँ लिखी थी । पूरा मध्य पूर्व इसी प्रकार, धीर-धीरे, धरती के नक़्शे पर अभिशप्त क्षेत्रों की शक्ल लेता चला गया है । ट्रंप और नेतन्याहू जैसों के साथ मोदी जी जितना खिलखिलाते हुए गले मिलते हैं, हमारी रूह भारत के भविष्य को लेकर उतनी ही ज्यादा काँप उठती है ।
जीएसटी भारत के संघीय ढाँचे की चूलें हिला देगा
नोटबंदी अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा करने में सौ फ़ीसदी विफल रही । उल्टे, उसने नगदी की कमी की जो समस्या पैदा कर दी है, वह अर्थ-व्यवस्था के लिये एक असाध्य रोग का रूप ले चुकी है । ऊपर से बैंकों की ख़त्म हो चुकी साख के बाद सरकार के कठोर नियमों के बल पर बैंकें और कितने दिन अपने अस्तित्व को बनाये रखती हैं, यह देखना दिलचस्प होगा ! मूलत: बैंकों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिये उठाये गये नोटबंदी के कदम के बाद भी, बहुत जल्द ही केंद्र सरकार को उनकी मदद के लिये एकमुश्त राहत का पैकेज लेकर सामने आना होगा । यह सुनिश्चित है ।
नोटबंदी के रास्ते पर ही अब जीएसटी की भी वही दुर्गति होती दिखाई दे रही है । अभी से इसको लेकर जितनी उलझने सामने आई हैं, वित्त मंत्रालय ने विवेक के साथ उन सबका समय से समाधान नहीं किया तो यह सिर्फ पूरी अर्थ-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने का एक बड़ा कारण ही नहीं बनेगा, बल्कि यह पूरी स्कीम ही औंधे मुँह गिरने के लिये बाध्य होगी । कोई अचरज नहीं कि सरकार को अपने ही कुप्रबंधन के कारणों से इसे वापस लेने के लिये मजबूर होना पड़े !
मोदी-जेटली ने जीएसटी के मामले में यह सोच कर हड़बड़ी की थी कि 2019 में अभी दो साल का समय बाक़ी है । तब तक वे इसे लागू करने से होने वाली प्रारंभिक कठिनाइयों से उबर जायेंगे । लेकिन उनको यह नहीं सूझा कि आधी-अधूरी जानकारियों और न्यूनतम तैयारियों से उठाये जाना कोई भी कदम स्वयं में एक बड़ी परेशानी और जटिलता का कारण बन जाता है । ऐसे कदम किसी ज़ख़्म की तरह बाद में हर बीतते दिन के साथ नासूर का रूप लेने लगते हैं, जिनका इलाज सिवाय आपरेशन करके उन्हें जड़ से काट कर फेंक देने के अलावा कुछ नहीं रहता है ।
जीएसटी से ज़ख़्मी अर्थ-व्यवस्था में अभी से वे तमाम लक्षण दिखाई देने लगे हैं । जो करोड़ों लोग भारत में स्व-रोज़गार के जरिये जीवन यापन करते रहे हैं, उनके लिये यह व्यापार और रोजगार की सारी संभावनाएँ ही ख़त्म कर दे रहा है । इससे पैदा हो रहा विस्फोटक जन-असंतोष इस पर अमल की लुंज-पुंज सरकारी मशीनरी को पूरी तरह से ठप कर देगा । जीएसटी काग़ज़ों में रहेगा, संगठित बड़े व्यापारियों को अतिरिक्त लाभ जुटा कर देने के औज़ार के रूप में काम करेगा, अर्थात सरकार के राजस्व में सेंधमारी का साधन बनेगा, लेकिन इसके जरिये ज्यादा राजस्व जुटाने का सरकार का न्यूनतम लक्ष्य भी पूरा नहीं कर पायेगा ।
पहले से ही चल रही जीडीपी में गिरावट और अब अन्य स्रोतों से भी राजस्व में भारी कमी के कितने प्रकार के आर्थिक- राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं, उनकी कल्पना करना भी मुश्किल है । भारत में इस प्रकार की विफलता का सीधा सा अर्थ है राष्ट्र के संघीय ढाँचे में भारी तनाव की उत्पत्ति । राज्य सरकारें अपने नुक़सान की भरपाई के लिये केंद्र से झगड़ा करेगी, लेकिन केंद्र किससे करेगा ? वह यदि नोट छापने का रास्ता अपनाता है तो इसके घातक मुद्रा-स्फीतिकारी प्रभाव को कोई रोक नहीं सकेगा । विकास की सारी योजनाएँ ठप हो जायेगी ।
ऐसी कठिन परिस्थिति में मोदी जी का एक देश से दूसरे देश निरुद्देश्य घूमना, नेताओं से बेबात की गलबहियां करना उस कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ करता है कि 'रोम जब जल रहा था , नीरो बंशी बजा रहा था' ।
जिस जीएसटी के शोर के जरिये मोदी-जेटली ने यह सोचा था कि वे नोटबंदी के दुष्प्रभाव को दूर कर लेंगे, वह अब क्रमश: इनके गले की फाँस का रूप लेता जा रहा है । ख़तरा इस बात का है कि इसके राजनीतिक प्रभाव से बचने के लिये मोदी जी कोई और भी बड़ा खतरनाक रास्ता न अपना लें - युद्ध का रास्ता । इसके सारे संकेत अभी से दिखाई देने लगे हैं । सेनाध्यक्ष को अढ़ाई युद्ध के लिये तैयार रहने को कह दिया गया है, जिसकी ख़ुद उन्होंने ताईद की है । चीन के साथ, पाकिस्तान के साथ और आधा देश की जनता के साथ । कहना न होगा, यही भारत के हिटलर के उदय का भी रास्ता होगा । भारतवर्ष की तबाही का रास्ता ।
झूठ के धुँआधार प्रयोग से अब मोदी शासन का हर सच भी कोरा झूठ लगने लगा है
फेक न्यूज का मसला आज दुनिया का एक बड़ा सरदर्द बन गया है । उधर अमेरिका में ट्रंप ने पिछले चुनाव में झूठी ख़बरों की बाढ़ ला दी थी तो इधर मोदी-शाह युगल भी इस मायने में ट्रंप से कभी उन्नीस नहीं, बल्कि इक्कीस ही रहे हैं । सचमुच, आरएसएस-भाजपा तो हमारे देश में इस संसार के बेताज के बादशाह है । स्वाती चतुर्वेदी की किताब 'I am a Troll' में सारे प्रमाणों के साथ यह बताया गया है कि मोदी-शाह युगल ने फेक न्यूज की बाक़ायदा एक विशाल फ़ैक्टरी खोल रखी है । हाल में बंगाल में सांप्रदायिक दंगे लगाने में इनकी बंगाल की आईटी शाखा किस प्रकार लगी हुई थी, उसके सारे प्रमाण सामने आ चुके हैं । इस शाखा के प्रमुख तरुण सेनगुप्ता को इस अपराध के लिये गिरफ़्तार भी किया जा चुका है । उन्होंने बांग्लादेश और न जाने कहाँ-कहॉं की तस्वीरों को काट-छाँट कर बंगाल की बताने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का जघन्य काम किया था ।
बहरहाल, सारी दुनिया के विवेकवान लोगों की तरह ही भारत में भी संगठित रूप में झूठ के जरिये किसी भी प्रकार के सार्थक विमर्श के लिये कोई जगह न छोड़े जाने पर चिंता पैदा होने लगी है । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गूगल की तरह के बड़े संस्थान ने जहाँ फेक न्यूज के प्रवाह को रोकने के लिये अपनी ओर से एक पहलकदमी करने का निर्णय लिया है, वहीं भारत में भी ऐसी वेबसाइट्स तेज़ी से विकसित हो रही है जो सिर्फ ख़बरों के झूठ-सच की जाँच में ही लगी हुई है और यथासंभव लोगों को इस डरावनी बीमारी से अवगत कराने की कोशिश कर रही है ।
एनडीटीवी पर रवीश कुमार ने प्राइम टाइम पर लगातार चार एपीसोड अकेले इसी विषय पर किये हैं । इसमें उन्होंने झूठ के इस कारोबार को कई ऐतिहासिक संदर्भों के साथ, मसलन नई सहस्त्राब्दि पर सारे कम्प्यूटरों के ठप हो जाने के वाईटूके के विषय से लेकर 'मंकी मैन' और गणेश जी को दूध पिलाये जाने वाले वाकयों का भी बार- बार उल्लेख किया है । इसके राजनीतिक संदर्भों में उन्होंने हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबल्स से लेकर डोनाल्ड ट्रंप की भी चर्चा की है ।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि हम सत्य की अपराजेय शक्ति की जितनी भी बात क्यों न करें, मानवता का इतिहास झूठ की समान, बल्कि कहीं ज्यादा शक्ति का परिचय देने वाला इतिहास रहा है ।
हम सब जानते हैं, सचाई का रास्ता एक कठिन रास्ता है । सच को अपने को स्थापित करने में लंबा समय लग जाता है । इसके लिये बेहिसाब ख़ून, पसीना और आँसू बहाना पड़ता है । लेकिन झूठ भी जीवन का एक सच होने के नाते ही, उसकी शक्ति सच से कम नहीं होती है । दार्शनिक दृष्टि से सख़्ती से देखने पर हम पायेंगे कि मानव जीवन में पाये जाने वाले सारे मिथ, ईश्वर से लेकर तमाम प्रकार के अंध-विश्वास झूठ नहीं तो और क्या कहलायेंगे । लेकिन मनुष्य के जन्म के साथ ये उसके अस्तित्व से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं ।
इसीलिये यहाँ सवाल किसी दार्शनिक दृष्टि का नहीं है । फेक न्यूज का मसला जीवन और इतिहास के बहुत मोटे-मोटे तथ्यों से जुड़ा हुआ है । मसलन भारत 15 अगस्त 1947 के दिन आज़ाद हुआ था । यह एक कोरा तथ्य है । इसी प्रकार के कोरे तथ्यों की श्रृंखला से हम इतिहास और अपने जीवन का आख्यान तैयार करते हैं । फेक न्यूज वह रोग है जो जीवन के ऐसे ठोस तथ्यों में सेंधमारी करता है । उसे तोड़- मरोड़ कर अपना उल्लू सीधा करने के लिये इस प्रकार विकृत कर देता है जैसे जातक कथा में ठगों के एक गिरोह ने बकरी ले जा रहे ब्राह्मण को बार-बार टोक कर यह मानने के लिये मजबूर कर दिया कि वह अपने कंधे पर बकरी नहीं, बल्कि कुत्ता ले जा रहा है । और इस प्रकार उन्होंने ब्राह्मण से उसकी बकरी को झपट लिया ।
इसीलिये फेक न्यूज का मुद्दा शुद्ध रूप से ठगबाजों से लड़ाई का मुद्दा है । आज जब यह पता चलता है कि भारत की राजनीति में फेक न्यूज का सबसे बड़ा और संगठित काम मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा कर रही है तो इसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है कि हमारा आज का शासक दल ठगों का एक विशाल गिरोह है । क्योंकि इसमें कोई विचारधारात्मक या अवधारणात्मक मुद्दा शामिल नहीं है । इसमें सिर्फ ठोस तथ्यों का विकृतिकरण है, ताकि आम लोगों को भ्रमित किया जा सके । कहना न होगा, ये लोग सबसे अधिक तो अपने सदस्यों और समर्थकों के विश्वास से खेल कर रहे हैं । जनता तो जीवन के अनुभवों से बहुत कुछ समझ लेती है । भारत में शासकों की तमाम कारस्तानियों के बावजूद सरकारें बनती-बिगड़ती रही है । कोई अगर यह सोचता है कि झूठ के प्रचार के बल पर वह अनंतकाल तक सत्ता में रह जायेगा तो शायद इससे बड़ा दूसरा कोई भ्रम नहीं होगा ।
लेकिन इस खेल में जिन लोगों का स्थायी तौर पर नुक़सान हो जाता है, वे हैं इन झूठ के कारोबारियों के समर्थक जो इनके प्रति अंध आस्था के चलते इनकी बातों के लिये मरने-मारने को तैयार रहते हैं । जब गूगल की तरह की सूचना तकनीक के क्षेत्र की कंपनियों ने फेक ख़बरों की सिनाख्त करके उन्हें छाँट देने का एक प्रकल्प अपनाया है तब भी वह इन भक्तों के लिये किसी काम का नहीं होगा ।
बहरहाल, जीवन में झूठ के सच को स्वीकारते हुए भी हम यही कहेंगे कि झूठ भी जीवन में परिवर्तनों के सापेक्ष होता है । आज चल रहा झूठ कैसे कल पूरी तरह से अचल हो जाता है, इतिहास की गति को कुछ इस प्रकार से भी समझा जा सकता है । जिस दिन लोग समझ लेंगे कि मोदी जी के पास सिवाय झूठी बातों के कुछ नहीं है, उनकी सच्ची बातें भी सबको झूठ लगने लगेगी और वहीं से इनके अंत का भी प्रारंभ हो जायेगा । इसीलिये राजनीति में अंतत: मामला जन-अवधारणा का होता है और शायद मोदी जी यह नहीं जानते कि नोटबंदी, जीएसटी और उनके विदेश-प्रेम ने अबतक उनके व्यक्तित्व की सच्चाई को खोल दिया है ; उनके प्रति जनता के विश्वास में गिरावट का चक्र शुरू हो चुका है । झूठ, वह कितना ही बड़ा हो और कितने ही मुखों से क्यों न फैलाया जा रहा हो, संभवत: आगे उनके लिये मददगार साबित नहीं होगा ।
यह जीएसटी चल नहीं सकता, जैसे नोटबंदी नहीं चली
यह कहना राज्य को चुनौती देने की तरह की धृष्टता लगती है, लेकिन जितनी गहराई में जाकर जीएसटी के विषय को देखता हूँ, उतना ही साफ तौर पर लगता है कि जिस रूप में अभी इसे लागू किया गया है, इस पर सही अर्थों में अमल हो नहीं पायेगा । आज के इसके बहु-स्तरीय और विविध दरों के स्वरूप में यह पूरी योजना भारतीय अर्थ-व्यवस्था को चरम अराजकता की सौग़ात देकर चंद सालों में ही दम तोड़ देगी । इसके अस्पष्ट और जटिल ढाँचे के कारण ही जीएसटी से जुड़े मामलों-मुक़दमों का ऐसा अंबार लगेगा कि कोई भी राज्य उन्हें संभाल नहीं पायेगा । मुकदमें जीएसटी पंचाट से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में भरे रहेंगे ।
इसमें लेन-देन के हर हिसाब की जाँच राज्य और केंद्र, दो स्तर पर अलग-अलग होने की बात कही गई है । इससे हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहेगा कि केंद्र और राज्य के अधिकारियों की एक ही मामले में अलग-अलग राय हो । नौकरशाही स्वेच्छाचारी ढंग से काम करेगी लेकिन उसके स्वेच्छाचार की भी सीमा होगी ! जब इस अराजकता के चलते राज्य के राजस्व पर बन आयेगी तो इस पूरी व्यवस्था पर ही पुनर्विचार की ज़रूरत पैदा हो जायेगी । लेकिन तब तक अर्थ-व्यवस्था अधमरी हो गयी होगी । मोदी जी भारत के आर्थिक इतिहास में तुग़लक़ के नये संस्करण के तौर पर ही याद किये जायेंगे ।
प्रशासन मोदी - योगी के वश की बात नहीं है
हैरोल्ड लास्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'राजनीति का व्याकरण' में लिखा था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता । ख़ास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं ।
हैरोल्ड लास्की के इस कथन के क्लासिक उदाहरण हैं हमारे देश की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार । मोदी जी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया ।
जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया । जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाह में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है ; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में -0.01 प्रतिशत की गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत ख़राब कर दी । नोटबंदी के धक्के के कारण इस बार आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है । जाहिर है इससे अपने वित्तीय घाटे से निपटने में केंद्र सरकार की समस्या और बढ़ जायेगी जिसकी गाज जनहित के ही किसी न किसी प्रकल्प पर गिरेगी ।
पूरी अर्थ-व्यवस्था अभी इस क़दर बैठती जा रही है कि अब अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की नहीं, मुद्रा-संकुचन को आज की मुख्य समस्या बताने लगे हैं । मुद्रा संकुचन का अर्थ होता है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि । इसकी वजह से बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा ।
इसी प्रकार,गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता रहे है जबकि इन बीमारियों से जूझने के लिये ही उन्हें आक्सीजन दी जा रही थी । उन्होंने ख़ुद माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे ! योगी की इन बेवक़ूफ़ी की बातों को क्या कहा जाए ? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय नहीं सुझाया है । लेकिन वे कल यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम आयोजन में बैठ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिये आज किसी न किसी 'नमामि' कार्यक्रम में लगी हुई है । मोदी जी के पास देश की हर समस्या का समाधान प्रचार के शोर में होता है । वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो । केंद्र और राज्य सरकारों के इन कार्यक्रमों में लाखों लोग शामिल होते है, अर्थात जनता ख़ुश होती है । लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सारे प्रचारमूलक कामों से जनता का ही सबसे अधिक नुक़सान होता है । जन हितकारी प्रकल्पों के लिये धन में कमी करनी पड़ती है ।
मोदी सरकार पहली सरकार है जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है । मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है । किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है । ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है । इसीलिये आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं - जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है । यह कोरे लफ्फाजों के बस का नहीं होता है । मोदी और योगी के तमाम कदमों के पीछे की विवेकहीनता को देख कर इस बात को और भी निश्चय के साथ कहा जा सकता है ।
जनतंत्र, नागरिक समाज और आज का भारत
अंतोनिओ ग्राम्शी ने अपनी 'प्रिजन नोटबुक' में भी नागरिक समाज पर काफी गंभीरता से चर्चा की है । जनतंत्र में नागरिक समाज उसी की एक उपज होता है तो उसकी रक्षा का एक बड़ा कवच भी । यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूरी संरचना में एक ऐसे लोच को तैयार करता है जो उसे किसी भी क्रांतिकारी या प्रति-क्रांतिकारी सीधे हमले से बचाता है ।
ग्राम्शी के पहले 1925 में हेराल्ड लास्की ने 'अ ग्रामर आफ पालिटिक्स' लिखी थी, जिस पर हम पहले जिक्र कर चुके हैं । यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की संरचना के व्याकरण पर लिखा गया ग्रंथ है । लास्की इसमें संसदीय व्यवस्था में राजनीति और नौकरशाही के पूरे ढाँचे को अपना विषय बनाते हैं । वे अपने विषय में इस मूलभूत प्रस्थापना के साथ प्रवेश करते है कि राजशाही के बजाय जनतंत्र का अर्थ है राजा के हितों की रक्षा के लिये एक शासन व्यवस्था के बजाय जनता के हितों की रक्षा के लिये शासन व्यवस्था ।
शासन की इस नई संरचना की परेशानी तब शुरू होती है जब किसी भी बड़े संघर्ष के बाद राजशाही तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन उसकी जगह जनता के हितों को साधने वाली व्यवस्था की संरचना तैयारशुदा उपलब्ध नहीं होती है । इसे सुचिंतित ढंग से निर्मित करना होता है । हमारे आज के समय के बहुचर्चित दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब पूरी गंभीरता और आवेग के साथ 'डे आफ्टर' ( कल क्या) की बात करते हैं तो उनका संकेत इसी बात की ओर होता है। येन केन प्रकारेण किसी एक को हटा कर दूसरे का सत्ता में आना उतना बड़ा विषय नहीं है, जितना बड़ा प्रश्न यह है कि सत्ता पर आने के बाद क्या? तुनीसिया के बाद मिस्र के काहिरा में तहरीर स्क्वायर (जनवरी 2011) पर लाखों लोगों के उतर जाने से सालों से सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाये बैठी होस्नी मुबारक की सरकार का पतन होगया, अफ़्रीका और मध्यपूर्व की अरब दुनिया में 'अरब वसंत' का प्रारंभ होगया, लेकिन इस विद्रोह की लंबी श्रृंखला के बाद क्या? आज का सच यह है कि अफ़्रीका और पश्चिमी एशिया का यह पूरा क्षेत्र चरम अराजकता, तबाही और साम्राज्यवादियों के हथियारों के परीक्षण का क्षेत्र बन गया है ।
अर्थात, एक विद्रोह मात्र से, सत्ता में परिवर्तन मात्र से सामाजिक जीवन में कोई सुनिश्चित परिवर्तन तय नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन उस शासकीय संरचना के बीच से मूर्त होते हैं, जो विद्रोह के दिन के बाद की एक लंबी रचनात्मक राजनीतिक संस्थागत प्रक्रिया के बीच से तैयार की जाती है ।
भारत से अंग्रेज़ों का चला जाना मात्र हमारी आजादी की रक्षा का कारक नहीं बन सकता था । सन् 47 के बाद तीन साल में हमने अपने गणतंत्र के संविधान को अपनाया और तिल-तिल कर अनेक सांस्थानिक परिवर्तनों के बीच से एक जन-कल्याणकारी राज्य की दिशा में काम शुरू किया । इसके रास्ते में तमाम बाधाएँ आती रही है और उनके संदर्भ में हम आज तक अपनी इस शासकीय संरचना को जनता के हितों की सेवा के लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए उन्नत करने की लड़ाई में लगे हुए हैं ।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के बारे में 9 जजों की बेंच का जो सर्व-सम्मत फैसला सुनाया, उसे इस लगातार जारी प्रक्रिया में हाल के दिनों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हम देख सकते हैं ।
यहां इस चर्चा का मूल विषय है - 'डे आफ्टर' ! लास्की ने जब संसदीय लोकतंत्र की संरचना पर विचार शुरू किया तो इसकी पहली सबसे बड़ी विशेषता या कमज़ोरी, जो भी कहे, यह बताया कि यह एक ऐसे प्रकल्प के प्रारंभ की तरह है जिसमें राजसत्ता को उस जनता के हितों को साधना होता है जो आम तौर पर अपने हितों के प्रति जागरूक नहीं होती, प्राय: अचेत होती है । उसके जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ही उसके विवेक-सम्मत मानसिक विकास में बाधक बनती है ।
इसलिये इन परिस्थितियों में शासन के उस नौकरशाही ताने-बाने का का असीम महत्व हो जाता है जो जन-हितकारी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के जरिये प्रशिक्षित और चालित होते हैं और जनता के हितों को परिभाषित करते हैं । राजनीति और समाज में बौद्धिकों और जागरूक लोगों के इन अक्सर अल्पमत तबक़ों को ही जनतंत्र का नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) कहते हैं ।
पश्चिमी समाजों की जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती गई, आम लोगों में शिक्षा और चेतना का प्रसार होता गया, उसी अनुपात में इस नागरिक समाज का भी, अर्थात अपेक्षाकृत चेतना संपन्न तबक़ों का भी लगातार विकास होता गया है । यह ग़रीबी और पिछड़ेपन के बहुमत वाले समाज के वृत्त से निकल कर समृद्ध और विकसित चेतना के समाज के नये वृत्त में प्रत्यावर्त्तन उन समाजों को एक पूरी तरह से भिन्न आधार पर स्थापित कर देता है, जिसकी पहले के समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । संसदीय लोकतंत्र के आंतरिक विकास के इस नये चरण में शासन की पूरी संरचना अनोखे ढंग से पूर्ण स्वतंत्र और स्वायत्त अनेक सांस्थानिक समुच्चय का नया रूप ले लेती है । आज जिस दिन अमेरिका का 'महाबली' समझा जाने वाला राष्ट्रपति चुन कर सत्ता संभालता है उसी दिन अमेरिकी प्रेस का बड़ा तबका उसके प्रति अपनी खुली शत्रुता की घोषणा करने से परहेज़ नहीं करता । और वहाँ का सुप्रीम कोर्ट उसके पहले आप्रवासन संबंधी प्रशासनिक फैसले को कानून सम्मत न मान कर खारिज करने में देरी नहीं लगाता । इसी का एक परिणाम यह अभी है कि नागरिक समाज और उसकी संस्थाओं के सामने सरकारी नौकरशाही अक्सर एकदम बौनी दिखाई देने लगती है ।
ग्राम्शी जब फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि में ही इन समाजों में समाजवादी क्रांति की समस्याओं पर मनन कर रहे थे, उन्होंने जनतंत्र में इस बढ़ते हुए नागरिक समाज की उपस्थिति के सच को बहुत गहराई से समझा था । और इसीलिये, पश्चिमी समाजों में एक झटके में, किसी क्रांतिकारी प्रहार के जरिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की रूस की तरह की क्रांति को संभव नहीं पाया था । सचाई के उनके इसी अवबोध पर उनके प्रभुत्व (hegemony) के पूरे सिद्धांत की इमारत खड़ी है जिसमें झटके से होने वाली क्रांति और राजसत्ता पर क़ब्ज़े के बजाय वैचारिक संघर्ष की एक लंबी, समाज के नागरिक समाज पर विचारधारात्मक प्रभुत्व कायम करने की लड़ाई पर बल दिया गया था ।
संसदीय जनतंत्र और नागरिक समाज के संबंधों की इस चर्चा की पृष्ठभूमि में जब हम अपने भारतीय जनतंत्र के यथार्थ को देखते है, यहाँ की स्थिति बेहद जटिल और पेचीदा दिखाई देने लगती है । सत्तर साल की आजादी के बीच से यहाँ भी समाज के ऐसे प्राय: सभी हिस्सों में, जिनमें हज़ारों सालों के बीच भी कभी शिक्षा और अधिकार-चेतना की रोशनी का प्रवेश नहीं हुआ था, शिक्षा का किंचित प्रवेश हुआ है और सभी समाजों का अपना एक बौद्धिक समुदाय भी पैदा हुआ है । कुल मिला कर देखने पर भारतीय समाज में ऐसे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके की एक बड़ी जमात को पाया जा सकता है, जो शायद संख्या की दृष्टि से दूसरे किसी भी देश के नागरिक समाज से बड़ी हो सकती है । लेकिन फिर भी, आबादी के अनुपात में, इसका विस्तार इतना कम है कि हम अपने समाज को पश्चिमी समाजों की तरह पूरी तरह से अधिकार चेतना से संपन्न नागरिक समाज नहीं कह सकते हैं । इसीलिये सरकार और नौकरशाही पर अपना निर्णायक दबाव बनाने की दृष्टि से यह अब भी जनतंत्र के बिल्कुल आदिम स्तर पर ही बना हुआ है जिसमें व्यापक जनता, जिसके मतों से सरकारें बना करती है, अपने ख़ुद के हितों के प्रति ही पूरी तरह से अचेत बनी हुई है ।
इसीलिये हमारे यहाँ आज भी '30-'40 के ज़माने तक के यूरोप की वे सारी परिस्थितियाँ मौजूद है जिसमें किसी भी प्रकार से राज सत्ता पर क़ब्ज़ा करके कोई भी शासक गिरोह समाज को मनमाने ढंग से चला सकता है । चुनावों में सांप्रदायिकता और जातिवाद की तरह की भीड़ की आदिम-चेतना की प्रमुखता का मायने यही है कि नये जनतांत्रिक नागरिक समाज में आदिम ग़ैर-जनतांत्रिक समाज के वृत्त का प्रत्यावर्त्तन नहीं हो पा रहा है । और इसीलिये हमारे यहाँ दुनिया में जातीय नफरत से किये जाने वाले जन-संहारों के इतने भयानक अनुभवों के बावजूद फासीवाद-नाज़ीवाद का ख़तरा एक सबसे ज्वलंत सचाई के तौर पर बना हुआ है ।
यहीं पर हम फिर एक बार 'डे आफ्टर' के विषय को विचार के दायरे में लाना चाहते हैं । हमारी आजादी के बाद भारत का शासन जिन ताकतों ने संभाला उनके सामने पश्चिम के पूँजीवादी विकास और संसदीय राजनीति और जनतांत्रिक समाज का एक साफ ख़ाका था । सांप्रदायिकता के आधार पर बँटवारे के बावजूद चूँकि यह नेतृत्व सारी दुनिया में जातीय हिंसा के जघन्यतम रूपों के प्रति जागरूक था, इसने धर्म-निरपेक्षता, भाईचारा और सामाजिक न्याय के रास्ते पर तमाम स्तर पर सांस्थानिक विकास का एक सिलसिला शुरू किया । लेकिन इस नवोदित राष्ट्र के साथ जन्म से सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का जो रोग लग गया था, उससे मुक़ाबले के लिये शिक्षा और चेतना के विस्तार से जिस तेज़ी से नागरिक समाज का विकास करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया । वोट और भीड़ की राजनीति में यह एक सबसे जरूरी काम उपेक्षित रह गया ।
आज तमाम राजनीतिक दलों में, जिनमें दक्षिणपंथियों के साथ ही वामपंथी और मध्यपंथी भी शामिल है, बौद्धिकता का महत्व दिन प्रतिदिन घटता चला गया है । भारत का नागरिक समाज आज राजनीतिक समर्थन से पूरी तरह से वंचित होने के कारण किसी भी समय से कहीं ज्यादा कमज़ोर और लुंजपुंज दिखाई देता है । और यही वजह है कि भारतीय मध्यवर्ग की सूरत पशुवत उपभोक्ता की तरह की ज्यादा दिखाई देने लगती है । शिक्षा और समृद्धि से इनकी मानसिक चेतना का विकास न होने के कारण इनका एक हिस्सा सीधे तौर पर जनता के प्रति एक प्रकार की शत्रुता का भाव रखता है । वह फासीवादी ताकतों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है ।
आज मोदी के नेतृत्व में जो लोग सत्ता पर आए है, उनके पास कोई प्रगतिशील भविष्य दृष्टि नहीं है । जनता के एक बड़े हिस्से का पिछड़ापन ही विरासत में मिली इनकी राजनीतिक पूँजी है । इसीलिये केंद्र और अनेक राज्यों की सत्ता पर आ जाने के बावजूद जब भी ये 'आगे क्या?' की तरह के प्रश्न के सम्मुखीन होते हैं, ये पूरी तरह से ठिठक कर खड़े हो जाते हैं । इन्हें आगे भी गाय, गोबर, गो मूत्र'आदि से अधिक और कुछ नहीं दिखाई देता । ये सांप्रदायिक दंगों और पड़ौसियों से शत्रुता के आधार पर थोथे राष्ट्रवाद से आगे कुछ नहीं सोच पाते हैं । 'डे आफ्टर' के सवाल का कोई भी सकारात्मक समाधान जनतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक समाज के विस्तार से पूरे समाज के आधुनिकीकरण में निहित है । लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी में वे अपने ख़ुद के तात्विक विकास के अंत को देखते है ।
यही वजह है कि मोदी-शाह-आरएसएस सिर्फ ये पाँच साल नहीं, वोट की तिकड़मों के जरिये भले आगे और भी कुछ सालों तक शासन में रह जाएँ , ये इस समाज को गाय, गोबर, गोमुत्र और सांप्रदायिक नफरत से अधिक और कुछ भी देने में असमर्थ है । सच्चे अर्थों में हमारे समाज के आधुनिकीकरण के लिये ये अपनी आत्माहुति के जरिये ही आगे का कोई रास्ता खोज पायेंगे । क्या गालियाँ बकने वाले ट्विटर हैंडलर्स के ज्ञान संदेश पर कान लगाये रखने वाले प्रधानमंत्री के लिये यह कभी भी संभव हो पायेगा ?
एक वित्त मंत्री जिसे आय-व्यय के आँकड़ों को पढ़ना भी नहीं आता !
क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है कि एक देश के वित्त मंत्री को अपनी आय और व्यय के आँकड़ों को सही तरह से पढ़ना नहीं आता है ? लेकिन हमारे वित्तमंत्री अरुण अरुण जेटली के साथ बिल्कुल ऐसा ही है ! जीएसटी कौंसिल की एक बैठक के बाद उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में बताया कि जीएसटी लागू किये जाने के बाद जुलाई के पहले रिटर्न में कुल 95 हज़ार करोड़ रुपये का जीएसटी सरकारी ख़ज़ाने में जमा हुआ है जो उनकी दृष्टि में शुरू के महीनों को देखते हुए यथेष्ट (robust) था । लेकिन अब जो तथ्य सामने आएँ उनसे पता चला कि जीएसटी के खाते में जमा इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में आधी से भी कम राशि वास्तव में सरकार की अपनी आमदनी की राशि है । इनमें से 65 हज़ार करोड़ रुपये व्यापारियों द्वारा जमा करायी गयी एक प्रकार की वह अग्रिम राशि है जिसे वे अपने पास पड़े स्टाक पर अदा किये गये पुराने करों के तौर पर वापस माँग रहे हैं । इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में से 65 हज़ार करोड़ रुपये सरकार पर जीएसटी के जमाकर्ताओं के ऋण की तरह है ।
अब जब से 'उत्पादन शुल्क और आबकारी के केंद्रीय बोर्ड' (सीबीईसी) को और उसके जरिये जेटली को इस बात का पता चला है, इन्होंने इस राशि को अटका कर रखने की वे सभी पुरानी पैंतरेबाजियां शुरू कर दी है, जैसा नोटबंदी के समय देखा गया था । वित्तमंत्री ने निर्देश दिया है कि जिन लोगों ने भी अपने इस 'ऋण' की वापसी का दावा किया है, उन्हें फ़ौरन वापस करने के बजाय किसी न किसी प्रकार से लटकाये रखो ताकि सरकार के सामने यह कोई नयी तत्काल वित्तीय लागत खड़ी न हो जाए । जैसे इन्होंने नोटबंदी से सब लोगों के घरों के रुपये बैंकों में जमा करवा लिये और अभी दस महीनें बीत रहे हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न उपायों से अपने रुपये वापस लेने से रोका जा रहा है, जीएसटी का यह मामला भी ऐसा ही है । जेटली ने सीबीईसी को कहा है कि एक करोड़ से ज्यादा के रिफंड की माँग करने वालों के खातों की कड़ी जाँच करके ही उन्हें उनका रुपया वापस किया जाना चाहिए ।
16 सितंबर 2017 के 'टेलिग्राफ' की रिपोर्ट से पता चलता है कि वित्तीय मामलों में एक कैसे अज्ञ आदमी के हाथ में आज हमारा वित्त मंत्रालय है, जो जनता को और शायद प्रधानमंत्री को भी धोखे में रख कर किसी तरह अपना काम चला रहा है । आज कोई भी मंत्रालय निश्चिंत नहीं है कि उसे बजट के प्रावधान के अनुसार रुपया आवंटित होगा या नहीं ! परिणाम यह है कि सरकारी राजस्व की डॉंवाडोल स्थिति को पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस के दामों में अंधाधुँध वृद्धि करके किसी तरह सम्हाला जा रहा है । इसका जन-जीवन और पूरी अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी भी इन्हें कोई परवाह नहीं है । सुब्रह्मण्यम स्वामी ने बहुत सही कहा है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था की स्थिति बिल्कुल डांवाडोल है । यह हिचकोले ले रही है और अगर फ़ौरन कुछ सही कदम नहीं उठाए गये तो इसके पुर्ज़े-पुर्ज़े बिखर सकते हैं । देखते-देखते न जाने कितने बैंकों का दिवाला पिट जायेगा, कल-कारख़ाने बंद हो जायेंगे और लाखों करोड़ों लोग नये सिरे से बेरोज़गार हो कर सड़कों पर आ जायेंगे, पता नहीं है । स्वामी की इन बातों में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है । इनके संकेतों को सिर्फ मोदी की तरह का एक आत्म- मुग्ध और आर्थिक विषयों में शून्य नेता और जेटली की तरह का पूरी तरह से दुम हिलाऊँ वित्त मंत्री ही नहीं पकड़ सकता है । आम लोग अब बैंकों में अपना पैसा रखने से विरत होने लगे हैं ।
पीएम का अर्थ भी प्रोफेशनल मौरल कीपर (पेशेवर प्रवचक) नहीं होता है ! मोदी की दशा पेशेवर प्रवचनकर्ता की हो गई है । मठार-मठार कर भाषण देना, जो मन में आए, बिल्कुल ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ढंग से झूठ-सच कुछ भी बोलते जाना उनमें एक असाध्य रोग का रूप ले चुका है । प्रवचनकर्ता अपनी किसी बात के लिये जवाबदेह नहीं होता है । मोदी को इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि वे जिस पद पर है, उस पर किसी कोरे उपदेशक और भाषणबाज का कोई काम नहीं है । उनका पद जिम्मेदारी के साथ काम करने का पद है । दुनिया में आज तक कुछ भी थोथे नैतिक प्रवचनों से नहीं बदला है । न व्यक्ति,न समाज और न ही राष्ट्र भी । एक सजे-धजे मंच पर दुल्हे की तरह सज कर आने और कुछ उपदेश झाड़ने से कुछ नहीं बदला जा सकता है । परिवर्तनकारी कामों के लिये सामाजिक जटिलताओं के जिस प्रकार के गहन अध्ययन की जरूरत होती है, मोदी को उसी से सख्त परहेज है । मोदी ने कई बार सरकारी फाइलों और शिक्षा-दीक्षा (हार्वर्ड) के प्रति अपने तिरस्कार के भाव को खुल कर जाहिर किया है ।
जब शासक सचाई से कटा हुआ पूरा सनकी होता है, तुग़लक़ कहलाता है । तुग़लक़ ने मुद्रा की भूमिका को बिना जाने उसके साथ खेल किया था । मोदी जी पूरे तुग़लक़ है । वे भारत में इंटरनेट की सचाई जानते नहीं है, लेकिन अपनी पूरी सरकार को इसी के आधार पर चलाना चाहते हैं । उनके चरित्र की इन भारी कमियों ने आज भारत में हर क्षेत्र में अराजकता पैदा कर दी है, जिसका सबसे अधिक बोझ अंतत: समाज के कमजोर तबके पर ही पड़ता है ।
अधिनायकवाद की आहटें
हिटलर ने अपने बारह साल (1933-1945) के शासन काल में सबसे पहला बीड़ा यही उठाया था कि विपक्ष के सभी दलों को नेस्तनाबूद कर दो । 30 जनवरी 1933 के दिन जब राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने हिटलर को चांसलर पद की शपथ दिलाई, उस दिन को नाजीपार्टी में मास्करग्रोनसोंग (Machtergreifung) अर्थात सत्ता पर क़ब्ज़े के दिन के रूप में मनाया जाता था । इसके बाद हिटलर ने सबसे पहले पूरी नाज़ी पार्टी को अपने क़ब्ज़े में लेने का अभियान चलाया जिसे ग्लेआईशैलटंग (Gleichschaltung), का नाम दिया गया और फिर 27 फ़रवरी 1933 के दिन जर्मनी की संसद राइखस्टाग में आग लगवा कर कम्युनिस्टों पर दोष मढ़ के कम्युनिस्ट नेताओं की गिरफ़्तारी और हिटलर के तूफ़ानी दस्तों के द्वारा उनकी हत्याओं तक का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने बाकी सारी विपक्षी पार्टियों और हिटलर का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने दायरे में लेने में ज़्यादा समय नहीं लगाया । राइखस्टाग में आग के नाम पर एक आदेश जारी किया गया और उसी का प्रयोग करके कम्युनिस्टों और सोशल डैमोक्रेटों के संसद में प्रवेश को रोक कर मार्च 1933 में संविधान में वह संशोधन पारित किया गया जिससे सारी सत्ता अकेले हिटलर के हाथ में सिमट गई । इसके बाद के जर्मनी और दुनिया की बर्बादी का क़िस्सा यहाँ दोहराने ज़रूरत नहीं है ।
वह सारी दुनिया में महामंदी का ज़माना था । उसमें हिटलर ने युद्ध की ज़ोरदार तैयारियाँ शुरू कर दीं, जिससे सुस्त अर्थ-व्यवस्था में थोड़ी जान आई । इसके साथ ही जर्मन जाति की श्रेष्ठता और अन्य सबके प्रति हीनता की भावना का प्रचार शुरू हुआ । और इस प्रकार आम जनता को एक जुनूनी भीड़ में बदल दिया गया था ।
भारत में मोदी के नोटबंदी की तरह के क़दम ने अर्थ- व्यवस्था की कमर तोड़ दी है । अब युद्ध की गर्मी भी पैदा की जा रही है - सत्ता के संपूर्ण केंद्रीकरण के लिये जरूरी आपात स्थिति । यह सब अधिनायकवाद की पैदाइश की जमीन की तैयारी है । राज्य सभा में बहुमत के प्रति इस प्रकार के अतिरिक्त शुद्ध रूप से अनैतिक आग्रह के पीछे इसके सिवाय और कोई वजह समझ में नहीं आती है । इस सरकार का एक भी बिल ऐसा नहीं है जो इस बहुमत के अभाव में लटका हुआ हो । इन्होंने वित्त बिल के रूप में सभी बिलों को राज्य सभा के अनुमोदन के बिना ही पारित करा लेने के एक और ग़ैर-वाजिब तरीक़े को भी पहले से इजाद कर लिया है । ऐसे में राजनीतिक नैतिकता-अनैतिकता की बिना परवाह किये दूसरे दलों को सत्ता के प्रयोग के जरिये नष्ट करने की कोशिशों का और क्या तात्पर्य है !
पूरी तरह से एक नाज़ी राज बनने की जरूरी शर्त है कि येन-केन-प्रकारेण भारत को एक बड़ी क्षेत्रीय सामरिक शक्ति का भी रूप दिया जाए । इसके लिये मोदीजी ने भारत को आज दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर बना दिया है । उनकी इसी कोशिश की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि इसके चलते भारत अमेरिकी दबावों के सामने पहले से ज़्यादा कमज़ोर होता जा रहा है । हम नहीं जानते कि वे अपनी इन तमाम कोशिशों से भारत की पहले से चली आ रही विशेष क्षेत्रीय सामरिक स्थिति में कितना सुधार कर पायेंगे, लेकिन इस बदहवासी में वे भारतीय अर्थ -व्यवस्था के हितों को जो नुक़सान पहुँचा रहे हैं, उसके सामरिक स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव की आशंका से कोई इंकार नहीं कर सकता । इसके साथ ही भारतीय तबाही की दिशा में ढकेल देंगे, मोदी शासन के तीन साल बाद कुछ इसी प्रकार के अशनि संकेत मिल रहे हैं ।
'सौभाग्य' किसका ? ग़रीबों का या पश्चिमी साम्राज्यवादियों का !
मोदी ने ग़रीबों को मुफ्त बिजली देने का एक नया धोखा रचा है । 'सौभाग्य' नाम की इस योजना को रखते वक़्त उन्होंने अपनी सरकार के ग़रीब-प्रेम की लफ्फाजी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । भारत में बिजली की अवस्था का जानकार हर व्यक्ति जानता है कि यह सरासर एक धोखा है । इसमें धोखे की इंतिहा तो तब और साफ हो गई जब मोदी ने बिजली न होने पर सबको सोलर पावर की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही । मोदी-जेटली के ग़रीब-प्रेम के धोखे की सचाई को आज अंधा आदमी भी देख सकता है । बिजली को छोड़िये, यह तो एक चुनावी शोशा है, इनकी असलियत जाननी है तो जरा गहराई से देखिये, इन्होंने जीएसटी में सबसे ज्यादा निशाना किन चीज़ों को बनाया है ?
रोटी, कपड़ा और मकान को । उन चीज़ों को जिनके बिना आदमी जी नहीं सकता है ।
भारत के इतिहास में पहली बार अनाज पर कर लगाया गया है । अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था, उसके प्रतिवाद में पूरा देश उठ खड़ा हुआ था । गांधी जी ने दांडी मार्च और प्रतीकी तौर पर नमक का उत्पादन करके अंग्रेज़ों के उस कर को खुली चुनौती दी थी । मोदी-जेटली ने खाने-पीने की तमाम चीजों पर कर लगा कर उससे कम बड़ा अपराध नहीं किया है । इस मामले में ये अंग्रेज़ों के भी बाप निकले हैं । इसी प्रकार, कपड़े के व्यापार पर भी जीएसटी के रूप में पहली बार कोई कर लगा है । बीच में एक बार तैयारशुदा कपड़ों पर पिछली एनडीए सरकार ने उत्पाद-शुल्क लगाया था जिसे उसे बाद में वापस लेना पड़ा था । इन्हीं कारणों से जीएसटी के खिलाफ देश भर के अनाज और कपड़ा व्यापारी लगातार आवाज उठा रहे हैं । यह कर भारत के प्रत्येक आदमी से वसूला जायेगा, भले वह अमीर हो या ग़रीब । इसी प्रकार मकान का भी विषय है । रीयल इस्टेट के नाम से बदनाम इस क्षेत्र का बोझ भी हर आदमी पर पड़ेगा । और सर्वोपरि, तेल और रसोई गैस के दामों में मनमानी वृद्धि । इसके बारे में अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है ।
ये वे बुनियादी कारण है जिनके कारण भारी मंदी में फँस चुकी अर्थ-व्यवस्था में भी महँगाई अर्थात मुद्रा-स्फीति की बीमारी भी दिखाई दे रही है । इनके विपरीत, इस सरकार ने लग्ज़री की चीज़ों पर कर कम किया है । जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की चीज़ों से अधिकतम कर वसूली की नीति पर चलने वाली एक सरकार अपने को ग़रीब-हितैषी बताए, इससे बड़ा ढकोसला और क्या हो सकता है ! इन करों से ही यह भी पता चलता है कि मोदी सरकार ने अर्थ-व्यवस्था का जो भट्टा बैठाया है, उसके सारे बोझ को वह भारत के ग़रीबों पर लाद दे रही है ।
मोदी की नोटबंदी के कारण जीडीपी में लगातार गिरावट से सामान्य आर्थिक गतिविधियों से कर वसूलने की इनकी क्षमता बुरी तरह से कम होती जा रही है । अब वे सीधे ग़रीबों पर डाका डाल कर इसकी कमी को पूरा कर रहे हैं । और, सबसे मजे की बात यह है कि इनके सारे भक्त इस प्रकार ग़रीब जनता से वसूले गये राजस्व को मोदी-जेटली जुगल जोड़ी की आर्थिक नीतियों की सफलता बता रहे हैं ! जिस बिबेक देबराय ने नोटबंदी के समय कहा था कि इससे 2 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आयेंगे और कालाधन पर कर से अतिरिक्त 50 हज़ार करोड़ का आयकर वसूला जा सकेगा, ऐसा गप्पबाज अर्थशास्त्री अब प्रधानमंत्री का प्रमुख आर्थिक सलाहकार बन गया है । कोई भी अनुमान लगा सकता है, आगे और क्या-क्या होने वाला है ।
अभी विश्व अर्थ-व्यवस्था का वह काल चल रहा है जब 'पहले अमेरिका' का नारा दे रहा डोनाल्ड ट्रंप हर संभव कोशिश करेगा कि वह अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में निवेश को बढ़वाये । इसके लिये वह अपने यहाँ ब्याज की दरों को बढ़ायेगा जो वहाँ अभी लगभग शून्य के स्तर पर चल रही है । अमेरिका में ब्याज की दरों में वृद्धि भारत से विदेशी पूँजी के पलायन का रास्ता खोलेगी, जिसके बल पर मोदी सरकार अभी तक किसी तरह अपना काम चला पा रही है । देबराय घोषित रूप से विदेशी पूँजी का भक्त अर्थशास्त्री होने के नाते वह मोदी को ऐसी हर सलाह देगा जिससे भारत की तमाम संपत्तियाँ, इसके कल-कारख़ाने, खदान और कच्चा माल विदेशियों के हाथों बिक जाए । भारत के तेज़ी से गिर रहे जीडीपी को अब बढ़ाना किसी के वश का नहीं रह गया है, जब तक नोटबंदी के कुप्रभावों के साथ ही जीएसटी की अराजकता और तेल पर ज्यादा से ज्यादा कर के जरिये सरकार के चालू वित्तीय घाटे को पूरा करने की परिस्थिति ख़त्म नहीं होती है । इसीलिये देबराय हो या दूसरा कोई आर्थिक सलाहकार, मोदी ने जो अराजकता पैदा कर रखी है, उसे बिना विदेशी पूँजी की सहायता के सम्हालना किसी के लिये मुमकिन नहीं होगा ।
और, सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि मोदी के राजनीतिक डीएनए में विदेशियों को अपना सब कुछ लुटा देने की नीति के प्रतिरोध की कोई क्षमता नहीं है । वे भले सभी पर राष्ट्र-विरोधी होने का तक्मा लगाते रहे, लेकिन सचाई यही है कि आरएसएस और उनकी राजनीति का जन्म ही विदेशी शासकों की दलाली के बीच से हुआ है ।
और, इस प्रकार आने वाला समय अर्थ-व्यवस्था में ऐसे असंतुलन का समय होगा जब भारत की आर्थिक सार्वभौमिकता पूरी तरह से दाव पर लगी हुई दिखाई देगी । मोदी जी अचकन पहन कर पश्चिम के नेताओं से जितनी ज्यादा गलबहिया करते दिखाई देंगे, भारत पर उतनी ही ज्यादा उनकी जकड़बंदी बढ़ती जायेगी । देबराय इस काम में जरूर मोदी के सहयोगी बनेंगे । सच कहा जाए तो मोदी आज भारत में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के दूत का काम कर रहे हैं । और ये अपने को ग़रीब-हितैषी बता रहे है !
प्रधानमंत्री ने इस बीच एक डींग हांकी कि जीडीपी की तुलना में नगदी का अनुपात नोटबंदी के बाद 12 प्रतिशत से घट कर 9 प्रतिशत हो गया है । उनसे हमारा सवाल है कि क्या वे इस तथ्य का असली मायने जानते हैं ? बाजार में जितनी भी नगदी होती है, वह एक प्रकार से आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी होती है । इसके घटने और इस पर जीडीपी की तुलना में विचार करने का मतलब है कि जीडीपी अर्थात देश के सकल उत्पादन के मूल्य की तुलना में आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी कम हो गई । इसमें सबसे बड़ा सवाल उठता है कि यह कैसे कम हुई है ? क्या उत्पादन को बढ़ा कर, अर्थात सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य बढ़ा कर यह हासिल किया गया है ?
नहीं । इसे खुद उन्होंने स्वीकारा है कि जीडीपी में गिरावट आई है । तब जीडीपी/नगदी अनुपात में कमी का एक मात्र कारण यह है कि सरकार ने आम लोगों के पास की नगदी को जबर्दस्ती बैंकों में रखने के लिये मजबूर किया है, अर्थात जबर्दस्ती उनसे छीन कर अपने पास जमा कर लिया है । नोटबंदी के ऐन समय में तो यह अनुपात 7.5 प्रतिशत से नीचे चला गया था। अब बढ़ते-बढ़ते 9 प्रतिशत हुआ है । यह तब है जब बाजार में अब भी नगदी के प्रवाह को नाना उपायों से रोका जा रहा हैं । जैसे-जैसे ये बाधाएं कम होगी, यह अनुपात फिर पुराने स्तर, बल्कि उससे भी अधिक हो जाए तो इसमें कोई अचरज नहीं होगा । वैसे एक प्रकार से बैंकों में जमा लोगों के रुपये भी तो एक प्रकार की नगदी ही है । प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया है कि अपने आंकड़ों में उन्होंने बैंकों में जमा राशि को भी पकड़ा है या नहीं । इसीलिये जब प्रधानमंत्री आज मंदी की परिस्थिति में आम लोगों के सामने जीडीपी और नगदी के अनुपात में गिरावट के आंकड़े पर डींग हांकते हैं, तब वे सीधे तौर पर आम लोगों को अपमानित करते हुए यह कह रहे होते हैं कि देखो, हमने तुम्हें कैसा बुद्धू बनाया, हम कितनी आसानी से तुम्हारा रुपया मार कर बैठ गये हैं या कितनी आसानी से हमने तुम्हारी कमाई के एक हिस्से को जबर्दस्ती मिट्टी में बदल दिया है !
जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट के अनुमान का सिलसिला जारी है । इसकी सालाना दर 7.3 से गिर कर 6.7 प्रतिशत हो जायेगी । यह अनुमान और किसी ने नहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर ने दिया है । मजे की बात यह है कि जिस दिन गवर्नर ने यह अनुमान दिया उसी दिन मोदी जी रिजर्व बैंक के इस अनुमान का ग़लत आँकड़ा पेश करते हुए कहा है कि यह 7.1 प्रतिशत से बढ़ कर 7.7 प्रतिशत हो जायेगा ! इसके साथ ही महँगाई में वृद्धि का सिलसिला जारी है : 4.2 प्रतिशत से बढ़ कर 4.6 प्रतिशत हो गई है।
आजादी के इन सत्तर साल में पहली बार, मोदी के तुगलकी शासन की बदौलत, भारत में रोज़गारों में वृद्धि तो दूर की बात, उनमें कमी आई है । 2013-14 से लेकर 15-16 के बीच लाखों लोग रोजगार गँवा चुके हैं । ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वकीली’ के 23 सितंबर के अंक में विनोज अब्राहम के इस अध्ययन को पढ़िये । यह किसी भी सरकार के लिये डूब मरने की बात है । मोदी अकेले इसी अपराध के कारण सत्ता पर रहने के नैतिक अधिकार को गँवा चुके हैं । सरकार में आ कर एक भी आदमी को नौकरी देना तो दूर की बात, ये सीधे तौर पर नौकरियाँ छीन रहे है ।
“Employment growth in India slowed down drastically during the period 2012 to 2016, after a marginal improvement between March 2010 and March 2012, according to the latest available employment data collected by the Labour Bureau. There was an absolute decline in employment during the period 2013–14 to 2015–16, perhaps happening for the first time in independent India. The construction, manufacturing and information technology/business process outsourcing sectors fared the worst over this period.”
कुल मिल कर इन तथ्यों का मतलब है कि जनता का दरिद्रीकरण तेज़ गति से जारी है । और मोदी के पास इससे निपटने के लिये बड़ी -बड़ी बातों और थोथे संकल्पों के अलावा कुछ नहीं है । नगदी/जीडीपी अनुपात में गिरावट भी इसी बात का द्योतक है जिस पर हमारे प्रधानमंत्री को बेहद गर्व है ! उनका छप्पन इंच का सीना गर्व से फूल कर अभी शायद साठ इंच का हो गया है ! आम जनता को कंगाल बनाने के कर्तृत्व पर यह कैसा घमंड !
मोदी की मुद्रा-ग्रंथी
मोदी जी अक्सर मुद्रा के बारे में चर्चा करते हुए बेहद उत्साही दिखाई देते हैं । हमने रुपये का रूप बदल दिया ; हजार के नोट को बंद करके दो हजार और दो सौ के नये नोट जारी कर दिये ; पांच सौ और पचास के नोटों को चमका दिया । इसके अलावा उनकी उपलब्धता में भी कमी कर दी । इस विषय पर प्रधानमंत्री के उत्साह को देख कर ऐसा लगता है जैसे मुद्रा महज मुद्रा नहीं, पूरी अर्थ-व्यवस्था का पर्याय हो ! मुद्रा के रंग-रूप अर्थात उसकी शक्ल-सूरत में ही किसी देश की समृद्धि और गरीबी के सारे राज छिपे हुए हो ! वह जितनी सुंदर होगी और जितनी विरल होगी और सर्वोपरि यदि वह ईश्वर की तरह अमूर्त, अदृश्य होगी तो फिर तो कहना ही क्या ! वह ईश्वरीय सत्ता की तरह सारे ब्रह्मांड पर राज करेगी ।
प्रधानमंत्री समझते है कि अर्थ-व्यवस्था को टन-टनाटन करने, एकदम चमका देने का इससे अच्छा और क्या रास्ता होगा ! लोग सुंदर और नये-नये नोटों को हसरत भरी नजरों से निहारेंगे, अमूर्त मुद्रा (कैशलेस) की पूजा करेंगे — बस सबके चेहरे चमकने लगेंगे ! जीवन में अर्थशास्त्र की इससे इतर और बेहतर भला क्या भूमिका हो सकती है ! स्वच्छता से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा, जन-कल्याण के सभी मामलों में जब कोरे प्रचार से काम चल जाता है, तब फिर अर्थशास्त्र में यह प्रतीकात्मकता क्यों नहीं चलेगी ! प्रधानमंत्री इसीलिये मुद्रा के विषय में आंखें टमकाते हुए जितना मठार-मठार कर बोला करते हैं, उनकी खुशी और उनका चमकता हुआ चेहरा सचमुच देखते बनता है ! मुद्रा के ऐसे महात्म्य के उनके बखानों को सुन कर मानना पड़ता है कि कोई माने या न माने, वे वास्तव में विश्व गुरू हैं । अपने मंत्रों से विनिमय के काम में आने वाले इस मामूली औजार को उन्होंने अर्थनीति का पर्याय बना डाला ।
मन में सवाल आता है कि प्रधानमंत्री ने इन मंत्रों को किस गुरू की सोहबत से सीखा ? क्या यह मनि लांड्रिंग करने वालों की शागिर्दी का परिणाम है कि उन्हें मुद्रा का व्यापार ही दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार दिखाई देने लगा है ? हाल में ही अडानियों की बेइंतहा मनि-लांड्रिंग के बारे में ढेर सारे तथ्य सामने आ रहे हैं । क्या कहा जाए एक देश के प्रधानमंत्री के अर्थनीति के बारे में इस 'महाज्ञान' को ?
जीएसटी के साथ मोदी का डूबना तय है
यह तो साफ है जीएसटी मूलतः भारत के संघीय ढांचे की नींव को कमजोर करने वाली एक कर-प्रणाली है । दुनिया के कई देशों में ऐसी एक केंद्रीभूत कर प्रणाली होने पर भी भारत में कर लगाने और उनकी उगाही के मामले में केंद्र के साथ-साथ राज्यों की सापेक्ष स्वायत्तता की चली आ रही प्रणाली यहां पूरी तरह सफल रही है और इसने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने में भी अपनी एक भूमिका अदा की है।
फिर भी, किसी भी राज्य के लिये करों में सुधार उसके विवेचन का एक स्थायी विषय होने के नाते, बाज हलकों में हमेशा इस विषय में भी कुछ हट कर करने की धुन सवार रहती है । इसके मूल में राजस्व में किसी प्रकार की कमी के बिना कर के ढांचे को सरल बनाने का सोच काम करता है । इसे कर प्रणाली को उसकी अपनी बाधाओं से मुक्त करके सरल, विस्तृत और प्रभावी बनाने का एक स्वाभाविक उपक्रम भी कहा जा सकता है ।
लेकिन भारत में केन्द्रीकृत शासन की सबसे बड़ी पैरोकार भाजपा का जीएसटी की तरह की एक केंद्रीभूत कर-प्रणाली की ओर हमेशा अतिरिक्त आकर्षण रहा है । इसीलिये जीएसटी के बारे में हमारे यहां सोच की शुरूआत भी सन् 2000 में हुई, जब केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व की एनडीए सरकार थी । आज यह साफ नजर आता है कि इस विषय का सबसे खराब पहलू यह रहा कि वाजपेयी ने इसके लिये जिस उच्च क्षमतावान कमेटी का गठन किया था, उसके अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री असीम दाशगुप्त को चुना और वामपंथ ने इसे स्वीकार भी लिया । असीम दाशगुप्त ने शुद्ध रूप से एक कर अधिकारी के पेशेवाराना अंदाज में इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया । इसके राजनीतिक पहलू की पूरी तरह से उपेक्षा की गई ।
बाद में यूपीए सरकार के काल में भी लंबे दस सालों तक इस पर चर्चा जारी रही । सर्व-सम्मति से इसका एक मसौदा तैयार किये जाने के बावजूद इस पर अमल के मामले इस कमेटी को इतने प्रकार की दिक्कतें दिखाई देने लगी कि उस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका । अब तक चली आ रही एक कर प्रणाली को पूरी तरह से एक नई कर प्रणाली से स्थानांतरित करना किसी को भी आसान काम नहीं लगा था । देखते-देखते चौदह साल बीत गये । जीएसटी महज चर्चा का विषय ही बना रहा, इसे अमल के लायक व्यवहारिक रूप देना मुमकिन नहीं हो पाया ।
इसके बाद ही, सन् 2014 में महाबली मोदी जी सत्ता पर आ गए । इनके लिये दुनिया का कोई काम कठिन नहीं था, बस 'संकल्प' लेने की जरूरत थी ! ये फाइलों से, विषय की बारीकियों के अध्ययन से नफरत करने के संस्कार के साथ आए थे, जो दरअसल किसी के भी महाबली होने की एक बुनियादी शर्त भी होती है ! 2014 से 2016 तक के दो साल तो महाबली ने दुनिया की सैर करने की अपनी दमित इच्छा को पूरा करने में गुजार दिये । फिर 2016 के अंत में उन्हें देश का होश आया और वे चुटकियों में इस देश की सब समस्याओं का इलाज कर देने के काम में लग गये । 2016 के नवंबर में नोटबंदी की । वह काम क्यों किया, इसे वे खुद आज तक किसी को साफ शब्दों में नहीं बता पाये हैं । हर बीतते दिन के साथ हमने नोटबंदी के उद्देश्यों के बारे में उनकी नयी-नयी बातों को सुना । भारी तूफान उठा, लोग मर गये, करोड़ों कंगाल हो गये, अर्थ-व्यवस्था ठप हो गयी । और जो कुछ होता गया, मोदी जी प्रकारांतर से उसे ही अपना उद्देश्य बता कर हंसते चले गये !
खैर, आज जब हम इस पर बात कर रहे हैं, नोटबंदी ने भारत को सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं दिया है, इसे मोदी के कुछ खास भोंपुओं के अलावा हर कोई एक स्वर में स्वीकारता है । नोटबंदी के झटके अभी चल ही रहे थे कि मोदी ने बिना कुछ सोचे-समझे, दूसरा उससे भी घातक कदम उठा दिया । जीएसटी को जैसे-तैसे लागू करा दिया । जो बात 17 सालों से अटकी हुई थी, मोदी ने चुटकी बजा कर उसे अमली जामा पहना दिया । 30 जून की रात के बारह बजे संसद का एक विशेष सत्र आयोजित करके भारी आडंबर के साथ इसे इस प्रकार लागू किया गया मानो यह भारत की एक और आजादी की घोषणा की रात हो !
अब जीएसटी को लागू किये लगभग तीन महीने बीत गये हैं, फिर भी एक आदमी यह नहीं कह सकता है कि यह वास्तव में लागू हो गया है ! पहले की अप्रत्यक्ष कर-प्रणाली खत्म हो गई लेकिन उसकी जगह प्रकृत अर्थ में नई कर प्रणाली लागू नहीं हुई है ! इससे कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यह भारतीय राज्य की राजस्व प्रणाली के साथ कितना बड़ा मजाक चल रहा है । जल्दबाज़ी में इन्होंने मूल मसौदे को बेहद जटिल बना दिया था । 2013 तक भी इसका मूल मसौदा बहुत सरल और दुनिया के दूसरे देशों में जीएसटी के अनुरूप था । लेकिन इन्होंने हड़बड़ी में, जिसने जो राय दी, उसे स्वीकार कर लागू कर दिया । नाना मुनियों ने मिल कर इस खेल को बिगाड़ा दिया ।
आज इस सरकार के पास जीएसटी को वसूलने की कोई प्रभावी निष्छिद्र व्यवस्था नहीं है और करदाताओं के पास भी यह कर चुकाने की सही जुगत नहीं है । सरकारी खजाने में रुपये जमा तो किये जा सकते हैं, लेकिन इसमें इनपुट क्रेडिट नाम की जो चीज है, जिससे सरकार को उनको रिफंड करना है, उसका कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है । ऊपर से सभी राज्य सरकारें अपने खर्च चलाने के लिये पूरी तरह से केंद्र सरकार की मुखापेक्षी हो गई है । अभी से, जब राजस्व में कोई कमी नहीं आई है, राज्य सरकारें अपने संकट के ताप को महसूस करने लगी है । आगे के संकेत साफ तौर पर राजस्व में गिरावट की बात कह रहे हैं । इसीलिये सबको अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई पड़ रहा है ।
कहना न होगा, इन तीन महीने में ही जीएसटी को लेकर वे सारी समस्याएँ सर उठाने लगी है जिनकी हमें शुरू से चिंता थी । केंद्र और राज्यों के बीच तनाव के भी संकेत मिलने लगे हैं क्योंकि आशा के अनुरूप राजस्व न आने के कारण राज्यों को यह डर सताने लगा है कि केंद्र क़रार के अनुसार उन्हें उनके हिस्से की राशि देगा या नहीं । पंजाब सरकार ने तो अभी से अपना रोना शुरू कर दिया है । अभी से जीएसटी रिटर्न को भरने की अलग-अलग समय सीमाएँ तय करने की बात की जाने लगी है जिससे कई नई जटिलताएँ पैदा होगी । ख़रीदार और विक्रेता व्यापारियों के रिटर्न का मिलान न हो पाने के कारण व्यापारियों को मिलने वाले इनपुट क्रेडिट की राशि को निर्धारित करना असंभव हो जायेगा, जो पूरी जीएसटी प्रणाली के लिये किसी मौत की घंटी से कम बात नहीं होगी ।
जीएसटी के चलते आने वाले दिनों में भारत सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर सारी दुनिया के सामने उसकी जो फ़ज़ीहत होने वाली है, इसकी आज कल्पना करके सिहरन होती है । इसका कुल राजस्व संग्रह पर इतना बुरा प्रभाव पड़ेगा कि यह जल्द ही 'जैनरल स्ट्राइक आफ टैक्सेस' (करों की आम हड़ताल) कहलाने लगेगा । देश के कोने-कोने से इसके खिलाफ तीव्र प्रतिवाद के स्वर उठने लगे हैं । रिटर्न भरने की दर में भी गिरावट के संकेत मिल रहे हैं । अब यह पूरे निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि जीएसटी को वर्तमान संरचनात्मक कमज़ोरियों के साथ ढोना किसी सरकार के वश में नहीं है। यह हमेशा सरकार के गले में अटकी हड्डी ही रहेगा। मोदी का तो इसके साथ डूबना तय है।
मोदी पीएम नहीं, शुद्ध इवेंट्स मैनेजर हैं । जीएसटी लगाते वक्त वे उस पर नहीं, संसद में आधी रात के भूतों वाले फंक्शन में मशगूल थे । वे किसी भी क़ीमत पर गुजरात में हारना नहीं चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि गुजरात में हारने का मतलब होगा केंद्र में भी हार जाना । इसीलिये उन्होंने जीएसटी में दरों में फेर-बदल का ऐसा पैंडोरा बाक्स खोल दिया है जो इस पूरी स्कीम के भविष्य पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगा देता है । जीएसटी कौंसिल की हाल की बैठक के निर्णयों के आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें सभी पक्षों के बीच भारी खींच-तान हुई । गुजरात ने खाखरा और जवाहरातों पर जीएसटी कम करवा लिया, तो बंगाल ने जरी के काम पर तो और राज्यों ने किसी और उत्पाद पर । इस प्रकार, जीएसटी में निहित कर संबंधी अखिल भारतीय दृष्टि की धज्जियाँ उड़ गई, जिस पर संसद में आधी रात को ‘एक देश एक कर’ के नाम पर उत्सव मना कर न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें कही गई थी ! अरुण जेटली जिस प्रकार जीएसटी की पूरी स्कीम को नये रूप में सज़ा कर पेश कर रहे हैं, उससे जटिलताएँ कितनी कम होगी, इसे तो भगवान जाने । लेकिन यह साफ है कि पहले जो किया गया था, वह सुचिंतित क़दम नहीं था, इसे सरकार ने स्वीकार लिया है ।
दरअसल, जीएसटी के साथ यह जो घटित हो रहा हैं, यही होना स्वाभाविक था । इस पूरी स्कीम का अंजाम बहुत डरावना लगता है ।
भक्तमंडली का नया नारा होगा - काला धन ज़िंदाबाद !
भारत में 1 जनवरी 2016 से ही पचास हज़ार के ऊपर के हर लेन-देन के लिये पैन नंबर जरूरी हो गया था । कहा गया था कि यह काला धन को रोकने की दिशा में एक महान कदम है । लेकिन दो साल नहीं बीते, मोदी ने इसकी उल्टी दिशा में यात्रा शुरू कर दी है । अर्थात पहले काला धन पर रोक की दिशा में जो कदम उठाया गया था, अब उसे वापस लेकर काला धन को खुल कर खेलने देने की दिशा में कदम बढ़ा दिये गये हैं । इसमें सबसे पहले उन्होंने सोना और जवाहरात के क्षेत्र को चुना है । सब जानते हैं, काला धन को दबा कर रखने का यह एक परंपरागत बदनाम क्षेत्र है । यहाँ तक कि जौहरियों को मनि लौंड्रिंग कानून के दायरे से ही बाहर कर दिया गया है । एक वाक्य में कहे तो जवाहरात के व्यापार को काला धन का घोषित अभयारण्य बना दिया गया है ।
पेंडुलम की तरह एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोलना, अर्थात एक अति से दूसरी अति तक जाना मोदी की मूल प्रकृति है । इसीलिये, जिसका शिकार करने निकले थे, अब उसी के रक्षक बन गये हैं । जौहरियों को मनि लौन्ड्रिंग कानून से घोषित रूप में छूट देकर बाकी सभी व्यापारियों को भी संदेश दिया गया है कि तुमको तो यह छूट पहले से ही हासिल है । विदेशों से काला धन लाने की बात को तो इन्होंने पहले ही जुमला घोषित कर दिया था ।
अब एक सवाल यह भी उठता है कि काला धन के प्रति मोदी-जेटली में पैदा हुई इस नई प्रीति का असली राज क्या है ? अर्थ-व्यवस्था की हालत ख़स्ता है । निजी पूँजी के निवेश का भारी टोटा पड़ रहा है । ऐसे में इस जुगल जोड़ी को लगता है कि अर्थनीति के ककहरे के पहले अक्षर का यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि धन का रंग काला हो या गोरा, जब वह अर्थ-व्यवस्था में निवेशित होता है तो उसका एक ही रंग होता है, जिसे ‘पूँजी’ कहते है । पूंजी है, तभी मुनाफ़ा है और तभी उससे मिलने वाला राजस्व । चतुर शासक की नज़र मुनाफ़े से कर वसूलने पर लगी होती है ।
लेकिन यहाँ भी फिर एक बार इनका रास्ता ग़लत दिशा से शुरू हुआ है । इन्होंने काला धन को सोने और गहनों में खपाने का रास्ता खोल कर उसे पूँजी के बजाय मिट्टी में बदलने का रास्ता अपनाया है । बहरहाल, यह तय है कि इस दिवाली का उत्सव मोदी और उनकी भक्त मंडली काला धन रूपी लक्ष्मी की पूजा-अर्चना के भव्य आयोजनों से मनायेंगे । भक्तमंडली का नया नारा होगा - काला धन ज़िंदाबाद !
जीएसटी पर नोटबंदी की तरह ही नित नई अधिसूचनाएं, इसके वैसे ही अंजाम के संकेत हैं ।जीएसटी का अपने मूल उद्देश्य में फ़ेल होना तय है । जीएसटी फ़ेल होने का मतलब राज्य सरकारें मर्ज़ी से जीएसटी की दरें तय करेगी और केंद्र-राज्य के बीच कर के बँटवारे पर सौदेबाज़ी होगी।
क्या प्रधानमंत्री पद से मोदी की विदाई 2019 के पहले ही नहीं हो जायेगी ?
पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में मोदी अपने चिर-परिचित, हाँकते जाने के अंदाज में बोल रहे थे । अपना दुर्भाग्य कहूँ या पता नहीं क्या कहूँ, मैं उसे ऑनलाइन ‘इकोनोमिक टाइम्स’ के वेबसाइट पर सुन रहा था । चारों ओर से ढेर सारे लोग उनके भाषण पर तत्काल प्रतिक्रियाएँ दे रहे थे । प्रधानमंत्री के भाषण पर लोगों का एक हिस्सा जहाँ उनके फेंकूपन पर स्वाभाविक तंज कस रहा था, वहीं एक हिस्सा इतनी गंदी भाषा का प्रयोग कर रहा था, जिसको कभी दोहराया नहीं जा सकता हैं । उनकी बातों को हूबहू मोदी-शाह के ट्रौल उद्योग के उत्पादों का ही एक प्रतिरूप कहा जा सकता हैं । जो काम भाजपा अब तक संगठित रूप से करती रही है, उसे ही आम लोगों ने अपने गहरे असंतोष को जाहिर करने की भाषा के तौर पर जिस प्रकार अपनाया हैं, यह उस पुरानी कहावत को ही चरितार्थ करता है कि सद्गुण बड़ी मुश्किल से अपनाये जाते हैं, लेकिन दुर्गुणों को अपनाने में लोगों को जरा भी देर नहीं लगती ।
बहरहाल, एक बात क्रमश: साफ हो रही है कि नरेन्द्र मोदी आज भारत में शासकीय राजनीति से जुड़ी तमाम बुराइयों के एक प्रतीक बनते जा रहे हैं । लोगों से झूठे वादे करना, अपनी पसंद के चंद बड़े लोगों को लाभ पहुँचाना और आम लोगों से नफरत करना, उन्हें दरिद्र से दरिद्रतर बनाने में जरा सा भी न हिचकिचाना, अपने रुतबे को कायम रखने के लिये आम लोगों को स्थायी डर और आतंक के माहौल में रखना, जनता की एकता को तोड़ना और भाई-भतीजा वाद - नरेन्द्र मोदी में ये सब बुराइयाँ पूरी तरह से मूर्त दिखाई देती है । मोदी राजसत्ता के सभी घटक, नौकरशाही, न्यायपालिका, सेना-पुलिस, चुनाव आयोग और मुद्रा एवं राजस्व संस्थानों की स्वायत्तता के लिये आज एक खुली चुनौती बनते जा रहे हैं ।
चूँकि आज भाजपा मोदी पार्टी है, इसलिये वह जीए या मरे, मोदी के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है । अन्यथा सच यह है कि आज किसी भी कार्यक्रम में मोदी की उपस्थिति ही आम लोगों में एक प्रकार की वितृष्णा के भाव को पैदा करती है । लोगों को उनके भाषण, हाथ लहराने तथा आँखें मटकाने वाली मुद्राएँ जहर की तरह लगने लगी है । अभी 2019 में देरी है । पता नहीं, इतनी सख़्त नफरत के साथ 2019 तक लोग कैसे प्रतीक्षा करेंगे । गुजरात में भाजपा की बुरी हार के बाद ही भारतीय राजनीति का पूरा दृश्यपट उलट-पुलट जायेगा । मोदी-शाह की विदाई के लिये संभव है 2019 तक की प्रतीक्षा न करनी पड़े ।
गुजरात में विकास सचमुच पागल हो गया है, उसे होश में लाने का समय आ चुका है
राहुल गांधी ने मोदी के तथाकथित गुजरात मॉडल को पूरी तरह से ठुकराते हुए वहाँ के ‘पागल हो गये विकास’ को सुधारने का वादा किया है । इस पर मोदी के सिपहसलार अमित शाह ने गुर्राते हुए कहा हैं कि राहुल की इतनी हिम्मत कि गुजरात में मोदी के अवदान पर सवाल उठाए ! सचमुच हम जानना चाहते हैं कि गुजरात में मोदी का कौन सा ऐसा मौलिक अवदान है जिसके लिये उन्हें सराहा जा सकता है ?
1. गुजरात में कृषि क्षेत्र में खास तौर पर सहकार के आधार पर दूध क्रांति का पूरा श्रेय कांग्रेस के शासन को जाता है । अमुल का जन्म भाजपा के शासन में नहीं हुआ है । 2. गुजरात में रिलायंस का पेट्रोकेमिकल्स प्रकल्प सीधे तौर पर धीरू भाई अंबानी को इंदिरा गांधी की भेंट रहा हैं । हम उस इतिहास के साक्षी है जब लाइसेंस-परमिट राज के दिनों में इन्दिरा गांधी ने सीमाई प्रदेश की थोथी दलील पर हल्दिया में पेट्रोकेमिकल्स को अनुमति नहीं दी थी और इस क्षेत्र में रिलायंस की इजारेदारी को संरक्षण दिया था । 3. गुजरात का परवर्ती औद्योगिक विकास पेट्रोकेमिकल्स के एंसीलियरी प्रकल्पों के जरिये ही हुआ । यहाँ तक कि टैरीकॉटन के सर्टिंग सूटिंग के कारख़ानों की श्रृंखला और सूरत का साड़ी उद्योग भी उसी से जुड़े उत्पादों के रूप में कांग्रेस के ज़माने में ही फैल गया था । 4. जहाँ तक अहमदाबाद के कपड़ा उद्योग का सवाल है, उसके विकास के समय तक तो भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था । 5. यहाँ तक कि समुद्री तट पर शिप-ब्रेकिंग का काम भी कांग्रेस के ज़माने में जिस तरह फला-फूला, उसमें इधर गिरावट ही आई है । 6. हीरों की कटिंग का काम भी भाजपा के जन्म के पहले से चल रहा है ।
और जहाँ तक गुजरात को मोदी की देन का सवाल है :
1. उनका सबसे बड़ा योगदान गोधरा कांड की आड़ में 2002 का मुसलमानों का जन-संहार रहा है, जिसके बदनुमा दाग को गुजरात कभी नहीं धो पायेगा । इस जन-संहार से गुजराती समाज में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, मोदी ने सिर्फ उसी की राजनीतिक फ़सल काटी है, किसी विकासमूलक काम की नहीं । 2. जहाँ तक विकास के काम का सवाल है, इवेंट्स मैनेजर मोदी ने हर साल ‘रिसर्जेंट गुजरात’ के भव्य आयोजनों और लंबी-चौड़ी भाषणबाजियों के अलावा यह किया कि किसानों की ज़मीन को छीन-छीन कर अपने क़रीबी उद्योगपतियों के बीच मुफ्त में बाँट दिया । अडानी और टाटा को तटवर्ती मुंद्रा इलाक़े में बिजली प्रकल्पों के लिये हज़ारों एकड़ ज़मीन लगभग मुफ्त में दी और आज उन दोनों बिजली प्रकल्पों की हालत इतनी ख़स्ता है कि वे गुजरात सरकार से राहत के पैकेज माँग रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी ख़ज़ाने से उनको धन सौंपने पर रोक लगा दी है, वर्ना मोदी जी तो इसकी हरी झंडी दिखा चुके थे । अडानी को रीयल इस्टेट के लिये कौड़ियों के दाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन दिला दी । और सिंगुर से टाटा को भगा कर नैनो के लिये जो हज़ार एकड़ से ज्यादा ज़मीन दी, वह कारख़ाना आज बंद सा पड़ा है । 3. इसके अलावा गुजरात की भलाई के नाम पर रिलायंस टेलिकम्युनिकेशन और उसके जिओ को इस प्रकार की छूटें दे दी हैं कि दूसरी सभी टेलीकॉम कंपनियों की हालत ख़राब है । टाटा ने तो अपनी टेलिकॉम कंपनी को बंद कर देने का निर्णय ले लिया है । 4. मोदी ने अदानी और अंबानी से 2014 के चुनाव के वक्त इतनी अधिक मदद ली थी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी विदेश यात्राओं के दौरान देश के हितों की तुलना में इन दो पूँजीपतियों के हितों की रक्षा के लिये ज्यादा तत्पर रहे हैं ।
यह है गुजरात को मोदी का अवदान ! उन्होंने राज्य की ओर से संगठित जन-संहार करवाया, किसानों को लूट कर, ग़रीब मज़दूरों की ज़िंदगी से हर प्रकार की सुरक्षा को ख़त्म करके दो-चार पूँजीपतियों की मुट्ठियाँ गर्म की और नफरत के आधार पर वोटों की फ़सल काटी । बस ! इन सबका परिणाम आज सिर्फ गुजरात नहीं, पूरा देश भुगत रहा है । देश में तेजी से भुखमरी बढ़ रही है और उतनी ही तेजी से अंबानी अदानी की संपत्ति बढ़ रही है ।
और, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अमित शाह आँखें तरेर कर कहते हैं - राहुल की इतनी हिम्मत कि गुजरात को मोदी के अवदान को चुनौती दें ! राहुल ने बिल्कुल सही कहा है - गुजरात में विकास पागल हो गया है, उसे होश में लाना होगा ।
अर्थ-व्यवस्था को मंदी से निकालना आने वाले कई सालों तक असंभव होगा
जिस बात का ख़तरा था और जिस पर हम नोटबंदी के पहले दिन से बार-बार कह रहे थे, वह अब शत-प्रतिशत सही साबित हो रहा है । इस बार बाजार में धन तेरस की बिक्री भी जितनी फीकी रही है, भारत के इतिहास में शायद कभी ऐसी नहीं रही ।पिछले साल की तुलना में सोना-चाँदी की बिक्री में चालीस प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि मोदी सरकार ने दो लाख तक की खरीद पर पैन नंबर की बाध्यता को ख़त्म करके काला धन लगा कर जेवहरात खरीदने की पूरी छूट दे दी थी । आगे भी त्यौहारों का पूरा मौसम इसी प्रकार बीतता हुआ दिखाई दे रहा है ।
अर्थ-व्यवस्था में मंदी के पीछे सबसे बड़ा कारण वह जन-मनोविज्ञान होता है, जो किसी भी वजह से एक ग्राहक और उपभोक्ता के रूप में आम आदमी की स्वाभाविक गतिविधियों को व्याहत करता है । एक बार लोगों के अंदर अपने जीवन और आमदनी की अनिश्चयता का विचार घर कर लें, उसके बाद बाजार को चंगा करना सबसे असंभव काम हो जाता है । निश्चिंत आदमी उधार लेकर भी ख़र्च करता है, लेकिन चिंताग्रस्त आदमी अपने बुरे समय की कल्पना करके पैसों पर कुंडली मार कर बैठ जाया करता है ।
और, अर्थ-व्यवस्था चलती है मूलत: बाजार में लोगों के उतरने से, उनकी खपत और उपभोग से ।
मोदी के मूर्खतापूर्ण नोटबंदी के निर्णय ने लोगों के खुद पर विश्वास को भारी धक्का लगाया है । अपने ही पैसों को पाने के लिये बैंकों के सामने भिखारियों की तरह खड़े रहने के दर्दनाक अनुभवों ने बैंकों पर से भी उसकी आस्था की जड़ों को हिला दिया है । आज भी, नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार आम लोगों को रोज चोर घोषित किया करते हैं, आयकर के बारे में अपनी चरम अज्ञान का परिचय देते हुए रोज चीख़ते हैं कि सवा सौ करोड़ लोगों में मात्र चंद लाख लोग ही आयकर देते हैं । यह देश के प्रत्येक जन को अंदर से डरा दे रहा है । साधारण आदमी यह जानता है कि मोदी की तरह के शासकों के शासन की मार कभी भी बड़े-बड़े पूँजीपतियों, धन्ना सेठों पर नहीं पड़ती है। उनके तो ये सबसे क़रीबी दोस्त हैं जिनके निजी हवाई जहाज़ों में मौज करने के इनके पुराने अभ्यास हैं। ऐसे शासन का डंडा सिर्फ आम मासूम लोगों के सर पर ही पड़ा करता है । इसीलिये आज किसी भी प्रकार का ख़र्च करने के पहले हर आदमी दस बार विचार कर रहा हैं ।
नोटबंदी ने आम लोगों की घर में नगदी को जमा रखने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा बल पहुँचाया हैं । आम आदमी समझता है कि किसी आपद-विपद के समय खुद के पास नगदी जमा पूँजी पर ही सबसे अधिक भरोसा किया जा सकता है । बैंकों और सोना-चाँदी पर भी लोगों की आस्था कम हो गई है । हमें नहीं लगता कि इस प्रकार के एक कोरे लफ़्फ़ाज़ के शासन के रहते कभी भी भारत इस मंदी की स्थिति से निकल पायेगा । वैसे भी, भारत की अर्थ-व्यवस्था को अब अपनी पुरानी लय में लौटने में सालों-साल लग जायेंगे ।
केंद्रीय राजस्व सचिव की आत्म स्वीकृति
भारत के राजस्व सचिव हँसमुख अधिया का आज एक बयान ’फिनेन्शियल एक्सप्रेस’ ने जारी किया है । उनके इस वक्तव्य को थोड़ी सी सावधानी से पढ़ने से ही यह साफ हो जाता है कि वे कह रहे हैं कि ‘अब जब जीएसटी लग चुका है, तब इसमें कर की दरों को बिल्कुल नये रूप में इस प्रकार ढालना (overhauling) होगा ताकि छोटे और मंझोले व्यापारियों पर इसका बोझ कम हो सके । इसको पूरी तरह स्थिर होने में साल भर का समय लगेगा । इन चार महीनों में तो सिर्फ इसके अनुपालन के बारे में शुरूआती समस्याएँ सामने आई हैं, जिन पर जीएसटी कौंसिल में विचार चल रहा है । अब तक सौ चीजों पर जीएसटी की दरों को ठीक किया गया है । लेकिन इसे एकदम नये सिरे से ढालना होगा । अभी भी एक जैसी बहुत सी चीज़ों पर अलग-अलग दर से कर लगा हुआ है । इन सबको पकड़-पकड़ कर एक समान करना होगा । जब तक इसे छोटे और मंझोले व्यापारियों तथा आम लोगों के लिये सुविधाजनक नहीं बनाया जायेगा, इसका अनुपालन मुश्किल है । इसके लिये बहुत गहराई में जाकर काफी हिसाब-किताब करना होगा । तब जाकर कुछ ऐसी चीज बन पायेगी जिस पर आगे सही ढंग से अमल संभव होगा ।’
गौर कीजिए, अधिया के इस पूरे वक्तव्य के हर बिंदु पर बार-बार पूरी स्कीम को नये सिरे से ढालने, overhauling करने की बात आई है । यह सबसे पहले तो खुद सरकार के एक सर्वोच्च अधिकारी की खुली स्वीकृति है कि जीएसटी को मोदी सरकार ने जिस प्रकार लागू किया, वह बहुत ही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और विवेकहीन ढंग था, जिसके कारण अब सभी स्तरों पर, सिर्फ चार महीने के अंदर ही इसे बिल्कुल नये रूप में ढाल कर पेश करने की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है । दूसरा, यह अब साफ है कि जीएसटी का अभी का रूप चलने वाला नहीं है । इसे यह सरकार बदले या इसकी विदाई के बाद कोई दूसरी सरकार बदले, इसको बदलना ही होगा । ऊपर से, इसके चलते राजस्व संग्रह के पूरे ढाँचे में एक लंबे समय तक अफ़रा-तफ़री मची रहेगी । यह बात और कोई नहीं, खुद भारत सरकार का राजस्व सचिव कह रहा है । नरेंद्र मोदी ने अपने तुगलकीपन में नोटबंदी की और उसी प्रकार तत्काल राजनीतिक लाभ उठाने के लालच में देश के राजस्व संग्रह के चालू ढाँचे को हटा कर उसकी जगह जीएसटी के एक लुंज-पुंज ढाँचे को लाद दिया । इसे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के प्रति उनके एक सरासर अपराध के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
यह वह समग्र पृष्ठभूमि है जिसके संदर्भ में भारतीय वामपंथ को जीएसटी को पूरी तरह ठुकराने की माँग करते हुए दुविधाहीन भाषा में इसका विरोध करना चाहिए । जीएसटी आज राजनीति की एक बड़ी विभाजक रेखा हो सकती है । नये राजनीतिक विकल्प को निर्द्वंद्व भाव से इसे रद्द करने की घोषणा करनी चाहिए। इस सच को एक क्षण के लिये भी नहीं भूलना चाहिए कि जीएसटी की तरह का भूत मूलत: आरएसएस के केंद्रीकृत शासन के विचारों की ही उपज है ।
जी एस टी की पृष्ठभूमि
मोदी जी और आरएसएस के सारे ट्रौल-अट्रौल देश-विदेश में घूम-घूम कर पूर्व के साठ सालों के कांग्रेस शासन की जितनी ही लानत-मलामत क्यों न करें, अपने आज के निकम्मेपन के लिये उनकी नालायकी पर ठीकरा क्यों न फोड़ें, एक बात साफ है कि 30 जून की रात जब वें संसद के सेंट्रल हॉल में जीएसटी के नाम पर राष्ट्र के लिये जिस नये गंतव्य का जश्न मनाने जा रहे थे, तब तक इसके लिये जमीन तैयार करने का पूरा श्रेय यदि किसी एक दल को जाता था तो वह कांग्रेस के अलावा दूसरा कोई दल नहीं था । कांग्रेस के साथ मिल कर ही राष्ट्र के संघीय ढाँचे के साथ ही राष्ट्रीय एकता और अखंडता के दृढ़ पक्षधर वामपंथी दलों के नेतृत्वकारी लोगों ने भी इस दिशा में बढ़ने के रास्ते को प्रशस्त करने में एक अहम भूमिका अदा की थी । पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री असीम दाशगुप्त की अध्यक्षता में ही जीएसटी प्रणाली का मूलभूत मसौदा तैयार किया गया था । और, जीएसटी के रास्ते में सबसे अधिक बाधाएँ डालने का अपराधी अगर अब तक कोई एक दल था तो वह सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी थी । 2004 से 2014 तक, जब तक मोदी जी केंद्र में सत्ता पर नहीं आएँ, भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों सहित ख़ुद मोदी जी भी इसके सख़्त विरोधियों में से एक थे ।
जीएसटी का प्रमुख लक्ष्य है - एक देश एक कर । आजादी के बाद लगभग 1970 के दशक तक तो दुनिया के देशों को इसी बात पर यकीन नहीं था कि भारत की तरह का इतनी विविधताओं से भरा हुआ, बिल्कुल अलग-अलग संस्कृतियों और जातीय पहचान वाला देश कभी एक रह पायेगा । अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए तो पूरी ताकत के साथ भारत के बल्कनाइजेशन, अर्थात उसे प्रत्येक राष्ट्रीयता के आधार पर अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने की योजनाओं में लगी हुई थी । सत्तर के दशक में ही असम में भूमि पुत्रों के नारों के साथ चले हिंसक आंदोलन के समय ही सीआईए की 'आपरेशन ब्रह्मपुत्र' योजना का पर्दाफ़ाश हुआ था । भारत की आजादी के ठीक बाद अमेरिका ने भारत में सामाजिक तनावों के बारे में जो व्यापक शोध कराया था, उसमें ख़ास तौर पर भारत में विभाजनकारी ताक़त के रूप में उसने आरएसएस को चिन्हित किया था और कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिये उसे ही अपना मोहरा बनाने की पूरी योजना तैयार की थी । पचास के दशक में अमेरिका की एशिया पैसिफ़िक संस्था की ओर से कराई गई जे ए क़ुर्रान, जूनियर की थिसिस -'आरएसएस : मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडिया' इसका सबसे बड़ा प्रमाण है ।
बहरहाल, भारत के बारे में सारी दुनिया में लगाये जा रहे ऐसे क़यासों को पूरी तरह से धत्ता बताते हुए तमाम झंझावातों के बीच से, भारतीय जनतंत्र ने अपनी आंतरिक शक्ति और लचीलेपन का परिचय दिया और देखते ही देखते यहाँ प्रादेशिक ताक़तों और राष्ट्रीय ताक़तों के बीच का फर्क कम होता चला गया । आज क्षेत्रीय ताक़तें राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण में कम महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं करती है । इसके अलावा, विगत तमाम सालों में भारतीय अर्थ-व्यवस्था का जिस हद तक एकीकरण होता चला गया, उसीने भारत के राजनीतिक एकीकरण को भी समान रूप से मज़बूत किया है । आज दुनिया में कोई भी ताकत भारत को तोड़ने के बारे में सोचने में लगभग असमर्थ है ।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अब पूरे भारत में एक समान कर-प्रणाली को लागू करने की बात को सोच पाना और उस पर अमल कर पाना संभव हो पा रहा है । यह भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय शक्तियों को शामिल कर पाने के लचीलेपन का परिणाम है । संघीय ढाँचे के प्रति निष्ठा, सत्ता के विकेंद्रीकरण और जनतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादाओं के बने रहने के कारण ही यह मुमकिन हो पा रहा है ।
यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि आरएसएस की मूलभूत विचारधारा संघीय ढाँचे के विरुद्ध एकीकृत शासन प्रणाली की विचारधारा है । इसीलिये उनके सत्ता में रहते इस बात की हमेशा गहरी आशंका बनी रहेगी कि जीएसटी की तरह की एकीकृत कर-प्रणाली का प्रयोग वह किसी एकीकृत शासन प्रणाली, एकदलीय या एक व्यक्ति की तानाशाही में करने की कोशिश करे । आज जितने नग्न रूप में राजनीतिक विरोधियों को सीबीआई के ज़रिये परेशान करने की कार्रवाइयाँ की जा रही हैं, वह उनके इसी नज़रिये का प्रमाण है । और, जीएसटी की प्रणाली भी आज यदि पूरी तरह से अपने परिकल्पित रूप में सामने नहीं आ पाई है, आज भी इसमें यदि अनेक प्रकार के स्लैब बरक़रार है तो उसके मूल में मोदी सरकार के इरादों के प्रति तमाम राजनीतिक दलों और क्षेत्रीय ताकतों में गहरे अविश्वास की एक बड़ी भूमिका है ।
बहरहाल, जीएसटी एक प्रकार की एकीकृत कर-प्रणाली है जो भारत के संघीय ढाँचे के किंचित विपरीत दिखाई पड़ने पर भी, काफी हद तक पर आज के एकीकृत भारत के यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है । जहाँ तक आम जनता को इससे राहत या कष्ट का सवाल है, यह साफ है कि वह कभी भी सरकार की कर-प्रणाली से मुक्त तो नहीं रह सकती है ! उस पर आज भी करों का बोझ लदा रहता है, आगे भी रहेगा ।
यह मुमकिन है कि कुछ बहुत छोटे कारोबारियों को एक बार के लिये इस नई प्रणाली को अपनाने में दिक़्क़त आएं । लेकिन भारतीय अर्थ-व्यवस्था का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिसमें बड़े इजारेदारों की तुलना में छोटे-छोटे कारोबारियों का कोई ज्यादा लाभ हो सकता हो । क़ानून की कमज़ोरियों और शक्तियों का भी अधिकतम लाभ बड़े लोग ही उठा पाते हैं । जहाँ तक कर बचाने के नाम पर पुर्जियो पर चलने वाले धंधों का सवाल हैं, वे पहले जिस प्रकार चलते रहे हैं, आज भी उसी प्रकार इंस्पेक्टरों और पुलिस की हफ्तावारी की देख-रेख में जारी रहेंगे । वे क़ानून और व्यवस्था के विषय ज्यादा हैं, न कि किसी कर-प्रणाली के विषय ।
जीएसटी और लघु और मंझोले व्यापारी
शुरू से यह भी एक साफ आशंका थी कि जीएसटी भारत के लोगों के लिये सर्वनाशी साबित हो सकता है । भारत की तरह के एक विफल राज्य में बहुत सारे लोग छोटे-मोटे धंधों से जीवन यापन करते हैं । जीएसटी आम आदमी के लिये जीविका के इस स्वतंत्र चयन को बुरी तरह से प्रभावित और बाधित करेगा । अब बनिये की दुकानदारी पहले की तरह कोई आसान चीज नहीं होगी । दुकान में ही सुबह से शाम तक जीवन काटने की ख़ास बनिया संस्कृति का भी नाश होगा । व्यापार पर अधिक पूँजी वाले संगठित क्षेत्र का एकाधिकार होगा । आज का दुकानदार या उसकी संततियां, अगर वे भाग्यशाली हुए तो, बड़े व्यापारियों की गुमाश्ता सेना में शामिल होंगे । वैसे इसकी भी संभावना कम है । मनुष्यों का काम छीनने के लिये मशीनें, रोबोट पहले से तैयार है ।
दुनिया के सामने रोज़गार-विहीन विकास आज की सबसे विकट सचाई है । पश्चिम के देशों में बड़े-बड़े मॉल में सिर्फ पाँच-दस कर्मचारियों की उपस्थिति भावी भारत की तस्वीर पेश कर रही है । बड़े और संगठित क्षेत्र के विक्रेता का सामान गली की परचून की दुकान से हर हाल में सस्ता होगा, क्योंकि वह जीएसटी के इनपुट का लाभ सरकार से वसूल कर पायेगा और वसूले गये जीएसटी की चोरी के बावजूद एक अंश ग्राहक को भी देने में समर्थ होगा । इसीलिये हर परचूनी के ज़िंदा रहने की संभावना को अब ख़त्म माना जा सकता है ।
मार्क्स ने कहा था - 'पूँजी का संचय सर्वहारा की वृद्धि है ।' कुल मिला कर यह पूँजीवाद का वही विजय रथ है जो अपने पीछे न जाने कितनी लाशों, कितनी बर्बादियों और मनुष्य के ख़ून और पसीने का कीचड़ छोड़ता जाता है । इसीलिये हम कह सकते हैं कि जनता से अधिकतम कर वसूलने की नई कर-प्रणाली पर जश्न, लाश के चारों ओर प्रेतों के नृत्य की तरह है । रोमन इतिहासकार टैसितस ने बताया है कि रोम के सम्राट नीरो ने अपनी दावत के लिये बग़ीचे को रौशन करने की ख़ातिर अपने कुछ बंदियों को ज़िंदा जला दिया था । हमारे पत्रकार पी साईनाथ ने लिखा है कि सालों से मैं यह नहीं समझ पाया कि नीरो की ऐसी दावत के अतिथि कैसे लोग रहे होंगे ? तीस जून की रात दिल्ली के जश्न में शामिल लोगों में नीरो के अतिथियों की एक सूरत देखी जा सकती है ।
तभी यह भी साफ था कि मोदी जी जीएसटी को लेकर पर फिर एक बार नोटबंदी वाली मुद्राओं के साथ देश भर में घूमेंगे ; और उसी तरह शहरों-क़स्बों में उजड़ते हुए लोगों की जाने जायेगी । भाजपा और आरएसएस के लोग इन मरते लोगों को फिर से एक बार लड्डू खिलाने जायेंगे । कुछ ऐसे अर्थशास्त्री बाजार में उतरे हुए दिखाई देंगे जिनका दावा होगा कि जीएसटी से बाजार का विस्तार होगा और इससे मंदी में फंसे हुए बाजार में सचलता आजायेगी ।
करों से न बाज़ार का विस्तार होता है और न संकुचन । बाजार निर्भर करता है आम लोगों की क्रय शक्ति पर । और किसी भी वजह से आमदनी में कटौती से बाजार नहीं बढ़ सकता । जीएसटी ही बाजार की गति का कोई मूल मंत्र होता तो दुनिया के जिन तमाम देशों में जीएसटी है, वहाँ मंदी या कोई भी आर्थिक संकट कभी पैदा ही नहीं होना चाहिए था । जो कहते हैं, देश भर में समान कर से बाजार का विस्तार होगा, वे या तो अर्थनीति के बारे में कुछ नहीं जानते या प्रवंचकों के दल के हैं ।
जो लोग कह रहे हैं कि जीएसटी से जीडीपी में एक प्रतिशत की वृद्धि होगी, उनके बारे में ख़ुद इस सरकार के नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय तक ने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि यह बात कोरी बकवास है । देबराय ने मोदी सरकार के जीएसटी के पूरे ढाँचे को ही दोषपूर्ण घोषित कर दिया है ।
इसी प्रकार, महज कर-प्रणाली में बदलाव से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का दावा भी शुद्ध प्रवंचना है । नोटबंदी के वक़्त भी यही सब कहा गया था । रोज़गार-विहीन लोग समाज में तमाम प्रकार की अराजकताओं के, लूट-खसोट के भी कारण बनेंगे । ब्राज़ील, नाइजीरिया की तरह के देश इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है । यह कर वसूलने वाली नौकरशाही के भ्रष्टाचार में एक नई छलाँग का कारण बनेगा ।
जीएसटी का सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास पर । इससे क्षेत्रीय असमानता स्थायी हो जायेगी । करों में छूट से कई पिछड़े हुए इलाक़ों का विकास संभव हुआ था । वह संभावना अब ख़त्म हो जायेगी ।
इस प्रकार, जीएसटी के इन सभी प्रभावों को समझते हुए इनसे बचने के उपयुक्त उपायों के बिना इसे लागू करना हमारी अर्थ-व्यवस्था के लिये सर्वनाशी साबित होगा, यह आशंका निराधार नहीं थी । बड़े-बड़े पूँजीपति जरूर इससे लाभान्वित होंगे ।
कुछ चैनलों ने यहां तक चीख़ना शुरू कर दिया था कि जीएसटी चीन को चकनाचूर कर देगा; पाकिस्तान को ख़त्म; विदेशों में जमा काला धन देश में आ जायेगा । लेकिन वास्तव में जीएसटी क्रमश: एक ऐसी पहेली के रूप में सामने आया जिसके खतरनाक परिणाम साफ दिखाई देने लगे थे । इसके बारे में प्रधानमंत्री जितनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगे उसी अनुपात में वह उतना ही रहस्यमय, एक अबूझ पहेली की शक्ल लेने लगा । 'एक देश, एक कर' - जिस बात पर संसद में आधी रात को भूतों की तरह का जश्न मनाया गया, शुरू में ही यह पता चल गया था कि इसी बात का इस पूरे फसाने में कोई स्थान ही नहीं है । इसमें न एक राष्ट्र है और न एक कर ही ।
पेट्रोलियम पदार्थों, बिजली, शराब और रीयल इस्टेट की तरह के सबसे अधिक राजस्व पैदा करने वाले चार प्रमुख क्षेत्रों को इस जीएसटी से बाहर रखा गया है । अर्थात इन चारों चीज़ों पर प्रत्येक राज्य में करों की दर अलग-अलग होगी जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्ज़ी से तय करेगी । अर्थात्, 'एक राष्ट्र' का दावा कोरा धोखा है । यही हाल है 'एक कर' के दावे का है । इसमें अब तक कर की दरों के सात स्लैब सामने आए हैं - 0%, 0.25%, 3%, 5%, 12%, 18% और 28% । सरकार के लोग शुरू से सरासर झूठ बोलने लगे कि आगे वे इन सब स्लैब्स को कम करके एक अथवा दो तक सीमित कर देंगे । इसके विपरीत सचाई यह थी कि इसमें अधिकतम 28 प्रतिशत की दर को बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की व्यवस्था रखी गई थी । इसके अलावा आज जिस चीज पर जितना प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, कल उसे बदल कर दूसरे स्लैब में नहीं डाला जायेगा, इसकी शुरू से कोई गारंटी नहीं रही। 30 जून की आधी रात के चंद घंटों पहले तक कुछ चीज़ों को एक स्लैब से निकाल कर दूसरे स्लैब में डाला गया । अर्थात, आगे भी कर की दरों के मामले में हमेशा पूरी अराजकता की स्थिति बनी रहेगी ।
इसीलिये जीएसटी का भारी उत्सव मनाने के लिये जो तमाम बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे, वास्तविकता में उन बातों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । जिस चीज का वैसा कोई अस्तित्व ही न हो, फिर भी उसका ढोल पीटा जाएँ, तो इसे धोखा या अबूझ पहेली नहीं तो और क्या कहा जायेगा ?
यही नहीं, जीएसटी प्रणाली में गरीब और अमीर एक दर से कर देंगे - यह कहना भी एक सफ़ेद झूठ था । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही साफ हो जाता है कि इस व्यवस्था में गरीब ज़्यादा दर से कर देगा और अमीर कम दर से । सुपर मार्केट में चीज़ें सस्ती होगी, मोहल्ले की परचून की दुकान, यहाँ तक कि पटरी वाले की चीज़ें भी महँगी होगी । सुपर मार्केट वाले इनपुट क्रेडिट का भरपूर लाभ लेंगे, परचूनिया कुछ नहीं ले पायेगा । बड़े व्यापारी अपने कारोबार के विस्तार और आधुनिकीकरण के ख़र्च का एक हिस्सा भी इसी जीएसटी के इनपुट क्रेडिट से उठा लेंगे । परचूनिया जीएसटी की पूरी जमा राशि सरकार को देने के लिये मजबूर होगा ।
इसी सिलसिले में मोदी जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक अभिनव खोज की कि सीए, अर्थात् मुनीम अर्थनीति की सेहत की रक्षा करता है ! क्यों न उन्हें इस महान खोज के लिये अर्थनीति में नोबेल पुरस्कार का हक़दार माना जाएँ ! चार्टर्ड एकाउंटेंट्स के संस्थान के आयोजन को संबोधित करते हुए मोदी जी भारत में सीए लोगों को लाखों सेल कंपनियों के होने का राज कुछ इस प्रकार बता रहे थे, जैसे इन लोगों के लिये यह कोई रहस्य रहा हो ! व्यापार से जुड़े तमाम लोग मोदी के अर्थ-रक्षकों, इन सीए की भूमिका को वैसे ही जानते हैं, जैसे आरएसएस के गो रक्षकों की वास्तविक भूमिका को जानते हैं । ये ही तो कर चोरी की अनीतियों की जड़ में हैं ।
संघ के प्रचारकों की मनोवैज्ञानिक सचाई यह भी है कि वे हमेशा दुकानदारों की सोहबत में रहते आए हैं । इसीलिये उनके प्रति इनमें एक स्वाभाविक ईर्ष्या दबी रहती है । इसी प्रकार, संघ वालों में भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल न होने का एक अपराध बोध भी है , जिसके कारण अब वे हर रोज एक आजादी की जंग लड़ते रहते हैं । इन्होंने राममंदिर आंदोलन को आजादी की दूसरी जंग कहा था, फिर नोटबंदी को और अब प्रधानमंत्री जीएसटी को भी आजादी की जंग बता रहे हैं । नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक इनकी नीतियों के इन मनोवज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।
नोटबंदी के दिनों की तरह ही भाजपा के नेताओं और प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिला कर इसे नोटबंदी की तरह ही काला धन को ख़त्म करने से जुड़ी मोदी सरकार की एक और मुहिम बता रहे हैं । लेकिन सच कहा जाए तो आज भारत के प्रधानमंत्री की बातों का दो कौड़ी का भी मूल्य नहीं रह गया है । शायद ही कोई उनकी कही बातों पर यक़ीन करता होगा ! वे क्रमश: विज्ञापनों के प्रवंचक प्रचारक भर दिखाई देने लगे हैं । मोदी-मोदी का प्रायोजित शोर इस सच को नहीं छिपा सकता है । भारत के सर्वोच्च पदाधिकारी की विश्वसनीयता में इस प्रकार तेज़ी से गिरावट हमारे जनतंत्र के लिये बहुत घातक साबित हो सकती है । इनकी नीतियों से सामाजिक जीवन में फैल रही अराजकता विकल्प के अभाव में बर्बर तानाशाही का भी रास्ता भी प्रशस्त कर सकती है ।
फासीवाद ऐसे ही आता है
नोटबंदी के भूचाल के झटके थमे भी नहीं कि जीएसटी की भागमभाग, अर्थनीति के क्षेत्र में व्यापक अराजकता से जीडीपी में तेज़ी से गिरावट, बैंकों से क़र्ज़ों में, अर्थात औद्योगिक क्षेत्र में निवेश में भारी कमी, ग्रामीण क्षेत्र तो क़र्ज़-माफ़ी के ज़रिये ज़िंदगी की भीख माँग रहा है । इसके अलावा, देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का विस्फोट । इन सब पर सरहदों पर भारी तनाव - पाकिस्तान की सीमाओं पर लगातार गोलीबारी, कश्मीर में आए दिन पाकिस्तानी मदद से आतंकवादियों के हमले और अब भूटान की सीमा पर चीन से ऐसी तनातनी कि चीन ने युद्ध तक की धमकी दे दी है ।
वस्तुत: नोटबंदी को अभी भी कानून की परीक्षा में पास होना है ! इसी 4 जुलाई 2017, अर्थात नोटबंदी के लगभग आठ महीने बादए सुप्रीम कोर्ट ने नोटबदली के एक मामले में केंद्र सरकार से यह मांग की है कि जो लोग 'सच्चे कारणों से' अमान्य कर दिये गये नोट को बैंक में जमा नहीं करा पाए उन्हें इन रुपयों को जमा कराने का एक मौका दिया जाना चाहिए, क्योंकि कानून की पूरी प्रक्रिया का पालन किये बिना उनसे उनका रुपया छीना नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक संविधान पीठ ने सालिसिटर जैनरल से कहा कि "कोई व्यक्ति विदेश में हो सकता है या उस समय बीमार हो सकता है या जेल में हो सकता है। यदि मैं यह साबित कर देता हूं कि यह मेरा रुपया है तो आप मुझे अपनी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं। वह गलत होगा। भले ही जांच के बाद आप ऐसे सभी दावों को खारिज कर दें, लेकिन इस वास्तविक समस्या का रास्ता आपको खोजना होगा।"
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, जीएसटी तो एक पहेली ही बनता जा रहा है ! इस पहेली को बुझाने के लिये हजारों रुपये की किताबें, सीडी और नाना प्रकार की सामग्रियों से बाजार पट गया है। कुछ ऐसे लोग भी बाजार में उतर गये हैं जो लोगों को जीएसटी के बारे में पूरा कोर्स करके उसकी डिग्रियां भी बांटने का काम करेंगे। व्यापार से जुड़े लोगों की दशा यह है कि वे इस नये कर पर जितना दिमाग लगा रहे हैं, उतना ही यह मामला उनकी समझ के बाहर जाता जा रहा है। राज्य सरकारों ने अपने बिक्री कर, चुंगी आदि के दफ्तरों पर एक बार के लिये ताला लगा दिया है। पता नहीं राज्य और केंद्र के बीच इस कर की वसूली के बारे में यह कैसी समझ बनी है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से के कर को लेकर पूरी तरह से निश्चिंत दिखाई देती हैं।
हम नहीं जानते कि क्या राज्य सरकारों को केंद्र से ऐसा कोई आश्वासन दिया गया है कि जीएसटी के मातहत करों की उगाही कम हो या ज्यादा, राज्यों को उनके पुराने हिसाब के अनुसार एक न्यूनतम राशि केंद्र सरकार अपने कोष से दे देगी । अगर ऐसा है तो यह आने वाले दिनों में केंद्र और राज्यों के बीच वित्त के मामले में एक भयावह तनाव का कारण बन सकता है। सचमुच, अभी की अराजकता को देख कर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।
ऊपर से प्रधानमंत्री को विदेश यात्राओं का नशा ! वे दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदार बन कर तमाम हथियारों के सारे सौदागर से गलबहिया करते घूम रहे हैं । आरएसएस के लोग ख़ुश है कि यही तो है उनके 'हिंदुओं के सैन्यीकरण' का इप्सित लक्ष्य ! लेकिन किसी भी विवेकवान व्यक्ति को इन सबके बीच भारत की पूर्ण तबाही के मंज़र दिखाई दे सकते हैं । आर्थिक दुरावस्था और देश के अंदर और देश की सीमाओं पर युद्ध - किसी भी राष्ट्र के लिये इससे बड़ा अशनि संकेत क्या हो सकता है । इनके साथ ही जुड़ कर आती है सभ्यता की बाक़ी सारी निशानियों के अंत की कहानी । जनतंत्र के, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के, नागरिक अधिकारों के, आपसी भाईचारे के अंत की कहानी । अंध-राष्ट्रवाद की इसी आंधी में फासीवाद के आगमन की ध्वनि साफ सुनी जा सकती है ।
पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों ने साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ मिल कर कुछ इसी प्रकार उन देशों की बर्बादी की कहानियाँ लिखी थी । पूरा मध्य पूर्व इसी प्रकार, धीर-धीरे, धरती के नक़्शे पर अभिशप्त क्षेत्रों की शक्ल लेता चला गया है । ट्रंप और नेतन्याहू जैसों के साथ मोदी जी जितना खिलखिलाते हुए गले मिलते हैं, हमारी रूह भारत के भविष्य को लेकर उतनी ही ज्यादा काँप उठती है ।
जीएसटी भारत के संघीय ढाँचे की चूलें हिला देगा
नोटबंदी अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा करने में सौ फ़ीसदी विफल रही । उल्टे, उसने नगदी की कमी की जो समस्या पैदा कर दी है, वह अर्थ-व्यवस्था के लिये एक असाध्य रोग का रूप ले चुकी है । ऊपर से बैंकों की ख़त्म हो चुकी साख के बाद सरकार के कठोर नियमों के बल पर बैंकें और कितने दिन अपने अस्तित्व को बनाये रखती हैं, यह देखना दिलचस्प होगा ! मूलत: बैंकों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिये उठाये गये नोटबंदी के कदम के बाद भी, बहुत जल्द ही केंद्र सरकार को उनकी मदद के लिये एकमुश्त राहत का पैकेज लेकर सामने आना होगा । यह सुनिश्चित है ।
नोटबंदी के रास्ते पर ही अब जीएसटी की भी वही दुर्गति होती दिखाई दे रही है । अभी से इसको लेकर जितनी उलझने सामने आई हैं, वित्त मंत्रालय ने विवेक के साथ उन सबका समय से समाधान नहीं किया तो यह सिर्फ पूरी अर्थ-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने का एक बड़ा कारण ही नहीं बनेगा, बल्कि यह पूरी स्कीम ही औंधे मुँह गिरने के लिये बाध्य होगी । कोई अचरज नहीं कि सरकार को अपने ही कुप्रबंधन के कारणों से इसे वापस लेने के लिये मजबूर होना पड़े !
मोदी-जेटली ने जीएसटी के मामले में यह सोच कर हड़बड़ी की थी कि 2019 में अभी दो साल का समय बाक़ी है । तब तक वे इसे लागू करने से होने वाली प्रारंभिक कठिनाइयों से उबर जायेंगे । लेकिन उनको यह नहीं सूझा कि आधी-अधूरी जानकारियों और न्यूनतम तैयारियों से उठाये जाना कोई भी कदम स्वयं में एक बड़ी परेशानी और जटिलता का कारण बन जाता है । ऐसे कदम किसी ज़ख़्म की तरह बाद में हर बीतते दिन के साथ नासूर का रूप लेने लगते हैं, जिनका इलाज सिवाय आपरेशन करके उन्हें जड़ से काट कर फेंक देने के अलावा कुछ नहीं रहता है ।
जीएसटी से ज़ख़्मी अर्थ-व्यवस्था में अभी से वे तमाम लक्षण दिखाई देने लगे हैं । जो करोड़ों लोग भारत में स्व-रोज़गार के जरिये जीवन यापन करते रहे हैं, उनके लिये यह व्यापार और रोजगार की सारी संभावनाएँ ही ख़त्म कर दे रहा है । इससे पैदा हो रहा विस्फोटक जन-असंतोष इस पर अमल की लुंज-पुंज सरकारी मशीनरी को पूरी तरह से ठप कर देगा । जीएसटी काग़ज़ों में रहेगा, संगठित बड़े व्यापारियों को अतिरिक्त लाभ जुटा कर देने के औज़ार के रूप में काम करेगा, अर्थात सरकार के राजस्व में सेंधमारी का साधन बनेगा, लेकिन इसके जरिये ज्यादा राजस्व जुटाने का सरकार का न्यूनतम लक्ष्य भी पूरा नहीं कर पायेगा ।
पहले से ही चल रही जीडीपी में गिरावट और अब अन्य स्रोतों से भी राजस्व में भारी कमी के कितने प्रकार के आर्थिक- राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं, उनकी कल्पना करना भी मुश्किल है । भारत में इस प्रकार की विफलता का सीधा सा अर्थ है राष्ट्र के संघीय ढाँचे में भारी तनाव की उत्पत्ति । राज्य सरकारें अपने नुक़सान की भरपाई के लिये केंद्र से झगड़ा करेगी, लेकिन केंद्र किससे करेगा ? वह यदि नोट छापने का रास्ता अपनाता है तो इसके घातक मुद्रा-स्फीतिकारी प्रभाव को कोई रोक नहीं सकेगा । विकास की सारी योजनाएँ ठप हो जायेगी ।
ऐसी कठिन परिस्थिति में मोदी जी का एक देश से दूसरे देश निरुद्देश्य घूमना, नेताओं से बेबात की गलबहियां करना उस कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ करता है कि 'रोम जब जल रहा था , नीरो बंशी बजा रहा था' ।
जिस जीएसटी के शोर के जरिये मोदी-जेटली ने यह सोचा था कि वे नोटबंदी के दुष्प्रभाव को दूर कर लेंगे, वह अब क्रमश: इनके गले की फाँस का रूप लेता जा रहा है । ख़तरा इस बात का है कि इसके राजनीतिक प्रभाव से बचने के लिये मोदी जी कोई और भी बड़ा खतरनाक रास्ता न अपना लें - युद्ध का रास्ता । इसके सारे संकेत अभी से दिखाई देने लगे हैं । सेनाध्यक्ष को अढ़ाई युद्ध के लिये तैयार रहने को कह दिया गया है, जिसकी ख़ुद उन्होंने ताईद की है । चीन के साथ, पाकिस्तान के साथ और आधा देश की जनता के साथ । कहना न होगा, यही भारत के हिटलर के उदय का भी रास्ता होगा । भारतवर्ष की तबाही का रास्ता ।
झूठ के धुँआधार प्रयोग से अब मोदी शासन का हर सच भी कोरा झूठ लगने लगा है
फेक न्यूज का मसला आज दुनिया का एक बड़ा सरदर्द बन गया है । उधर अमेरिका में ट्रंप ने पिछले चुनाव में झूठी ख़बरों की बाढ़ ला दी थी तो इधर मोदी-शाह युगल भी इस मायने में ट्रंप से कभी उन्नीस नहीं, बल्कि इक्कीस ही रहे हैं । सचमुच, आरएसएस-भाजपा तो हमारे देश में इस संसार के बेताज के बादशाह है । स्वाती चतुर्वेदी की किताब 'I am a Troll' में सारे प्रमाणों के साथ यह बताया गया है कि मोदी-शाह युगल ने फेक न्यूज की बाक़ायदा एक विशाल फ़ैक्टरी खोल रखी है । हाल में बंगाल में सांप्रदायिक दंगे लगाने में इनकी बंगाल की आईटी शाखा किस प्रकार लगी हुई थी, उसके सारे प्रमाण सामने आ चुके हैं । इस शाखा के प्रमुख तरुण सेनगुप्ता को इस अपराध के लिये गिरफ़्तार भी किया जा चुका है । उन्होंने बांग्लादेश और न जाने कहाँ-कहॉं की तस्वीरों को काट-छाँट कर बंगाल की बताने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का जघन्य काम किया था ।
बहरहाल, सारी दुनिया के विवेकवान लोगों की तरह ही भारत में भी संगठित रूप में झूठ के जरिये किसी भी प्रकार के सार्थक विमर्श के लिये कोई जगह न छोड़े जाने पर चिंता पैदा होने लगी है । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गूगल की तरह के बड़े संस्थान ने जहाँ फेक न्यूज के प्रवाह को रोकने के लिये अपनी ओर से एक पहलकदमी करने का निर्णय लिया है, वहीं भारत में भी ऐसी वेबसाइट्स तेज़ी से विकसित हो रही है जो सिर्फ ख़बरों के झूठ-सच की जाँच में ही लगी हुई है और यथासंभव लोगों को इस डरावनी बीमारी से अवगत कराने की कोशिश कर रही है ।
एनडीटीवी पर रवीश कुमार ने प्राइम टाइम पर लगातार चार एपीसोड अकेले इसी विषय पर किये हैं । इसमें उन्होंने झूठ के इस कारोबार को कई ऐतिहासिक संदर्भों के साथ, मसलन नई सहस्त्राब्दि पर सारे कम्प्यूटरों के ठप हो जाने के वाईटूके के विषय से लेकर 'मंकी मैन' और गणेश जी को दूध पिलाये जाने वाले वाकयों का भी बार- बार उल्लेख किया है । इसके राजनीतिक संदर्भों में उन्होंने हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबल्स से लेकर डोनाल्ड ट्रंप की भी चर्चा की है ।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि हम सत्य की अपराजेय शक्ति की जितनी भी बात क्यों न करें, मानवता का इतिहास झूठ की समान, बल्कि कहीं ज्यादा शक्ति का परिचय देने वाला इतिहास रहा है ।
हम सब जानते हैं, सचाई का रास्ता एक कठिन रास्ता है । सच को अपने को स्थापित करने में लंबा समय लग जाता है । इसके लिये बेहिसाब ख़ून, पसीना और आँसू बहाना पड़ता है । लेकिन झूठ भी जीवन का एक सच होने के नाते ही, उसकी शक्ति सच से कम नहीं होती है । दार्शनिक दृष्टि से सख़्ती से देखने पर हम पायेंगे कि मानव जीवन में पाये जाने वाले सारे मिथ, ईश्वर से लेकर तमाम प्रकार के अंध-विश्वास झूठ नहीं तो और क्या कहलायेंगे । लेकिन मनुष्य के जन्म के साथ ये उसके अस्तित्व से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं ।
इसीलिये यहाँ सवाल किसी दार्शनिक दृष्टि का नहीं है । फेक न्यूज का मसला जीवन और इतिहास के बहुत मोटे-मोटे तथ्यों से जुड़ा हुआ है । मसलन भारत 15 अगस्त 1947 के दिन आज़ाद हुआ था । यह एक कोरा तथ्य है । इसी प्रकार के कोरे तथ्यों की श्रृंखला से हम इतिहास और अपने जीवन का आख्यान तैयार करते हैं । फेक न्यूज वह रोग है जो जीवन के ऐसे ठोस तथ्यों में सेंधमारी करता है । उसे तोड़- मरोड़ कर अपना उल्लू सीधा करने के लिये इस प्रकार विकृत कर देता है जैसे जातक कथा में ठगों के एक गिरोह ने बकरी ले जा रहे ब्राह्मण को बार-बार टोक कर यह मानने के लिये मजबूर कर दिया कि वह अपने कंधे पर बकरी नहीं, बल्कि कुत्ता ले जा रहा है । और इस प्रकार उन्होंने ब्राह्मण से उसकी बकरी को झपट लिया ।
इसीलिये फेक न्यूज का मुद्दा शुद्ध रूप से ठगबाजों से लड़ाई का मुद्दा है । आज जब यह पता चलता है कि भारत की राजनीति में फेक न्यूज का सबसे बड़ा और संगठित काम मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा कर रही है तो इसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है कि हमारा आज का शासक दल ठगों का एक विशाल गिरोह है । क्योंकि इसमें कोई विचारधारात्मक या अवधारणात्मक मुद्दा शामिल नहीं है । इसमें सिर्फ ठोस तथ्यों का विकृतिकरण है, ताकि आम लोगों को भ्रमित किया जा सके । कहना न होगा, ये लोग सबसे अधिक तो अपने सदस्यों और समर्थकों के विश्वास से खेल कर रहे हैं । जनता तो जीवन के अनुभवों से बहुत कुछ समझ लेती है । भारत में शासकों की तमाम कारस्तानियों के बावजूद सरकारें बनती-बिगड़ती रही है । कोई अगर यह सोचता है कि झूठ के प्रचार के बल पर वह अनंतकाल तक सत्ता में रह जायेगा तो शायद इससे बड़ा दूसरा कोई भ्रम नहीं होगा ।
लेकिन इस खेल में जिन लोगों का स्थायी तौर पर नुक़सान हो जाता है, वे हैं इन झूठ के कारोबारियों के समर्थक जो इनके प्रति अंध आस्था के चलते इनकी बातों के लिये मरने-मारने को तैयार रहते हैं । जब गूगल की तरह की सूचना तकनीक के क्षेत्र की कंपनियों ने फेक ख़बरों की सिनाख्त करके उन्हें छाँट देने का एक प्रकल्प अपनाया है तब भी वह इन भक्तों के लिये किसी काम का नहीं होगा ।
बहरहाल, जीवन में झूठ के सच को स्वीकारते हुए भी हम यही कहेंगे कि झूठ भी जीवन में परिवर्तनों के सापेक्ष होता है । आज चल रहा झूठ कैसे कल पूरी तरह से अचल हो जाता है, इतिहास की गति को कुछ इस प्रकार से भी समझा जा सकता है । जिस दिन लोग समझ लेंगे कि मोदी जी के पास सिवाय झूठी बातों के कुछ नहीं है, उनकी सच्ची बातें भी सबको झूठ लगने लगेगी और वहीं से इनके अंत का भी प्रारंभ हो जायेगा । इसीलिये राजनीति में अंतत: मामला जन-अवधारणा का होता है और शायद मोदी जी यह नहीं जानते कि नोटबंदी, जीएसटी और उनके विदेश-प्रेम ने अबतक उनके व्यक्तित्व की सच्चाई को खोल दिया है ; उनके प्रति जनता के विश्वास में गिरावट का चक्र शुरू हो चुका है । झूठ, वह कितना ही बड़ा हो और कितने ही मुखों से क्यों न फैलाया जा रहा हो, संभवत: आगे उनके लिये मददगार साबित नहीं होगा ।
यह जीएसटी चल नहीं सकता, जैसे नोटबंदी नहीं चली
यह कहना राज्य को चुनौती देने की तरह की धृष्टता लगती है, लेकिन जितनी गहराई में जाकर जीएसटी के विषय को देखता हूँ, उतना ही साफ तौर पर लगता है कि जिस रूप में अभी इसे लागू किया गया है, इस पर सही अर्थों में अमल हो नहीं पायेगा । आज के इसके बहु-स्तरीय और विविध दरों के स्वरूप में यह पूरी योजना भारतीय अर्थ-व्यवस्था को चरम अराजकता की सौग़ात देकर चंद सालों में ही दम तोड़ देगी । इसके अस्पष्ट और जटिल ढाँचे के कारण ही जीएसटी से जुड़े मामलों-मुक़दमों का ऐसा अंबार लगेगा कि कोई भी राज्य उन्हें संभाल नहीं पायेगा । मुकदमें जीएसटी पंचाट से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में भरे रहेंगे ।
इसमें लेन-देन के हर हिसाब की जाँच राज्य और केंद्र, दो स्तर पर अलग-अलग होने की बात कही गई है । इससे हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहेगा कि केंद्र और राज्य के अधिकारियों की एक ही मामले में अलग-अलग राय हो । नौकरशाही स्वेच्छाचारी ढंग से काम करेगी लेकिन उसके स्वेच्छाचार की भी सीमा होगी ! जब इस अराजकता के चलते राज्य के राजस्व पर बन आयेगी तो इस पूरी व्यवस्था पर ही पुनर्विचार की ज़रूरत पैदा हो जायेगी । लेकिन तब तक अर्थ-व्यवस्था अधमरी हो गयी होगी । मोदी जी भारत के आर्थिक इतिहास में तुग़लक़ के नये संस्करण के तौर पर ही याद किये जायेंगे ।
प्रशासन मोदी - योगी के वश की बात नहीं है
हैरोल्ड लास्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'राजनीति का व्याकरण' में लिखा था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता । ख़ास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं ।
हैरोल्ड लास्की के इस कथन के क्लासिक उदाहरण हैं हमारे देश की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार । मोदी जी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया ।
जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया । जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाह में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है ; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में -0.01 प्रतिशत की गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत ख़राब कर दी । नोटबंदी के धक्के के कारण इस बार आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है । जाहिर है इससे अपने वित्तीय घाटे से निपटने में केंद्र सरकार की समस्या और बढ़ जायेगी जिसकी गाज जनहित के ही किसी न किसी प्रकल्प पर गिरेगी ।
पूरी अर्थ-व्यवस्था अभी इस क़दर बैठती जा रही है कि अब अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की नहीं, मुद्रा-संकुचन को आज की मुख्य समस्या बताने लगे हैं । मुद्रा संकुचन का अर्थ होता है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि । इसकी वजह से बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा ।
इसी प्रकार,गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता रहे है जबकि इन बीमारियों से जूझने के लिये ही उन्हें आक्सीजन दी जा रही थी । उन्होंने ख़ुद माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे ! योगी की इन बेवक़ूफ़ी की बातों को क्या कहा जाए ? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय नहीं सुझाया है । लेकिन वे कल यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम आयोजन में बैठ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिये आज किसी न किसी 'नमामि' कार्यक्रम में लगी हुई है । मोदी जी के पास देश की हर समस्या का समाधान प्रचार के शोर में होता है । वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो । केंद्र और राज्य सरकारों के इन कार्यक्रमों में लाखों लोग शामिल होते है, अर्थात जनता ख़ुश होती है । लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सारे प्रचारमूलक कामों से जनता का ही सबसे अधिक नुक़सान होता है । जन हितकारी प्रकल्पों के लिये धन में कमी करनी पड़ती है ।
मोदी सरकार पहली सरकार है जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है । मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है । किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है । ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है । इसीलिये आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं - जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है । यह कोरे लफ्फाजों के बस का नहीं होता है । मोदी और योगी के तमाम कदमों के पीछे की विवेकहीनता को देख कर इस बात को और भी निश्चय के साथ कहा जा सकता है ।
जनतंत्र, नागरिक समाज और आज का भारत
अंतोनिओ ग्राम्शी ने अपनी 'प्रिजन नोटबुक' में भी नागरिक समाज पर काफी गंभीरता से चर्चा की है । जनतंत्र में नागरिक समाज उसी की एक उपज होता है तो उसकी रक्षा का एक बड़ा कवच भी । यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूरी संरचना में एक ऐसे लोच को तैयार करता है जो उसे किसी भी क्रांतिकारी या प्रति-क्रांतिकारी सीधे हमले से बचाता है ।
ग्राम्शी के पहले 1925 में हेराल्ड लास्की ने 'अ ग्रामर आफ पालिटिक्स' लिखी थी, जिस पर हम पहले जिक्र कर चुके हैं । यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की संरचना के व्याकरण पर लिखा गया ग्रंथ है । लास्की इसमें संसदीय व्यवस्था में राजनीति और नौकरशाही के पूरे ढाँचे को अपना विषय बनाते हैं । वे अपने विषय में इस मूलभूत प्रस्थापना के साथ प्रवेश करते है कि राजशाही के बजाय जनतंत्र का अर्थ है राजा के हितों की रक्षा के लिये एक शासन व्यवस्था के बजाय जनता के हितों की रक्षा के लिये शासन व्यवस्था ।
शासन की इस नई संरचना की परेशानी तब शुरू होती है जब किसी भी बड़े संघर्ष के बाद राजशाही तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन उसकी जगह जनता के हितों को साधने वाली व्यवस्था की संरचना तैयारशुदा उपलब्ध नहीं होती है । इसे सुचिंतित ढंग से निर्मित करना होता है । हमारे आज के समय के बहुचर्चित दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब पूरी गंभीरता और आवेग के साथ 'डे आफ्टर' ( कल क्या) की बात करते हैं तो उनका संकेत इसी बात की ओर होता है। येन केन प्रकारेण किसी एक को हटा कर दूसरे का सत्ता में आना उतना बड़ा विषय नहीं है, जितना बड़ा प्रश्न यह है कि सत्ता पर आने के बाद क्या? तुनीसिया के बाद मिस्र के काहिरा में तहरीर स्क्वायर (जनवरी 2011) पर लाखों लोगों के उतर जाने से सालों से सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाये बैठी होस्नी मुबारक की सरकार का पतन होगया, अफ़्रीका और मध्यपूर्व की अरब दुनिया में 'अरब वसंत' का प्रारंभ होगया, लेकिन इस विद्रोह की लंबी श्रृंखला के बाद क्या? आज का सच यह है कि अफ़्रीका और पश्चिमी एशिया का यह पूरा क्षेत्र चरम अराजकता, तबाही और साम्राज्यवादियों के हथियारों के परीक्षण का क्षेत्र बन गया है ।
अर्थात, एक विद्रोह मात्र से, सत्ता में परिवर्तन मात्र से सामाजिक जीवन में कोई सुनिश्चित परिवर्तन तय नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन उस शासकीय संरचना के बीच से मूर्त होते हैं, जो विद्रोह के दिन के बाद की एक लंबी रचनात्मक राजनीतिक संस्थागत प्रक्रिया के बीच से तैयार की जाती है ।
भारत से अंग्रेज़ों का चला जाना मात्र हमारी आजादी की रक्षा का कारक नहीं बन सकता था । सन् 47 के बाद तीन साल में हमने अपने गणतंत्र के संविधान को अपनाया और तिल-तिल कर अनेक सांस्थानिक परिवर्तनों के बीच से एक जन-कल्याणकारी राज्य की दिशा में काम शुरू किया । इसके रास्ते में तमाम बाधाएँ आती रही है और उनके संदर्भ में हम आज तक अपनी इस शासकीय संरचना को जनता के हितों की सेवा के लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए उन्नत करने की लड़ाई में लगे हुए हैं ।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के बारे में 9 जजों की बेंच का जो सर्व-सम्मत फैसला सुनाया, उसे इस लगातार जारी प्रक्रिया में हाल के दिनों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हम देख सकते हैं ।
यहां इस चर्चा का मूल विषय है - 'डे आफ्टर' ! लास्की ने जब संसदीय लोकतंत्र की संरचना पर विचार शुरू किया तो इसकी पहली सबसे बड़ी विशेषता या कमज़ोरी, जो भी कहे, यह बताया कि यह एक ऐसे प्रकल्प के प्रारंभ की तरह है जिसमें राजसत्ता को उस जनता के हितों को साधना होता है जो आम तौर पर अपने हितों के प्रति जागरूक नहीं होती, प्राय: अचेत होती है । उसके जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ही उसके विवेक-सम्मत मानसिक विकास में बाधक बनती है ।
इसलिये इन परिस्थितियों में शासन के उस नौकरशाही ताने-बाने का का असीम महत्व हो जाता है जो जन-हितकारी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के जरिये प्रशिक्षित और चालित होते हैं और जनता के हितों को परिभाषित करते हैं । राजनीति और समाज में बौद्धिकों और जागरूक लोगों के इन अक्सर अल्पमत तबक़ों को ही जनतंत्र का नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) कहते हैं ।
पश्चिमी समाजों की जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती गई, आम लोगों में शिक्षा और चेतना का प्रसार होता गया, उसी अनुपात में इस नागरिक समाज का भी, अर्थात अपेक्षाकृत चेतना संपन्न तबक़ों का भी लगातार विकास होता गया है । यह ग़रीबी और पिछड़ेपन के बहुमत वाले समाज के वृत्त से निकल कर समृद्ध और विकसित चेतना के समाज के नये वृत्त में प्रत्यावर्त्तन उन समाजों को एक पूरी तरह से भिन्न आधार पर स्थापित कर देता है, जिसकी पहले के समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । संसदीय लोकतंत्र के आंतरिक विकास के इस नये चरण में शासन की पूरी संरचना अनोखे ढंग से पूर्ण स्वतंत्र और स्वायत्त अनेक सांस्थानिक समुच्चय का नया रूप ले लेती है । आज जिस दिन अमेरिका का 'महाबली' समझा जाने वाला राष्ट्रपति चुन कर सत्ता संभालता है उसी दिन अमेरिकी प्रेस का बड़ा तबका उसके प्रति अपनी खुली शत्रुता की घोषणा करने से परहेज़ नहीं करता । और वहाँ का सुप्रीम कोर्ट उसके पहले आप्रवासन संबंधी प्रशासनिक फैसले को कानून सम्मत न मान कर खारिज करने में देरी नहीं लगाता । इसी का एक परिणाम यह अभी है कि नागरिक समाज और उसकी संस्थाओं के सामने सरकारी नौकरशाही अक्सर एकदम बौनी दिखाई देने लगती है ।
ग्राम्शी जब फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि में ही इन समाजों में समाजवादी क्रांति की समस्याओं पर मनन कर रहे थे, उन्होंने जनतंत्र में इस बढ़ते हुए नागरिक समाज की उपस्थिति के सच को बहुत गहराई से समझा था । और इसीलिये, पश्चिमी समाजों में एक झटके में, किसी क्रांतिकारी प्रहार के जरिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की रूस की तरह की क्रांति को संभव नहीं पाया था । सचाई के उनके इसी अवबोध पर उनके प्रभुत्व (hegemony) के पूरे सिद्धांत की इमारत खड़ी है जिसमें झटके से होने वाली क्रांति और राजसत्ता पर क़ब्ज़े के बजाय वैचारिक संघर्ष की एक लंबी, समाज के नागरिक समाज पर विचारधारात्मक प्रभुत्व कायम करने की लड़ाई पर बल दिया गया था ।
संसदीय जनतंत्र और नागरिक समाज के संबंधों की इस चर्चा की पृष्ठभूमि में जब हम अपने भारतीय जनतंत्र के यथार्थ को देखते है, यहाँ की स्थिति बेहद जटिल और पेचीदा दिखाई देने लगती है । सत्तर साल की आजादी के बीच से यहाँ भी समाज के ऐसे प्राय: सभी हिस्सों में, जिनमें हज़ारों सालों के बीच भी कभी शिक्षा और अधिकार-चेतना की रोशनी का प्रवेश नहीं हुआ था, शिक्षा का किंचित प्रवेश हुआ है और सभी समाजों का अपना एक बौद्धिक समुदाय भी पैदा हुआ है । कुल मिला कर देखने पर भारतीय समाज में ऐसे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके की एक बड़ी जमात को पाया जा सकता है, जो शायद संख्या की दृष्टि से दूसरे किसी भी देश के नागरिक समाज से बड़ी हो सकती है । लेकिन फिर भी, आबादी के अनुपात में, इसका विस्तार इतना कम है कि हम अपने समाज को पश्चिमी समाजों की तरह पूरी तरह से अधिकार चेतना से संपन्न नागरिक समाज नहीं कह सकते हैं । इसीलिये सरकार और नौकरशाही पर अपना निर्णायक दबाव बनाने की दृष्टि से यह अब भी जनतंत्र के बिल्कुल आदिम स्तर पर ही बना हुआ है जिसमें व्यापक जनता, जिसके मतों से सरकारें बना करती है, अपने ख़ुद के हितों के प्रति ही पूरी तरह से अचेत बनी हुई है ।
इसीलिये हमारे यहाँ आज भी '30-'40 के ज़माने तक के यूरोप की वे सारी परिस्थितियाँ मौजूद है जिसमें किसी भी प्रकार से राज सत्ता पर क़ब्ज़ा करके कोई भी शासक गिरोह समाज को मनमाने ढंग से चला सकता है । चुनावों में सांप्रदायिकता और जातिवाद की तरह की भीड़ की आदिम-चेतना की प्रमुखता का मायने यही है कि नये जनतांत्रिक नागरिक समाज में आदिम ग़ैर-जनतांत्रिक समाज के वृत्त का प्रत्यावर्त्तन नहीं हो पा रहा है । और इसीलिये हमारे यहाँ दुनिया में जातीय नफरत से किये जाने वाले जन-संहारों के इतने भयानक अनुभवों के बावजूद फासीवाद-नाज़ीवाद का ख़तरा एक सबसे ज्वलंत सचाई के तौर पर बना हुआ है ।
यहीं पर हम फिर एक बार 'डे आफ्टर' के विषय को विचार के दायरे में लाना चाहते हैं । हमारी आजादी के बाद भारत का शासन जिन ताकतों ने संभाला उनके सामने पश्चिम के पूँजीवादी विकास और संसदीय राजनीति और जनतांत्रिक समाज का एक साफ ख़ाका था । सांप्रदायिकता के आधार पर बँटवारे के बावजूद चूँकि यह नेतृत्व सारी दुनिया में जातीय हिंसा के जघन्यतम रूपों के प्रति जागरूक था, इसने धर्म-निरपेक्षता, भाईचारा और सामाजिक न्याय के रास्ते पर तमाम स्तर पर सांस्थानिक विकास का एक सिलसिला शुरू किया । लेकिन इस नवोदित राष्ट्र के साथ जन्म से सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का जो रोग लग गया था, उससे मुक़ाबले के लिये शिक्षा और चेतना के विस्तार से जिस तेज़ी से नागरिक समाज का विकास करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया । वोट और भीड़ की राजनीति में यह एक सबसे जरूरी काम उपेक्षित रह गया ।
आज तमाम राजनीतिक दलों में, जिनमें दक्षिणपंथियों के साथ ही वामपंथी और मध्यपंथी भी शामिल है, बौद्धिकता का महत्व दिन प्रतिदिन घटता चला गया है । भारत का नागरिक समाज आज राजनीतिक समर्थन से पूरी तरह से वंचित होने के कारण किसी भी समय से कहीं ज्यादा कमज़ोर और लुंजपुंज दिखाई देता है । और यही वजह है कि भारतीय मध्यवर्ग की सूरत पशुवत उपभोक्ता की तरह की ज्यादा दिखाई देने लगती है । शिक्षा और समृद्धि से इनकी मानसिक चेतना का विकास न होने के कारण इनका एक हिस्सा सीधे तौर पर जनता के प्रति एक प्रकार की शत्रुता का भाव रखता है । वह फासीवादी ताकतों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है ।
आज मोदी के नेतृत्व में जो लोग सत्ता पर आए है, उनके पास कोई प्रगतिशील भविष्य दृष्टि नहीं है । जनता के एक बड़े हिस्से का पिछड़ापन ही विरासत में मिली इनकी राजनीतिक पूँजी है । इसीलिये केंद्र और अनेक राज्यों की सत्ता पर आ जाने के बावजूद जब भी ये 'आगे क्या?' की तरह के प्रश्न के सम्मुखीन होते हैं, ये पूरी तरह से ठिठक कर खड़े हो जाते हैं । इन्हें आगे भी गाय, गोबर, गो मूत्र'आदि से अधिक और कुछ नहीं दिखाई देता । ये सांप्रदायिक दंगों और पड़ौसियों से शत्रुता के आधार पर थोथे राष्ट्रवाद से आगे कुछ नहीं सोच पाते हैं । 'डे आफ्टर' के सवाल का कोई भी सकारात्मक समाधान जनतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक समाज के विस्तार से पूरे समाज के आधुनिकीकरण में निहित है । लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी में वे अपने ख़ुद के तात्विक विकास के अंत को देखते है ।
यही वजह है कि मोदी-शाह-आरएसएस सिर्फ ये पाँच साल नहीं, वोट की तिकड़मों के जरिये भले आगे और भी कुछ सालों तक शासन में रह जाएँ , ये इस समाज को गाय, गोबर, गोमुत्र और सांप्रदायिक नफरत से अधिक और कुछ भी देने में असमर्थ है । सच्चे अर्थों में हमारे समाज के आधुनिकीकरण के लिये ये अपनी आत्माहुति के जरिये ही आगे का कोई रास्ता खोज पायेंगे । क्या गालियाँ बकने वाले ट्विटर हैंडलर्स के ज्ञान संदेश पर कान लगाये रखने वाले प्रधानमंत्री के लिये यह कभी भी संभव हो पायेगा ?
एक वित्त मंत्री जिसे आय-व्यय के आँकड़ों को पढ़ना भी नहीं आता !
क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है कि एक देश के वित्त मंत्री को अपनी आय और व्यय के आँकड़ों को सही तरह से पढ़ना नहीं आता है ? लेकिन हमारे वित्तमंत्री अरुण अरुण जेटली के साथ बिल्कुल ऐसा ही है ! जीएसटी कौंसिल की एक बैठक के बाद उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में बताया कि जीएसटी लागू किये जाने के बाद जुलाई के पहले रिटर्न में कुल 95 हज़ार करोड़ रुपये का जीएसटी सरकारी ख़ज़ाने में जमा हुआ है जो उनकी दृष्टि में शुरू के महीनों को देखते हुए यथेष्ट (robust) था । लेकिन अब जो तथ्य सामने आएँ उनसे पता चला कि जीएसटी के खाते में जमा इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में आधी से भी कम राशि वास्तव में सरकार की अपनी आमदनी की राशि है । इनमें से 65 हज़ार करोड़ रुपये व्यापारियों द्वारा जमा करायी गयी एक प्रकार की वह अग्रिम राशि है जिसे वे अपने पास पड़े स्टाक पर अदा किये गये पुराने करों के तौर पर वापस माँग रहे हैं । इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में से 65 हज़ार करोड़ रुपये सरकार पर जीएसटी के जमाकर्ताओं के ऋण की तरह है ।
अब जब से 'उत्पादन शुल्क और आबकारी के केंद्रीय बोर्ड' (सीबीईसी) को और उसके जरिये जेटली को इस बात का पता चला है, इन्होंने इस राशि को अटका कर रखने की वे सभी पुरानी पैंतरेबाजियां शुरू कर दी है, जैसा नोटबंदी के समय देखा गया था । वित्तमंत्री ने निर्देश दिया है कि जिन लोगों ने भी अपने इस 'ऋण' की वापसी का दावा किया है, उन्हें फ़ौरन वापस करने के बजाय किसी न किसी प्रकार से लटकाये रखो ताकि सरकार के सामने यह कोई नयी तत्काल वित्तीय लागत खड़ी न हो जाए । जैसे इन्होंने नोटबंदी से सब लोगों के घरों के रुपये बैंकों में जमा करवा लिये और अभी दस महीनें बीत रहे हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न उपायों से अपने रुपये वापस लेने से रोका जा रहा है, जीएसटी का यह मामला भी ऐसा ही है । जेटली ने सीबीईसी को कहा है कि एक करोड़ से ज्यादा के रिफंड की माँग करने वालों के खातों की कड़ी जाँच करके ही उन्हें उनका रुपया वापस किया जाना चाहिए ।
16 सितंबर 2017 के 'टेलिग्राफ' की रिपोर्ट से पता चलता है कि वित्तीय मामलों में एक कैसे अज्ञ आदमी के हाथ में आज हमारा वित्त मंत्रालय है, जो जनता को और शायद प्रधानमंत्री को भी धोखे में रख कर किसी तरह अपना काम चला रहा है । आज कोई भी मंत्रालय निश्चिंत नहीं है कि उसे बजट के प्रावधान के अनुसार रुपया आवंटित होगा या नहीं ! परिणाम यह है कि सरकारी राजस्व की डॉंवाडोल स्थिति को पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस के दामों में अंधाधुँध वृद्धि करके किसी तरह सम्हाला जा रहा है । इसका जन-जीवन और पूरी अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी भी इन्हें कोई परवाह नहीं है । सुब्रह्मण्यम स्वामी ने बहुत सही कहा है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था की स्थिति बिल्कुल डांवाडोल है । यह हिचकोले ले रही है और अगर फ़ौरन कुछ सही कदम नहीं उठाए गये तो इसके पुर्ज़े-पुर्ज़े बिखर सकते हैं । देखते-देखते न जाने कितने बैंकों का दिवाला पिट जायेगा, कल-कारख़ाने बंद हो जायेंगे और लाखों करोड़ों लोग नये सिरे से बेरोज़गार हो कर सड़कों पर आ जायेंगे, पता नहीं है । स्वामी की इन बातों में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है । इनके संकेतों को सिर्फ मोदी की तरह का एक आत्म- मुग्ध और आर्थिक विषयों में शून्य नेता और जेटली की तरह का पूरी तरह से दुम हिलाऊँ वित्त मंत्री ही नहीं पकड़ सकता है । आम लोग अब बैंकों में अपना पैसा रखने से विरत होने लगे हैं ।
पीएम का अर्थ भी प्रोफेशनल मौरल कीपर (पेशेवर प्रवचक) नहीं होता है ! मोदी की दशा पेशेवर प्रवचनकर्ता की हो गई है । मठार-मठार कर भाषण देना, जो मन में आए, बिल्कुल ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ढंग से झूठ-सच कुछ भी बोलते जाना उनमें एक असाध्य रोग का रूप ले चुका है । प्रवचनकर्ता अपनी किसी बात के लिये जवाबदेह नहीं होता है । मोदी को इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि वे जिस पद पर है, उस पर किसी कोरे उपदेशक और भाषणबाज का कोई काम नहीं है । उनका पद जिम्मेदारी के साथ काम करने का पद है । दुनिया में आज तक कुछ भी थोथे नैतिक प्रवचनों से नहीं बदला है । न व्यक्ति,न समाज और न ही राष्ट्र भी । एक सजे-धजे मंच पर दुल्हे की तरह सज कर आने और कुछ उपदेश झाड़ने से कुछ नहीं बदला जा सकता है । परिवर्तनकारी कामों के लिये सामाजिक जटिलताओं के जिस प्रकार के गहन अध्ययन की जरूरत होती है, मोदी को उसी से सख्त परहेज है । मोदी ने कई बार सरकारी फाइलों और शिक्षा-दीक्षा (हार्वर्ड) के प्रति अपने तिरस्कार के भाव को खुल कर जाहिर किया है ।
जब शासक सचाई से कटा हुआ पूरा सनकी होता है, तुग़लक़ कहलाता है । तुग़लक़ ने मुद्रा की भूमिका को बिना जाने उसके साथ खेल किया था । मोदी जी पूरे तुग़लक़ है । वे भारत में इंटरनेट की सचाई जानते नहीं है, लेकिन अपनी पूरी सरकार को इसी के आधार पर चलाना चाहते हैं । उनके चरित्र की इन भारी कमियों ने आज भारत में हर क्षेत्र में अराजकता पैदा कर दी है, जिसका सबसे अधिक बोझ अंतत: समाज के कमजोर तबके पर ही पड़ता है ।
अधिनायकवाद की आहटें
हिटलर ने अपने बारह साल (1933-1945) के शासन काल में सबसे पहला बीड़ा यही उठाया था कि विपक्ष के सभी दलों को नेस्तनाबूद कर दो । 30 जनवरी 1933 के दिन जब राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने हिटलर को चांसलर पद की शपथ दिलाई, उस दिन को नाजीपार्टी में मास्करग्रोनसोंग (Machtergreifung) अर्थात सत्ता पर क़ब्ज़े के दिन के रूप में मनाया जाता था । इसके बाद हिटलर ने सबसे पहले पूरी नाज़ी पार्टी को अपने क़ब्ज़े में लेने का अभियान चलाया जिसे ग्लेआईशैलटंग (Gleichschaltung), का नाम दिया गया और फिर 27 फ़रवरी 1933 के दिन जर्मनी की संसद राइखस्टाग में आग लगवा कर कम्युनिस्टों पर दोष मढ़ के कम्युनिस्ट नेताओं की गिरफ़्तारी और हिटलर के तूफ़ानी दस्तों के द्वारा उनकी हत्याओं तक का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने बाकी सारी विपक्षी पार्टियों और हिटलर का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने दायरे में लेने में ज़्यादा समय नहीं लगाया । राइखस्टाग में आग के नाम पर एक आदेश जारी किया गया और उसी का प्रयोग करके कम्युनिस्टों और सोशल डैमोक्रेटों के संसद में प्रवेश को रोक कर मार्च 1933 में संविधान में वह संशोधन पारित किया गया जिससे सारी सत्ता अकेले हिटलर के हाथ में सिमट गई । इसके बाद के जर्मनी और दुनिया की बर्बादी का क़िस्सा यहाँ दोहराने ज़रूरत नहीं है ।
वह सारी दुनिया में महामंदी का ज़माना था । उसमें हिटलर ने युद्ध की ज़ोरदार तैयारियाँ शुरू कर दीं, जिससे सुस्त अर्थ-व्यवस्था में थोड़ी जान आई । इसके साथ ही जर्मन जाति की श्रेष्ठता और अन्य सबके प्रति हीनता की भावना का प्रचार शुरू हुआ । और इस प्रकार आम जनता को एक जुनूनी भीड़ में बदल दिया गया था ।
भारत में मोदी के नोटबंदी की तरह के क़दम ने अर्थ- व्यवस्था की कमर तोड़ दी है । अब युद्ध की गर्मी भी पैदा की जा रही है - सत्ता के संपूर्ण केंद्रीकरण के लिये जरूरी आपात स्थिति । यह सब अधिनायकवाद की पैदाइश की जमीन की तैयारी है । राज्य सभा में बहुमत के प्रति इस प्रकार के अतिरिक्त शुद्ध रूप से अनैतिक आग्रह के पीछे इसके सिवाय और कोई वजह समझ में नहीं आती है । इस सरकार का एक भी बिल ऐसा नहीं है जो इस बहुमत के अभाव में लटका हुआ हो । इन्होंने वित्त बिल के रूप में सभी बिलों को राज्य सभा के अनुमोदन के बिना ही पारित करा लेने के एक और ग़ैर-वाजिब तरीक़े को भी पहले से इजाद कर लिया है । ऐसे में राजनीतिक नैतिकता-अनैतिकता की बिना परवाह किये दूसरे दलों को सत्ता के प्रयोग के जरिये नष्ट करने की कोशिशों का और क्या तात्पर्य है !
पूरी तरह से एक नाज़ी राज बनने की जरूरी शर्त है कि येन-केन-प्रकारेण भारत को एक बड़ी क्षेत्रीय सामरिक शक्ति का भी रूप दिया जाए । इसके लिये मोदीजी ने भारत को आज दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर बना दिया है । उनकी इसी कोशिश की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि इसके चलते भारत अमेरिकी दबावों के सामने पहले से ज़्यादा कमज़ोर होता जा रहा है । हम नहीं जानते कि वे अपनी इन तमाम कोशिशों से भारत की पहले से चली आ रही विशेष क्षेत्रीय सामरिक स्थिति में कितना सुधार कर पायेंगे, लेकिन इस बदहवासी में वे भारतीय अर्थ -व्यवस्था के हितों को जो नुक़सान पहुँचा रहे हैं, उसके सामरिक स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव की आशंका से कोई इंकार नहीं कर सकता । इसके साथ ही भारतीय तबाही की दिशा में ढकेल देंगे, मोदी शासन के तीन साल बाद कुछ इसी प्रकार के अशनि संकेत मिल रहे हैं ।
'सौभाग्य' किसका ? ग़रीबों का या पश्चिमी साम्राज्यवादियों का !
मोदी ने ग़रीबों को मुफ्त बिजली देने का एक नया धोखा रचा है । 'सौभाग्य' नाम की इस योजना को रखते वक़्त उन्होंने अपनी सरकार के ग़रीब-प्रेम की लफ्फाजी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । भारत में बिजली की अवस्था का जानकार हर व्यक्ति जानता है कि यह सरासर एक धोखा है । इसमें धोखे की इंतिहा तो तब और साफ हो गई जब मोदी ने बिजली न होने पर सबको सोलर पावर की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही । मोदी-जेटली के ग़रीब-प्रेम के धोखे की सचाई को आज अंधा आदमी भी देख सकता है । बिजली को छोड़िये, यह तो एक चुनावी शोशा है, इनकी असलियत जाननी है तो जरा गहराई से देखिये, इन्होंने जीएसटी में सबसे ज्यादा निशाना किन चीज़ों को बनाया है ?
रोटी, कपड़ा और मकान को । उन चीज़ों को जिनके बिना आदमी जी नहीं सकता है ।
भारत के इतिहास में पहली बार अनाज पर कर लगाया गया है । अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था, उसके प्रतिवाद में पूरा देश उठ खड़ा हुआ था । गांधी जी ने दांडी मार्च और प्रतीकी तौर पर नमक का उत्पादन करके अंग्रेज़ों के उस कर को खुली चुनौती दी थी । मोदी-जेटली ने खाने-पीने की तमाम चीजों पर कर लगा कर उससे कम बड़ा अपराध नहीं किया है । इस मामले में ये अंग्रेज़ों के भी बाप निकले हैं । इसी प्रकार, कपड़े के व्यापार पर भी जीएसटी के रूप में पहली बार कोई कर लगा है । बीच में एक बार तैयारशुदा कपड़ों पर पिछली एनडीए सरकार ने उत्पाद-शुल्क लगाया था जिसे उसे बाद में वापस लेना पड़ा था । इन्हीं कारणों से जीएसटी के खिलाफ देश भर के अनाज और कपड़ा व्यापारी लगातार आवाज उठा रहे हैं । यह कर भारत के प्रत्येक आदमी से वसूला जायेगा, भले वह अमीर हो या ग़रीब । इसी प्रकार मकान का भी विषय है । रीयल इस्टेट के नाम से बदनाम इस क्षेत्र का बोझ भी हर आदमी पर पड़ेगा । और सर्वोपरि, तेल और रसोई गैस के दामों में मनमानी वृद्धि । इसके बारे में अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है ।
ये वे बुनियादी कारण है जिनके कारण भारी मंदी में फँस चुकी अर्थ-व्यवस्था में भी महँगाई अर्थात मुद्रा-स्फीति की बीमारी भी दिखाई दे रही है । इनके विपरीत, इस सरकार ने लग्ज़री की चीज़ों पर कर कम किया है । जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की चीज़ों से अधिकतम कर वसूली की नीति पर चलने वाली एक सरकार अपने को ग़रीब-हितैषी बताए, इससे बड़ा ढकोसला और क्या हो सकता है ! इन करों से ही यह भी पता चलता है कि मोदी सरकार ने अर्थ-व्यवस्था का जो भट्टा बैठाया है, उसके सारे बोझ को वह भारत के ग़रीबों पर लाद दे रही है ।
मोदी की नोटबंदी के कारण जीडीपी में लगातार गिरावट से सामान्य आर्थिक गतिविधियों से कर वसूलने की इनकी क्षमता बुरी तरह से कम होती जा रही है । अब वे सीधे ग़रीबों पर डाका डाल कर इसकी कमी को पूरा कर रहे हैं । और, सबसे मजे की बात यह है कि इनके सारे भक्त इस प्रकार ग़रीब जनता से वसूले गये राजस्व को मोदी-जेटली जुगल जोड़ी की आर्थिक नीतियों की सफलता बता रहे हैं ! जिस बिबेक देबराय ने नोटबंदी के समय कहा था कि इससे 2 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आयेंगे और कालाधन पर कर से अतिरिक्त 50 हज़ार करोड़ का आयकर वसूला जा सकेगा, ऐसा गप्पबाज अर्थशास्त्री अब प्रधानमंत्री का प्रमुख आर्थिक सलाहकार बन गया है । कोई भी अनुमान लगा सकता है, आगे और क्या-क्या होने वाला है ।
अभी विश्व अर्थ-व्यवस्था का वह काल चल रहा है जब 'पहले अमेरिका' का नारा दे रहा डोनाल्ड ट्रंप हर संभव कोशिश करेगा कि वह अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में निवेश को बढ़वाये । इसके लिये वह अपने यहाँ ब्याज की दरों को बढ़ायेगा जो वहाँ अभी लगभग शून्य के स्तर पर चल रही है । अमेरिका में ब्याज की दरों में वृद्धि भारत से विदेशी पूँजी के पलायन का रास्ता खोलेगी, जिसके बल पर मोदी सरकार अभी तक किसी तरह अपना काम चला पा रही है । देबराय घोषित रूप से विदेशी पूँजी का भक्त अर्थशास्त्री होने के नाते वह मोदी को ऐसी हर सलाह देगा जिससे भारत की तमाम संपत्तियाँ, इसके कल-कारख़ाने, खदान और कच्चा माल विदेशियों के हाथों बिक जाए । भारत के तेज़ी से गिर रहे जीडीपी को अब बढ़ाना किसी के वश का नहीं रह गया है, जब तक नोटबंदी के कुप्रभावों के साथ ही जीएसटी की अराजकता और तेल पर ज्यादा से ज्यादा कर के जरिये सरकार के चालू वित्तीय घाटे को पूरा करने की परिस्थिति ख़त्म नहीं होती है । इसीलिये देबराय हो या दूसरा कोई आर्थिक सलाहकार, मोदी ने जो अराजकता पैदा कर रखी है, उसे बिना विदेशी पूँजी की सहायता के सम्हालना किसी के लिये मुमकिन नहीं होगा ।
और, सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि मोदी के राजनीतिक डीएनए में विदेशियों को अपना सब कुछ लुटा देने की नीति के प्रतिरोध की कोई क्षमता नहीं है । वे भले सभी पर राष्ट्र-विरोधी होने का तक्मा लगाते रहे, लेकिन सचाई यही है कि आरएसएस और उनकी राजनीति का जन्म ही विदेशी शासकों की दलाली के बीच से हुआ है ।
और, इस प्रकार आने वाला समय अर्थ-व्यवस्था में ऐसे असंतुलन का समय होगा जब भारत की आर्थिक सार्वभौमिकता पूरी तरह से दाव पर लगी हुई दिखाई देगी । मोदी जी अचकन पहन कर पश्चिम के नेताओं से जितनी ज्यादा गलबहिया करते दिखाई देंगे, भारत पर उतनी ही ज्यादा उनकी जकड़बंदी बढ़ती जायेगी । देबराय इस काम में जरूर मोदी के सहयोगी बनेंगे । सच कहा जाए तो मोदी आज भारत में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के दूत का काम कर रहे हैं । और ये अपने को ग़रीब-हितैषी बता रहे है !
प्रधानमंत्री ने इस बीच एक डींग हांकी कि जीडीपी की तुलना में नगदी का अनुपात नोटबंदी के बाद 12 प्रतिशत से घट कर 9 प्रतिशत हो गया है । उनसे हमारा सवाल है कि क्या वे इस तथ्य का असली मायने जानते हैं ? बाजार में जितनी भी नगदी होती है, वह एक प्रकार से आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी होती है । इसके घटने और इस पर जीडीपी की तुलना में विचार करने का मतलब है कि जीडीपी अर्थात देश के सकल उत्पादन के मूल्य की तुलना में आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी कम हो गई । इसमें सबसे बड़ा सवाल उठता है कि यह कैसे कम हुई है ? क्या उत्पादन को बढ़ा कर, अर्थात सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य बढ़ा कर यह हासिल किया गया है ?
नहीं । इसे खुद उन्होंने स्वीकारा है कि जीडीपी में गिरावट आई है । तब जीडीपी/नगदी अनुपात में कमी का एक मात्र कारण यह है कि सरकार ने आम लोगों के पास की नगदी को जबर्दस्ती बैंकों में रखने के लिये मजबूर किया है, अर्थात जबर्दस्ती उनसे छीन कर अपने पास जमा कर लिया है । नोटबंदी के ऐन समय में तो यह अनुपात 7.5 प्रतिशत से नीचे चला गया था। अब बढ़ते-बढ़ते 9 प्रतिशत हुआ है । यह तब है जब बाजार में अब भी नगदी के प्रवाह को नाना उपायों से रोका जा रहा हैं । जैसे-जैसे ये बाधाएं कम होगी, यह अनुपात फिर पुराने स्तर, बल्कि उससे भी अधिक हो जाए तो इसमें कोई अचरज नहीं होगा । वैसे एक प्रकार से बैंकों में जमा लोगों के रुपये भी तो एक प्रकार की नगदी ही है । प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया है कि अपने आंकड़ों में उन्होंने बैंकों में जमा राशि को भी पकड़ा है या नहीं । इसीलिये जब प्रधानमंत्री आज मंदी की परिस्थिति में आम लोगों के सामने जीडीपी और नगदी के अनुपात में गिरावट के आंकड़े पर डींग हांकते हैं, तब वे सीधे तौर पर आम लोगों को अपमानित करते हुए यह कह रहे होते हैं कि देखो, हमने तुम्हें कैसा बुद्धू बनाया, हम कितनी आसानी से तुम्हारा रुपया मार कर बैठ गये हैं या कितनी आसानी से हमने तुम्हारी कमाई के एक हिस्से को जबर्दस्ती मिट्टी में बदल दिया है !
जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट के अनुमान का सिलसिला जारी है । इसकी सालाना दर 7.3 से गिर कर 6.7 प्रतिशत हो जायेगी । यह अनुमान और किसी ने नहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर ने दिया है । मजे की बात यह है कि जिस दिन गवर्नर ने यह अनुमान दिया उसी दिन मोदी जी रिजर्व बैंक के इस अनुमान का ग़लत आँकड़ा पेश करते हुए कहा है कि यह 7.1 प्रतिशत से बढ़ कर 7.7 प्रतिशत हो जायेगा ! इसके साथ ही महँगाई में वृद्धि का सिलसिला जारी है : 4.2 प्रतिशत से बढ़ कर 4.6 प्रतिशत हो गई है।
आजादी के इन सत्तर साल में पहली बार, मोदी के तुगलकी शासन की बदौलत, भारत में रोज़गारों में वृद्धि तो दूर की बात, उनमें कमी आई है । 2013-14 से लेकर 15-16 के बीच लाखों लोग रोजगार गँवा चुके हैं । ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वकीली’ के 23 सितंबर के अंक में विनोज अब्राहम के इस अध्ययन को पढ़िये । यह किसी भी सरकार के लिये डूब मरने की बात है । मोदी अकेले इसी अपराध के कारण सत्ता पर रहने के नैतिक अधिकार को गँवा चुके हैं । सरकार में आ कर एक भी आदमी को नौकरी देना तो दूर की बात, ये सीधे तौर पर नौकरियाँ छीन रहे है ।
“Employment growth in India slowed down drastically during the period 2012 to 2016, after a marginal improvement between March 2010 and March 2012, according to the latest available employment data collected by the Labour Bureau. There was an absolute decline in employment during the period 2013–14 to 2015–16, perhaps happening for the first time in independent India. The construction, manufacturing and information technology/business process outsourcing sectors fared the worst over this period.”
कुल मिल कर इन तथ्यों का मतलब है कि जनता का दरिद्रीकरण तेज़ गति से जारी है । और मोदी के पास इससे निपटने के लिये बड़ी -बड़ी बातों और थोथे संकल्पों के अलावा कुछ नहीं है । नगदी/जीडीपी अनुपात में गिरावट भी इसी बात का द्योतक है जिस पर हमारे प्रधानमंत्री को बेहद गर्व है ! उनका छप्पन इंच का सीना गर्व से फूल कर अभी शायद साठ इंच का हो गया है ! आम जनता को कंगाल बनाने के कर्तृत्व पर यह कैसा घमंड !
मोदी की मुद्रा-ग्रंथी
मोदी जी अक्सर मुद्रा के बारे में चर्चा करते हुए बेहद उत्साही दिखाई देते हैं । हमने रुपये का रूप बदल दिया ; हजार के नोट को बंद करके दो हजार और दो सौ के नये नोट जारी कर दिये ; पांच सौ और पचास के नोटों को चमका दिया । इसके अलावा उनकी उपलब्धता में भी कमी कर दी । इस विषय पर प्रधानमंत्री के उत्साह को देख कर ऐसा लगता है जैसे मुद्रा महज मुद्रा नहीं, पूरी अर्थ-व्यवस्था का पर्याय हो ! मुद्रा के रंग-रूप अर्थात उसकी शक्ल-सूरत में ही किसी देश की समृद्धि और गरीबी के सारे राज छिपे हुए हो ! वह जितनी सुंदर होगी और जितनी विरल होगी और सर्वोपरि यदि वह ईश्वर की तरह अमूर्त, अदृश्य होगी तो फिर तो कहना ही क्या ! वह ईश्वरीय सत्ता की तरह सारे ब्रह्मांड पर राज करेगी ।
प्रधानमंत्री समझते है कि अर्थ-व्यवस्था को टन-टनाटन करने, एकदम चमका देने का इससे अच्छा और क्या रास्ता होगा ! लोग सुंदर और नये-नये नोटों को हसरत भरी नजरों से निहारेंगे, अमूर्त मुद्रा (कैशलेस) की पूजा करेंगे — बस सबके चेहरे चमकने लगेंगे ! जीवन में अर्थशास्त्र की इससे इतर और बेहतर भला क्या भूमिका हो सकती है ! स्वच्छता से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा, जन-कल्याण के सभी मामलों में जब कोरे प्रचार से काम चल जाता है, तब फिर अर्थशास्त्र में यह प्रतीकात्मकता क्यों नहीं चलेगी ! प्रधानमंत्री इसीलिये मुद्रा के विषय में आंखें टमकाते हुए जितना मठार-मठार कर बोला करते हैं, उनकी खुशी और उनका चमकता हुआ चेहरा सचमुच देखते बनता है ! मुद्रा के ऐसे महात्म्य के उनके बखानों को सुन कर मानना पड़ता है कि कोई माने या न माने, वे वास्तव में विश्व गुरू हैं । अपने मंत्रों से विनिमय के काम में आने वाले इस मामूली औजार को उन्होंने अर्थनीति का पर्याय बना डाला ।
मन में सवाल आता है कि प्रधानमंत्री ने इन मंत्रों को किस गुरू की सोहबत से सीखा ? क्या यह मनि लांड्रिंग करने वालों की शागिर्दी का परिणाम है कि उन्हें मुद्रा का व्यापार ही दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार दिखाई देने लगा है ? हाल में ही अडानियों की बेइंतहा मनि-लांड्रिंग के बारे में ढेर सारे तथ्य सामने आ रहे हैं । क्या कहा जाए एक देश के प्रधानमंत्री के अर्थनीति के बारे में इस 'महाज्ञान' को ?
जीएसटी के साथ मोदी का डूबना तय है
यह तो साफ है जीएसटी मूलतः भारत के संघीय ढांचे की नींव को कमजोर करने वाली एक कर-प्रणाली है । दुनिया के कई देशों में ऐसी एक केंद्रीभूत कर प्रणाली होने पर भी भारत में कर लगाने और उनकी उगाही के मामले में केंद्र के साथ-साथ राज्यों की सापेक्ष स्वायत्तता की चली आ रही प्रणाली यहां पूरी तरह सफल रही है और इसने राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने में भी अपनी एक भूमिका अदा की है।
फिर भी, किसी भी राज्य के लिये करों में सुधार उसके विवेचन का एक स्थायी विषय होने के नाते, बाज हलकों में हमेशा इस विषय में भी कुछ हट कर करने की धुन सवार रहती है । इसके मूल में राजस्व में किसी प्रकार की कमी के बिना कर के ढांचे को सरल बनाने का सोच काम करता है । इसे कर प्रणाली को उसकी अपनी बाधाओं से मुक्त करके सरल, विस्तृत और प्रभावी बनाने का एक स्वाभाविक उपक्रम भी कहा जा सकता है ।
लेकिन भारत में केन्द्रीकृत शासन की सबसे बड़ी पैरोकार भाजपा का जीएसटी की तरह की एक केंद्रीभूत कर-प्रणाली की ओर हमेशा अतिरिक्त आकर्षण रहा है । इसीलिये जीएसटी के बारे में हमारे यहां सोच की शुरूआत भी सन् 2000 में हुई, जब केंद्र में वाजपेयी के नेतृत्व की एनडीए सरकार थी । आज यह साफ नजर आता है कि इस विषय का सबसे खराब पहलू यह रहा कि वाजपेयी ने इसके लिये जिस उच्च क्षमतावान कमेटी का गठन किया था, उसके अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री असीम दाशगुप्त को चुना और वामपंथ ने इसे स्वीकार भी लिया । असीम दाशगुप्त ने शुद्ध रूप से एक कर अधिकारी के पेशेवाराना अंदाज में इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया । इसके राजनीतिक पहलू की पूरी तरह से उपेक्षा की गई ।
बाद में यूपीए सरकार के काल में भी लंबे दस सालों तक इस पर चर्चा जारी रही । सर्व-सम्मति से इसका एक मसौदा तैयार किये जाने के बावजूद इस पर अमल के मामले इस कमेटी को इतने प्रकार की दिक्कतें दिखाई देने लगी कि उस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका । अब तक चली आ रही एक कर प्रणाली को पूरी तरह से एक नई कर प्रणाली से स्थानांतरित करना किसी को भी आसान काम नहीं लगा था । देखते-देखते चौदह साल बीत गये । जीएसटी महज चर्चा का विषय ही बना रहा, इसे अमल के लायक व्यवहारिक रूप देना मुमकिन नहीं हो पाया ।
इसके बाद ही, सन् 2014 में महाबली मोदी जी सत्ता पर आ गए । इनके लिये दुनिया का कोई काम कठिन नहीं था, बस 'संकल्प' लेने की जरूरत थी ! ये फाइलों से, विषय की बारीकियों के अध्ययन से नफरत करने के संस्कार के साथ आए थे, जो दरअसल किसी के भी महाबली होने की एक बुनियादी शर्त भी होती है ! 2014 से 2016 तक के दो साल तो महाबली ने दुनिया की सैर करने की अपनी दमित इच्छा को पूरा करने में गुजार दिये । फिर 2016 के अंत में उन्हें देश का होश आया और वे चुटकियों में इस देश की सब समस्याओं का इलाज कर देने के काम में लग गये । 2016 के नवंबर में नोटबंदी की । वह काम क्यों किया, इसे वे खुद आज तक किसी को साफ शब्दों में नहीं बता पाये हैं । हर बीतते दिन के साथ हमने नोटबंदी के उद्देश्यों के बारे में उनकी नयी-नयी बातों को सुना । भारी तूफान उठा, लोग मर गये, करोड़ों कंगाल हो गये, अर्थ-व्यवस्था ठप हो गयी । और जो कुछ होता गया, मोदी जी प्रकारांतर से उसे ही अपना उद्देश्य बता कर हंसते चले गये !
खैर, आज जब हम इस पर बात कर रहे हैं, नोटबंदी ने भारत को सिवाय बर्बादी के और कुछ नहीं दिया है, इसे मोदी के कुछ खास भोंपुओं के अलावा हर कोई एक स्वर में स्वीकारता है । नोटबंदी के झटके अभी चल ही रहे थे कि मोदी ने बिना कुछ सोचे-समझे, दूसरा उससे भी घातक कदम उठा दिया । जीएसटी को जैसे-तैसे लागू करा दिया । जो बात 17 सालों से अटकी हुई थी, मोदी ने चुटकी बजा कर उसे अमली जामा पहना दिया । 30 जून की रात के बारह बजे संसद का एक विशेष सत्र आयोजित करके भारी आडंबर के साथ इसे इस प्रकार लागू किया गया मानो यह भारत की एक और आजादी की घोषणा की रात हो !
अब जीएसटी को लागू किये लगभग तीन महीने बीत गये हैं, फिर भी एक आदमी यह नहीं कह सकता है कि यह वास्तव में लागू हो गया है ! पहले की अप्रत्यक्ष कर-प्रणाली खत्म हो गई लेकिन उसकी जगह प्रकृत अर्थ में नई कर प्रणाली लागू नहीं हुई है ! इससे कोई भी अनुमान लगा सकता है कि यह भारतीय राज्य की राजस्व प्रणाली के साथ कितना बड़ा मजाक चल रहा है । जल्दबाज़ी में इन्होंने मूल मसौदे को बेहद जटिल बना दिया था । 2013 तक भी इसका मूल मसौदा बहुत सरल और दुनिया के दूसरे देशों में जीएसटी के अनुरूप था । लेकिन इन्होंने हड़बड़ी में, जिसने जो राय दी, उसे स्वीकार कर लागू कर दिया । नाना मुनियों ने मिल कर इस खेल को बिगाड़ा दिया ।
आज इस सरकार के पास जीएसटी को वसूलने की कोई प्रभावी निष्छिद्र व्यवस्था नहीं है और करदाताओं के पास भी यह कर चुकाने की सही जुगत नहीं है । सरकारी खजाने में रुपये जमा तो किये जा सकते हैं, लेकिन इसमें इनपुट क्रेडिट नाम की जो चीज है, जिससे सरकार को उनको रिफंड करना है, उसका कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है । ऊपर से सभी राज्य सरकारें अपने खर्च चलाने के लिये पूरी तरह से केंद्र सरकार की मुखापेक्षी हो गई है । अभी से, जब राजस्व में कोई कमी नहीं आई है, राज्य सरकारें अपने संकट के ताप को महसूस करने लगी है । आगे के संकेत साफ तौर पर राजस्व में गिरावट की बात कह रहे हैं । इसीलिये सबको अपना भविष्य अंधेरे में दिखाई पड़ रहा है ।
कहना न होगा, इन तीन महीने में ही जीएसटी को लेकर वे सारी समस्याएँ सर उठाने लगी है जिनकी हमें शुरू से चिंता थी । केंद्र और राज्यों के बीच तनाव के भी संकेत मिलने लगे हैं क्योंकि आशा के अनुरूप राजस्व न आने के कारण राज्यों को यह डर सताने लगा है कि केंद्र क़रार के अनुसार उन्हें उनके हिस्से की राशि देगा या नहीं । पंजाब सरकार ने तो अभी से अपना रोना शुरू कर दिया है । अभी से जीएसटी रिटर्न को भरने की अलग-अलग समय सीमाएँ तय करने की बात की जाने लगी है जिससे कई नई जटिलताएँ पैदा होगी । ख़रीदार और विक्रेता व्यापारियों के रिटर्न का मिलान न हो पाने के कारण व्यापारियों को मिलने वाले इनपुट क्रेडिट की राशि को निर्धारित करना असंभव हो जायेगा, जो पूरी जीएसटी प्रणाली के लिये किसी मौत की घंटी से कम बात नहीं होगी ।
जीएसटी के चलते आने वाले दिनों में भारत सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर सारी दुनिया के सामने उसकी जो फ़ज़ीहत होने वाली है, इसकी आज कल्पना करके सिहरन होती है । इसका कुल राजस्व संग्रह पर इतना बुरा प्रभाव पड़ेगा कि यह जल्द ही 'जैनरल स्ट्राइक आफ टैक्सेस' (करों की आम हड़ताल) कहलाने लगेगा । देश के कोने-कोने से इसके खिलाफ तीव्र प्रतिवाद के स्वर उठने लगे हैं । रिटर्न भरने की दर में भी गिरावट के संकेत मिल रहे हैं । अब यह पूरे निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि जीएसटी को वर्तमान संरचनात्मक कमज़ोरियों के साथ ढोना किसी सरकार के वश में नहीं है। यह हमेशा सरकार के गले में अटकी हड्डी ही रहेगा। मोदी का तो इसके साथ डूबना तय है।
मोदी पीएम नहीं, शुद्ध इवेंट्स मैनेजर हैं । जीएसटी लगाते वक्त वे उस पर नहीं, संसद में आधी रात के भूतों वाले फंक्शन में मशगूल थे । वे किसी भी क़ीमत पर गुजरात में हारना नहीं चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि गुजरात में हारने का मतलब होगा केंद्र में भी हार जाना । इसीलिये उन्होंने जीएसटी में दरों में फेर-बदल का ऐसा पैंडोरा बाक्स खोल दिया है जो इस पूरी स्कीम के भविष्य पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगा देता है । जीएसटी कौंसिल की हाल की बैठक के निर्णयों के आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें सभी पक्षों के बीच भारी खींच-तान हुई । गुजरात ने खाखरा और जवाहरातों पर जीएसटी कम करवा लिया, तो बंगाल ने जरी के काम पर तो और राज्यों ने किसी और उत्पाद पर । इस प्रकार, जीएसटी में निहित कर संबंधी अखिल भारतीय दृष्टि की धज्जियाँ उड़ गई, जिस पर संसद में आधी रात को ‘एक देश एक कर’ के नाम पर उत्सव मना कर न जाने कितनी बड़ी-बड़ी बातें कही गई थी ! अरुण जेटली जिस प्रकार जीएसटी की पूरी स्कीम को नये रूप में सज़ा कर पेश कर रहे हैं, उससे जटिलताएँ कितनी कम होगी, इसे तो भगवान जाने । लेकिन यह साफ है कि पहले जो किया गया था, वह सुचिंतित क़दम नहीं था, इसे सरकार ने स्वीकार लिया है ।
दरअसल, जीएसटी के साथ यह जो घटित हो रहा हैं, यही होना स्वाभाविक था । इस पूरी स्कीम का अंजाम बहुत डरावना लगता है ।
भक्तमंडली का नया नारा होगा - काला धन ज़िंदाबाद !
भारत में 1 जनवरी 2016 से ही पचास हज़ार के ऊपर के हर लेन-देन के लिये पैन नंबर जरूरी हो गया था । कहा गया था कि यह काला धन को रोकने की दिशा में एक महान कदम है । लेकिन दो साल नहीं बीते, मोदी ने इसकी उल्टी दिशा में यात्रा शुरू कर दी है । अर्थात पहले काला धन पर रोक की दिशा में जो कदम उठाया गया था, अब उसे वापस लेकर काला धन को खुल कर खेलने देने की दिशा में कदम बढ़ा दिये गये हैं । इसमें सबसे पहले उन्होंने सोना और जवाहरात के क्षेत्र को चुना है । सब जानते हैं, काला धन को दबा कर रखने का यह एक परंपरागत बदनाम क्षेत्र है । यहाँ तक कि जौहरियों को मनि लौंड्रिंग कानून के दायरे से ही बाहर कर दिया गया है । एक वाक्य में कहे तो जवाहरात के व्यापार को काला धन का घोषित अभयारण्य बना दिया गया है ।
पेंडुलम की तरह एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोलना, अर्थात एक अति से दूसरी अति तक जाना मोदी की मूल प्रकृति है । इसीलिये, जिसका शिकार करने निकले थे, अब उसी के रक्षक बन गये हैं । जौहरियों को मनि लौन्ड्रिंग कानून से घोषित रूप में छूट देकर बाकी सभी व्यापारियों को भी संदेश दिया गया है कि तुमको तो यह छूट पहले से ही हासिल है । विदेशों से काला धन लाने की बात को तो इन्होंने पहले ही जुमला घोषित कर दिया था ।
अब एक सवाल यह भी उठता है कि काला धन के प्रति मोदी-जेटली में पैदा हुई इस नई प्रीति का असली राज क्या है ? अर्थ-व्यवस्था की हालत ख़स्ता है । निजी पूँजी के निवेश का भारी टोटा पड़ रहा है । ऐसे में इस जुगल जोड़ी को लगता है कि अर्थनीति के ककहरे के पहले अक्षर का यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि धन का रंग काला हो या गोरा, जब वह अर्थ-व्यवस्था में निवेशित होता है तो उसका एक ही रंग होता है, जिसे ‘पूँजी’ कहते है । पूंजी है, तभी मुनाफ़ा है और तभी उससे मिलने वाला राजस्व । चतुर शासक की नज़र मुनाफ़े से कर वसूलने पर लगी होती है ।
लेकिन यहाँ भी फिर एक बार इनका रास्ता ग़लत दिशा से शुरू हुआ है । इन्होंने काला धन को सोने और गहनों में खपाने का रास्ता खोल कर उसे पूँजी के बजाय मिट्टी में बदलने का रास्ता अपनाया है । बहरहाल, यह तय है कि इस दिवाली का उत्सव मोदी और उनकी भक्त मंडली काला धन रूपी लक्ष्मी की पूजा-अर्चना के भव्य आयोजनों से मनायेंगे । भक्तमंडली का नया नारा होगा - काला धन ज़िंदाबाद !
जीएसटी पर नोटबंदी की तरह ही नित नई अधिसूचनाएं, इसके वैसे ही अंजाम के संकेत हैं ।जीएसटी का अपने मूल उद्देश्य में फ़ेल होना तय है । जीएसटी फ़ेल होने का मतलब राज्य सरकारें मर्ज़ी से जीएसटी की दरें तय करेगी और केंद्र-राज्य के बीच कर के बँटवारे पर सौदेबाज़ी होगी।
क्या प्रधानमंत्री पद से मोदी की विदाई 2019 के पहले ही नहीं हो जायेगी ?
पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में मोदी अपने चिर-परिचित, हाँकते जाने के अंदाज में बोल रहे थे । अपना दुर्भाग्य कहूँ या पता नहीं क्या कहूँ, मैं उसे ऑनलाइन ‘इकोनोमिक टाइम्स’ के वेबसाइट पर सुन रहा था । चारों ओर से ढेर सारे लोग उनके भाषण पर तत्काल प्रतिक्रियाएँ दे रहे थे । प्रधानमंत्री के भाषण पर लोगों का एक हिस्सा जहाँ उनके फेंकूपन पर स्वाभाविक तंज कस रहा था, वहीं एक हिस्सा इतनी गंदी भाषा का प्रयोग कर रहा था, जिसको कभी दोहराया नहीं जा सकता हैं । उनकी बातों को हूबहू मोदी-शाह के ट्रौल उद्योग के उत्पादों का ही एक प्रतिरूप कहा जा सकता हैं । जो काम भाजपा अब तक संगठित रूप से करती रही है, उसे ही आम लोगों ने अपने गहरे असंतोष को जाहिर करने की भाषा के तौर पर जिस प्रकार अपनाया हैं, यह उस पुरानी कहावत को ही चरितार्थ करता है कि सद्गुण बड़ी मुश्किल से अपनाये जाते हैं, लेकिन दुर्गुणों को अपनाने में लोगों को जरा भी देर नहीं लगती ।
बहरहाल, एक बात क्रमश: साफ हो रही है कि नरेन्द्र मोदी आज भारत में शासकीय राजनीति से जुड़ी तमाम बुराइयों के एक प्रतीक बनते जा रहे हैं । लोगों से झूठे वादे करना, अपनी पसंद के चंद बड़े लोगों को लाभ पहुँचाना और आम लोगों से नफरत करना, उन्हें दरिद्र से दरिद्रतर बनाने में जरा सा भी न हिचकिचाना, अपने रुतबे को कायम रखने के लिये आम लोगों को स्थायी डर और आतंक के माहौल में रखना, जनता की एकता को तोड़ना और भाई-भतीजा वाद - नरेन्द्र मोदी में ये सब बुराइयाँ पूरी तरह से मूर्त दिखाई देती है । मोदी राजसत्ता के सभी घटक, नौकरशाही, न्यायपालिका, सेना-पुलिस, चुनाव आयोग और मुद्रा एवं राजस्व संस्थानों की स्वायत्तता के लिये आज एक खुली चुनौती बनते जा रहे हैं ।
चूँकि आज भाजपा मोदी पार्टी है, इसलिये वह जीए या मरे, मोदी के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है । अन्यथा सच यह है कि आज किसी भी कार्यक्रम में मोदी की उपस्थिति ही आम लोगों में एक प्रकार की वितृष्णा के भाव को पैदा करती है । लोगों को उनके भाषण, हाथ लहराने तथा आँखें मटकाने वाली मुद्राएँ जहर की तरह लगने लगी है । अभी 2019 में देरी है । पता नहीं, इतनी सख़्त नफरत के साथ 2019 तक लोग कैसे प्रतीक्षा करेंगे । गुजरात में भाजपा की बुरी हार के बाद ही भारतीय राजनीति का पूरा दृश्यपट उलट-पुलट जायेगा । मोदी-शाह की विदाई के लिये संभव है 2019 तक की प्रतीक्षा न करनी पड़े ।
गुजरात में विकास सचमुच पागल हो गया है, उसे होश में लाने का समय आ चुका है
राहुल गांधी ने मोदी के तथाकथित गुजरात मॉडल को पूरी तरह से ठुकराते हुए वहाँ के ‘पागल हो गये विकास’ को सुधारने का वादा किया है । इस पर मोदी के सिपहसलार अमित शाह ने गुर्राते हुए कहा हैं कि राहुल की इतनी हिम्मत कि गुजरात में मोदी के अवदान पर सवाल उठाए ! सचमुच हम जानना चाहते हैं कि गुजरात में मोदी का कौन सा ऐसा मौलिक अवदान है जिसके लिये उन्हें सराहा जा सकता है ?
1. गुजरात में कृषि क्षेत्र में खास तौर पर सहकार के आधार पर दूध क्रांति का पूरा श्रेय कांग्रेस के शासन को जाता है । अमुल का जन्म भाजपा के शासन में नहीं हुआ है । 2. गुजरात में रिलायंस का पेट्रोकेमिकल्स प्रकल्प सीधे तौर पर धीरू भाई अंबानी को इंदिरा गांधी की भेंट रहा हैं । हम उस इतिहास के साक्षी है जब लाइसेंस-परमिट राज के दिनों में इन्दिरा गांधी ने सीमाई प्रदेश की थोथी दलील पर हल्दिया में पेट्रोकेमिकल्स को अनुमति नहीं दी थी और इस क्षेत्र में रिलायंस की इजारेदारी को संरक्षण दिया था । 3. गुजरात का परवर्ती औद्योगिक विकास पेट्रोकेमिकल्स के एंसीलियरी प्रकल्पों के जरिये ही हुआ । यहाँ तक कि टैरीकॉटन के सर्टिंग सूटिंग के कारख़ानों की श्रृंखला और सूरत का साड़ी उद्योग भी उसी से जुड़े उत्पादों के रूप में कांग्रेस के ज़माने में ही फैल गया था । 4. जहाँ तक अहमदाबाद के कपड़ा उद्योग का सवाल है, उसके विकास के समय तक तो भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था । 5. यहाँ तक कि समुद्री तट पर शिप-ब्रेकिंग का काम भी कांग्रेस के ज़माने में जिस तरह फला-फूला, उसमें इधर गिरावट ही आई है । 6. हीरों की कटिंग का काम भी भाजपा के जन्म के पहले से चल रहा है ।
और जहाँ तक गुजरात को मोदी की देन का सवाल है :
1. उनका सबसे बड़ा योगदान गोधरा कांड की आड़ में 2002 का मुसलमानों का जन-संहार रहा है, जिसके बदनुमा दाग को गुजरात कभी नहीं धो पायेगा । इस जन-संहार से गुजराती समाज में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, मोदी ने सिर्फ उसी की राजनीतिक फ़सल काटी है, किसी विकासमूलक काम की नहीं । 2. जहाँ तक विकास के काम का सवाल है, इवेंट्स मैनेजर मोदी ने हर साल ‘रिसर्जेंट गुजरात’ के भव्य आयोजनों और लंबी-चौड़ी भाषणबाजियों के अलावा यह किया कि किसानों की ज़मीन को छीन-छीन कर अपने क़रीबी उद्योगपतियों के बीच मुफ्त में बाँट दिया । अडानी और टाटा को तटवर्ती मुंद्रा इलाक़े में बिजली प्रकल्पों के लिये हज़ारों एकड़ ज़मीन लगभग मुफ्त में दी और आज उन दोनों बिजली प्रकल्पों की हालत इतनी ख़स्ता है कि वे गुजरात सरकार से राहत के पैकेज माँग रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी ख़ज़ाने से उनको धन सौंपने पर रोक लगा दी है, वर्ना मोदी जी तो इसकी हरी झंडी दिखा चुके थे । अडानी को रीयल इस्टेट के लिये कौड़ियों के दाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन दिला दी । और सिंगुर से टाटा को भगा कर नैनो के लिये जो हज़ार एकड़ से ज्यादा ज़मीन दी, वह कारख़ाना आज बंद सा पड़ा है । 3. इसके अलावा गुजरात की भलाई के नाम पर रिलायंस टेलिकम्युनिकेशन और उसके जिओ को इस प्रकार की छूटें दे दी हैं कि दूसरी सभी टेलीकॉम कंपनियों की हालत ख़राब है । टाटा ने तो अपनी टेलिकॉम कंपनी को बंद कर देने का निर्णय ले लिया है । 4. मोदी ने अदानी और अंबानी से 2014 के चुनाव के वक्त इतनी अधिक मदद ली थी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी विदेश यात्राओं के दौरान देश के हितों की तुलना में इन दो पूँजीपतियों के हितों की रक्षा के लिये ज्यादा तत्पर रहे हैं ।
यह है गुजरात को मोदी का अवदान ! उन्होंने राज्य की ओर से संगठित जन-संहार करवाया, किसानों को लूट कर, ग़रीब मज़दूरों की ज़िंदगी से हर प्रकार की सुरक्षा को ख़त्म करके दो-चार पूँजीपतियों की मुट्ठियाँ गर्म की और नफरत के आधार पर वोटों की फ़सल काटी । बस ! इन सबका परिणाम आज सिर्फ गुजरात नहीं, पूरा देश भुगत रहा है । देश में तेजी से भुखमरी बढ़ रही है और उतनी ही तेजी से अंबानी अदानी की संपत्ति बढ़ रही है ।
और, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अमित शाह आँखें तरेर कर कहते हैं - राहुल की इतनी हिम्मत कि गुजरात को मोदी के अवदान को चुनौती दें ! राहुल ने बिल्कुल सही कहा है - गुजरात में विकास पागल हो गया है, उसे होश में लाना होगा ।
अर्थ-व्यवस्था को मंदी से निकालना आने वाले कई सालों तक असंभव होगा
जिस बात का ख़तरा था और जिस पर हम नोटबंदी के पहले दिन से बार-बार कह रहे थे, वह अब शत-प्रतिशत सही साबित हो रहा है । इस बार बाजार में धन तेरस की बिक्री भी जितनी फीकी रही है, भारत के इतिहास में शायद कभी ऐसी नहीं रही ।पिछले साल की तुलना में सोना-चाँदी की बिक्री में चालीस प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि मोदी सरकार ने दो लाख तक की खरीद पर पैन नंबर की बाध्यता को ख़त्म करके काला धन लगा कर जेवहरात खरीदने की पूरी छूट दे दी थी । आगे भी त्यौहारों का पूरा मौसम इसी प्रकार बीतता हुआ दिखाई दे रहा है ।
अर्थ-व्यवस्था में मंदी के पीछे सबसे बड़ा कारण वह जन-मनोविज्ञान होता है, जो किसी भी वजह से एक ग्राहक और उपभोक्ता के रूप में आम आदमी की स्वाभाविक गतिविधियों को व्याहत करता है । एक बार लोगों के अंदर अपने जीवन और आमदनी की अनिश्चयता का विचार घर कर लें, उसके बाद बाजार को चंगा करना सबसे असंभव काम हो जाता है । निश्चिंत आदमी उधार लेकर भी ख़र्च करता है, लेकिन चिंताग्रस्त आदमी अपने बुरे समय की कल्पना करके पैसों पर कुंडली मार कर बैठ जाया करता है ।
और, अर्थ-व्यवस्था चलती है मूलत: बाजार में लोगों के उतरने से, उनकी खपत और उपभोग से ।
मोदी के मूर्खतापूर्ण नोटबंदी के निर्णय ने लोगों के खुद पर विश्वास को भारी धक्का लगाया है । अपने ही पैसों को पाने के लिये बैंकों के सामने भिखारियों की तरह खड़े रहने के दर्दनाक अनुभवों ने बैंकों पर से भी उसकी आस्था की जड़ों को हिला दिया है । आज भी, नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार आम लोगों को रोज चोर घोषित किया करते हैं, आयकर के बारे में अपनी चरम अज्ञान का परिचय देते हुए रोज चीख़ते हैं कि सवा सौ करोड़ लोगों में मात्र चंद लाख लोग ही आयकर देते हैं । यह देश के प्रत्येक जन को अंदर से डरा दे रहा है । साधारण आदमी यह जानता है कि मोदी की तरह के शासकों के शासन की मार कभी भी बड़े-बड़े पूँजीपतियों, धन्ना सेठों पर नहीं पड़ती है। उनके तो ये सबसे क़रीबी दोस्त हैं जिनके निजी हवाई जहाज़ों में मौज करने के इनके पुराने अभ्यास हैं। ऐसे शासन का डंडा सिर्फ आम मासूम लोगों के सर पर ही पड़ा करता है । इसीलिये आज किसी भी प्रकार का ख़र्च करने के पहले हर आदमी दस बार विचार कर रहा हैं ।
नोटबंदी ने आम लोगों की घर में नगदी को जमा रखने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा बल पहुँचाया हैं । आम आदमी समझता है कि किसी आपद-विपद के समय खुद के पास नगदी जमा पूँजी पर ही सबसे अधिक भरोसा किया जा सकता है । बैंकों और सोना-चाँदी पर भी लोगों की आस्था कम हो गई है । हमें नहीं लगता कि इस प्रकार के एक कोरे लफ़्फ़ाज़ के शासन के रहते कभी भी भारत इस मंदी की स्थिति से निकल पायेगा । वैसे भी, भारत की अर्थ-व्यवस्था को अब अपनी पुरानी लय में लौटने में सालों-साल लग जायेंगे ।
केंद्रीय राजस्व सचिव की आत्म स्वीकृति
भारत के राजस्व सचिव हँसमुख अधिया का आज एक बयान ’फिनेन्शियल एक्सप्रेस’ ने जारी किया है । उनके इस वक्तव्य को थोड़ी सी सावधानी से पढ़ने से ही यह साफ हो जाता है कि वे कह रहे हैं कि ‘अब जब जीएसटी लग चुका है, तब इसमें कर की दरों को बिल्कुल नये रूप में इस प्रकार ढालना (overhauling) होगा ताकि छोटे और मंझोले व्यापारियों पर इसका बोझ कम हो सके । इसको पूरी तरह स्थिर होने में साल भर का समय लगेगा । इन चार महीनों में तो सिर्फ इसके अनुपालन के बारे में शुरूआती समस्याएँ सामने आई हैं, जिन पर जीएसटी कौंसिल में विचार चल रहा है । अब तक सौ चीजों पर जीएसटी की दरों को ठीक किया गया है । लेकिन इसे एकदम नये सिरे से ढालना होगा । अभी भी एक जैसी बहुत सी चीज़ों पर अलग-अलग दर से कर लगा हुआ है । इन सबको पकड़-पकड़ कर एक समान करना होगा । जब तक इसे छोटे और मंझोले व्यापारियों तथा आम लोगों के लिये सुविधाजनक नहीं बनाया जायेगा, इसका अनुपालन मुश्किल है । इसके लिये बहुत गहराई में जाकर काफी हिसाब-किताब करना होगा । तब जाकर कुछ ऐसी चीज बन पायेगी जिस पर आगे सही ढंग से अमल संभव होगा ।’
गौर कीजिए, अधिया के इस पूरे वक्तव्य के हर बिंदु पर बार-बार पूरी स्कीम को नये सिरे से ढालने, overhauling करने की बात आई है । यह सबसे पहले तो खुद सरकार के एक सर्वोच्च अधिकारी की खुली स्वीकृति है कि जीएसटी को मोदी सरकार ने जिस प्रकार लागू किया, वह बहुत ही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और विवेकहीन ढंग था, जिसके कारण अब सभी स्तरों पर, सिर्फ चार महीने के अंदर ही इसे बिल्कुल नये रूप में ढाल कर पेश करने की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है । दूसरा, यह अब साफ है कि जीएसटी का अभी का रूप चलने वाला नहीं है । इसे यह सरकार बदले या इसकी विदाई के बाद कोई दूसरी सरकार बदले, इसको बदलना ही होगा । ऊपर से, इसके चलते राजस्व संग्रह के पूरे ढाँचे में एक लंबे समय तक अफ़रा-तफ़री मची रहेगी । यह बात और कोई नहीं, खुद भारत सरकार का राजस्व सचिव कह रहा है । नरेंद्र मोदी ने अपने तुगलकीपन में नोटबंदी की और उसी प्रकार तत्काल राजनीतिक लाभ उठाने के लालच में देश के राजस्व संग्रह के चालू ढाँचे को हटा कर उसकी जगह जीएसटी के एक लुंज-पुंज ढाँचे को लाद दिया । इसे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के प्रति उनके एक सरासर अपराध के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
यह वह समग्र पृष्ठभूमि है जिसके संदर्भ में भारतीय वामपंथ को जीएसटी को पूरी तरह ठुकराने की माँग करते हुए दुविधाहीन भाषा में इसका विरोध करना चाहिए । जीएसटी आज राजनीति की एक बड़ी विभाजक रेखा हो सकती है । नये राजनीतिक विकल्प को निर्द्वंद्व भाव से इसे रद्द करने की घोषणा करनी चाहिए। इस सच को एक क्षण के लिये भी नहीं भूलना चाहिए कि जीएसटी की तरह का भूत मूलत: आरएसएस के केंद्रीकृत शासन के विचारों की ही उपज है ।
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