शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

'पद्मावती' प्रकरण एक सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति की चाल के अलावा कुछ नहीं है

—अरुण माहेश्वरी


जो राजस्थान आज भारत में अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार के मामले में पहले स्थान पर है और अनुसूचित जातियों पर जुल्मों के मामले में दूसरे स्थान पर, वहां इस बात की संभावना तो हमेशा रहेगी कि किसी भी बहाने क्यों न हो, क्षत्राणियों का भी युयुत्सु भाव घूंघट उघाड़ कर तलवार लहराता हुआ सड़कों पर दिखाई देने लगे । 'पद्मावती' फिल्म के प्रसंग में राजस्थान की क्षत्राणियां सामंत युगीन रनिवासों के गौरव की रक्षा के लिये जिस प्रकार उतरी है, उसमें कितनी उनकी भावनात्मक ईमानदारी है और कितनी राजनीतिक बेईमानी, इसका निर्णय तो कोई नहीं कर सकता है, लेकिन यह बात पूरे निश्चय के साथ कही जा सकती है कि ये क्षत्राणियां अब और घूंघट में कैद रहने के लिये तैयार नहीं है । अब वे पुरुषों की पराजय के बाद जौहर से अपनी आत्माहुति देने के बजाय, उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर राजनीति के रणक्षेत्र में उतरने को पूरी तरह से आतुर हो गई है । अब इस लड़ाई के लाभ-नुकसान में वे अपने पुरुषों के साथ समान भागीदारी के लिये, अर्थात सत्ता की लिप्सा में पुरुषों के साथ प्रतिद्वंद्विता में उतर जाने के लिये मचल उठी है ।

जहां तक 'पद्मावती' का सवाल है, यह स्त्री की सुंदरता और उसकी पवित्रता की सामंत युगीन मान्यताओं से निर्मित एक ऐसा चरित्र है जिसकी ऐतिहासिकता भले ही संदिग्ध हो, लेकिन लोककथाओं के जरिये जिसकी कल्पना किसी भी जीवित चरित्र से बहुत ज्यादा जीवंत बनी हुई है । यह लेखक या कथावाचक के अपने सौन्दर्यलोक की ऐसी उपज है जिसका कभी क्षय नहीं होता है, वह अमर होती है ।

ऐसी किसी गैर-ऐतिहासिक इंद्रियातीत कल्पना को जब भी कोई कला के किसी भी दूसरे दृश्य माध्यम में साकार करता है तो उसकी हमेशा एक खास प्रकार की समस्या रहती है । यह किसी भी अतिन्द्रिय अनुभूति के विषय के इतिहासीकरण की एक सामान्य समस्या भी है, क्योंकि विषय के अतीत के वृत्तांतों के पीछे जाते-जाते आप दृश्य माध्यमों में उतने पीछे तक तो नहीं जा सकते कि जहां उसका गैर-ऐतिहासिक लोकोत्तर तत्व उद्घाटित होता है ।

लातिन अमेरिका के जादूई यथार्थवाद के महान कथाकार गैब्रियल गार्सिया मार्केस ने लाखों डालर के प्रस्तावों को ठुकरा कर अपनी सबसे महत्वपूर्ण कृति 'वन हंड्रेड इयर्स आफ सोलिच्यूड' के फिल्मांकन की अनुमति नहीं दी था, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके चरित्रों को किसी फिल्मी नायक-नायिका की एक रूढ़ सूरत मिल जाए । इसे उन्होंने अपने चरित्रों की सार्वलौकिकता के साथ समझौता माना जो उन्हें उपन्यास की सार्वलौकिक व्याप्ति के हित में नहीं लगा था । इसके विपरीत, हमारे देश में तो राजा रविवर्मा ने अपने चित्रों के माध्यम से कई हिंदू देवी देवताओं को ठोस सूरतें प्रदान की है और लोग उन तस्वीरों में ही अपने इष्ट को देखने-पूजने के अभ्यस्त हो गये हैं । मार्केस के उपन्यास पर उनका कॉपीराइट था, उनके उपन्यास की लाखों प्रतियां बिकी थी । इसीलिये उन्होंने अपने जीते जी उनका फिल्मांकन नहीं होने दिया । लेकिन जैसे प्राचीन भारतीय पुराण-कथाओं पर किसी का कोई कॉपीराइट नहीं है, इसीलिये राजा रविवर्मा ने उनके चरित्रों के चित्र बेखौफ बनायें और उन्हें लोक समाज में खुले मन से अपनाया भी गया । वही स्थिति पद्मावती के चरित्र की भी है । किसी का भी उस पर कोई कॉपीराइट नहीं है ।
 
इसके बावजूद, आज अगर कोई यह सवाल उठाता है कि पद्मावती जैसे कवि की कल्पना वाले चरित्र को किसी ठोस आकृति में उतारा ही न जाए तो यह बहस का एकदम भिन्न दूसरा मुद्दा बन जाता है । यहां समस्या किसी कलाकृति की सार्वलौकिक सत्ता का नहीं है । यह शुद्ध रूप में एक राजनीतिक समस्या है । इसके अपने तात्कालिक और कुछ दूरगामी राजनीतिक संदर्भ भी है । तात्कालिक संदर्भ गुजरात के चुनाव का है । भाजपा गुजरात में आसन्न पराजय के डर से ऐसी हर संभव कोशिश कर रही है जिससे देश में सांप्रदायिक गर्मी पैदा हो और उसके प्रभाव से गुजरात में भी चुनाव के पहले नये सिरे से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को संभव बनाया जा सके ।

इसीलिये, भंसाली की 'पद्मावती' फिल्म के जरिये हिंदू-मुस्लिम द्वेष को कितना भड़काया गया है और कितना नहीं, सिर्फ इसी मानदंड पर आज की हमारी शासक पार्टी ने पूरे विषय को विवाद का विषय बना दिया है । वे फिल्म के रिलीज होने के पहले इसे देखना चाहते हैं और इसके जरिये सभी फिल्म निर्माताओं को यह दूरगामी संदेश देना चाहते हैं कि ऐतिहासिक - गैर-ऐतिहासिक कोई भी विषय क्यों न हो, उन्हें ऐसी फिल्में बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है जो इस देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश देती है अथवा जीवन में सांप्रदायिक नजरिये की निंदा करती है ।

जाहिर है कि 'पद्मावती' को लेकर मचाया जा रहा यह शोर शुद्ध रूप में एक सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी का एजेंडा है और राजस्थान या अन्यत्र जहां भी क्षत्रिय या क्षत्राणियां सड़कों पर उतर कर तलवारें चमका रहे हैं, वे इस राजनीति के मोहरों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । हम इसे भारत में कलाकारों की स्वतंत्रता की हत्या का एक और उपक्रम भी कहेंगे ।



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