शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

मुक्तिबोध आज हमारे समय के सबसे जिंदा रचनाकार है



-अरुण माहेेश्वरी


मुक्तिबोध शताब्दी वर्ष की तमाम गतिविधियों से इतना तो साफ है कि मुक्तिबोध आज भी हिंदी साहित्य की एक समस्या बने हुए हैं और जब तक बने रहेंगे, वे किसी भी सार्थक साहित्य विमर्श के लिये जरूरी बने रहेंगे । जिस क्षण उन्हें सिर्फ पूजा जाने लगेगा, वे जरूरी—गैर-जरूरी के बीच के शून्य में लटके रह जायेंगे — सही हो कर भी सिर्फ गलत माने जायेंगे अथवा गलत हो कर भी सिर्फ सही माने जायेंगे ।

जॉक दरीदा की किताब 'आफ ग्रैमेटोलोजी' में वे एक पद पर चर्चा करते है — 'Sous rature'  जिसका अंग्रेजी अनुवाद है 'Under erasure' । किसी शब्द को लिख कर काट देना और फिर मूल शब्द और काटे हुए शब्द, दोनों को एक साथ लिख देना । मसलन्, मुक्तिबोध मुक्तिबोध । जब लेखक के मन में इस प्रकार की दुविधा हो कि यह शब्द सही नहीं है, फिर भी जरूरी है, तो वह इसे इस प्रकार लिख सकता है । जैसे हमारे मन में अक्सर कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक सिद्धांत 'जनवादी केंद्रीयतावाद' पर कुछ इसी प्रकार के सवाल रहते हैं कि यह सही नहीं है, फिर भी कम्युनिस्ट पार्टी के लिये शायद जरूरी ।

इस प्रकार के संकेतों से ही हम उस दिशा में बढ़ सकते हैं जब हम अपनी अति-परिचित चीजों की ही जांच करने लगते हैं और इस प्रक्रिया में ऐसे नतीजों पर पहुंच जाते हैं जो कल तक हमारे लिये नितांत अपरिचित हुआ करते थे । गहराई से जांच करने पर सर चकरा देने वाले नतीजों तक जाना कोई रहस्यवाद नहीं है । जैसे यह रहस्यवाद नहीं है कि कई कठिन मौकों पर आदमी खरा नहीं उतरता है ।

दरअसल, under-erasure विषय के लिये किसी कठिन क्षण की तरह ही है । अंध-विश्वास या धर्म की भाषा जब आपके आगे के सोच के रास्ते की बाधा हो तो उससे पार पाने के लिये थोड़ा टेढ़ा हो कर चलना जरूरी हो जाता है । भाषा के प्रचलित रूप में इसी प्रकार के रूपांतरण को दरीदा इस 'गलत मगर जरूरी' को व्यक्त करने वाली वक्रता के जरिये बताना चाहते हैं । ध्वन्यालोक में अभिनवगुप्त के शब्दों में — “वृत्तिकार कहते हैं सत्यम् इत्यादि — अर्द्ध स्वीकार के अर्थ में सत्य पद का प्रयोग होता है । अर्थात पूर्व पक्षी की बात पूर्ण रूप से नहीं स्वीकार की जा सकती है ; क्योंकि ऐसा मानने पर भी हमने पद को ध्वनि नहीं कहा है, अपितु पदों का समुदाय ही ध्वनि है और पदप्रकाश को ध्वनि कहते हैं, यहां प्रकाश शब्द इसी अर्थ को बताता है ।

कुल मिला कर, ऐसे पदों का अर्थ-प्रकाश परिस्थितियों की सापेक्षता में, जीवन के ठोस संदर्भों में होता है । मुक्तिबोध हमारे वर्तमान जीवन संदर्भों की चुनौतियों के सामने खरे साबित हो रहे हैं तो फिर कोई उन्हें कितना ही खारिज करने की कोशिश क्यों न करें, वे इन विमर्शों से और ज्यादा अर्थवान हो कर उभरेंगे ।
   

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