गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

भारतीय जनतंत्र के इतिहास में 2019 का स्थान सुनिश्चित है


-अरुण माहेश्वरी

जनतंत्र के ढांचे में अगर किसी घटना का कोई तयशुदा बिंदु होता है तो वह है चुनाव । इसके संकेतों के साथ ही जैसे किसी चक्रावाती तूफान के बादल घने होने लगते है । यह तूफान किस तट पर पछाड़ खा कर तबाही मचायेगा और किन तटों पर झमाझम बारिस का कारण बनेगा, इसके कयास शुरू हो जाते हैं । उसी के अनुसार, आगे की तैयारियां भी शुरू हो जाती है ।

2019 के चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे हैं, स्वाभाविक रूप से राजनीति के बादल गहराने लगे हैं । लेकिन ये चुनाव साधारण चुनाव नहीं है क्योंकि विगत पांच साल के शासन के अनुभवों के चलते इनमें जनतंत्र मात्र ही दाव पर लगा हुआ है । मोदी शासन के स्वेच्छाचार ने किसी समय आसमान छू रही मोदी की साख को पूरी तरह से मिट्टी में मिला दिया है, लेकिन फिर भी विडंबना यह है कि मोदी ने ही अब तक पूरे शासक दल को अपनी सख्त मुट्ठी में जकड़ रखा है और शासन का तंत्र भी उसकी तमाम चोटों से जख्मी होकर छटपटा रहा है !

यही वजह है कि इसी बदनाम नायक का 2019 के चुनाव में एक प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बने रहना तय है । इस बीच इसकी करारी पराजय के सारे निश्चित संकेत मिलने के बावजूद शासक गठजोड़ की इससे मुक्ति असंभव है । यही वजह है कि इस चुनावी परिघटना में शासक दल के घुटते हुए मृत्यु-मुखी अस्तित्व का एक नया नाटकीय तत्व भी इधर थोड़ा बहुत झलक जा रहा है । शासक दल से जुड़ा यह बिल्कुल नया आयाम है जिसकी चार साल पहले किसी ने कल्पना नहीं की थी ।

इसे हम वर्तमान शासक दल के जगत का नितिन गडकरी कांड कह सकते हैं जिसका सूत्रपात आरएसएस के गुह्य संसार के मारण मंत्रों के कर्मकांडों से हुआ है और जिसके मारण-लक्ष्य में कहते हैं मोदी और उनकी छाया शाह का अद्वैत ही है । अभी गडकरी की हल्की सी चुटकियों से ही मोदी की मूर्ति जिस प्रकार झरती हुई नजर आ रही है, उसने मोदी जादू के असर के अंत के नजारों की सचमुच नई तस्वीरें दिखानी शुरू कर दी है ।

शासक जगत के विपरीत विपक्षी जगत का स्वरूप भी कम दिलचस्प नहीं है । दोनों जगतों के यथार्थ का एक सूत्र साझा है - वह है मोदी-शाह की जकड़बंदी और उस जकड़ में भी पड़ रही दरारों के संकेत ।

गुजरात, कर्नाटक चुनावों के बाद ही मोदी की अयोग्यता प्रकट होने लगी थी, उस पर हाल के पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने तो मोदी की वापसी पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। कल तक शेर बने घूमते मोदी-शाह अचानक ही कई लोगों को चूहे की शक्ल में दिखाई देने लगे हैं जिसे डंडे से खदेड़ने में एनडीए के नीतीश-पासवान सरीखे हुजूर के गुलाम भी परहेज नहीं कर रहे हैं ।

जाहिर है, इस स्थिति का एक असर मोदी के विपक्ष पर भी पड़ना था और पड़ रहा है । मोदी की राक्षसी चौड़ी छाती का रूप जहां पूरे विपक्ष को इकट्ठा कर रहा था, वहीं यह दयनीय सा लतखोरी स्वरूप कुछ अन्य प्रकार के भ्रमों को पैदा करता है । ऊपर से मोदी को गडकरी की चुनौती से लगने लगता है जैसे वह संघी फासिस्ट वैश्विकता के बाहर का कोई जीव है ! और चुनाव के वक्त मन को तसल्ली दे, एक ऐसे खुशफहम वातावरण की खुमारी में बहुतों को आगे के सुनहरे सपने दिखाई देने लगे तो इस पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए !

ऐसे में, तेलंगाना में जीत के बाद केसीआर ने चक्रवर्ती सम्राट का सपना देखना शुरू कर दिया है । लोग इसमें इसलिये कोई दोष नहीं मानते हैं क्योंकि मान लिया जाता है कि जनतंत्र का अर्थ ही है राजनीति का एक स्वतंत्र और उनमुक्त ‘विमर्शमय’ ढांचा । इसमें शामिल खिलाड़ियों की वासनाओं और राजनीति की नई संभावनाओं की खोज की स्वाभाविकता के कारण भी इसे अति साधारण बात मान लिया जाता है । केसीआर और नवीन पटनायक या ममता बनर्जी की तरह के इस क्षेत्र के दावेदार अभी के नरम परिवेश में यदि अपनी हसीन इच्छाओं की संभावनाओं को टटोलते हैं, उनकी पूर्ति के सपने देखते हैं तो देखें - मान लिया जाता है कि यही जनतंत्र के ढांचे से प्रदत्त स्वातंत्र्य का लक्षण है ।

लेकिन स्वातंत्र्य अंतत: साधन ही है, साध्य नहीं । जो सत्य प्रकाश का हेतु होता है, वह साध्य है - राजनीति के जन-लक्ष्य । उसके अभाव में, सारी वासनाएं और स्वतंत्रताएं धरी की धरी रह जायेगी, फल कुछ नहीं हासिल होगा । भारत की राजनीति आज इसी मुकाम पर है जहां से उसे एक नई दिशा पकड़नी है । इसीलिये 2019 एक फैसलाकुन लड़ाई का साल है जिसमें हमें नहीं लगता कि मौका-परस्तों के लिये कोई विशेष जगह बचने वाली है ।

2014 के बाद का समय व्यापक जनता के एक नये अवबोध का, शासक की मनमानियों और निष्ठुरता की पहचान का काल रहा है । इसकी छाया मात्र से भाजपा ने अपने हाथ से राज्यों को गंवाना शुरू कर दिया है । अब 2019 में तो इस चेतना-शक्ति का, जन-आक्रोश का भारी विस्फोट देखने को मिलेगा ।

ऐसे समय में तथाकथित फेडरल फ्रंट की पेशकश से यदि किसी ने मोदी को सहायता पहुंचाने का कोई मंसूबा बांध रखा है तो यह तय माना जाना चाहिए कि उसके भी धुर्रे उड़ेंगे । जनतांत्रिक राजनीति के सत्य की अभी यही मांग है कि मोदी-शाह जोड़ी के अंत को सुनिश्चित करके जनतंत्र को न्याय और समानता के नये सुदृढ़ आधारों पर स्थापित किया जाए । जो भी इतिहास की दिशा में अन्तरनिहित इस लक्ष्य के साथ होगा, वही टिकेगा । अन्यथा मध्य प्रदेश, राजस्थान की तरह ही आगे भी उन्हें अपने और पतन और अंत के लिये तैयार रहना होगा ।

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