-अरुण माहेश्वरी
भारत सरकार के नये आर्थिक सलाहकार नियुक्त किये गये हैं कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन । पूर्व सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन की जगह अब कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन ।
पिछले जून महीने में अरविंद के चले जाने के छ: महीनों के अंदर ही उनकी एक किताब आई है — 'Of Counsel (The challenges of the Modi-Jaitley economy) । अपनी इस किताब में उन्होंने मोदी के नोटबंदी के कदम को बिल्कुल साफ शब्दों में एक निष्ठुर कदम बताया है जिसने अर्थ-व्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र और नगदी के अधिक चलन वाले क्षेत्र पर गहरा आघात किया था । और अब जिन नये सुब्रह्मण्यन महोदय को लाया गया है वे भी हैं तो अमेरिका रिटर्न ही, लेकिन अरविंद की तरह दक्षिण अमेरिका के पेरू के माच्चु पिच्चु के प्राचीन अवशेषों से नहीं, उत्तरी अमेरिका की मुख्य भूमि से शिक्षा लेकर हैदराबाद से आए हैं और वे अर्थजगत के उन चंद नायाब लोगों में हैं जिन्होंने मोदी की नोटबंदी का समर्थन किया था । कहते हैं इनको भी लाने वाले जेटली ही है । अर्थनीति का मामला है, मोदी की इस क्षेत्र में भूमिका उतनी ही है जिससे इस क्षेत्र का कुछ बिगाड़ होता है, अन्यथा इसके बाकी मामलों में जेटली को पूरी आजादी है !
इन दो सुब्रह्मण्यनों के बीच नोटबंदी के मसले पर थोड़ा भिन्न मत होने पर भी, अरविंद की किताब को देखने से एक बात साफ समझ में आती है कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी और आरबीआई, बैंकों के एनपीए आदि के बारे में जेटली जी के मुंह से अब तक जो उटपटांग किस्म की दलीलें सुनी जाती रही हैं, मसलन् नोटबंदी से अनौपचारिक और नगदी की चलन वाले क्षेत्रों को तात्कालिक तौर पर भारी नुकसान होने पर भी डिजिटलाइजेशन, औपचारीकरण (formalization), और करदान (tax compliance) के मामले में इसके दूरगामी लाभ हुए हैं, या अर्थ-व्यवस्था की तेजी के समय बैंकें जब मनमाने ढंग से कर्ज बांट रही थीं, तब आरबीआई क्या तेल लेने गया था, या आरबीआई के आरक्षित कोष की मात्रा पर चर्चा होनी चाहिए की तरह की सारी दलीलें किसी और के दिमाग की नहीं, इन अरविंद सुब्रह्मण्यन साहब के दिमाग की ही उपज रही हैं । इन सारी बातों को उन्होंने अपनी इस किताब में बिल्कुल उन्हीं शब्दों में कहा है जिनका प्रयोग हमारे अरुण जेटली किया करते हैं ।
अरविंद सुब्रह्मण्यन 2014 में दक्षिण अमेरिका से आयातित किये गये थे और 2018 के जून महीने तक इस पद पर रहे । इसी दौरान नोटबंदी के अलावा जीएसटी का दूसरा बड़ा कदम उठाया गया था । इसके बारे में अरविंद के विवरण से साफ है कि भारत की तरह के एक संघीय राष्ट्र में जीएसटी की तरह की केंद्रीभूत कर-प्रणाली को लागू किये जाने पर वे बेहद अचंभित थे । उनके इस अचंभे से ही लगता है कि उनके पास भारतीय संघ के पहले से चले आ रहे आर्थिक एकीकरण की कोई साफ समझ नहीं थी । वे इसे अब भी यूरोपीय राष्ट्रीय राज्यों और संयुक्त राज्य अमेरिका के चश्मे से ही देख रहे थे, और इसीलिये इस पर बच्चों की तरह रोमांचित थे । जब संसद में जीएसटी के लिये संविधान संशोधन बिना किसी विरोध के, सर्व-सम्मति से पारित हुआ तो उसे टीवी के पर्दे पर देख कर वे उसी तरह रोमांचित हो कर उछल पड़े थे जैसे आम तौर पर नासा के वैज्ञानिक अपने अंतरीक्ष यानों की सफलताओं पर उछला करते हैं । इस दृश्य को देख कर उन्होंने राजस्व सचिव हंसमुख अधिया को खींच कर गले लगा लिया था । उनकी इस बाल-सुलभ प्रतिक्रिया से ही यह साफ हो जाता है कि वे जीएसटी के पीछे के इतिहास से तब किस हद तक अपरिचित रहे होंगे !
यद्यपि अपनी किताब में उन्होंने इस तथ्य को दर्ज किया है कि पहले मनमोहन सिंह के जमाने में इसी बीजेपी की गुजरात, मध्यप्रदेश की सरकारों ने जीएसटी में रोड़े अटकाये थे, लेकिन आगे जब वे इस विषय की चर्चा करते हैं तो लगता है जैसे यह पूरी नई कर प्रणाली मोदी-जेटली के दिमाग की ही उपज है । उनका इस प्रकार अचंभित, रोमांचित होना और मोदी-जेटली की उपलब्धि की स्तुति करना ही इस बात को भी दर्शाता है कि आखिर क्यों और किन लोगों की प्रेरणा से मोदी ने जीएसटी को लागू करने के दिन आधी रात के समय वैसा ही जश्न मनाया जैसा कि 1947 में भारत की आजादी के समय में मनाया गया था । अबोध आदमी अपने तात्कालिक परिवेश का किस हद तक बंदी होता है कि उसको काल का कोई बोध ही नहीं रह जाता है, यह हमने जीएसटी के समय के मोदी जी के अजीबोगरीब उत्साह में देखा था । अरविंद सुब्रह्मण्यन की किताब से पता चलता है कि मोदी-जेटली के साथ ऐसा किन कारणों से घटित हुआ था ।
सीईए के पद पर आने के पहले मालूम नहीं अरविंद सुब्रह्मण्यन के आर्थिक नीतियों के बारे में ऐसे कौन से बड़े विचार थे, जिन पर वे अपने कार्यकाल में भारत में अमल करवाना चाहते थे, लेकिन इस किताब से एक बात साफ है कि वे कुल मिला कर यहां अर्थनीति के क्षेत्र में मोदी सरकार की मनमानियों के एक मूक दृष्टा भर बने रहे, इनके तुगलकीपन से खुद कुछ सीखते रहे और कुछ इन मनमानियों के लिये इन्हें झूठी दलीलें जुटा कर देते रहे !
उनके पास अगर कोई बड़ा विचार था तो वह शायद पूंजीवाद की एक नया श्रेणी का विचार भर था जिसे वे कलंकित पूंजीवाद (stigmatized capitalism) कहते हैं, और जो शायद दक्षिण अमेरिका में पूंजीवाद के स्वरूप से पैदा हुई उनकी समझ का परिणाम था । असल में वे भारत में आकर इस कलंकित पूंजीवाद के कलंक को धोने की कोशिश करना चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य कि भारत आकर इसकी विचित्रताओं को, अज्ञ शासकों के बेसिर-पैर के कामों को ही वे निहारते रह गये, उनके पीछे के तर्कों की तलाश में ही उनके चार साल बीत गये !
अपनी इस किताब में उन्होंने एक लंबा विवरण दिया है जीएसटी कौंसिल की सभाओं में चलने वाली सौदेबाजियों का और मेढ़कों को तौलने की जेटली की जी-तोड़ मेहनत का ।
एक जगह वे लिखते हैं — “2017 के चुनाव के बाद जीएसटी की प्रक्रिया में एक मजेदार बात थी उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों का रवैया । वे बार-बार अगरबत्ती और पूजा की सामग्रियों पर जीएसटी को कम करने बल देते थे । 20 करोड़ की आबादी के एक अपेक्षाकृत गरीब भारतीय प्रदेश के प्रतिनिधियों को इसके अलावा दूसरी किसी बात से मतलब नहीं था ।”
(One of the more constants of the GST process was to watch Uttar Pradesh representatives, after 2017 elections, obsessing with reducing the GST rates on agarbattis (incense sticks) and pooja samagris (prayer offerings) to the point of raising this in meeting after meeting. Little else seemed to be of pressing concern to the representatives of this relatively poor Indian state of 200 million people. -Introduction, page – xxxvii )
इसीप्रकार, वे जब भारत के संदर्भ में अपने 'कलंकित पूंजीवाद' का जिक्र करते है तो उसके साथ ही भारत की चार संस्थाओं कोर्ट, सीएजी, सीवीसी, आर सीबीआई (चार सी) का इस प्रकार जिक्र करते हैं मानों ये चार शिकारी कुत्ते इस कलंकित औरत को नोच खाने के लिये यहां सदा उतावले रहते हैं । “खास तौर पर नई सदी के शुरू के सालों में भ्रष्टाचार के अनेक घोटालों के कारण ये चार सी ऐसे मामलों में भी भारी उत्साह के साथ लगे रहते हैं जिनमें भ्रष्टाचार को कोई नामों-निशान भी नहीं है ।” (These 4Cs have pursued any excercise of discretion zealously, especially following a spate of corruption scandals in the early years of the new millennium, but even in the cases where there is no whiff of malfeasance. - Introduction, page – xxiv)
अरविंद दुनिया के अनुभव से सोचते थे कि इस कलंकित पूंजीवाद की बदौलत ही अर्थनीति के क्षेत्र में फिर एक बार राज्य की भूमिका (statism) काफी बढ़ गई है, और भारत शायद वे यही मन बना कर आए थे कि वे यहां कुछ ऐसा रास्ता तलाशेंगे जिससे राज्य की भूमिका को कम कर सके । लेकिन यथार्थ में हम देख रहे हैं कि राज्य की भूमिका को नियंत्रित करना तो दूर की बात, उनकी किताब ही इस बात की गवाह है कि वे अंत में उन्हें यहां लाने वाले आकाओं के प्रति कृतज्ञता के नाते शासकों के विकृत क्रियाकलापों को प्रमाणपत्र देने का ही काम करने लगे ।
जाते-जाते नोटबंदी के संदर्भ में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जब राज्य के नेतृत्व में कोई करिश्माई व्यक्तित्व होता है तो वह आसानी से ऐसे कदम उठा सकता है जिनसे व्यापक पैमाने पर जनता को कष्ट पहुंचता है । (where there are charismatic leaders, policy actions that adversely affect more people are more likely to succeed) अरविंद का यह निष्कर्ष ही उनकी अदूरदर्शी राजनीतिक अर्थनीति की समझ का प्रमाण है । भारत के संसदीय जनतंत्र की कोई समझ न होने के कारण ही उनमें आगामी 2019 के लोकसभा चुनावों पर नोटबंदी के प्रभाव को देखने की कोई ललक ही नहीं है !
नोटबंदी, जीएसटी की तरह ही भारत का कृषि क्षेत्र भी अरविंद सुब्रह्मण्यन के लिये एक पहेली ही था जिसके संकट के लिये उनके पास कोई समाधान नहीं था । वे उसे निहारते रहे और मोदी-जेटली के तदर्थ कामों की प्रशंसा करते रहे । कहना न होगा, ऐसे सलाहकारों की बदौलत ही मोदी-जेटली पर आज तक यह भ्रम छाया हुआ है कि उन्होंने सत्ता पर आने के बाद जो किया वह भारत में पहले न किसी ने सोचा और न किया । अरविंद जिस प्रकार से मोदी की कुछ कल्याणमूलक योजनाओं की तारीफ के पुल बांधते हैं, वह तो और भी ज्यादा हास्यास्पद लगता है ।
बहरहाल, अब मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर अरविंद सुब्रह्मण्यन की जगह कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन को लाया गया है । अरविंद को अर्थनीति के व्यापक परिदृश्य (macro-economy) का विशेषज्ञ कहा जाता था । अब नवागत कृष्णमूर्ति को अर्थनीति के विशेष-विशेष क्षेत्र (micro-economy) का विशेषज्ञ कहा जाता है । आरबीआई के साथ सरकार की तकरारों में अरविंद के पास कोई ठोस सुझाव नहीं थे लेकिन अपने अवांतर विचारों से निश्चित तौर पर उन्होंने कुछ सार्वजनिक मंचों से आरबीआई के रूख पर सवाल उठा कर आरबीआई के खिलाफ सरकार को उकसाने की एक भूमिका जरूर अदा की थी । अब उनकी जगह कृष्णमूर्ति के जरिये सरकार पहले की तरह हवा में तीर चलाने के बजाय ठोस रूप में आरबीआई जैसे संस्थानों की गर्दन पकड़ने की उम्मीद पाले हुए है ।
यह तो भविष्य ही बतायेगा कि मोदी जी जाते-जाते अपने इन सलाहकारों से क्या हासिल करते हैं । वैसे यह सच है कि हर स्थिति में मोदी जैसी सरकार में इनकी भूमिका किसी भी निजी कंपनी के गुमाश्ते से ज्यादा नहीं हो सकती है । इसलिये इनका हुनर इनके पास ही रहेगा । अंततः इनका काम वही होगा, जो अरविंद सुब्रह्मण्यन ने किया है — मोदी-जेटली के तुगलकीपन को सर्टिफिकेट देना !
तानाशाह सलाहकार नहीं स्तवक खोजता है ।
भारत सरकार के नये आर्थिक सलाहकार नियुक्त किये गये हैं कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन । पूर्व सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन की जगह अब कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन ।
पिछले जून महीने में अरविंद के चले जाने के छ: महीनों के अंदर ही उनकी एक किताब आई है — 'Of Counsel (The challenges of the Modi-Jaitley economy) । अपनी इस किताब में उन्होंने मोदी के नोटबंदी के कदम को बिल्कुल साफ शब्दों में एक निष्ठुर कदम बताया है जिसने अर्थ-व्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र और नगदी के अधिक चलन वाले क्षेत्र पर गहरा आघात किया था । और अब जिन नये सुब्रह्मण्यन महोदय को लाया गया है वे भी हैं तो अमेरिका रिटर्न ही, लेकिन अरविंद की तरह दक्षिण अमेरिका के पेरू के माच्चु पिच्चु के प्राचीन अवशेषों से नहीं, उत्तरी अमेरिका की मुख्य भूमि से शिक्षा लेकर हैदराबाद से आए हैं और वे अर्थजगत के उन चंद नायाब लोगों में हैं जिन्होंने मोदी की नोटबंदी का समर्थन किया था । कहते हैं इनको भी लाने वाले जेटली ही है । अर्थनीति का मामला है, मोदी की इस क्षेत्र में भूमिका उतनी ही है जिससे इस क्षेत्र का कुछ बिगाड़ होता है, अन्यथा इसके बाकी मामलों में जेटली को पूरी आजादी है !
इन दो सुब्रह्मण्यनों के बीच नोटबंदी के मसले पर थोड़ा भिन्न मत होने पर भी, अरविंद की किताब को देखने से एक बात साफ समझ में आती है कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी और आरबीआई, बैंकों के एनपीए आदि के बारे में जेटली जी के मुंह से अब तक जो उटपटांग किस्म की दलीलें सुनी जाती रही हैं, मसलन् नोटबंदी से अनौपचारिक और नगदी की चलन वाले क्षेत्रों को तात्कालिक तौर पर भारी नुकसान होने पर भी डिजिटलाइजेशन, औपचारीकरण (formalization), और करदान (tax compliance) के मामले में इसके दूरगामी लाभ हुए हैं, या अर्थ-व्यवस्था की तेजी के समय बैंकें जब मनमाने ढंग से कर्ज बांट रही थीं, तब आरबीआई क्या तेल लेने गया था, या आरबीआई के आरक्षित कोष की मात्रा पर चर्चा होनी चाहिए की तरह की सारी दलीलें किसी और के दिमाग की नहीं, इन अरविंद सुब्रह्मण्यन साहब के दिमाग की ही उपज रही हैं । इन सारी बातों को उन्होंने अपनी इस किताब में बिल्कुल उन्हीं शब्दों में कहा है जिनका प्रयोग हमारे अरुण जेटली किया करते हैं ।
अरविंद सुब्रह्मण्यन 2014 में दक्षिण अमेरिका से आयातित किये गये थे और 2018 के जून महीने तक इस पद पर रहे । इसी दौरान नोटबंदी के अलावा जीएसटी का दूसरा बड़ा कदम उठाया गया था । इसके बारे में अरविंद के विवरण से साफ है कि भारत की तरह के एक संघीय राष्ट्र में जीएसटी की तरह की केंद्रीभूत कर-प्रणाली को लागू किये जाने पर वे बेहद अचंभित थे । उनके इस अचंभे से ही लगता है कि उनके पास भारतीय संघ के पहले से चले आ रहे आर्थिक एकीकरण की कोई साफ समझ नहीं थी । वे इसे अब भी यूरोपीय राष्ट्रीय राज्यों और संयुक्त राज्य अमेरिका के चश्मे से ही देख रहे थे, और इसीलिये इस पर बच्चों की तरह रोमांचित थे । जब संसद में जीएसटी के लिये संविधान संशोधन बिना किसी विरोध के, सर्व-सम्मति से पारित हुआ तो उसे टीवी के पर्दे पर देख कर वे उसी तरह रोमांचित हो कर उछल पड़े थे जैसे आम तौर पर नासा के वैज्ञानिक अपने अंतरीक्ष यानों की सफलताओं पर उछला करते हैं । इस दृश्य को देख कर उन्होंने राजस्व सचिव हंसमुख अधिया को खींच कर गले लगा लिया था । उनकी इस बाल-सुलभ प्रतिक्रिया से ही यह साफ हो जाता है कि वे जीएसटी के पीछे के इतिहास से तब किस हद तक अपरिचित रहे होंगे !
यद्यपि अपनी किताब में उन्होंने इस तथ्य को दर्ज किया है कि पहले मनमोहन सिंह के जमाने में इसी बीजेपी की गुजरात, मध्यप्रदेश की सरकारों ने जीएसटी में रोड़े अटकाये थे, लेकिन आगे जब वे इस विषय की चर्चा करते हैं तो लगता है जैसे यह पूरी नई कर प्रणाली मोदी-जेटली के दिमाग की ही उपज है । उनका इस प्रकार अचंभित, रोमांचित होना और मोदी-जेटली की उपलब्धि की स्तुति करना ही इस बात को भी दर्शाता है कि आखिर क्यों और किन लोगों की प्रेरणा से मोदी ने जीएसटी को लागू करने के दिन आधी रात के समय वैसा ही जश्न मनाया जैसा कि 1947 में भारत की आजादी के समय में मनाया गया था । अबोध आदमी अपने तात्कालिक परिवेश का किस हद तक बंदी होता है कि उसको काल का कोई बोध ही नहीं रह जाता है, यह हमने जीएसटी के समय के मोदी जी के अजीबोगरीब उत्साह में देखा था । अरविंद सुब्रह्मण्यन की किताब से पता चलता है कि मोदी-जेटली के साथ ऐसा किन कारणों से घटित हुआ था ।
सीईए के पद पर आने के पहले मालूम नहीं अरविंद सुब्रह्मण्यन के आर्थिक नीतियों के बारे में ऐसे कौन से बड़े विचार थे, जिन पर वे अपने कार्यकाल में भारत में अमल करवाना चाहते थे, लेकिन इस किताब से एक बात साफ है कि वे कुल मिला कर यहां अर्थनीति के क्षेत्र में मोदी सरकार की मनमानियों के एक मूक दृष्टा भर बने रहे, इनके तुगलकीपन से खुद कुछ सीखते रहे और कुछ इन मनमानियों के लिये इन्हें झूठी दलीलें जुटा कर देते रहे !
उनके पास अगर कोई बड़ा विचार था तो वह शायद पूंजीवाद की एक नया श्रेणी का विचार भर था जिसे वे कलंकित पूंजीवाद (stigmatized capitalism) कहते हैं, और जो शायद दक्षिण अमेरिका में पूंजीवाद के स्वरूप से पैदा हुई उनकी समझ का परिणाम था । असल में वे भारत में आकर इस कलंकित पूंजीवाद के कलंक को धोने की कोशिश करना चाहते थे, लेकिन दुर्भाग्य कि भारत आकर इसकी विचित्रताओं को, अज्ञ शासकों के बेसिर-पैर के कामों को ही वे निहारते रह गये, उनके पीछे के तर्कों की तलाश में ही उनके चार साल बीत गये !
अपनी इस किताब में उन्होंने एक लंबा विवरण दिया है जीएसटी कौंसिल की सभाओं में चलने वाली सौदेबाजियों का और मेढ़कों को तौलने की जेटली की जी-तोड़ मेहनत का ।
एक जगह वे लिखते हैं — “2017 के चुनाव के बाद जीएसटी की प्रक्रिया में एक मजेदार बात थी उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों का रवैया । वे बार-बार अगरबत्ती और पूजा की सामग्रियों पर जीएसटी को कम करने बल देते थे । 20 करोड़ की आबादी के एक अपेक्षाकृत गरीब भारतीय प्रदेश के प्रतिनिधियों को इसके अलावा दूसरी किसी बात से मतलब नहीं था ।”
(One of the more constants of the GST process was to watch Uttar Pradesh representatives, after 2017 elections, obsessing with reducing the GST rates on agarbattis (incense sticks) and pooja samagris (prayer offerings) to the point of raising this in meeting after meeting. Little else seemed to be of pressing concern to the representatives of this relatively poor Indian state of 200 million people. -Introduction, page – xxxvii )
इसीप्रकार, वे जब भारत के संदर्भ में अपने 'कलंकित पूंजीवाद' का जिक्र करते है तो उसके साथ ही भारत की चार संस्थाओं कोर्ट, सीएजी, सीवीसी, आर सीबीआई (चार सी) का इस प्रकार जिक्र करते हैं मानों ये चार शिकारी कुत्ते इस कलंकित औरत को नोच खाने के लिये यहां सदा उतावले रहते हैं । “खास तौर पर नई सदी के शुरू के सालों में भ्रष्टाचार के अनेक घोटालों के कारण ये चार सी ऐसे मामलों में भी भारी उत्साह के साथ लगे रहते हैं जिनमें भ्रष्टाचार को कोई नामों-निशान भी नहीं है ।” (These 4Cs have pursued any excercise of discretion zealously, especially following a spate of corruption scandals in the early years of the new millennium, but even in the cases where there is no whiff of malfeasance. - Introduction, page – xxiv)
अरविंद दुनिया के अनुभव से सोचते थे कि इस कलंकित पूंजीवाद की बदौलत ही अर्थनीति के क्षेत्र में फिर एक बार राज्य की भूमिका (statism) काफी बढ़ गई है, और भारत शायद वे यही मन बना कर आए थे कि वे यहां कुछ ऐसा रास्ता तलाशेंगे जिससे राज्य की भूमिका को कम कर सके । लेकिन यथार्थ में हम देख रहे हैं कि राज्य की भूमिका को नियंत्रित करना तो दूर की बात, उनकी किताब ही इस बात की गवाह है कि वे अंत में उन्हें यहां लाने वाले आकाओं के प्रति कृतज्ञता के नाते शासकों के विकृत क्रियाकलापों को प्रमाणपत्र देने का ही काम करने लगे ।
जाते-जाते नोटबंदी के संदर्भ में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जब राज्य के नेतृत्व में कोई करिश्माई व्यक्तित्व होता है तो वह आसानी से ऐसे कदम उठा सकता है जिनसे व्यापक पैमाने पर जनता को कष्ट पहुंचता है । (where there are charismatic leaders, policy actions that adversely affect more people are more likely to succeed) अरविंद का यह निष्कर्ष ही उनकी अदूरदर्शी राजनीतिक अर्थनीति की समझ का प्रमाण है । भारत के संसदीय जनतंत्र की कोई समझ न होने के कारण ही उनमें आगामी 2019 के लोकसभा चुनावों पर नोटबंदी के प्रभाव को देखने की कोई ललक ही नहीं है !
नोटबंदी, जीएसटी की तरह ही भारत का कृषि क्षेत्र भी अरविंद सुब्रह्मण्यन के लिये एक पहेली ही था जिसके संकट के लिये उनके पास कोई समाधान नहीं था । वे उसे निहारते रहे और मोदी-जेटली के तदर्थ कामों की प्रशंसा करते रहे । कहना न होगा, ऐसे सलाहकारों की बदौलत ही मोदी-जेटली पर आज तक यह भ्रम छाया हुआ है कि उन्होंने सत्ता पर आने के बाद जो किया वह भारत में पहले न किसी ने सोचा और न किया । अरविंद जिस प्रकार से मोदी की कुछ कल्याणमूलक योजनाओं की तारीफ के पुल बांधते हैं, वह तो और भी ज्यादा हास्यास्पद लगता है ।
बहरहाल, अब मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद पर अरविंद सुब्रह्मण्यन की जगह कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यन को लाया गया है । अरविंद को अर्थनीति के व्यापक परिदृश्य (macro-economy) का विशेषज्ञ कहा जाता था । अब नवागत कृष्णमूर्ति को अर्थनीति के विशेष-विशेष क्षेत्र (micro-economy) का विशेषज्ञ कहा जाता है । आरबीआई के साथ सरकार की तकरारों में अरविंद के पास कोई ठोस सुझाव नहीं थे लेकिन अपने अवांतर विचारों से निश्चित तौर पर उन्होंने कुछ सार्वजनिक मंचों से आरबीआई के रूख पर सवाल उठा कर आरबीआई के खिलाफ सरकार को उकसाने की एक भूमिका जरूर अदा की थी । अब उनकी जगह कृष्णमूर्ति के जरिये सरकार पहले की तरह हवा में तीर चलाने के बजाय ठोस रूप में आरबीआई जैसे संस्थानों की गर्दन पकड़ने की उम्मीद पाले हुए है ।
यह तो भविष्य ही बतायेगा कि मोदी जी जाते-जाते अपने इन सलाहकारों से क्या हासिल करते हैं । वैसे यह सच है कि हर स्थिति में मोदी जैसी सरकार में इनकी भूमिका किसी भी निजी कंपनी के गुमाश्ते से ज्यादा नहीं हो सकती है । इसलिये इनका हुनर इनके पास ही रहेगा । अंततः इनका काम वही होगा, जो अरविंद सुब्रह्मण्यन ने किया है — मोदी-जेटली के तुगलकीपन को सर्टिफिकेट देना !
तानाशाह सलाहकार नहीं स्तवक खोजता है ।
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