—अरुण माहेश्वरी
डर वाकई भारी बला है । इसकी चपेट में आदमी कभी-कभी बेबात भी अपने अंदर छिपे अपराध बोध को जाहिर कर देता है । जैसे संघी दिमाग अक्सर कहीं भी जब पाकिस्तान-पाकिस्तान करके चिल्लाना शुरू करता है तो सिर्फ अपनी खास पहचान को ही जाहिर करता है । उसे सूने रास्ते में कहीं से भी आती हुई कोई भी आवाज पाकिस्तान के साथ संपर्क साधने की कोशिश लगने लगती है ।
बहरहाल, कल सुप्रीम कोर्ट में कुछ इसी प्रकार का एक वाकया सामने आया । गुजरात में जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे और अमित शाह गृह मंत्री, उस समय वहां 2002-2006 के बीच पुलिस ने कई फर्जी मुठभेड़ों में वहां बाहर से काम के लिये गये कुछ 22 से 37 साल की उम्र के मुस्लिम नौजवानों को यह कह कर फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया गया था कि वे नरेन्द्र मोदी की हत्या की कोशिश कर रहे थे । मारे गये नौजवानों के घर वालों को उनकी मृत्यु की खबर तक नहीं दी गई थी और इसकी वजह से सारे भारत में गुजरात में जाकर काम करने वाले मुसलमान नौजवानों के परिवारों में भारी दुश्चिंता पैदा हो गई थी ।
इसी पृष्ठभूमि में 2007 में ऐसी 22 फर्जी मुठभेड़ों पर वरिष्ठ पत्रकार वी जी वर्गीस और गीतकार जावेद अख्तर ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के जरिये इन मामलों की सीबीआई या ऐसआईटी के जरिये जांच की याचिका दायर की थी । उस समय सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश एम बी शाह के नेतृत्व में एक जांच कमेटी का गठन किया था । बाद में इस कमेटी का दायित्व संभाला पूर्व न्यायाधीश एच एस बेदी ने ।
एच एस बेदी ने इसी साल के शुरू में अपनी जांच रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया । लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे दीपक मिश्रा जिनके बारे में अभी-अभी सेवानिवृत्त जस्टिस जोसेफ कूरियन ने अभियोग लगाया है कि वे किसी बाहरी शक्ति के द्वारा नियंत्रित होते थे । उन्होंने गुजरात में फर्जी मुठभेड़ों के बारे में बेदी कमेटी की रिपोर्ट को दबा कर रख दिया ।
अब दीपक मिश्रा के चले जाने के बाद कल ही सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को विचार के लिये उठाया और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगई ने अभियोजन पक्ष के वकील प्रशांतभूषण को उस रिपोर्ट को सौंपने की पेशकश की । मुख्य न्यायाधीश ने ज्योंही यह प्रस्ताव दिया, केंद्र सरकार के अटार्नी जनरल तुषार मेहता अपनी कुर्सी से उछल पड़ें और तत्काल कहा कि मुख्य न्यायाधीश ऐसा नहीं कर सकते हैं । उन्हें इसके बारे में गंभीर आपत्ति है । इस पर जब उन्हें अपनी बात रखने के लिये कहा गया तो वे बोले कि वे मौखिक नहीं, शपथपत्र के माध्यम से अपनी बात रखेंगे और इसके लिये उन्हें जनवरी महीने तक का समय दिया जाना चाहिए ।
जाहिर है कि बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को दी गई रिपोर्ट को बिना देखे ही केंद्र सरकार के वकील का इस प्रकार चौंक कर गहरी आपत्ति दर्ज करते हुए उठ खड़ा होना किसी के लिये भी चौंकाने वाला हो सकता है । लेकिन इस पूरे विषय को जानने वाले तुषार मेहता की इस बेचैनी के पीछे के डर को अच्छी तरह से जानते हैं । 2002-2006 के जिस काल में गुजरात पुलिस ने ये अपराध किये थे उस समय तुषार मेहता गुजरात सरकार के वकील हुआ करते थे । इसीलिये रिपोर्ट को बिना देखे ही उन्हें इसमें कही गई बातों का जरूर पूर्वानुमान है और वे नहीं चाहते हैं कि इसके बारे में दुनिया को भी पता चले ।
उल्लेखनीय है कि इस रिपोर्ट में सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति की हत्याओं के बदनाम मामले शामिल नहीं हैं । इसके बावजूद जब तुषार मेहता इसे सामने आने देना नहीं चाहते, तो लगता है कि इस जोड़ी ने न जाने कितने और ऐसे अपराध कराये होंगे । राणा अयूब की किताब 'गुजरात डायरी' से पता चलता है कि किस प्रकार गुजरात पुलिस का एक दस्ता वहां इनकी छाया तले बाकायदा एक हत्यारे गिरोह की तरह काम कर रहा था । (पढ़ें —https://chaturdik.blogspot.com/2016/06/blog-post.html )
बहरहाल, तुषार मेहता की आपत्ति पर मुख्य न्यायाधीश ने साफ शब्दों में कहा कि वैसे ही यह मामले काफी दिनों से झूल रहा है, अब इसे और नहीं झुलाया जा सकता है । लेकिन तुषार मेहता की भारी आपत्तियों को देखते हुए उन्होंने जनवरी तक का समय देने के बजाय सिर्फ एक हफ्ते का समय दिया और तुषार मेहता से कहा कि वे अपना शपथपत्र इसी अवधि में दाखिल कर दें । आगामी 12 दिसंबर को मामले की सुनवाई होगी ।
तुषार मेहता अपने मालिकों की इतनी सेवा करने में जरूर सफल हुए कि 7 दिसंबर को राजस्थान चुनाव के पहले इस रिपोर्ट को सामने नहीं आने दिया । लेकिन देखना है — 'बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी' !
बहरहाल, कल सुप्रीम कोर्ट में कुछ इसी प्रकार का एक वाकया सामने आया । गुजरात में जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे और अमित शाह गृह मंत्री, उस समय वहां 2002-2006 के बीच पुलिस ने कई फर्जी मुठभेड़ों में वहां बाहर से काम के लिये गये कुछ 22 से 37 साल की उम्र के मुस्लिम नौजवानों को यह कह कर फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया गया था कि वे नरेन्द्र मोदी की हत्या की कोशिश कर रहे थे । मारे गये नौजवानों के घर वालों को उनकी मृत्यु की खबर तक नहीं दी गई थी और इसकी वजह से सारे भारत में गुजरात में जाकर काम करने वाले मुसलमान नौजवानों के परिवारों में भारी दुश्चिंता पैदा हो गई थी ।
इसी पृष्ठभूमि में 2007 में ऐसी 22 फर्जी मुठभेड़ों पर वरिष्ठ पत्रकार वी जी वर्गीस और गीतकार जावेद अख्तर ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के जरिये इन मामलों की सीबीआई या ऐसआईटी के जरिये जांच की याचिका दायर की थी । उस समय सुप्रीम कोर्ट ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश एम बी शाह के नेतृत्व में एक जांच कमेटी का गठन किया था । बाद में इस कमेटी का दायित्व संभाला पूर्व न्यायाधीश एच एस बेदी ने ।
एच एस बेदी ने इसी साल के शुरू में अपनी जांच रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया । लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे दीपक मिश्रा जिनके बारे में अभी-अभी सेवानिवृत्त जस्टिस जोसेफ कूरियन ने अभियोग लगाया है कि वे किसी बाहरी शक्ति के द्वारा नियंत्रित होते थे । उन्होंने गुजरात में फर्जी मुठभेड़ों के बारे में बेदी कमेटी की रिपोर्ट को दबा कर रख दिया ।
अब दीपक मिश्रा के चले जाने के बाद कल ही सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को विचार के लिये उठाया और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगई ने अभियोजन पक्ष के वकील प्रशांतभूषण को उस रिपोर्ट को सौंपने की पेशकश की । मुख्य न्यायाधीश ने ज्योंही यह प्रस्ताव दिया, केंद्र सरकार के अटार्नी जनरल तुषार मेहता अपनी कुर्सी से उछल पड़ें और तत्काल कहा कि मुख्य न्यायाधीश ऐसा नहीं कर सकते हैं । उन्हें इसके बारे में गंभीर आपत्ति है । इस पर जब उन्हें अपनी बात रखने के लिये कहा गया तो वे बोले कि वे मौखिक नहीं, शपथपत्र के माध्यम से अपनी बात रखेंगे और इसके लिये उन्हें जनवरी महीने तक का समय दिया जाना चाहिए ।
जाहिर है कि बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को दी गई रिपोर्ट को बिना देखे ही केंद्र सरकार के वकील का इस प्रकार चौंक कर गहरी आपत्ति दर्ज करते हुए उठ खड़ा होना किसी के लिये भी चौंकाने वाला हो सकता है । लेकिन इस पूरे विषय को जानने वाले तुषार मेहता की इस बेचैनी के पीछे के डर को अच्छी तरह से जानते हैं । 2002-2006 के जिस काल में गुजरात पुलिस ने ये अपराध किये थे उस समय तुषार मेहता गुजरात सरकार के वकील हुआ करते थे । इसीलिये रिपोर्ट को बिना देखे ही उन्हें इसमें कही गई बातों का जरूर पूर्वानुमान है और वे नहीं चाहते हैं कि इसके बारे में दुनिया को भी पता चले ।
उल्लेखनीय है कि इस रिपोर्ट में सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति की हत्याओं के बदनाम मामले शामिल नहीं हैं । इसके बावजूद जब तुषार मेहता इसे सामने आने देना नहीं चाहते, तो लगता है कि इस जोड़ी ने न जाने कितने और ऐसे अपराध कराये होंगे । राणा अयूब की किताब 'गुजरात डायरी' से पता चलता है कि किस प्रकार गुजरात पुलिस का एक दस्ता वहां इनकी छाया तले बाकायदा एक हत्यारे गिरोह की तरह काम कर रहा था । (पढ़ें —https://chaturdik.blogspot.com/2016/06/blog-post.html )
बहरहाल, तुषार मेहता की आपत्ति पर मुख्य न्यायाधीश ने साफ शब्दों में कहा कि वैसे ही यह मामले काफी दिनों से झूल रहा है, अब इसे और नहीं झुलाया जा सकता है । लेकिन तुषार मेहता की भारी आपत्तियों को देखते हुए उन्होंने जनवरी तक का समय देने के बजाय सिर्फ एक हफ्ते का समय दिया और तुषार मेहता से कहा कि वे अपना शपथपत्र इसी अवधि में दाखिल कर दें । आगामी 12 दिसंबर को मामले की सुनवाई होगी ।
तुषार मेहता अपने मालिकों की इतनी सेवा करने में जरूर सफल हुए कि 7 दिसंबर को राजस्थान चुनाव के पहले इस रिपोर्ट को सामने नहीं आने दिया । लेकिन देखना है — 'बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी' !
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