-अरुण माहेश्वरी
पांच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणामों की चैनलों और अखबारों में आम तौर दिखाई दे रही बाजारू व्याख्याओं पर सचमुच हंसी आती है । भाजपा शासित तीन राज्यों में से दो में भाजपा को मिले मतों में 2014 की तुलना में 16 प्रतिशत और एक में 13 प्रतिशत की भारी गिरावट के बावजूद इनका सारा बल इस बात पर है कि भाजपा और कांग्रेस को मिले मतों के बीच एकाध प्रतिशत का ही फर्क है ।और इसी आधार पर यह नतीजा निकाला जा रहा है कि 2019 में मोदी जी के प्रति जनता के अतिरिक्त अनुराग को देखते हुए यह फासला न सिर्फ आसानी से पट जायेगा, बल्कि आगामी लोकसभा में मोदी पार्टी का बहुमत यथावत बना रहेगा ।
जहां तक भाजपा के खास नेताओं-कार्यकर्ताओं का सवाल है, यह मान लिया जा सकता है कि उन्हें दुख, शोक और डर के अवसाद में डूब मरने से बचाने की यह व्याख्या एक अच्छी दवा हो सकती है । लेकिन ‘रिपब्लिक’ की तरह के मोदी-शाह के जेबी चैनलों के अलावा जब कुछ दूसरे चैनलों के ऐंकर भी इसी प्रकार की दलीलों में फंसे दिखाई देते है तो कहना पड़ता है - यह कोरा बाजारूपन है ; दृष्ट की सीमा में कैद पशुता का प्रदर्शन ; ऐंकरों की गुलाम मानसिकता ।
जीवन का कोई भी सत्य क्या कभी भी किसी स्वयं-सीमित तस्वीर से व्यक्त होता है ? तब तक किसी भी सच्चाई की पहचान नहीं कायम की जा सकती है जब तक कि उसे एक परिघटनात्मक प्रक्रिया में नहीं देखा जाता है । यह कोई भोजन नहीं होता कि प्लेट में रख कर परोस दिया जाए और गपा-गप उसे खा लिया जाए ! वह तो परजीवियों का सत्य होता है ; प्रसादाकांक्षी भक्तों की वासनाओं का सच ।
अन्यथा, शास्त्र भी कहते हैं कि प्रक्रिया से बढ़ कर कोई ज्ञान नहीं है । ‘न प्रक्रियापरं ज्ञानं’ । जैसे ही कोई इन पांच राज्यों के परिणामों को एक परिघटनामूलक प्रक्रिया के ढांचे में देखेगा, उसे गुजरात में अहमद पटेल की जीत, गुजरात विधान सभा के चुनाव परिणाम, एक के बाद एक उपचुनावों में भाजपा की शर्मनाक पराजयों, जिनमें योगी आदित्यनाथ की सीट पर पराजय भी शामिल है, और कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की सरकार के गठन की श्रृंखला में इन तीन राज्यों में न सिर्फ भाजपा की सरकारों का अंत बल्कि भाजपा को मिले मतों में भारी गिरावट भारतीय राजनीति में एक नई परिघटना के साफ दिखाई देने लगेगी । यह मोदी नाम के एक प्रदर्शन-प्रिय सर्वाधिकारवादी नेता के अंत की परिघटना है । इन तीन राज्यों के परिणामों के बाद तो यह साफ तौर देखा जा सकता है कि इस पूरी प्रक्रिया में न सिर्फ मोदी की चमक खत्म हो गई है बल्कि इन साढ़े चार साल की करतूतों से उनके चेहरे पर इतनी कालिख पुत गई है कि अब वह कहीं दिखाने लायक भी नहीं रह गया है । चुनाव के पहले के पुराने वादों की बात तो जाने दीजिए, नोटबंदी, जीएसटी, महंगाई, बेरोजगारी और कृषि संकट से लेकर सभी संवैधानिक संस्थाओं के साथ किये गये खिलवाड़ और राफेल के स्तर के महाघोटाले ने इनके चरित्र में सचाई, ईमानदारी और जन-पक्षधरता का लेशमात्र भी नहीं छोड़ा है । मोदी आज हर प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक बुराई के प्रतीक, पूंजीपतियों के साथी और साधारणजनों के दुश्मन बन गये हैं । और अब इन अंतिम दिनों में तो उनकी बेसिर-पैर की बातों और अस्वाभाविक आचरण ने उनकी सूरत को जैसे किसी मनोरोगी का रूप देना शुरू कर दिया है ।
यह मामला सिर्फ मोदी जी तक सीमित नहीं है । क्रमश: यह पूरी सरकार ही कुछ टेढ़ी-मेढ़ी हो गई है जिसमें तर्क और बुद्धि की संगत बातों को कहने वाला जैसे खोजने पर भी कोई नहीं मिल पाता है । वित्तमंत्री जेटली से जहां पूरी सरकार बीमार नजर आती है, तो संबित पात्रा की तरह का प्रवक्ता सरकार को लगभग जोकर के स्तर पर उतार दे रहा है । टेलिविजन चैनलों पर कोरी अश्लीलताओं से आनंद लेने वाले नादानों के लिये ही अब पात्रा का थोड़ा आकर्षण बचा हुआ है ।
इसप्रकार, आज की भारतीय राजनीति के यथार्थ का परिघटनामूलक विश्लेषण इतना बताने के लिये तो काफी है कि 2019 से निकलने वाला रास्ता मोदी कंपनी को नर्क के रसातल में पहुंचाने वाला रास्ता होगा । भारतीय राजनीति के विकासमान यथार्थ में ऐसे तत्वों के लिये आगे कोई स्थान नहीं होगा । कोई भी राजनीतिक दल जिसे अपने अस्तित्व की जरा भी चिंता होगी और आने वाले दिनों के लक्षणों को समझने की जरा भी तमीज, तो वह अब ऐसे बदनाम चेहरे का संगी बन कर आने वाले दिनों की लड़ाई में उतरना मुनासिब नहीं समझेगा।
यही वजह है कि जो चुनाव-पंडित मोदी के खिलाफ महागठबंधन की संभवता-असंभवता की अटकलपच्चियों का बाजार गर्म किये हुए हैं, वे इसी परिघटना में महागठबंधन के अनिवार्य तौर पर उदय को भी नहीं पढ़ पा रहे हैं । वे नहीं समझ पा रहे हैं कि मोदी कंपनी के रहते इस महागठबंधन के उभार को रोक पाना असंभव है । यहां तक कि नितीश, पासवान, अकाली दल और शिवसेना की तरह के एनडीए के घटकों की भी यह मजबूरी हो सकती है कि अपने मृत्यु-मुखी अस्तित्व को स्वीकारते हुए घिसटते हुए काल के गाल में चले जाने की नियति को स्वीकार लें । अन्यथा जिसे भविष्य कहते हैं, मोदी के संग में उसकी कोई तस्वीर वे भी नहीं देखते हैं । उपेंद्र कुशवाहा अब पासवान को भी जिस प्रकार एनडीए के डूबते हुए जहाज से निकल आने का आह्वान कर रहे हैं, वह अकारण नहीं है । यही बात मोदी की निंदा में पूरी तरह से मुखर शिव सेना पर भी लागू होती है । मोदी के अंत की परिघटना का सत्य ही इन सबके अंदर से व्यक्त हो रहा है । यह तय है कि आगामी चुनाव में अन्य की धौंकनी से सांसे लेने वाले नितीश-पासवान जैसे दलों का तो पूरी तरह से जनाजा निकल जायेगा । शिव सेना और अकाली दल अपनी खुद की सत्ता के बल जितने ही बने रहेंगे । मोदी कंपनी की दुर्दशा की आंच से झुलसेंगे जरूर । हर राज्य में मोदी के अंत को सुनिश्चित करने वाले गठबंधनों का समुच्चय ही 2019 का महागठबंधन कहलायेगा ।
और मोदी ! 2019 के बाद पता नहीं किस अतल अंधेरे के जीव का जीवन जीयेंगे ! आरएसएस अपने सांस्कृतिक खोल में दुबक कर किसी नई साजिश की बुनावट में खो जायेगा । और भाजपा के बेपैंदी के दोयम दर्जे के नेता पार्टी की संपत्तियों के भोग से जीवन यापन की योजनाएं बनाते दिखाई देंगे ।
यह 2019 के महागठबंधन की ताकतों का दायित्व होगा कि अंधकार जगत के सारे जीवों को आगे अंधकार में ही रहने दे, कभी कहीं प्रकाश में न आने दें । किसी भी राष्ट्र के लिये इस मामले में आगे और असावधानी राष्ट्र के अस्तित्व के लिये बहुत घातक साबित हो सकती है ।
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