—अरुण माहेश्वरी
अभी-अभी अर्थनीति और भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बारे में एक के बाद एक, दो किताबे पढ़ने को मिलीं । पहली थी मोदी शासन के शुरू के चार सालों में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन की पुस्तक — Of Counsel ( The challenges of the Modi-Jaitly economy) और दूसरी पुस्तक है दुनिया की जानी-मानी बैंकर मीरा एच सान्याल की 'The Big Reverse (How demonetization knocked India out)' ।
मीरा सान्याल ने रॉयल बैंक आफ स्काटलैंड, इंडिया का सीईओ रहते हुए ही 2009 में मुंबई दक्षिण लोक सभा सीट से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था और फिर 2013 में सार्वजनिक जीवन में आने की गरज से ही बैंक की शानदार नौकरी को छोड़ कर वे आम आदमी पार्टी के टिकट पर 2014 के चुनाव में खड़ी हुई थी ।
अरविंद सुब्रह्मण्यम और मीरा सान्याल के मूलभूत दृष्टिकोण से सभी लोग परिचित हैं । इन दोनों में कोई भी समाजवादी प्रकार के विचारों का पक्षधर नहीं है । अर्थनीति के मामलों में दोनों बाजार की सर्वश्रेष्ठता के इस हद तक कायल हैं कि वह उनके लिये तर्क-वितर्क का विषय नहीं, बल्कि आस्था और विश्वास के विषय की तरह है।
लेकिन यह गौर करने लायक मजेदार बात है कि किसी भी क्षेत्र में समान दृष्टिकोण के लोग भी उस क्षेत्र में अपने अलग-अलग कामों की विशेष प्रकृति के कारण ही अनेक मामलों में बिल्कुल भिन्न छोरों पर खड़े दिखाई देने लगते हैं । दृष्टिकोण के क्षितिज के बाहर खड़े सत्य की रोशनी से एक बहुत दूर खड़ा हुआ दिखाई देता है तो दूसरा उसके बहुत करीब । जैसे एक पूंजीवादी विचारक जिस प्रकार पूंजी के सत्य को दुनिया का अंतिम सत्य मान कर चलता है, वहीं एक बुर्जुआ यथार्थवादी लेखक जीवन के अपने ब्यौरों से पूंजी के सत्य की गलाजत को दिखाता हुआ प्रकारांतर से अनायास ही उसे अंतिम सत्य न मानने की दलीलें खड़ी कर देता है ।
अरविंद सुब्रह्मण्यन और मीरा सान्याल के बीच के बिल्कुल इसी फर्क को उनकी पुस्तकों के आधार पर स्पष्ट देखा जा सकता है ।
अरविंद सुब्रह्मण्यन ने अपनी किताब में बहुत साफ शब्दों में कहा है कि नोटबंदी मोदी सरकार का एक निष्ठुर (monstrous) कदम था, जिसने अर्थ-व्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र और नगदी के अधिक चलन वाले क्षेत्र पर गहरा आघात किया है । कथित 'मोदी अर्थनीति' के उन्माद के मूलभूत तत्व को प्रदर्शित करने वाले नोटबंदी के कदम पर अरविंद की इतनी कड़ी टिप्पणी के बावजूद उनकी पूरी किताब में हमने आश्चर्यजनक रूप से यह नोट किया कि “नोटबंदी से लेकर जीएसटी और आरबीआई, बैंकों के एनपीए आदि के बारे में जेटली जी के मुंह से अब तक जो भी उटपटांग किस्म की दलीलें सुनी जाती रही हैं, मसलन् नोटबंदी से अनौपचारिक और नगदी की चलन वाले क्षेत्रों को तात्कालिक तौर पर भारी नुकसान होने पर भी डिजिटलाइजेशन, औपचारीकरण (formalization), और करदान (tax compliance) के मामले में इसके दूरगामी लाभ हुए हैं, या अर्थ-व्यवस्था की तेजी के समय बैंकें जब मनमाने ढंग से कर्ज बांट रही थीं, तब आरबीआई क्या तेल लेने गया था, या आरबीआई के आरक्षित कोष की मात्रा पर चर्चा होनी चाहिए थी की तरह की सारी दलीलें किसी और के दिमाग की नहीं, इन अरविंद सुब्रह्मण्यन साहब के दिमाग की ही उपज रही हैं । इन सारी बातों को उन्होंने अपनी इस किताब में बिल्कुल उन्हीं शब्दों में कहा है जिनका प्रयोग हमारे अरुण जेटली अक्सर किया करते हैं ।” (देखें — https://chaturdik.blogspot.com/2018/12/blog-post_8.html)
यह है एक शुद्ध विचारक, अर्थनीति के व्यापक परिदृश्य (macro-economy) के सिंहावलोकन में महारथ रखने वाले चिंतक की दुर्दशा का नमूना जिसके सोच के शीलवान ढांचे के अंदर ज्ञान चर्चा सर्वाधिक अमूर्तता के बिंदु पर जाकर कैसे बिल्कुल दिशाहीन हो जाती है । इस प्रकार का निर्रथक दीर्घ विमर्श अर्थनीति संबंधी चर्चा के पारंपरिक शास्त्रीय रूप की गरिमा को भी बनाये रखने के बजाय अजीब प्रकार से उसका विकृतिकरण करता है और अर्थनीति की कोरी निठल्ली चर्चाओं में योगदान करने लगता है ।
किसी भी विषय का विचारक उसके किसी एक पहलू का विशेषज्ञ नहीं होता, उसकी भूमिका अपने नजरिये से विशेषज्ञों में अपने विषय की और ज्यादा गहराइयों में प्रवेश की इच्छा पैदा करने की होती है ; कह सकते है कि वह उन्हें उनके विषय के 'परा-सत्य' से, उसकी सीमाओं के बाहर छूट गये सत्य से जोड़ता है ।
अरविंद के ठीक विपरीत मीरा सान्याल की स्थिति किसी विचारक की नहीं, जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक कार्यकर्ता-नेता की है । मीरा सान्याल एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति की तपी-तपायी बैंकर रही है, जिसे देशी भाषा में कहे तो पक्की महाजन । मुद्रा और पूंजी के व्यापार के क्षेत्र की एक मजी हुई खिलाड़ी ।
महाजन भले ही अर्थनीति के सामान्य सिद्धांतों की महीन कताई के मामले में निपुण न हो, लेकिन वह गांव के हर घर की खबर रखने वाला होता है जो अपने ग्राहकों की स्थिति की पूरी खबर रखता है । ठोस रूप में अर्थनीति का वास्ता जिन नागरिकों से हैं, बेहतरीन बैंकर उनके जीवन के सच से अपने पेशे की जरूरतों के लिये ही गहराई से वाकिफ रहता है । और यही वजह है कि वह सिद्धांतों की किसी ऊंची मीनार पर चढ़ कर अर्थनीति के माजरों का नजारा करते हुए सलाहकार पद का सुख भोगने वालों की तुलना में नीतियों के असली नियंता नागरिक जीवन से लेकर, अर्थनीति के क्षेत्र के सभी संस्थानों के जगत के बाहरी सच के ज्यादा करीब रहता है ।
यही वजह है कि मीरा सान्याल जब अपनी किताब में नोटबंदी के कुल परिणाम के बारे में अपनी राय सुनाती है (Report-Card) तो उस अध्याय के शीर्ष पर थामस जेफरसन का एक कथन उद्दृत करती है — “किसी भी अच्छी सरकार के पहला और अकेला लक्ष्य मानव जीवन और उसमें खुशहाली है न कि उनकी तबाही ।” और इसके बाद, एक के बाद एक, नोटबंदी के सभी घोषित लक्ष्यों की विफलताओं का पूरा चिट्ठा खोलती चली जाती है। काला धन निकालने, भ्रष्टाचार को खत्म करने और नकली नोटों को बेकार करके आतंकवाद से लड़ने के मोदी के पहले तीन लक्ष्यों, और उसके बाद डिजिटल और नगदी-विहीन (cash-less) भारत के मोदी के ही चौथे लक्ष्य, फिर कर के आधार को विस्तृत करने तथा परिशुद्ध जीडीपी के बड़े लक्ष्य को पाने की जेटली की घोषणा, और इन सबके साथ शक्तिकांत दास की तरह के नौकरशाह के घरों में बेकार पड़ी हुई सारी बचत को बैंकों में खींच लाने के सभी दावों की विस्तार से जांच करते हुए वे कहती है कि “मोदी सरकार नोटबंदी के घोषित आठ लक्ष्यों में से एक भी लक्ष्य को हासिल करने में विफल रही है ।
“2016 की नोटबंदी न सिर्फ एक संपूर्ण विफलता थी बल्कि इससे अर्थ-व्यवस्था पर आघात की भारी कीमत अदा करनी पड़ी है, लोगों पर इसका बुरा असर पड़ा है, इससे आज तक जारी तबाही भी पैदा हुई है ।” आरबीआई के पूर्व गवर्नर आई जी पटेल को उद्धृत करते हुए वे कहती हैं — “हमें उन कामों के प्रति सावधान रहना चाहिए जो काफी काम बढ़ाते हैं, भारी पीड़ा के कारण बनते हैं और बहुत कम लाभ होता है ।”
यह है एक बैंकर की यथार्थ बुद्धि । मीरा सान्याल ने अपनी किताब में जितने विस्तार के साथ नोटबंदी की पूरी कहानी, इससे जुड़े चरित्रों का चित्रण किया है, उससे लेखक घोषित विचारों के बजाय लेखन में उसके द्वारा वर्णित ठोस यथार्थ की महत्ता बहुत ही साफ रूप में स्थापित होती है । यह यथार्थ लेखक के अपने वैचारिक दायरे का अतिक्रमण करके आपको सत्य की ज्याद नजदीक ले जाता है ।
अरविंद सुब्रह्मण्यन नोटबंदी को 'निष्ठुर कदम' कहने के बावजूद उससे कर के आधार के विस्तार, डिजिटल और नगद-विहीन अर्थ-व्यवस्था के लाभों के सैद्धांतिक भूल-भुलैय्या में भटकते रह जाते हैं, लेकिन यथार्थपरक मीरा सान्याल उसे शुद्ध रूप में एक तुगलकी, बेतुका और भारी नुकसानदेह कदम साबित करने से नहीं चूकती । यह काम के बोझ को बढ़ाने वाला एक पीड़दायी और मूर्खतापूर्ण कदम के अलावा कुछ नहीं था ।
यह नोटबंदी का ही करिश्मा है कि आज तक देश में नगदी का जो अकाल पड़ा हुआ है उसका संकट न सिर्फ अर्थ-व्यवस्था में भारी आर्थिक मंदी के रूप में, बल्कि बैंकों के एनपीए और रिजर्व बैंक और सरकार के रिश्तों के बीच की समस्या तक में जाहिर हो रहा है । रुपया धरती, आकाश में कहां गायब हो गया, समझ के परे हैं । चौतरफा तंगी और अभाव की काली छाया मंडरा रही है । सचमुच, इतिहास में नोटबंदी को हमेशा मोदी के एक अक्षम्य अपराध के रूप में याद किया जायेगा ।
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