गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी में संगठन

अखबार बताते हैं कि सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी में संगठन पर चर्चा हो रही है। यह सबसे महत्वपूर्ण है। अन्दर से कमजोर बाहर के दबावों के सामने असमर्थ होता हैं।

संगठन की कमजोरी के मूल में भी सांगठनिक सिद्धांतों की बड़ी भूमिका है। तथाकथित क्रांतिकारी पार्टी के बंद ढांचे ने इसे तबाह किया है।

सार्त्र का नाटक है - ‘No Exit’।

नर्क पहुंची तीन नीच आत्माओं को यातना देने के बजाय एक कमरे में हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया जाता है। आपस में कोई अपना पाप कबूल नहीं करना चाहता। लेकिन एक कहता है - हमें अपना नैतिक अपराध कबूल करना चाहिए। और इसी क्रम में एक बिना किसी यंत्रणादायी के ही यंत्रणा पाने के सच को देख लेता है। कहता है - ‘‘रुको! देखो यह कितनी सीधी बात है, बच्चों की तरह सीधी। यहां कोई शारीरिक यंत्रणादाता नहीं है। यह तो तुमलोग मानोगे? फिर भी हम नर्क में हैं। और, यहां कोई दूसरा नहीं आने वाला। हम तीनों हमेशा-हमेशा के लिये, इस कमरे में रहेंगे। ...संक्षेप में, यंत्रणा अधिकारी यहां नहीं है...जाहिर है उनके पास लोगों की कमी है - हममें से प्रत्येक बाकी दोनों के लिये यंत्रणादायी का काम करेगा।’’

बंद कमरा और शत्रु की तलाश की प्रवृत्ति - सोच लीजिये यह सब क्या किसी नर्क से कम है!

संगठन जितना बंद, उतना ही घना नर्क।

सीपीआई(एम) ने जन-क्रांतिकारी पार्टी के गठन के उद्देश्य को अपना कर इस प्रकार के बंदपन से मुक्ति का रास्ता तलाशा था। उसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

संयुक्त मोर्चा और वाम मोर्चा


चर्चा गर्म है कि सीपीआई(एम) अब बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम दलों की एकता, वाम मोर्चा पर ही बल देगी ।
एक समय में अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी ने जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की नीति अपनाई थी । इसे आज तक अधिकारी तौर पर ख़ारिज नहीं किया गया है । लेकिन अभी का नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी' के बजाय 'क्रांतिकारी' पार्टी पर ज़्यादा बल देता है, 'जन-क्रांतिकारी' की चर्चा ही नहीं की जाती । जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फ़ैसला विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत के कम्युनिस्टों का एक बड़ा योगदान था । इसका सीधा संबंध भारत की ठोस परिस्थितियों से, यहाँ के आधुनिक राजनीतिक इतिहास से जुड़ा हुआ था । यह ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थितियों में किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और विस्तार का सिद्धांत था ।
'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के सिद्धांत से ही संगति रखती हुई कार्यनीति है - 'संयुक्त मोर्चा' की कार्यनीति । इस कार्यनीति पर सफलता के साथ चलते हुए एक समय में सीपीआई (एम) ने भारत की राजनीति में ख़ुद को अच्छी तरह प्रतिष्ठित किया था ।
आज, सीपीआई(एम) का वर्तमान नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के निर्माण के लक्ष्य को पूरी तरह से भुला कर 'क्रांतिकारी' पार्टी का जाप करता है । इसीके तार्किक विस्तारसे जुड़ा हुआ है, संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम मोर्चा की एकता पर ही अधिक से अधिक बल देना ।
इस प्रकार का कार्यनीतिगत प्रत्यावर्त्तन पहले से ही सिमट रही पार्टी द्वार हताशा में आत्म-हत्या करने के निर्णय जैसा होगा ।
आख़िर कार्यनीति क्यों? पार्टी की राजनीति को व्यापक जनता के बीच ले जाने के लिये ही तो। आज क्या वामपंथी दलों की समाज में वह हैसियत हैं कि जिससे सिर्फ अपने बूते वह समाज के तमाम तबक़ों को संबोधित कर सकें ? ऐसे अनेक तबके हैं, जो वामपंथ की वर्गीय राजनीति में सहयोगी बन सकते हैं, फिर भी वामपंथियों की जद से पूरी तरह बाहर है । मोटे उदाहरण के तौर पर पूरे हिन्दी-भाषी क्षेत्र को लिया जा सकता है ।
दरअसल 'क्रांतिकारिकता' मध्यवर्गीय नेतृत्व के लिये सिर्फ एक लुभावनी अवधारणा ही नहीं है, संगठन पर नौकरशाही जकड़बंदी का औज़ार भी है । जनता की आशाओं-आकांक्षाओं के दबाव से पूरी तरह बचते हुए राजनीति के अपने सुरक्षित केंचुल में घुसे रहने का सबसे सरल उपाय ।

सीताराम येचुरी का वैकल्पिक राजनीतिक दस्तावेज़


आज (27 अक्तूबर) के 'टेलिग्राफ' और 'आनंदबाजार पत्रिका' की रिपोर्टों के अनुसार सीपीआई (एम) की केन्द्रीय कमेटी की आज से शुरू होने वाली बैठक के पहले पोलिट ब्यूरो की बैठक में सीताराम येचुरी ने आगामी पार्टी कांग्रेस में विचार के लिये राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में पार्टी के अधिकृत दस्तावेज़ का विरोध करते हुए अपना एक और दस्तावेज़ पेश किया है, जिसमें पार्टी की इधर के वर्षों की कार्यनीतिगत लाइन पर अमल में की गयी भूलों के लिये अभी के प्रभावी नेतृत्व को ज़िम्मेदार बताया गया है ।

अख़बारों की इस रिपोर्ट में कितना झूठ और कितना सच हैं, हम नहीं जानते । लेकिन इतना ज़रूर समझते हैं कि सीपीआई(एम) का मौजूदा नेतृत्व पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से जिस प्रकार की राजनीतिक कार्यनीतिगत लाइन पर चलता रहा है, वह देश के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के अवबोध से कोसों दूर कोरी आत्मगत, हठवादी और भारी भूलों से भरी हुई थी । सांगठनिक मामले में तो उसकी दशा और भी बदतर है । केन्द्रीयतावादी कमान प्रणाली पर चलते हुए ऊपर से नीचे तक उसका पूरा संगठन नौकरशाही संगठन बन गया है । उसके सभी जनसंगठन अपनी स्वतंत्र भूमिका को खो चुके हैं । और, इन सबके लिये उसके केन्द्रीय स्तर से लेकर राज्यों के स्तर तक का नेतृत्व ज़िम्मेदार है ।

इसीलिये, इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सीपीआई(एम) में एक लंबे अर्से से जो चलता रहा है, वह चल नहीं सकता है । इसने पार्टी से उसकी आंतरिक शक्ति और गति को छीन लिया है ।

हम नहीं जानते कि सीताराम येचुरी के वैकल्पिक दस्तावेज़ में क्या हैं । अभी तो पार्टी का अधिकृत दस्तावेज़ ही सामने आना बाक़ी है । उन सबके सामने आने पर निश्चित तौर पर उन पर विचार किया जायेगा । लेकिन सीताराम येचुरी जैसे क़द्दावर नेता का अभी के नेतृत्व के विरोध में ठोस रूप से उतरना सीपीआई(एम) के अंदर की एक ऐसी घटना है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिये । ऐसी टकराहटों के बीच से ही भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का आगे का रास्ता साफ होगा, एक पूरी तरह से नाकारा साबित हुए नेतृत्व की हाँ में हाँ मिलाने से नहीं ।

प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी का हाथ



प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी का हाथ । इस चित्र पर सब हैरान हैं ।

कहने के लिये तो वामपंथी शैली में सरकार के नेताओं को अक्सर पूँजीपतियों का दलाल कहा जाता हैं । इसके बावजूद, पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक, यहाँ तक कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी कभी ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिया, जिससे यह लगे कि अमुक नेता पूरी तरह से किसी पूँजीपति की सरपरस्ती में काम कर रहा है ।

इसके विपरीत इन्दिरा गांधी जेआरडी टाटा से लेकर बिड़लाओं और धीरूभाई अंबानी के साथ अपने दफ़्तर में कैसा कठोर व्यवहार करती थी, इसे लेकर ढेरों क़िस्से प्रचलित हैं। नेहरू, शास्त्री के ज़माने तक तो बात ही कुछ और थी । कांग्रेस नेतृत्व पूँजीवादी विकास की नीतियों पर चलने के बावजूद पूँजीपतियों के साथ उसका प्रकट व्यवहार थोड़ा अलग रहा है । सिर्फ़ कांग्रेस के नेताओं का नहीं, अटल बिहारी और आडवाणी तक ने किसी पूँजीपति को उनकी पीठ पर हाथ रखने की अनुमति नहीं दी थी ।

भारत के राजनेताओं की घोषित नीतियों और उनके निजी व्यवहार के बीच के ऐसे द्वैत को पिछले दिनों एक व्यापक सैद्धांतिक चौखटे में समझने की कोशिश की गई थी । प्रभाट पटनायक ने 'टेलिग्राफ़' में अपने एक लेख में इसे सारी दुनिया के स्तर पर नेहरू, नासिर, सुकर्णो की तरह के नव-स्वाधीन देशों के राजनीतिक नेतृत्व के संदर्भ में समझते हुए इस नये राजनीतिक नेतृत्व को एक मध्यवर्ती वर्ग (intermediate class) का प्रतिनिधि कहा था । इस लेखक ने प्रभात की इस अवधारणा को ज्योति बसु, लालू यादव, मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता तक खींचा था ।

पूँजीपतियों के प्रति राजनेताओं के इस व्यवहार के पीछे सबसे बड़ा सच यह रहा है कि यह राजनीतिक नेतृत्व इस बात को जानता था कि भारत के पूँजीपतियों ने जनता के जीवन में सुधार करने वाली अभिनव सामग्रियों की खोज, अर्थात शोध और विकास के कामों के ज़रिये धन नहीं कमाया हैं । इनकी आमदनी अधिक से अधिक राजनीतिक नेताओं के संरक्षण से बाज़ार में अपनी इजारेदारी, कोटा-परमिट और सार्वजनिक धन, सार्वजनिक उद्यमों की लूट पर निर्भर रही है । सरकारी संरक्षण में आम लोगों के संचित धन की लूट पर भी ।

ग़ौर करने लायक बात यह है कि पूँजी के आदिम संचय की यह प्रक्रिया भारत में अभी भी ख़त्म नहीं हुई है । सरकार की शह से प्राकृतिक स्रोतों की लूट आज भी यहाँ के पूँजीपतियों की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है । भारत के पूँजीपतियों ने आज तक शायद अपनी पहल पर ऐसे एक भी उत्पाद का ईजाद नहीं किया है, जिसे सारी दुनिया के लोग अपने जीवन में अपना सकें । पूँजीपति राजनेताओं पर अपनी इस निर्भरशीलता को अच्छी तरह जानते हैं। इसके बावजूद, मुकेश अंबानी प्रधानमंत्री की पीठ पर हाथ रखने का साहस कर पाये, यह एक विचारणीय बात है ।

रविवार, 26 अक्टूबर 2014

क्या यह किसी बड़े घोटाले की तैयारी है !


आज जगदीश्वर चतुर्वेदी के पोस्ट से पता चला कि भारत में मोबाइल कॉल और इंटरनेट की कीमत बढ़ाई जा रही है। यह काम तभी हो सकता है जब टेलिकॉम क्षेत्र की सभी कंपनियां आपस में मिल कर सिंडिकेट बना कर काम करें। इस प्रकार का सिंडिकलिज्म इजारेदारी को रोकने के एमआरटीपी एक्ट के विरुद्ध है।
मुसीबत यह है कि भारत में जो ‘टेलिकॉम रेगुलेटरी आथोरिटी (ट्राई) एक समय में टेलिकॉम कंपनियों की मनमानी से उपभोक्ताओं को बचाने के उद्देश्य से निर्मित हुई थी, आज वही टेलिकॉम कंपनियों के सिंडिकलिज्म के मंच में शायद तब्दील हो गयी है। अन्यथा, जिस युग में सारी दुनिया में फोन और इंटरनेट को जन-कल्याण कार्यक्रमों के तहत लगभग मुफ्त कर देने की बातें चल रही है, उसी समय यहां की टेलिकॉम कंपनियां बिना किसी प्रतिवाद के आसानी से इन सेवाओं को महंगा बना रही है।
केन्द्रीय सरकार क्या कर रही है? क्या वह टेलिकॉम कंपनियों की इस मिलीभगत के साथ है? अगर नहीं, तो इस प्रकार की इजारेदाराना हरकतों को रोकने के लिये वह क्या कर रही है?
कहीं यह एक और बड़े टेलिकॉम घोटाले का सूत्रपात तो नहीं है?

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

विस्मृत मृतात्माओं की साधना क्यों ?

अरुण माहेश्वरी

पांच महीने अभी पूरे हुए हैं और मोदी के प्रचारकों का सुर बदल गया। देखिये कल, 24 अक्तूबर के ‘टेलिग्राफ’ में स्वपन दासगुप्त का लेख - Picky with his symbol (अपने प्रतीक का खनन)।

स्वपन दासगुप्त, मोदी बैंड के एक प्रमुख वादक, चुनाव प्रचार के दिनों में बता रहे थे - गुजरात का यह शेर सब बदल डालेगा। आजादी के बाद से अब तक जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का जो नाटक चलता रहा है, उसका नामो-निशान तक मिट जायेगा। इतिहास की एक नयी इबारत लिखी जायेगी।

आज वही दासगुप्ता मोदी विरोधियों को इस बात के लिये लताड़ रहे हैं कि क्या हुआ, मोदी को लेकर इतना डरा रहे थे, कुछ भी तो नहीं बदला। मोदी की राक्षस वाली जो तस्वीर पेश की जा रही थी, अल्पसंख्यकों को डराया जा रहा था, पड़ौसी राष्ट्रों से भारी वैमनस्य की आशंकाएं जाहिर की जा रही थी - वैसा कुछ भी तो नहीं हुआ। बनिस्बत्, अपने राजतिलक के मौके पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक को आमंत्रित करके, जापान, अमेरिका सहित सारी दुनिया को आर्थिक उदारवाद की मनमोहन सिंह की नीतियों पर ही और भी दृढ़ता के साथ चलने का आश्वासन देकर और ‘स्वच्छ भारत’ आदि की तरह के अपने प्रचार अभियानों में आमिर खान, सलमान खान को शामिल करके, और तो और, स्वपन दासगुप्त के अनुसार, योगी आदित्यनाथ की जहरीली बातों का खुला समर्थन न करके मोदी ने अपने ऐसे सभी विरोधियों को निरस्त कर दिया है। उनके लेख की अंतिम पंक्ति है - ‘‘ मोदी के आलोचकों को अब उनकी पिटाई के लिए नयी छड़ी खोजनी होगी, पुरानी तो बेकार होगयी है।’’ (Modi’s critics must find a new stick to beat him with. The old one has blunted)

दासगुप्त का यह कथन ही क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कांग्रेस-शासन के दुखांत के बाद, यह ‘कांग्रेस-विहीनता’ का शासन प्रहसन के रूप में इतिहास की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं साबित नहीं होने वाला !

मार्क्स की विश्लेषण शैली का प्रयोग करें तो कहना होगा - मानव अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं पर मनचाहे ढंग से नहीं। वे अतीत से मिली परिस्थितियों में काम करते हैं और मृत पीढि़यों की परंपरा जीवित मनुष्यों के मस्तिष्क पर एक दु:स्वप्न सी हावी रहती है। ‘‘ऐसे में कुछ नया करने की उत्तेजना में ही अक्सर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा में आमंत्रित कर लेते हैं। उनसे अतीत के नाम, अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि इतिहास की नवीन रंगभूमि को चिर-प्रतिष्ठित वेश-भूषा में, इस मंगनी की भाषा में पेश कर सके।’’

आरएसएस के प्रचारक और गुजरात (2002) के सिंह के जिन प्रतीकों के आधार पर स्वपन दासगुप्त मोदी को एक नये बदलाव का सारथी बता रहे थे, वे ही अब यह कह करे हैं कि ‘‘प्रधानमंत्री मोदी और चुनाव प्रचार के समय का अदमनीय मोदी बिल्कुल भिन्न है। यह नयी मोदी शैली अभी विकासमान है और इसकी कोई चौखटाबद्ध परिभाषा करना जल्दबाजी होगी।’’(Modi the prime minister has chosen to be markedly different from Modi the indefatigable election campaigner. The style is still evolving and it would be premature to attempt a rigid definition of the new style)

नयी मोदी शैली ! पहले सरदार पटेल, अब गांधी, नेहरू भी - भारत की राष्ट्रीय राजनीति की चिरप्रतिष्ठित वेश-भूषा और मंगनी की पुरानी भाषा की सजावट से तैयार हो रही नयी शैली !

इसमें शक नहीं कि दुनिया के सभी बड़े-बड़े परिवर्तनों की लड़ाइयों को बल पहुंचाने के लिये अतीत के प्रतिष्ठित प्रतीकों का, आदर्शों और कला रूपों का भी प्रयोग होता रहा हैं। वर्तमान की लड़ाई के सेनानियों में एक नया जज़्बा पैदा करने के लिये अनेक मृतात्माओं को पुनरुज्जीवित किया जाता रहा है। भारत की आजादी की लड़ाई का इतिहास तो ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा हुआ है। आधुनिक जनतांत्रिक विचारों के साथ ही इसकी एक धारा स्पष्ट तौर पर पुनरुत्थानवादी धारा रही है। लेकिन उस लड़ाई में अतीत के आदर्शों और प्रतीकों का, अनेक मृतात्माओं का उपयोग गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को गौरवमंडित करने के उद्देश्य से किया गया था, न कि किसी प्रकार की भौंडी नकल भर करने के लिए; उनका उपयोग अपने उद्देश्यों और कार्यभारों की गुरुता को स्थापित करने के लिये किया गया था, न कि अपने घोषित कार्यभारों को पूरा करने से कतराने के लिये, अपने चरित्र पर पर्दादारी के लिये; उनका इस्तेमाल कुंद की जा चुकी प्राचीन गौरव की आत्मा को जागृत करने के लिए किया गया था न कि उसके भूत को मंडराने देने के लिए, अपने समय को भूतों का डेरा बना देने के लिये।

गौरवशाली, वीरतापूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन की कोख से इस देश में एक पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य की स्थापना हुई। राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व से अबतक इसके विभिन्न चरणों में कई प्रवक्ता पैदा हुए - पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह। इनके अलावा गैर-कांग्रेस दलों से भी छोटे-बड़े अंतरालों के लिये मोरारजी देसाई, चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रवक्ता सामने आएं। यह कहानी, स्वतंत्र भारत में भारतीय पूंजीवाद के विकास की कहानी, पूरे सड़सठ सालों की कहानी है। इतने लंबे काल तक नाना प्रकार के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से लगातार धन के उत्पादन, लूट-खसोट और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विताओं मंन तल्लीन हमारा आज का उपभोक्तावादी समाज इस बात को लगभग भूल चुका है कि उसका जन्म आजादी की लड़ाई के दिनों के वीर सेनानियों की मृतात्माओं के संरक्षण में हुआ हैं। राजनीति एक आदर्श-शून्य, शुद्ध पेशेवरों का कमोबेस खानदानी धंधा बन चुकी है।

ऐसे सामान्य परिवेश में, अतीत के सारे कूड़ा-कर्कट को साफ कर देने की दहाड़ के साथ सत्तासीन होने वाले शूरवीर द्वारा अपनी सेवा के लिये मृतात्माओं का आह्वान किस बात का संकेत है ? क्या तूफान की गति से इतिहास का पथ बदल देने का दंभ भरने वालों में सिर्फ पांच महीनों में ही सहसा किसी मृतयुग में पहुंच जाने का अहसास पैदा होने लगा है? वैसे भी, हाल के उपचुनावों और राज्यों के चुनावों के बाद एक सिरे से सब यह कहने लगे हैं कि भाजपा की बढ़त के बावजूद मोदी लहर जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं रहा है। राजनीति के नाम पर वही सब प्रकार की जोड़-तोड़, सरकारें बनाने-बिगाड़ने की अनैतिक कवायदें, अपराधियों को हर प्रकार का संरक्षण देने की शर्मनाक कोशिशें, एक-दूसरे की टांग खिंचाई की साजिशाना हरकतें, सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंप देने की राजाज्ञाएं, सीमाओं को लेकर थोथा गर्जन-तर्जन और विश्व पूंजीवाद के सरगना अमेरिका की चरण वंदना। यही तो है, एक शब्द में - राजनीति का मोदी-अमितशाहीकरण !

इसीलिये, स्वपन दासगुप्त जो भी कहे, अब इतना तो साफ है कि मोदी का सत्ता में आना किसी आकस्मिक हमले के जरिये बेखबरी की स्थिति में किसी को अपने कब्जे में ले लेना जैसा ही था। वैसा धुआंधार, एकतरफा प्रचार पहले किसी ने नहीं देखा था। अन्यथा, न भ्रष्टाचार-कदाचार में कोई फर्क आने वाला है, न तथाकथित नीतिगत पंगुता में। जब आंख मूंद कर पुराने ढर्रे पर ही चलना है तो क्या सजीवता, और क्या पंगुता ! इस पूरे उपक्रम में यदि कुछ बदलेगा तो, जैसा कि नाना प्रकार की खबरों से पता चल रहा है, पिछली सरकार द्वारा मजबूरन अपनाये गये गरीबी कम करने के कार्यक्रमों में कटौती होगी; भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के हित में किये जारहे सुधारों को रोका जायेगा; और भारत में विदेशी पूंजी के अबाध विचरण का रास्ता साफ किया जायेगा। भारत सरकार गरीबों को दी जाने वाली तमाम प्रकार की रियायतों में कटौती करें, इसके लिये सारी दुनिया के  बाजारवादी अर्थशास्त्री लगातार दबाव डालते रहे हैं। इसीप्रकार भूमि अधिग्रहण के मामले में बढ़ रही दिक्कतों को खत्म करने और बैंकिंग तथा बीमा के क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिये पूरी तरह से खोल देने के लिये भी दबाव कम नहीं हैं। मनमोहन सिंह इन सबके पक्ष में थे, फिर भी विभिन्न राजनीतिक दबावों के कारण अपनी मर्जी का काम नहीं कर पा रहे थे। इसीलिये उनकी सरकार पर लगने वाले ‘नीतिगत पंगुता’ के सभी सच्चे-झूठे अभियोगों में ये सारे प्रसंग भी शामिल किये जाते थे। मोदी सरकार ने इसी ‘नीतिगत पंगुता’ से उबरने के लिये सबसे पहले गरीबी को कम करने वाली योजनाओं की समीक्षा करनी शुरू कर दी है। बीमा क्षेत्र को तो विदेशी पूंजी के लिये खोल ही दिया है, भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी पहले सर्वसम्मति से जो निर्णय लिये गये थे, उन सबको बदलने के बारे में विचार का सिलसिला शुरू हो गया है।

चन्द रोज पहले ही प्रकाशित हुई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि सन् 2011 से 2013 के बीच दुनिया में गरीबी को दूर करने में भारत का योगदान सबसे अधिक (30 प्रतिशत) रहा है। खास तौर पर मनरेगा और बीपीएल कार्ड पर सस्ते में अनाज मुहैय्या कराने  की तरह के कार्यक्रमों ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इन कार्यक्रमों के चलते भारत में मजदूरी के सामान्य स्तर में वृद्धि हुई है। लेकिन भारतीय उद्योग और मोदी सरकार भी सस्ते माल के उत्पादन की प्रतिद्वंद्विता में भारत को दुनिया के दूसरे देशों से आगे रखने के नाम पर मजूरी के स्तर को नियंत्रित रखना चाहती है। ‘श्रमेव जयते’ योजना, पूंजी और श्रम के बीच की टकराहट में सरकार की अंपायर की भूमिका के अंत की योजना, जिसकी घोषणा के दिन को खुद भाजपा के श्रमिक संगठन, भारतीय मजदूर संघ ने भारत के मजदूरों के लिये एक काला दिवस कहा, मोदी उसीकी शेखी बघारने में फूले नहीं समा रहे। हांक रहे हैं - ‘श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’।

इन सारी स्थितियों में, ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत सिर्फ चमत्कारों पर विश्वास करने वाले कमजोर लोगों में ही किसी नये विश्वास का उद्रेक कर सकता है। भविष्य के उन कार्यक्रमों के गुणगान में, जिनकी उन्होंने अपने मन में योजनाएं बना रखी है, लेकिन उन पर असल में अमल की कोई मंशा या अवधारणा ही नहीं हैं, ये वर्तमान के यथार्थ के अवबोध को ही खो दे रहे हैं।

‘स्वच्छता अभियान’ का ही प्रसंग लिया जाए। साफ और स्वच्छ भारत के पूरे मसले को जनता के शुद्ध आत्मिक विषय में तब्दील करके पूरे मामले को सिर के बल खड़ कर दिया जा रहा है।

इन्हीं तमाम कारणों से वह समय दूर नहीं होगा, जब यह प्रमाणित करने के लिये इकट्ठे हुए लोग कि हम अयोग्य नहीं है, अपना बोरिया-बिस्तर समेटते हुए दिखाई देने लगेंगे - ‘जो आता है वह जाता है’ का बीतरागी गान करते हुए। स्वपन दासगुप्त मोदी-विरोधियों से मोदी की पिटाई के लिये नयी छड़ी खोजने की बात करते हैं। यह नहीं देखते कि जो पिटे हुए रास्ते पर चलने की पंगुता का शिकार हो, उसे पीटने के लिये किसी छड़ी की जरूरत ही नहीं होगी। मोदी शासन के प्रारंभ में ही उसके दुखांत के बीज छिपे हुए हैं।


मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

धन की उपासना का दीप-पर्व



अरुण माहेश्वरी

दीपावली - विजया दशमी के तकरीबन बीस दिन बाद राम की वापसी की इस अमावस्या की रात को अयोध्यावासियों ने दीयों की रोशनी से जगमग कर दिया  था। लेकिन राम की वापसी का उत्सव देखते ही देखते कैसे लक्ष्मी की पूजा के उत्सव में बदल गया, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। धन सुख-समृद्धि का पर्याय बन गया और लक्ष्मी प्रकाश का सबसे बड़ा स्रोत। धर्म जिसका दावा आदमी के आत्मिक उत्थान का होता है, भारत में उसका सबसे बड़ा उत्सव शुद्ध भौतिक विकास, धन-संपत्ति में वृद्धि का उत्सव है।

इस दीपपर्व के पहले दिन, धनतेरस पर अब तो एक ओर जहां धड़ल्ले से जूआ खेला जाता है, वहीं दूसरी ओर सोना-चांदी, बर्तन-बासन खरीदे जाते हैं। धन के ऐबों को भी इस धार्मिक उत्सव का अभिन्न अंग बना दिया गया है। अर्थात - रामराज्य का अर्थ है सुख और समृद्धि, सुख और समृद्धि का अर्थ है धन-संपत्ति और धन-संपत्ति से जुड़े हुए हैं -जूआ, मौज-मस्ती। इस पूरे उपक्रम में धर्म के आत्मिक उत्थान वाले किसी भी पक्ष का कोई स्थान नहीं है। फिर भी दिवाली हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा उत्सव है।

आज के ‘टेलिग्राफ’ में धनतेरस के मौके पर दुकानों में उमड़ पड़ी भीड़ की तस्वीरों के साथ एक बड़ी रिपोर्ट लोगों की खरीदारियों के ढर्रे को लेकर छपी है। गहनों की दुकानों के साथ ही अब महंगी उपभोक्ता सामग्रियों, जिनमें गाडि़यां भी शामिल हैं, की खरीद इस मौके पर काफी बढ़ गयी है। आसानी से किश्तों में भुगतान की सुविधाओं ने महंगे सामानों की बिक्री को बढ़ावा दिया है। धनतेरस पर सोना चांदी की खरीद का सिलसिला तो काफी वर्षों से चल रहा है। यह एक प्रकार से सामंती काल की धन को गाड़ कर सुरक्षित रखने की परंपरा की निरंतरता है।

यही वह गड़ा हुआ धन है जो सारी दुनिया में पूंजीवाद के आदिम संचय की प्रक्रिया का प्रथम स्रोत रहा है। मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ चर्च की संपत्ति की लूट, राज्य के इलाकों पर धोखे-धड़ी से कब्जा कर लेना, सामूहिक भूमि की डाकाजनी, सामंती संपत्ति और कुलों के संपत्तिहरण और आतंकवादी तौर-तरीकों का अंधा-धुंध प्रयोग करके उसे आधुनिक ढंग की निजी संपत्ति में बदल देना - ये ही वे सुंदर तरीके हैं, जिनके जरिए आदिम संचय हुआ था।’’ भारत जैसे प्राचीन समाजों में तो ऐसे गड़े हुए धन का कोई पाराबार नहीं है। भारतीय पूंजीवाद का एक बड़ा हिस्सा आज तक इसी धन की लूट पर पल-बढ़ रहा है। भारत में आदिम संचय की  मार्क्स द्वारा वर्णित इस ‘सुंदर’ प्रक्रिया का अभी अंत नहीं हुआ है। अभी तो इसने ऐसा व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है कि आज का सारा राजनीतिक विमर्श ही भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, जमीन की लूट, नाना उपायों से परिवारों के संचित धन की लूट के संकट पर केंद्रित है। भ्रष्टाचार को चू-चू कर धन के बंटवारे के सिद्धांत (Trickle down theory) का एक मर्यादित उपाय मान लिया गया है। इसके साथ ही उपभोक्तावाद का योग, जैसा कि ऊपर बताया गया है, महंगी उपभोक्ता सामग्रियों को आदमी की लालसाओं का अभिन्न अंग बनाना, पूंजीवादी उत्पादन के जरिये संपत्ति के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया का आत्मिक और भौतिक आधार भी तैयार करता है।

भारत के इस दीपपर्व पर, पूंजी के इस खेल को जितने समग्र और प्रकट रूप में देखा जा सकता है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी भी उत्सव में शायद ही दिखाई देता हो। वस्तुत: यह धन की, अर्थात लक्ष्मी की पूजा का उत्सव है; रामचन्द्र जी की अयोध्या वापसी की खुशी सुदूर पृष्ठभूमि में चली गयी है। धर्म धन का जाप करा रहा है, और वही आत्मिक उत्थान का भी ठेकेदार बना हुआ है। यही हमारे समाज की खूबी है। धन का उपासक विश्व का ज्ञान-गुरू!

शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

‘हैदर’ एक अविस्मरणीय फिल्म है



अरुण माहेश्वरी

पिछले रविवार के जनसत्ता में ‘हैदर’ फिल्म पर अपूर्वानंद की टिप्पणी पढ़ी - ‘नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त’। तीन दिन पहले ही 9 अक्तूबर के जनसत्ता में इसी फिल्म पर हमारी टिप्पणी प्रकाशित हुई थी - ‘जख्मों की कहानी’ । अपनी टिप्पणी में हमने जिस फिल्म को हिंदी की एक एपिक फिल्म बताया, उसे ही अपूर्वानंद दर्शनशास्त्र के एक युवा अध्येता ऋत्विक अग्रवाल के हवाले से ‘लचर और बोरिंग मसाला फिल्म’, ‘लंबी खिंचने वाली’ फिल्म बता रहे थे। स्वाभाविक तौर पर हम सोच में पड़ गये कि आखिर मामला क्या है ?

हमने अपूर्वानंद की टिप्पणी को बहुत बारीकी से पढ़ना शुरू किया। जानने की कोशिश की कि आखिर फिल्म को लेकर उनकी ठोस आपत्तियां क्या और क्यों हैं ?

सबसे पहले तो हमने पाया कि वे फिल्म के बजाय पीवीआर के उस परिवेश से शुरू में ही उखड़ गये थे जिसमें बैठे मुट्ठी भर दर्शक बात बेबात पर सिर्फ हंसने और सिर्फ हंसने के लिये ही पंहुचे हुए थे। अपूर्वानंद पूरी फिल्म के दौरान फिल्म में ऐसे मौकों की तलाश में खोये रहे जब वह इन फूहड़, हंसी-ठठ्ठा में मतवाले दर्शकों को उनके इस आचरण पर शर्मींदा कर दें। लेकिन अफसोस कि फिल्म उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं कर पायी। फिल्म इतनी दमदार नहीं निकली की उन कमबख्त हंसोड़ों को लज्जा से सिर झुका कर चुप बैठ जाने के लिये मजबूर करती! और इसप्रकार,  फिल्म की ‘लचरता’ का उनको पहला प्रमाण मिल गया। उनका गुस्सा सिर्फ ‘हैदर’ तक सीमित नहीं रहा, तमाम हिन्दी फिल्मों को उसने अपनी जद में ले लिया - ‘‘हिन्दी फिल्मों ने ऐसे ही दर्शक तैयार किये हैं’’! ‘हैदर’ भी एक हिन्दी फिल्म है इसलिये बुरे दर्शक तैयार करने के पाप का कुछ भागीदार तो उसे बनना ही पड़ेगा! अपूर्वानंद की नजर में हैदर जैसी फिल्मों का बड़ा दोष यह है कि ‘‘देखने के उसी प्रचलित तरीके में, बिना उसे विचलित किए वे (हैदर जैसी फिल्में) अपनी बात कहने की फांक खोज रही है।’’

अब अपूर्वानंद का दूसरा आरोप है - ‘‘एक चालू मुंबइया फिल्मी मुहावरे में गंभीरता का बाना पहन कर लचर कहानी कहने की दयनीय कोशिश।’’

‘लचर कहानी’! हम सब जानते हैं कि इस फिल्म की पटकथा शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है। ‘हैमलेट’ क्या है? क्या यह सिर्फ राजमहलों में सिहांसन के लिये होने वाले षड़यंत्रों की एक राजनीतिक कहानी है। अगर सिर्फ इतना ही होता तो इसने दुनिया भर में न जाने कितने लेखकों, नाट्यकारों, फिल्मकारों, और साहित्य समीक्षकों को भी नये-नये संदर्भों में इसकी पुनर्रचना और चरित्रों की जटिलताओं से संबंधित नयी-नयी उद्भावनाओं से प्रेरित न किया होता। चौतरफा फैली धुंध में हैमलेट की दुविधाएं, उसके अंदर धधकती प्रतिशोध की ज्वाला और उसमें हर क्षण भस्म होते मानवीय संबधों की त्रासदी की कहानियां दुनिया भर के रचनाशील लोगों के लिये मनुष्य की त्रासदियों की गुत्थियों में प्रवेश के एक अकूत खजाने की तरह है। यह हैमलेट की निजी त्रासदी के साथ ही डेनमार्क राष्ट्र की त्रासदी की भी गाथा है।
हमारी राय में विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म की पटकथा के आधार के तौर पर शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का बिल्कुल सही चयन करके कश्मीर और उसके संत्रस्त राजनीतिक परिवेश के दबाव में हर दिन विकृत हो रहे मनुष्यों और मानवीय रिश्तों के त्रासद दुखांत की कहानी कही है। हमने उसे ‘‘राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का अत्यंत सुगठित आख्यान’’ कहा था। लेकिन इसके उल्टे, अपूर्वानंद की शिकायत है - भारद्वाज ने शेक्सपियर और कश्मीर जैसे दो भारी-भरकम शब्दों की सवारी का ‘पाप’ किया है!

इस फिल्म से अपूर्वानंद की तीसरी प्रमुख शिकायत है कि यह कलात्मक ईमानदारी से खाली फिल्म है क्योंकि इसमें कहीं-कहीं हास्य पैदा करने की ‘‘मुंबइया’’ हिमाकत की गयी है। शेक्सपियर या दुखांत नाटकों के पूरे इतिहास को देखिये, विदूषक नामक तत्व आपको हर जगह मिल जायेगा। विदूषक के जरिये आम तौर पर लेखक एक हास्यास्पद दार्शनिक लहजे में जीवन के यथार्थ की अपनी बहुत गहरी बातों को प्रेषित किया करता है। और, सिर्फ विदूषक ही नहीं, एक बेहद तनावपूर्ण, संगीन से वातावरण में यही भूमिका कई मासूम से दिखाई देने वाले पात्र भी अदा करते हैं। अर्थात, कठिन से कठिन समय में हंसना किसी गैर-ईमानदारी का सूचक नहीं हुआ करता। और जहां तक इस फिल्म में हैदर की प्रेमिका अर्शी का प्रश्न है, वह सचमुच हैमलेट की ओफ़ीलिया है। एक बेहद तनावपूर्ण, अशुभ संकेतों से भरे वातावरण में ओफ़ीलिया की मासूमियत खुद में एक हंसी का विषय ही थी, और उसी हद तक हैदर की अर्शी भी अपनी तमाम भंगिमाओं से एक संकटजनक परिस्थिति में अनायास ही हंसा देने की क्षमता रखती है।
अपूर्वानंद शिकायत करते हैं कि अर्शी ने पढ़-लिख कर अपनी ‘जुबान साफ’ क्यों नहीं की ! जैसे कोई शेक्सपियर से यह शिकायत करें कि हिंसा और प्रतिशोध के उस सहमे हुए परिवेश में राजमंत्री पोलोनियस की बेटी इतनी मासूम क्यों बनी रहीं, वह भी अन्यों की तरह परिपक्व क्यों नहीं हो गयी ! और, इसे शेक्सपियर की गैर-ईमानदारी का प्रमाण मानना होगा!

अपूर्वानंद की चौथी बात है - फिल्मी भाषा, उसका ‘लिरिकल’ होना - ‘प्रसून जोशी छाप’। इसपर शायद कुछ भी कहना नागवार होगा। कोरे अहंकार से भरी प्रगल्भित बौद्धिकता इसे ही कहते है।
आगे आती है, इस फिल्म के बारे में अपूर्वानंद की सबसे बड़ी शिकायत, जिससे उनकी टिप्पणी का ‘नैतिकता’ वाला शीर्षक भी बनता है। वे कहते हैं कि इस फिल्म में विशाल भारद्वाज को जिस एक चीज के लिये कभी माफ नहीं किया जा सकता, वह है - ‘स्त्री पात्रों का चरित्रांकन’। इस विषय पर नैतिक आवेश से भरा उनका लहजा कुछ वैसा ही है जैसे कोई किसी लेखक से इस बात पर क्रुद्ध हो कि उसने हिंदू पात्र का ऐसा चरित्रांकन क्यों किया; मुस्लिम पात्र को ऐसे क्यों पेश क्यों किया; ब्राह्मण का, यादव का या चमार के साथ ऐसा क्यों किया ! सांप्रदायिकता और जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त मानववादी अपूर्वानंद का इल्जाम हैं - स्त्रियों का चरित्रांकन ऐसा क्यों किया?

पात्रों को हमेशा प्रतिनिधि-रूप में देखने-समझने की यह एक बहुत ही पिटी-पिटाई समीक्षा दृष्टि है। इसी बीमारी ने न जाने दुनिया के कितने आलोचकों को रचनात्मक साहित्य के खलनायकों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। समाजवादी यथार्थवाद को तो इसी बीमारी ने असमय मौत के घाट उतार दिया। यह अपने प्रकार की एक ‘नैतिक पुलिसगिरी’ भी है जिसका रचनात्मक साहित्य से हमेशा छत्तीस का रिश्ता होता है। अपूर्वानंद कहते हैं - पति की हत्या होगयी और पत्नी देवर के साथ गाने सुन रही है! क्या गजब है! वे शायद नहीं जानते कि हैमलेट के चरित्र की जटिल संरचना में मां की बेवफाई की एक प्रमुख भूमिका थी।
इसीप्रकार, फिल्म की पूरी कहानी को अपने किसी इप्सित ढांचे में ढालने की इच्छा रखने वाले अपूर्वानंद जी शिकायत करते हैं - इसमें कश्मीर की स्त्रियों का राजनीतिकरण क्यों नहीं दिखाया गया है ? वही, हर चीज को, चरित्र हो या परिवेश या घटना, ‘प्रतिनिधिमूलक’ देखने की बीमारी! ऐसा लगता है मानो कश्मीर की अराजनीतिक स्त्रियों की कोई कहानी हो ही नहीं सकती!

अपूर्वानंद की टिप्पणी से एक बात साफ है कि वे यह तो जानते हैं कि ‘हैदर’ फिल्म ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है, लेकिन यह नहीं जानते कि ‘हैमलेट’ क्या है। अन्यथा ऐसी फब्ती शायद पढ़ने को नहीं मिलती - ‘‘किसी भी अच्छी हिन्दी फिल्म की तरह इन दोनों औरतों को फिल्म के अंत में अपनी जान देकर प्रायश्चित करना होता है।’’

‘हैमलेट’ के दुखांत का सार तो यही है कि होने न होने की धुंध की परिस्थितियों में प्रतिशोध और षड़यंत्रों में लिपटी जिंदगियों के अंत में लाशों के ढेर के सिवाय कुछ नहीं बचता। शेक्सपियर का हैमलेट भी मर जाता है, भारद्वाज का हैदर कुहासे में लुप्त होता है। दोनों स्थितियों में, संकेत सर्वनाश का ही है।

अपूर्वानंद की टिप्पणी की बाकी बातें उनकी बगल में बात-बेबात हंसने वाले दर्शकों की उपस्थिति से खिन्न एक ‘बौद्धिक’ की असंलग्नता का परिणाम है। हमारी दिक्कत यह है कि हमने यह फिल्म कोलकाता के एक पीवीआर के खचाखच भरे हुए हॉल में सांस थामे हुए दर्शकों के गहरे सन्नाटे में देखी थी। हैमलेट नाटक को पढ़ते हुए हम जिसप्रकार उद्वेलित होते रहे हैं, इस फिल्म को देख कर वैसी ही उत्तेजना और आनंद का अनुभव हुआ। अपूर्वानंद की टिप्पणी की गहराइयों में जाने के बाद हमारी यह राय और पुख्ता हुई कि ‘हैदर’ हिन्दी की एक एपिक, अविस्मरणीय फिल्म है।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

‘श्रमेव जयते स्कीम’


आज प्रधानमंत्री ने बड़े ताम-जाम के साथ विज्ञान भवन से ‘दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते स्कीम’ की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने अपने परिचित, थोथी बातों के भारी-भरकम अंदाज में कहा - ‘आने वाले समय में श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’। जिन योजनाओं के बारे में साफ तौर पर यह कहा जा रहा है कि इनके जरिये अब सारी दुनिया में ‘शेर दहाड़ेगा’, अर्थात् पूंजी को आकर्षित करने की प्रतिद्वंद्विता में भारत सबसे आगे रहेगा, उन्हीं दुनिया के पूंजीपतियों को लुभाने के लिये बनायी गयी श्रम सुधार की योजनाओं को श्रमिकों के कल्याण की योजना बताया जा रहा है।
एनडीटीवी पर प्राइम टाईम में आज बिल्कुल उचित इस स्कीम पर चर्चा हो रही थी। लेकिन, इस चर्चा की पहली सबसे दुखद बात यह रही कि इसके संयोजक महोदय ने चर्चा के शुरू में ही कह दिया कि वे इस विषय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं। टीवी चैनलों के संयोजक वैसे तो दुनिया के तमाम विषयों पर अपने को महाउस्ताद बताते हैं, लेकिन जब भारत के मजदूरों के जीवन से जुड़े सवाल हो, वे एकदम मासूम सी सूरत बना लेते हैं। एक ऐसे अहम विषय पर उनकी यह प्रकट दयनीयता, उनके विनय-भाव के प्रति किसी प्रकार की नम्रता के बजाय किसी भी भले आदमी को खिन्न करने के लिये काफी है। इसीसे जाहिर होता है कि भारत के यथार्थ को पेश करने का दंभ भरने वाले टेलिविजन चैनल श्रमजीवी जनता की समस्याओं के प्रति कैसी निष्ठुर उदासीनता पाले हुए हैं।
बहरहाल, इस चर्चा में श्रमिक पक्ष को रखने वाले ट्रेडयूनियन नेताओं ने, जिनमें भाजपा के भारतीय मजदूर संघ के प्रतिनिधि भी शामिल थे, इसी ‘कल्याणकारी स्कीम’ के संदर्भ में आज के दिन को भारत के मजदूरों के जीवन का एक काला दिन बताया। उन्होंने तथ्य दे-देकर इस बात को साबित किया कि पूरी स्कीम मोदी सरकार द्वारा बहु-राष्ट्रीय निगमों को श्रम कानूनों में तमाम रियायतें देने के आश्वासनों पर पूरी नंगई के साथ अमल करने की शुरूआत है। पूंजी और श्रम के विरोध के बीच सरकार की जो एक अंपायर की भूमिका होती है ताकि कोई श्रमिकों के साथ अन्याय न करने पाये, उस भूमिका को खत्म करने की यह एक शर्मनाक कोशिश है।
इस पूरी चर्चा में जोर देकर इस बात को रखा गया कि 1991 के बाद शुरू हुए भारत में आर्थिक उदारतावाद के दौर में संगठित क्षेत्र में मजदूरों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। 1991 तक संगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या जहां कुल श्रम शक्ति की 8 प्रतिशत थी, वह अब और भी कम होकर सिर्फ 6 प्रतिशत रह गयी है। इन दिनों हर उद्योग में ठेके पर मजदूरों को रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। ठेके पर रखे गये मजदूरों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती। हर 11 महीने पर उन्हें नये सिरे से भर्ती किया जाता है, ताकि श्रम कानूनों की चपेट से बचा जा सके। और आमदनी ? संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के बीच आमदनी के फर्क को बताते हुए इसी चर्चा में यह तथ्य सामने आया कि मारुति के कारखाने में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को जो तनख्वाह मिलती है उसकी तुलना में वहां के स्थायी मजदूरों की तनख्वाह दस गुना ज्यादा है।
मजदूर वर्ग के जीवन पर कहर बरपाने वाली आर्थिक उदारतावाद की आंधी को और भी विध्वंसक बनाने के लिये श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर यह सरकार जो तमाम कदम उठा रही है, बड़ी शान के साथ श्रमेव जयते स्कीम के नाम से उन्हीं की शेखी बघारी जा रही है। इसके साथ दीनदयाल उपाध्याय का नाम जोड़ा गया है। तथाकथित ‘एकात्म मानववाद’ के प्रवर्त्तक, संघ परिवारियों के लिये एक ‘प्रात:-स्मरणीय’ नाम। ऐसी बदनीयती से भरी योजनाओं के साथ उनके नाम को जोड़ कर मोदी सरकार ने उन्हें भी सदा के लिये कलंकित करने का काम किया है।

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

‘इजारेदारी समाज के लिये एक बुराई है’ - अपने शोधकार्यों से इस सच को साबित करने वाले फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां तिरोल को 2014 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार


-अरुण माहेश्वरी


इस साल के नोबेल पुरस्कार पाने वालों में फिर एक बार फ्रांस - साहित्य में पैट्रिक मोदियानो के बाद अब अर्थशास्त्र में फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां तिरोल। आर्थिक विषय पर जिस फ्रांस के थामस पिकेटी की हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वंटीएथ सेंचुरी’ को इस साल की एक बेस्टसेलर माना जाता है, उसीके ज्यां तिरोल को यह साबित करने के लिये कि औद्योगिक इजारेदारी एक सामाजिक बुराई है और इसपर नियंत्रण करना अर्थ-व्यवस्था और समाज, दोनों के हित में है - नोबेल पुरस्कार का मिलना आज के बाजारवाद के युग में खुद में एक बहुत अर्थपूर्ण घटना है।

बाजार अर्थ-व्यवस्था में उठे 2008-2010 के तूफान की धूल अब जम चुकी है। पूंजी का केंद्रीकरण, उत्पादन के क्षेत्रों में बढ़ती हुई बेइंतहा इजारेदारी और बैंकों और ऋणों के खेलों के विध्वंसक परिणामों की एक सूरत सारी दुनिया देख चुकी है। अब जरूरत है, जीवन के इन भयावह अनुभवों की ठंडे दिलो-दिमाग से समीक्षा करने की, उससे शिक्षा लेने की और सरकारों की आगे की नीतियों को नये सिरे से ढालने की ताकि इजारेदार घरानों और बैंकों की मिलीभगत से तैयार होने वाले अर्थनीति के क्षेत्र के हिंस्र पशुओं को काबू में रखा जा सके, समाज को इनके जानलेवा हमलों से बचाया जा सके।

ज्यां तिरोल को 2014 के अर्थशास्त्र के क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार की घोषणा करते हुए रॉयल स्वीडिश सोसाइटी ऑफ साइंसेज ने अपने बयान में तिरोल को आज के समय का एक अत्यंत प्रभावशाली अर्थशास्त्री बताते हुए कहा है कि उन्होंने उद्योगों के क्षेत्र में इजारेदारी (monopoly) के सामाजिक-आर्थिक परिणामों पर शोध करके यह प्रमाणित किया है कि कैसे इजारेदारी समाज के लिये बेहद नुकसानदेह होती है। उनके शोध का यह साफ निष्कर्ष है कि यदि उद्योगों पर मुट्ठी भर लोगों का कब्जा रहता है और उनपर अंकुश नहीं लगाया जाता है तो उससे तैयार होने वाले बाजार से समाज के लिये अवांछित परिणाम देखने को मिलते हैं। मालों की कीमतों का उनपर आने वाली लागत से संबंध टूट जाता है, समाज से लागत से बहुत ज्यादा कीमतें वसूली जाती है और बहुतेरी अनुत्पादक कंपनियां नाना उपायों से अपने क्षेत्र में नये लोगों के प्रवेश को रोक कर अपना प्रभुत्व बनाये रखती है, उत्पादनशीलता में वृद्धि के रास्ते की बाधा बनती है।

जो लोग यह मान कर बैठे हुए हैं कि तथाकथित मुक्त बाजार अर्थ-व्यवस्था में कीमतों को तय करने के मामले में बाजार की भूमिका निर्णायक होती है, तिरोल के शोध ऐसे बाजार-पूजकों के विश्वासों को एक सिरे से खारिज करते हैं। तिरोल ने अपने शोधों के जरिये इजारेदारी पर रोक लगाने के लिये सरकारों पर सभी प्रकार के औद्योगिक विलयनों और अधिग्रहणों (mergers and acquisitions) पर कड़ी नजर रखने और उनका नियमन करने के उपाय बताये हैं। उन्होंने बताया है कि इस मामले में आम तौर पर सरकारें मालों की अधिकतम कीमत (capping) निश्चित करने और प्रतिद्वंद्वियों के बीच कोई आपसी सांठ-गांठ न होने पाये, उसे देखने के कुछ साधारण नीतिगत नियमों की चर्चा किया करती है। इसके साथ ही किसी भी माल के उत्पादन की पूरी श्रंखला में पड़ने वाली कंपनियों के बीच आपसी सहयोग की बात भी करती है। लेकिन तिरोल का कहना है कि ये सारी बाते कुछ खास परिस्थितियों में ही कारगर साबित होती हैं। सच कहा जाए तो इनसे फायदे से कहीं ज्यादा नुकसान होता है। माल की अधिकतम कीमत तय कर देने से वर्चस्वशाली कंपनियां कुछ सख्त रास्ते अपना कर अपनी लागत को कम कर लेती है, जो समाज के लिये एक अच्छी बात है। लेकिन इससे कंपनी को प्रकारांतर से अधिकतम मुनाफा करने की अनुमति भी मिल जाती है जो समाज के लिये हानिकारक है। बाजार में कीमतों को आपस में मिल-जुलकर या किसी प्रकार की सांठ-गांठ करके तय कर लेना सामान्य तौर पर ही एक बुरी प्रणाली है। जबकि पेटेंटों के मामले में यदि इसीप्रकार का आपसी सहयोग किया जाएं कि किसी भी पेटंट का सामूहिक रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है तो वह समाज के लिये लाभदायी होता है। किसी भी कंपनी/फर्म और उसके आपूर्तिकर्ताओं(suppliers) का विलय कुछ नयी खोजों के लिये प्रेरक बन सकता है लेकिन यह बाजार में प्रतिद्वंद्विता को विकृत भी कर सकता है।

इन्हीं तमाम बातों के आधार पर तिरोल का कहना है कि उद्योगों की खास-खास परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए सावधानी के साथ उपयुक्त नियमों और प्रतिद्वंद्विता की नीतियां बनायी जानी चाहिए। तिरोल ने अपने लेखों और पुस्तकों के जरिये ऐसी नीतियों को तैयार करने का एक आम ढांचा भी पेश किया है और उन्हें दूरसंचार, बैंकिंग की तरह के कई उद्योगों पर लागू करके दिखाया हैं। इनसे सीख कर सरकारें शक्तिशाली इजारेदाराना कंपनियों को ज्यादा उत्पादनशील बनाने और साथ ही बाजार में प्रतिद्वंद्विता और ग्राहकों को नुकसान पंहुचाने से रोकने की नियामक नीतियां तैयार कर सकती हैं। तिरोल के कामों का सबसे अधिक महत्व इसी बात में है कि उनका सीधा संबंध अर्थव्यवस्था के चालू नीतिगत पक्षों के व्यवहारिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है। आम तौर पर इन्हीं पक्षों पर अक्सर क्रांतिकारी विचारों की ताकतों में एक प्रकार की पंगुता दिखाई दिया करती हैं क्योंकि वे उपलब्ध परिस्थितियों में ‘क्रांति’ से भिन्न कुछ भी नया करने में खुद को असमर्थ पाती हैं।
 

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

फिल्म ‘हैदर’ पर



-


-अरुण माहेश्वरी



आज सचमुच हिन्दी की एक एपिक राजनीतिक फिल्म देखी - हैदर। राजनीतिक यथार्थ और व्यक्तिगत त्रासदियों के अंतरसंबंधों की जटिलताओं की एक अनोखी कहानी। हिन्दी फिल्मों की हदों के बारे हमारी अवधारणा को पूरी तरह से धराशायी करती एक जबर्दस्त कृति। राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्‍​र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का ऐसा सुगठित आख्यान, हिन्दी फिल्मों की मुख्यधारा में मुमकिन है, हम सोच नहीं सकते थे। ‘हैमलेट’ का अवलंब और कश्मीर की अंतहीन त्रासदी  - मानवीय त्रासदी के महाख्यान को रचने का शायद इससे सुंदर दूसरा कोई मेल नहीं हो सकता था। विशाल भारद्वाज की इस फिल्म को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है।

जब हम यह फिल्म देखने गये, उसके पहले ही सुन रखा था कि यह शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित एक कश्मीरी नौजवान की कहानी है। हैमलेट और कश्मीर का नौजवान - इन दोनों के बारे में सोच-सोच कर ही काफी रोमांचित था। कितना सादृश्य है दोनों में! कश्मीर खुद ही हैमलेट से किस मायने में कम है ! अपनी दुविधाओं में, प्रतिशोध की धधकती आग, षड़यंत्रों और अतार्किक हिंसा में, महाविनाशकारी त्रासद दुखांत में!

‘हैमलेट’ में क्लाडियस अपने भाई, हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसके चाचा की रानी। राज-दरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव - दोनों साथ-साथ होते हैं। अति-संवेदनशील और कुशाग्र हैमलेट यह सब देख कर बदहवास है। क्लाडियस उसे समझाता है - जीवन-मृत्यु तो शाश्वत सत्य है। ‘‘यही होना था - व्यर्थ शोक को मिट्टी में फेंको।’’ तुम्हारे आगे सारा जीवन पड़ा है। शोक से निकलो, तुम्हें धरती के सारे सुख दूंगा। लेकिन हैमलेट ! ‘‘मेरे भीतर जो चल रहा है, वह मातम के दिखावे से परे है।...काश यह पत्थर जिस्म पिघल सकता और ढल जाता ओस की एक बूंद जैसा, या फिर उस अविनाशी ने आत्मघात की मनाही न की होती।’’

पिता की प्रेतात्मा ने हैमलेट को बता दिया था कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी और हैमलेट को इसका बदला लेना है। राजा का मिथ्याचार, मां की कमजोरियां और पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की राजा के प्रति अंध निष्ठा - इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन और दुविधाग्रस्त हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है। हैमलेट क्लाडियस को मार डालने की फिराक में और क्लाडियस हैमलेट को। मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता, चूक जाता है। अंत में, पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाते हैं - लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है, ‘‘ अगर तूने कभी मुझको अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपनी दर्द की सांसे गिनता हुआ मेरी कहानी कहने के लिए जिन्दा रह।’’

‘हैमलेट’ की इस कथा के संदर्भ में कश्मीर की कहानी की कल्पना कर रहा था। वहां जितने प्रकट मिथ्याचार, प्रतिशोध, साजिश, हत्या और अन्तहीन हिंसा के रूप में शासन और राजनीति के नाम पर जो सबकुछ चलता रहा है और आज भी चल रहा है, उसका अंत ऐसी ही विभत्स विध्वंसक त्रासदियों के अलावा और किसी में नहीं हो सकता। सोच रहा था क्या विशाल भारद्वाज में इतना साहस और शक्ति है कि कश्मीर में हर रोज रची जारही इन त्रासदियों की पीछे छूट रही कथाओं को फिल्म में उतार पायेंगे? कश्मीर की पृष्ठभूमि पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। इसीलिये कब कोई फिल्म मुख्यधारा की फिल्म के अपने तर्क पर चलने लगेगी और सब मटियामेट हो जायेगा, इसका खतरा हमेशा बना हुआ था।

लेकिन यह देखकर बेहद सुखद आश्चर्य हुआ कि विशाल भारद्वाज ने हैमलेट और कश्मीर के जख्मों की कहानी, दोनों का ही इस फिल्म में बखूबी निर्वाह किया है। शेक्सपियर के नाटक हमेशा से उनके प्रिय विषय रहे हैं। इसके पहले ‘मैकबेथ’ पर ‘मकबूल’ और ‘ओथेलो’ पर ‘ओमकारा’ बना चुके हैं। हमने वे दोनों फिल्में ही नहीं देखी, इसलिये उनपर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैसे अखबारों में उनकी भी काफी प्रशंसा पढ़ी थी। लेकिन ‘हैमलेट’ एक ऐसा विषय है, जिसके सारी दुनिया में न जाने कितने फिल्म और नाट्य रूपांतरण हुए होंगे। हैमलेट का ‘होने, न होने’ की दुविधाओं में फंसे, प्रतिशोध के नर्क की आग में जलते चरित्र का आकर्षण कभी खत्म नहीं हो सकता। ‘हैमलेट’ नाटक भी कोई व्यक्तिगत त्रासदी मात्र नहीं था। उसके साथ अविभाज्य तौर पर तख्तो-ताज का सवाल, राजनीति का सवाल, डेनमार्क का सवाल जुड़ा हुआ था। ‘हैदर’ की भी विशेषता यह है कि इसमें सिर्फ चरित्र नहीं, पूरा परिवेश ही ‘हैमलेट’ की त्रासदी की कहानी बयान कर रहा है। इसीलिये हम समझते हैं कि यह जरूर ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से कुछ अलग है।
शाहिद कपूर और तब्बू के असाधारण अभिनय, पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी ने इसे फिल्मांकन के उच्चतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष ला दिया है। विशाल भारद्वाज सचमुच साधुवाद के पात्र है। भारतीय फिल्म के इतिहास में ‘हैदर’ को मैं एक महत्वपूर्ण योगदान मानूंगा।