मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

धन की उपासना का दीप-पर्व



अरुण माहेश्वरी

दीपावली - विजया दशमी के तकरीबन बीस दिन बाद राम की वापसी की इस अमावस्या की रात को अयोध्यावासियों ने दीयों की रोशनी से जगमग कर दिया  था। लेकिन राम की वापसी का उत्सव देखते ही देखते कैसे लक्ष्मी की पूजा के उत्सव में बदल गया, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। धन सुख-समृद्धि का पर्याय बन गया और लक्ष्मी प्रकाश का सबसे बड़ा स्रोत। धर्म जिसका दावा आदमी के आत्मिक उत्थान का होता है, भारत में उसका सबसे बड़ा उत्सव शुद्ध भौतिक विकास, धन-संपत्ति में वृद्धि का उत्सव है।

इस दीपपर्व के पहले दिन, धनतेरस पर अब तो एक ओर जहां धड़ल्ले से जूआ खेला जाता है, वहीं दूसरी ओर सोना-चांदी, बर्तन-बासन खरीदे जाते हैं। धन के ऐबों को भी इस धार्मिक उत्सव का अभिन्न अंग बना दिया गया है। अर्थात - रामराज्य का अर्थ है सुख और समृद्धि, सुख और समृद्धि का अर्थ है धन-संपत्ति और धन-संपत्ति से जुड़े हुए हैं -जूआ, मौज-मस्ती। इस पूरे उपक्रम में धर्म के आत्मिक उत्थान वाले किसी भी पक्ष का कोई स्थान नहीं है। फिर भी दिवाली हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा उत्सव है।

आज के ‘टेलिग्राफ’ में धनतेरस के मौके पर दुकानों में उमड़ पड़ी भीड़ की तस्वीरों के साथ एक बड़ी रिपोर्ट लोगों की खरीदारियों के ढर्रे को लेकर छपी है। गहनों की दुकानों के साथ ही अब महंगी उपभोक्ता सामग्रियों, जिनमें गाडि़यां भी शामिल हैं, की खरीद इस मौके पर काफी बढ़ गयी है। आसानी से किश्तों में भुगतान की सुविधाओं ने महंगे सामानों की बिक्री को बढ़ावा दिया है। धनतेरस पर सोना चांदी की खरीद का सिलसिला तो काफी वर्षों से चल रहा है। यह एक प्रकार से सामंती काल की धन को गाड़ कर सुरक्षित रखने की परंपरा की निरंतरता है।

यही वह गड़ा हुआ धन है जो सारी दुनिया में पूंजीवाद के आदिम संचय की प्रक्रिया का प्रथम स्रोत रहा है। मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ चर्च की संपत्ति की लूट, राज्य के इलाकों पर धोखे-धड़ी से कब्जा कर लेना, सामूहिक भूमि की डाकाजनी, सामंती संपत्ति और कुलों के संपत्तिहरण और आतंकवादी तौर-तरीकों का अंधा-धुंध प्रयोग करके उसे आधुनिक ढंग की निजी संपत्ति में बदल देना - ये ही वे सुंदर तरीके हैं, जिनके जरिए आदिम संचय हुआ था।’’ भारत जैसे प्राचीन समाजों में तो ऐसे गड़े हुए धन का कोई पाराबार नहीं है। भारतीय पूंजीवाद का एक बड़ा हिस्सा आज तक इसी धन की लूट पर पल-बढ़ रहा है। भारत में आदिम संचय की  मार्क्स द्वारा वर्णित इस ‘सुंदर’ प्रक्रिया का अभी अंत नहीं हुआ है। अभी तो इसने ऐसा व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है कि आज का सारा राजनीतिक विमर्श ही भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, जमीन की लूट, नाना उपायों से परिवारों के संचित धन की लूट के संकट पर केंद्रित है। भ्रष्टाचार को चू-चू कर धन के बंटवारे के सिद्धांत (Trickle down theory) का एक मर्यादित उपाय मान लिया गया है। इसके साथ ही उपभोक्तावाद का योग, जैसा कि ऊपर बताया गया है, महंगी उपभोक्ता सामग्रियों को आदमी की लालसाओं का अभिन्न अंग बनाना, पूंजीवादी उत्पादन के जरिये संपत्ति के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया का आत्मिक और भौतिक आधार भी तैयार करता है।

भारत के इस दीपपर्व पर, पूंजी के इस खेल को जितने समग्र और प्रकट रूप में देखा जा सकता है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी भी उत्सव में शायद ही दिखाई देता हो। वस्तुत: यह धन की, अर्थात लक्ष्मी की पूजा का उत्सव है; रामचन्द्र जी की अयोध्या वापसी की खुशी सुदूर पृष्ठभूमि में चली गयी है। धर्म धन का जाप करा रहा है, और वही आत्मिक उत्थान का भी ठेकेदार बना हुआ है। यही हमारे समाज की खूबी है। धन का उपासक विश्व का ज्ञान-गुरू!

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