आज प्रधानमंत्री ने बड़े ताम-जाम के साथ विज्ञान भवन से ‘दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते स्कीम’ की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने अपने परिचित, थोथी बातों के भारी-भरकम अंदाज में कहा - ‘आने वाले समय में श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’। जिन योजनाओं के बारे में साफ तौर पर यह कहा जा रहा है कि इनके जरिये अब सारी दुनिया में ‘शेर दहाड़ेगा’, अर्थात् पूंजी को आकर्षित करने की प्रतिद्वंद्विता में भारत सबसे आगे रहेगा, उन्हीं दुनिया के पूंजीपतियों को लुभाने के लिये बनायी गयी श्रम सुधार की योजनाओं को श्रमिकों के कल्याण की योजना बताया जा रहा है।
एनडीटीवी पर प्राइम टाईम में आज बिल्कुल उचित इस स्कीम पर चर्चा हो रही थी। लेकिन, इस चर्चा की पहली सबसे दुखद बात यह रही कि इसके संयोजक महोदय ने चर्चा के शुरू में ही कह दिया कि वे इस विषय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं। टीवी चैनलों के संयोजक वैसे तो दुनिया के तमाम विषयों पर अपने को महाउस्ताद बताते हैं, लेकिन जब भारत के मजदूरों के जीवन से जुड़े सवाल हो, वे एकदम मासूम सी सूरत बना लेते हैं। एक ऐसे अहम विषय पर उनकी यह प्रकट दयनीयता, उनके विनय-भाव के प्रति किसी प्रकार की नम्रता के बजाय किसी भी भले आदमी को खिन्न करने के लिये काफी है। इसीसे जाहिर होता है कि भारत के यथार्थ को पेश करने का दंभ भरने वाले टेलिविजन चैनल श्रमजीवी जनता की समस्याओं के प्रति कैसी निष्ठुर उदासीनता पाले हुए हैं।
बहरहाल, इस चर्चा में श्रमिक पक्ष को रखने वाले ट्रेडयूनियन नेताओं ने, जिनमें भाजपा के भारतीय मजदूर संघ के प्रतिनिधि भी शामिल थे, इसी ‘कल्याणकारी स्कीम’ के संदर्भ में आज के दिन को भारत के मजदूरों के जीवन का एक काला दिन बताया। उन्होंने तथ्य दे-देकर इस बात को साबित किया कि पूरी स्कीम मोदी सरकार द्वारा बहु-राष्ट्रीय निगमों को श्रम कानूनों में तमाम रियायतें देने के आश्वासनों पर पूरी नंगई के साथ अमल करने की शुरूआत है। पूंजी और श्रम के विरोध के बीच सरकार की जो एक अंपायर की भूमिका होती है ताकि कोई श्रमिकों के साथ अन्याय न करने पाये, उस भूमिका को खत्म करने की यह एक शर्मनाक कोशिश है।
इस पूरी चर्चा में जोर देकर इस बात को रखा गया कि 1991 के बाद शुरू हुए भारत में आर्थिक उदारतावाद के दौर में संगठित क्षेत्र में मजदूरों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। 1991 तक संगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या जहां कुल श्रम शक्ति की 8 प्रतिशत थी, वह अब और भी कम होकर सिर्फ 6 प्रतिशत रह गयी है। इन दिनों हर उद्योग में ठेके पर मजदूरों को रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। ठेके पर रखे गये मजदूरों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती। हर 11 महीने पर उन्हें नये सिरे से भर्ती किया जाता है, ताकि श्रम कानूनों की चपेट से बचा जा सके। और आमदनी ? संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के बीच आमदनी के फर्क को बताते हुए इसी चर्चा में यह तथ्य सामने आया कि मारुति के कारखाने में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को जो तनख्वाह मिलती है उसकी तुलना में वहां के स्थायी मजदूरों की तनख्वाह दस गुना ज्यादा है।
मजदूर वर्ग के जीवन पर कहर बरपाने वाली आर्थिक उदारतावाद की आंधी को और भी विध्वंसक बनाने के लिये श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर यह सरकार जो तमाम कदम उठा रही है, बड़ी शान के साथ श्रमेव जयते स्कीम के नाम से उन्हीं की शेखी बघारी जा रही है। इसके साथ दीनदयाल उपाध्याय का नाम जोड़ा गया है। तथाकथित ‘एकात्म मानववाद’ के प्रवर्त्तक, संघ परिवारियों के लिये एक ‘प्रात:-स्मरणीय’ नाम। ऐसी बदनीयती से भरी योजनाओं के साथ उनके नाम को जोड़ कर मोदी सरकार ने उन्हें भी सदा के लिये कलंकित करने का काम किया है।
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