सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

संयुक्त मोर्चा और वाम मोर्चा


चर्चा गर्म है कि सीपीआई(एम) अब बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम दलों की एकता, वाम मोर्चा पर ही बल देगी ।
एक समय में अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी ने जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की नीति अपनाई थी । इसे आज तक अधिकारी तौर पर ख़ारिज नहीं किया गया है । लेकिन अभी का नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी' के बजाय 'क्रांतिकारी' पार्टी पर ज़्यादा बल देता है, 'जन-क्रांतिकारी' की चर्चा ही नहीं की जाती । जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फ़ैसला विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत के कम्युनिस्टों का एक बड़ा योगदान था । इसका सीधा संबंध भारत की ठोस परिस्थितियों से, यहाँ के आधुनिक राजनीतिक इतिहास से जुड़ा हुआ था । यह ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थितियों में किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और विस्तार का सिद्धांत था ।
'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के सिद्धांत से ही संगति रखती हुई कार्यनीति है - 'संयुक्त मोर्चा' की कार्यनीति । इस कार्यनीति पर सफलता के साथ चलते हुए एक समय में सीपीआई (एम) ने भारत की राजनीति में ख़ुद को अच्छी तरह प्रतिष्ठित किया था ।
आज, सीपीआई(एम) का वर्तमान नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के निर्माण के लक्ष्य को पूरी तरह से भुला कर 'क्रांतिकारी' पार्टी का जाप करता है । इसीके तार्किक विस्तारसे जुड़ा हुआ है, संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम मोर्चा की एकता पर ही अधिक से अधिक बल देना ।
इस प्रकार का कार्यनीतिगत प्रत्यावर्त्तन पहले से ही सिमट रही पार्टी द्वार हताशा में आत्म-हत्या करने के निर्णय जैसा होगा ।
आख़िर कार्यनीति क्यों? पार्टी की राजनीति को व्यापक जनता के बीच ले जाने के लिये ही तो। आज क्या वामपंथी दलों की समाज में वह हैसियत हैं कि जिससे सिर्फ अपने बूते वह समाज के तमाम तबक़ों को संबोधित कर सकें ? ऐसे अनेक तबके हैं, जो वामपंथ की वर्गीय राजनीति में सहयोगी बन सकते हैं, फिर भी वामपंथियों की जद से पूरी तरह बाहर है । मोटे उदाहरण के तौर पर पूरे हिन्दी-भाषी क्षेत्र को लिया जा सकता है ।
दरअसल 'क्रांतिकारिकता' मध्यवर्गीय नेतृत्व के लिये सिर्फ एक लुभावनी अवधारणा ही नहीं है, संगठन पर नौकरशाही जकड़बंदी का औज़ार भी है । जनता की आशाओं-आकांक्षाओं के दबाव से पूरी तरह बचते हुए राजनीति के अपने सुरक्षित केंचुल में घुसे रहने का सबसे सरल उपाय ।

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