-अरुण माहेश्वरी
इस साल के नोबेल पुरस्कार पाने वालों में फिर एक बार फ्रांस - साहित्य में पैट्रिक मोदियानो के बाद अब अर्थशास्त्र में फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां तिरोल। आर्थिक विषय पर जिस फ्रांस के थामस पिकेटी की हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वंटीएथ सेंचुरी’ को इस साल की एक बेस्टसेलर माना जाता है, उसीके ज्यां तिरोल को यह साबित करने के लिये कि औद्योगिक इजारेदारी एक सामाजिक बुराई है और इसपर नियंत्रण करना अर्थ-व्यवस्था और समाज, दोनों के हित में है - नोबेल पुरस्कार का मिलना आज के बाजारवाद के युग में खुद में एक बहुत अर्थपूर्ण घटना है।
बाजार अर्थ-व्यवस्था में उठे 2008-2010 के तूफान की धूल अब जम चुकी है। पूंजी का केंद्रीकरण, उत्पादन के क्षेत्रों में बढ़ती हुई बेइंतहा इजारेदारी और बैंकों और ऋणों के खेलों के विध्वंसक परिणामों की एक सूरत सारी दुनिया देख चुकी है। अब जरूरत है, जीवन के इन भयावह अनुभवों की ठंडे दिलो-दिमाग से समीक्षा करने की, उससे शिक्षा लेने की और सरकारों की आगे की नीतियों को नये सिरे से ढालने की ताकि इजारेदार घरानों और बैंकों की मिलीभगत से तैयार होने वाले अर्थनीति के क्षेत्र के हिंस्र पशुओं को काबू में रखा जा सके, समाज को इनके जानलेवा हमलों से बचाया जा सके।
ज्यां तिरोल को 2014 के अर्थशास्त्र के क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार की घोषणा करते हुए रॉयल स्वीडिश सोसाइटी ऑफ साइंसेज ने अपने बयान में तिरोल को आज के समय का एक अत्यंत प्रभावशाली अर्थशास्त्री बताते हुए कहा है कि उन्होंने उद्योगों के क्षेत्र में इजारेदारी (monopoly) के सामाजिक-आर्थिक परिणामों पर शोध करके यह प्रमाणित किया है कि कैसे इजारेदारी समाज के लिये बेहद नुकसानदेह होती है। उनके शोध का यह साफ निष्कर्ष है कि यदि उद्योगों पर मुट्ठी भर लोगों का कब्जा रहता है और उनपर अंकुश नहीं लगाया जाता है तो उससे तैयार होने वाले बाजार से समाज के लिये अवांछित परिणाम देखने को मिलते हैं। मालों की कीमतों का उनपर आने वाली लागत से संबंध टूट जाता है, समाज से लागत से बहुत ज्यादा कीमतें वसूली जाती है और बहुतेरी अनुत्पादक कंपनियां नाना उपायों से अपने क्षेत्र में नये लोगों के प्रवेश को रोक कर अपना प्रभुत्व बनाये रखती है, उत्पादनशीलता में वृद्धि के रास्ते की बाधा बनती है।
जो लोग यह मान कर बैठे हुए हैं कि तथाकथित मुक्त बाजार अर्थ-व्यवस्था में कीमतों को तय करने के मामले में बाजार की भूमिका निर्णायक होती है, तिरोल के शोध ऐसे बाजार-पूजकों के विश्वासों को एक सिरे से खारिज करते हैं। तिरोल ने अपने शोधों के जरिये इजारेदारी पर रोक लगाने के लिये सरकारों पर सभी प्रकार के औद्योगिक विलयनों और अधिग्रहणों (mergers and acquisitions) पर कड़ी नजर रखने और उनका नियमन करने के उपाय बताये हैं। उन्होंने बताया है कि इस मामले में आम तौर पर सरकारें मालों की अधिकतम कीमत (capping) निश्चित करने और प्रतिद्वंद्वियों के बीच कोई आपसी सांठ-गांठ न होने पाये, उसे देखने के कुछ साधारण नीतिगत नियमों की चर्चा किया करती है। इसके साथ ही किसी भी माल के उत्पादन की पूरी श्रंखला में पड़ने वाली कंपनियों के बीच आपसी सहयोग की बात भी करती है। लेकिन तिरोल का कहना है कि ये सारी बाते कुछ खास परिस्थितियों में ही कारगर साबित होती हैं। सच कहा जाए तो इनसे फायदे से कहीं ज्यादा नुकसान होता है। माल की अधिकतम कीमत तय कर देने से वर्चस्वशाली कंपनियां कुछ सख्त रास्ते अपना कर अपनी लागत को कम कर लेती है, जो समाज के लिये एक अच्छी बात है। लेकिन इससे कंपनी को प्रकारांतर से अधिकतम मुनाफा करने की अनुमति भी मिल जाती है जो समाज के लिये हानिकारक है। बाजार में कीमतों को आपस में मिल-जुलकर या किसी प्रकार की सांठ-गांठ करके तय कर लेना सामान्य तौर पर ही एक बुरी प्रणाली है। जबकि पेटेंटों के मामले में यदि इसीप्रकार का आपसी सहयोग किया जाएं कि किसी भी पेटंट का सामूहिक रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है तो वह समाज के लिये लाभदायी होता है। किसी भी कंपनी/फर्म और उसके आपूर्तिकर्ताओं(suppliers) का विलय कुछ नयी खोजों के लिये प्रेरक बन सकता है लेकिन यह बाजार में प्रतिद्वंद्विता को विकृत भी कर सकता है।
इन्हीं तमाम बातों के आधार पर तिरोल का कहना है कि उद्योगों की खास-खास परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए सावधानी के साथ उपयुक्त नियमों और प्रतिद्वंद्विता की नीतियां बनायी जानी चाहिए। तिरोल ने अपने लेखों और पुस्तकों के जरिये ऐसी नीतियों को तैयार करने का एक आम ढांचा भी पेश किया है और उन्हें दूरसंचार, बैंकिंग की तरह के कई उद्योगों पर लागू करके दिखाया हैं। इनसे सीख कर सरकारें शक्तिशाली इजारेदाराना कंपनियों को ज्यादा उत्पादनशील बनाने और साथ ही बाजार में प्रतिद्वंद्विता और ग्राहकों को नुकसान पंहुचाने से रोकने की नियामक नीतियां तैयार कर सकती हैं। तिरोल के कामों का सबसे अधिक महत्व इसी बात में है कि उनका सीधा संबंध अर्थव्यवस्था के चालू नीतिगत पक्षों के व्यवहारिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है। आम तौर पर इन्हीं पक्षों पर अक्सर क्रांतिकारी विचारों की ताकतों में एक प्रकार की पंगुता दिखाई दिया करती हैं क्योंकि वे उपलब्ध परिस्थितियों में ‘क्रांति’ से भिन्न कुछ भी नया करने में खुद को असमर्थ पाती हैं।
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