सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

फिल्म ‘हैदर’ पर



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-अरुण माहेश्वरी



आज सचमुच हिन्दी की एक एपिक राजनीतिक फिल्म देखी - हैदर। राजनीतिक यथार्थ और व्यक्तिगत त्रासदियों के अंतरसंबंधों की जटिलताओं की एक अनोखी कहानी। हिन्दी फिल्मों की हदों के बारे हमारी अवधारणा को पूरी तरह से धराशायी करती एक जबर्दस्त कृति। राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्‍​र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का ऐसा सुगठित आख्यान, हिन्दी फिल्मों की मुख्यधारा में मुमकिन है, हम सोच नहीं सकते थे। ‘हैमलेट’ का अवलंब और कश्मीर की अंतहीन त्रासदी  - मानवीय त्रासदी के महाख्यान को रचने का शायद इससे सुंदर दूसरा कोई मेल नहीं हो सकता था। विशाल भारद्वाज की इस फिल्म को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है।

जब हम यह फिल्म देखने गये, उसके पहले ही सुन रखा था कि यह शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित एक कश्मीरी नौजवान की कहानी है। हैमलेट और कश्मीर का नौजवान - इन दोनों के बारे में सोच-सोच कर ही काफी रोमांचित था। कितना सादृश्य है दोनों में! कश्मीर खुद ही हैमलेट से किस मायने में कम है ! अपनी दुविधाओं में, प्रतिशोध की धधकती आग, षड़यंत्रों और अतार्किक हिंसा में, महाविनाशकारी त्रासद दुखांत में!

‘हैमलेट’ में क्लाडियस अपने भाई, हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसके चाचा की रानी। राज-दरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव - दोनों साथ-साथ होते हैं। अति-संवेदनशील और कुशाग्र हैमलेट यह सब देख कर बदहवास है। क्लाडियस उसे समझाता है - जीवन-मृत्यु तो शाश्वत सत्य है। ‘‘यही होना था - व्यर्थ शोक को मिट्टी में फेंको।’’ तुम्हारे आगे सारा जीवन पड़ा है। शोक से निकलो, तुम्हें धरती के सारे सुख दूंगा। लेकिन हैमलेट ! ‘‘मेरे भीतर जो चल रहा है, वह मातम के दिखावे से परे है।...काश यह पत्थर जिस्म पिघल सकता और ढल जाता ओस की एक बूंद जैसा, या फिर उस अविनाशी ने आत्मघात की मनाही न की होती।’’

पिता की प्रेतात्मा ने हैमलेट को बता दिया था कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी और हैमलेट को इसका बदला लेना है। राजा का मिथ्याचार, मां की कमजोरियां और पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की राजा के प्रति अंध निष्ठा - इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन और दुविधाग्रस्त हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है। हैमलेट क्लाडियस को मार डालने की फिराक में और क्लाडियस हैमलेट को। मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता, चूक जाता है। अंत में, पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाते हैं - लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है, ‘‘ अगर तूने कभी मुझको अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपनी दर्द की सांसे गिनता हुआ मेरी कहानी कहने के लिए जिन्दा रह।’’

‘हैमलेट’ की इस कथा के संदर्भ में कश्मीर की कहानी की कल्पना कर रहा था। वहां जितने प्रकट मिथ्याचार, प्रतिशोध, साजिश, हत्या और अन्तहीन हिंसा के रूप में शासन और राजनीति के नाम पर जो सबकुछ चलता रहा है और आज भी चल रहा है, उसका अंत ऐसी ही विभत्स विध्वंसक त्रासदियों के अलावा और किसी में नहीं हो सकता। सोच रहा था क्या विशाल भारद्वाज में इतना साहस और शक्ति है कि कश्मीर में हर रोज रची जारही इन त्रासदियों की पीछे छूट रही कथाओं को फिल्म में उतार पायेंगे? कश्मीर की पृष्ठभूमि पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। इसीलिये कब कोई फिल्म मुख्यधारा की फिल्म के अपने तर्क पर चलने लगेगी और सब मटियामेट हो जायेगा, इसका खतरा हमेशा बना हुआ था।

लेकिन यह देखकर बेहद सुखद आश्चर्य हुआ कि विशाल भारद्वाज ने हैमलेट और कश्मीर के जख्मों की कहानी, दोनों का ही इस फिल्म में बखूबी निर्वाह किया है। शेक्सपियर के नाटक हमेशा से उनके प्रिय विषय रहे हैं। इसके पहले ‘मैकबेथ’ पर ‘मकबूल’ और ‘ओथेलो’ पर ‘ओमकारा’ बना चुके हैं। हमने वे दोनों फिल्में ही नहीं देखी, इसलिये उनपर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैसे अखबारों में उनकी भी काफी प्रशंसा पढ़ी थी। लेकिन ‘हैमलेट’ एक ऐसा विषय है, जिसके सारी दुनिया में न जाने कितने फिल्म और नाट्य रूपांतरण हुए होंगे। हैमलेट का ‘होने, न होने’ की दुविधाओं में फंसे, प्रतिशोध के नर्क की आग में जलते चरित्र का आकर्षण कभी खत्म नहीं हो सकता। ‘हैमलेट’ नाटक भी कोई व्यक्तिगत त्रासदी मात्र नहीं था। उसके साथ अविभाज्य तौर पर तख्तो-ताज का सवाल, राजनीति का सवाल, डेनमार्क का सवाल जुड़ा हुआ था। ‘हैदर’ की भी विशेषता यह है कि इसमें सिर्फ चरित्र नहीं, पूरा परिवेश ही ‘हैमलेट’ की त्रासदी की कहानी बयान कर रहा है। इसीलिये हम समझते हैं कि यह जरूर ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से कुछ अलग है।
शाहिद कपूर और तब्बू के असाधारण अभिनय, पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी ने इसे फिल्मांकन के उच्चतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष ला दिया है। विशाल भारद्वाज सचमुच साधुवाद के पात्र है। भारतीय फिल्म के इतिहास में ‘हैदर’ को मैं एक महत्वपूर्ण योगदान मानूंगा।  
 

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