बुधवार, 2 सितंबर 2015

जन गणना और सांप्रदायिकता

-अरुण माहेश्वरी

कहाँ तो माँग की जा रही थी कि जन-गणना में जातियों के आधार पर तैयार आँकड़ों को प्रकाशित किया जाए, लेकिन केंद्र की सांप्रदायिक सरकार ने धार्मिक समुदायों की जनगणना रिपोर्ट जारी कर दी । और वह भी इस प्रकार की विकृत सुर्खियों के साथ कि देश में मुसलमानों की संख्या बढ़ी है, जबकि हिंदुओं की कम हुई है । तथ्य यह है कि मुसलमानों की संख्या में इस एक दशक में साढ़े तीन करोड़ की वृद्धि हुई है, जबकि हिंदुओं की संख्या चौदह करोड़ बढ़ी है ।
सिर्फ यही नहीं, पिछले तीन दशकों में इस दशक में मुसलमानों की आबादी में सबसे कम वृद्धि हुई है । इस दशक में मुस्लिम आबादी में 24.6 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है, जबकि इसके पहले के दो दशकों में वृद्धि की यह दर क्रमश: 32.88 और 29.53 प्रतिशत थी । इसी प्रकार हिंदुओं की संख्या में वृद्धि की दर घट कर 16.76 प्रतिशत हो गई जो पिछले दो दशकों में क्रमश: 22.71 और 19.92 प्रतिशत थी ।
मूल बात यह है कि आबादी में वृद्धि की दर में कुल मिला कर गिरावट जारी है जो स्वागतयोग्य है और किसी भी विवेकवान व्यक्ति को इसी पर बल देने की ज़रूरत है । आबादी में घट-बढ़ का सीधा संबंध अलग-अलग समुदायों के अलग-अलग वर्गों की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति से है और इस मामले में सभी धार्मिक समुदायों में कोई फर्क नहीं पाया जाता है । इस विषय पर जातिगत आँकड़ों से कुछ रोशनी गिर सकती है । ज़रूरत इस बात की है कि अलग-अलग आर्थिक वर्गों से जुड़े आँकड़े पेश किये जाएं ताकि सामाजिक-आर्थिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने की सुसंगत नीतियों के आधार पर आबादी के बारे में ठोस कदम उठाये जा सके ।
अख़बारों में बिल्कुल सही कहा गया है कि अचानक इस प्रकार की सांप्रदायिक रंग से रंगी रिपोर्ट को जारी करके नरेन्द्र मोदी बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज़ कर वहाँ आगामी चुनाव में अपनी नैया को डूबने से बचाना चाहते हैं ।

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