बुधवार, 2 सितंबर 2015

कल्पना देवी की दुआ

(कोलकाता के निकटवर्ती बाली नगरपालिका में एक सहायक-इंजीनियर प्रणव अधिकारी के घर पर जब राज्य के भ्रष्टाचार-निरोधी ब्यूरो के अधिकारियों ने 16 अगस्त को छापा मारा तो उसके घर के कोने-कोने, यहां तक कि बिस्तर, सोफे की गद्दियों और बाथरूम के कमोड तक से हजार और पांच सौ रुपये के इतने बंडल मिले कि छापा मारने वाले उन्हें गिनते-गिनते थक गये। जिसे रुपयों का पहाड़ कहते हैं, वही स्थिति थी। 20 करोड़ से ज्यादा नगद रुपये पाये गये।
दूसरे दिन सभी स्थानीय अखबारों के प्रथम पेज पर उन रुपयों के ढेर की फोटो छपी थी। इसके बाद ही आनंदबाजार पत्रिका में प्रणव अधिकारी की मां की भी एक तस्वीर छपी है जो एक बस्ती के अपने खपरैल वाले घर के सामने खड़ी अपने घूसखोर बेटे की खबर से अवाक थी। इस मां पर सरला माहेश्वरी की कविता :)



पाँच-पाँच बेटों की माँ
कल्पना देवी !
कबूतरों के दड़बे जैसे घर की मालकिन
कल्पना देवी !
कहाँ गये ...
तुम्हारे पाँचों कबूतर !
तुम्हारी आँखों के तारे
माँ-बाप के राज-दुलारे !
कमज़ोर बुढ़ापे के सहारे !
कल्पना देवी !
आज अख़बार में देखी
तस्वीर तुम्हारी !
खबर जानकर थी
तुम हैरान, परेशान !
बेटे के संग-मरमरी
घर में उग आये थे
रुपयों के बड़े-बड़े झाड़
कैसे करें गिनती
चकरा गये थे, जाँच-अधिकारी !
तुम्हारा
हिसाबी-किताबी कंजूस बेटा !
कैसे बन गया ऐसा करामाती !
तैर रहा था घूस के रुपयों के तालाब में !
पी रहा था पानी जैसे जल की मछली!
और तुम्हें भनक भी नहीं लगी !
कैसे भला लगती कोई भनक
तुम्हारी ईँटों की खाली दीवार
जमती रही उसपर बस काई
पर प्लास्टर और रंग की
कभी आई नहीं कोई महक
कल्पना देवी !
अरे तुम तो मूर्ति बन गयी हो
पत्थर की मूर्ति !
उभर आये हैं, अचानक ही चोट के गहरे निशान
आँखों में सूखा हुआ आँसू
देख रहा है वही पुराना
मुड़ा-तुड़ा एक सौ का नोट
रोज कमाके लाता था तुम्हारा मज़दूर पति !
वो एक सौ का नोट
जैसे अनगिनत अरमानों की जोट !
जोड़-जोड़कर, तोड़-तोड़कर
बड़े कर दिये पाँच-पांच कमाऊ पूत
तुम्हारे अरमानों के पंख
लेकर उड़ गये अपने-अपने आकाशों में
लौटकर कभी वापस आये नहीं
तुम्हारे कबूतरों के खाँचे में !
पचास वर्ष ! तुम आज भी
वहीं बैठी हो इंतज़ार में
आये कोई एक तो कबूतर वापस
चुनने, बचा कर रखा दाना-पानी !
कितना..लम्बा...इंतजार...
अब बड़े-बड़े घरों में
रहने लगे हैं तुम्हारे कमाऊ पूत
"चीफ़ की दावत" में जी-जान से जुटे हैं तुम्हारे पूत
तुम जैसे बूढ़े माँ-बाप
अब हैं उनके लिये शर्म और संताप !
सुनो ! कल्पना देवी !
क्या अब भी नहीं निकलती
कोई बद्-दुआ तुम्हारे मुँह से !
क्या अब भी माँगती नहीं कोई नयी दुआ !
बुदबुदा रहे हैं तुम्हारे होंठ !
सुन रही हूँ मैं कल्पना देवी !
कह रही हो शायद तुम ...
अगले जन्म मोहे बिटिया ही ...।

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