कामरेड सीताराम के राज्य सभा के कार्यकाल के अंत के मुहाने पर :
-अरुण माहेश्वरी
आज के 'आनंदबाजार पत्रिका' में छपी एक खबर से लग रहा है कि सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी का बहुमत भारत के राजनीतिक यथार्थ से अब भी कोई सही शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है, बल्कि पार्टी के सर्वोच्च स्तर का नेतृत्व अब भी एक प्रकार की गुटबाज़ी में पूरी तरह से मुब्तिला है ।
राज्य सभा में कामरेड सीताराम येचुरी की उज्जवल भूमिका से सारी दुनिया परिचित है । विरोधी भी उनकी अकाट्य दलीलों और बेहद संतुलित, लेकिन उतने ही गहराई तक चोट करने वाले विद्वतापूर्ण वक्तव्यों के क़ायल है । वे भारतीय संसद में वामपंथ की विवेकपूर्ण आवाज के एक सशक्त प्रतिनिधि है । कोई उनकी बातों से तीव्र मतभेद रखने के बावजूद आज के सत्ताधारी दल के सर्वाधिकारवादी रुझान को देखते हुए सभी विपक्षी दलों के बीच जरूरी संवाद क़ायम करने और एक संयुक्त रणनीति तैयार करने की उनकी योग्यता को अस्वीकार नहीं सकता है ।
कामरेड सीताराम का राज्यसभा का काल इसी जुलाई महीने में पूरा होने वाला है । उनके लगातार दो अवधि से राज्य सभा के सांसद रहने के नाते सीपीआई(एम) के सामने अपनी एक सांगठनिक सिद्धांत की समस्या भी है जिसके अनुसार वे किसी सांसद को राज्य सभा में दो बार से ज्यादा बार नहीं भेज सकते हैं ।
इसके अलावा सीपीआई(एम) की एक राजनीतिक मजबूरी भी है कि उसके अंदर बहुमत वाले गुट ने कांग्रेस के साथ पार्टी की साझा लड़ाई पर रोक लगा रखी है । इसी गुट ने पश्चिम बंगाल में पिछले विधान सभा चुनाव के वक़्त कांग्रेस के साथ किये गये सीटों के समझौते की पार्टी की हार के बाद भर्त्सना की थी ।
इस प्रकार, सीताराम को फिर से राज्य सभा में भेजने के मसले पर विचार के पहले, सीपीआई(एम) को अपनी कुछ सांगठनिक नीतियों और राजनीतिक लाइन पर भी नये सिरे से विचार करना पड़ेगा । अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो सीताराम के न रहने पर अभी के दुर्दिनों में भारतीय संसद से वामपंथ की प्रभावशाली उपस्थिति वस्तुत: ख़त्म सी हो जायेगी ।
सीपीआई(एम) के सामने इस प्रकार की एक आसन्न सांगठनिक और राजनीतिक समस्या की पृष्ठभूमि में हम एक बार फिर यह कहना चाहेंगे कि भारतीय वामपंथ को यह पूरी तरह से समझ लेना चाहिए कि भारत की राजनीति की जिस ज़मीनी सचाई की समझ पर उनकी अब तक की राजनीतिक और सांगठनिक नीतियाँ टिकी रही है, वह सचाई पूरी तरह से बदल चुकी है । अगर अवसाद की अभी की दशा में वामपंथ ने सचमुच आत्म-हत्या करने का निर्णय नहीं लिया है तो उसे तत्काल अपने को गुटबाज़ बहुमतवादियों की झूठी सैद्धांतिकता के तमाम दबावों से मुक्त करना होगा । सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष ताक़तों के संयुक्त मोर्चे की रणनीति को पूरी आंतरिकता से अपना कर उसके अनुरूप सारे राजनीतिक और सांगठनिक फैसले करने होंगे ।
भारतीय संसद के मंच के अब भी बचे हुए महत्व को समझते हुए उसमें अपनी भागीदारी के सवाल पर किसी सांगठनिक सिद्धांत की कठमुल्ला धारणा के बजाय सभी धर्म-निरपेक्ष दलों के संयुक्त मोर्चे की राजनीति के हित में अपना निर्णय करना होगा । अगर पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) और कांग्रेस एक साथ मिल कर निर्णय लेते हैं, और सीपीआई(एम) का नेतृत्व अपने अंदर की राजनीतिक जड़ताओं से मुक्त होता है तो आज भी यह मुमकिन है कि कामरेड सीताराम को तीसरी बार पश्चिम बंगाल से राज्य सभा के लिये भेजा जा सके ।
सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ संयुक्त संघर्ष के हित में वामपंथ को इस दिशा में बढ़ने से ज़रा भी हिचकना नहीं चाहिए ।
-अरुण माहेश्वरी
आज के 'आनंदबाजार पत्रिका' में छपी एक खबर से लग रहा है कि सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी का बहुमत भारत के राजनीतिक यथार्थ से अब भी कोई सही शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है, बल्कि पार्टी के सर्वोच्च स्तर का नेतृत्व अब भी एक प्रकार की गुटबाज़ी में पूरी तरह से मुब्तिला है ।
राज्य सभा में कामरेड सीताराम येचुरी की उज्जवल भूमिका से सारी दुनिया परिचित है । विरोधी भी उनकी अकाट्य दलीलों और बेहद संतुलित, लेकिन उतने ही गहराई तक चोट करने वाले विद्वतापूर्ण वक्तव्यों के क़ायल है । वे भारतीय संसद में वामपंथ की विवेकपूर्ण आवाज के एक सशक्त प्रतिनिधि है । कोई उनकी बातों से तीव्र मतभेद रखने के बावजूद आज के सत्ताधारी दल के सर्वाधिकारवादी रुझान को देखते हुए सभी विपक्षी दलों के बीच जरूरी संवाद क़ायम करने और एक संयुक्त रणनीति तैयार करने की उनकी योग्यता को अस्वीकार नहीं सकता है ।
कामरेड सीताराम का राज्यसभा का काल इसी जुलाई महीने में पूरा होने वाला है । उनके लगातार दो अवधि से राज्य सभा के सांसद रहने के नाते सीपीआई(एम) के सामने अपनी एक सांगठनिक सिद्धांत की समस्या भी है जिसके अनुसार वे किसी सांसद को राज्य सभा में दो बार से ज्यादा बार नहीं भेज सकते हैं ।
इसके अलावा सीपीआई(एम) की एक राजनीतिक मजबूरी भी है कि उसके अंदर बहुमत वाले गुट ने कांग्रेस के साथ पार्टी की साझा लड़ाई पर रोक लगा रखी है । इसी गुट ने पश्चिम बंगाल में पिछले विधान सभा चुनाव के वक़्त कांग्रेस के साथ किये गये सीटों के समझौते की पार्टी की हार के बाद भर्त्सना की थी ।
इस प्रकार, सीताराम को फिर से राज्य सभा में भेजने के मसले पर विचार के पहले, सीपीआई(एम) को अपनी कुछ सांगठनिक नीतियों और राजनीतिक लाइन पर भी नये सिरे से विचार करना पड़ेगा । अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो सीताराम के न रहने पर अभी के दुर्दिनों में भारतीय संसद से वामपंथ की प्रभावशाली उपस्थिति वस्तुत: ख़त्म सी हो जायेगी ।
सीपीआई(एम) के सामने इस प्रकार की एक आसन्न सांगठनिक और राजनीतिक समस्या की पृष्ठभूमि में हम एक बार फिर यह कहना चाहेंगे कि भारतीय वामपंथ को यह पूरी तरह से समझ लेना चाहिए कि भारत की राजनीति की जिस ज़मीनी सचाई की समझ पर उनकी अब तक की राजनीतिक और सांगठनिक नीतियाँ टिकी रही है, वह सचाई पूरी तरह से बदल चुकी है । अगर अवसाद की अभी की दशा में वामपंथ ने सचमुच आत्म-हत्या करने का निर्णय नहीं लिया है तो उसे तत्काल अपने को गुटबाज़ बहुमतवादियों की झूठी सैद्धांतिकता के तमाम दबावों से मुक्त करना होगा । सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष ताक़तों के संयुक्त मोर्चे की रणनीति को पूरी आंतरिकता से अपना कर उसके अनुरूप सारे राजनीतिक और सांगठनिक फैसले करने होंगे ।
भारतीय संसद के मंच के अब भी बचे हुए महत्व को समझते हुए उसमें अपनी भागीदारी के सवाल पर किसी सांगठनिक सिद्धांत की कठमुल्ला धारणा के बजाय सभी धर्म-निरपेक्ष दलों के संयुक्त मोर्चे की राजनीति के हित में अपना निर्णय करना होगा । अगर पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) और कांग्रेस एक साथ मिल कर निर्णय लेते हैं, और सीपीआई(एम) का नेतृत्व अपने अंदर की राजनीतिक जड़ताओं से मुक्त होता है तो आज भी यह मुमकिन है कि कामरेड सीताराम को तीसरी बार पश्चिम बंगाल से राज्य सभा के लिये भेजा जा सके ।
सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ संयुक्त संघर्ष के हित में वामपंथ को इस दिशा में बढ़ने से ज़रा भी हिचकना नहीं चाहिए ।
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