कार्ल मार्क्स की एक और जीवनी :
"मार्क्स की चिंतन प्रक्रिया की आत्मा को भाववाद और पदार्थवाद को सिर्फ परस्पर विरोध में प्रस्तुत करके हासिल नहीं किया जा सकता है, और यदि जर्मन विचारधारा की विरासत से काट दिया जाता है तो मार्क्स को नहीं समझा जा सकता है ।"
आज के 'टेलिग्राफ़' में गेरेथ स्टेडमैन जोन्स (Gareth Stedman Jones) द्वारा प्रणीत कार्ल मार्क्स की एक और जीवनी ' Karl Marx : Greatness and Illusion' की एक समीक्षा प्रकाशित हुई है । एलेन लेन द्वारा प्रकाशित इस किताब की समीक्षा की है शोभनलाल दत्तागुप्ता ने ।
सभी जानते हैं, सारी दुनिया में अब तक मार्क्स की कई जीवनियाँ अथवा उनके जीवन और विचारों के प्रसंगों से जुड़ी बहुत सारी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । ऐसे में इस एक और बड़ी सी किताब का आना यह बताता है कि मार्क्स के जीवन और विचारों के प्रति गहरे आग्रह का यह सिलसिला सारी दुनिया में आज तक जरा सा भी कम नहीं हुआ है ।
दत्तागुप्ता ने भी अपनी इस समीक्षा में इस तथ्य को नोट किया है और कहा है कि 1844 की पांडुलिपि, जर्मन विचारधारा से लेकर साम्यवाद के पूरे मुक्तिदायी प्रकल्प के शीर्ष पर 'पूंजी' की तरह की महान रचना तक की मार्क्स की यात्रा को स्टेडमैन जोन्स ने अपनी किताब में जिस संजीदगी और शिद्दत के साथ अपनी किताब में रखा है, वह प्रशंसनीय है । लेकिन दत्तागुप्त ने इस पुस्तक के जिस सबसे महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित किया है, वह यह है कि मार्क्स रूसो की 'सामान्य अभिलाषा' (General Will) और 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति के 'मनुष्य के अधिकारों की घोषणा' ( Declaration of the rights of Man) की तरह की किसी नैतिक सामूहिक सहभागिता के बजाय मनुष्यों के आत्म-सशक्तीकरण, उत्पीड़ितों के स्वराज (self-rule) के जिन विचारों के बारे में ज्यादा उत्साहित थे, वह "आदमी और आदमी के संघ के बजाय, आदमी और आदमी में भेद पर आधारित था ।" ("based not on the association of man with man, but on the separation of man from man")
दत्तागुप्ता इसी क्रम में, पुस्तक के हवाले से, प्रतिनिधित्व की अवधारणा को निष्क्रिय जनतंत्र का विचार बताते हुए इसे आत्मचेतना (subjectivity) और स्वराज (self-rule) के सोच में निहित स्पंदन का उल्लंघन बताया है । इसी सिलसिले में वे आगे एक मार्के की बात कहते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के बजाय जर्मन भाववाद की आत्म-चेतना और स्वातंत्र्य के भाव को मार्क्स ने मानव श्रम की शक्ति और वेग के इतिहास की अपनी समझ में कहीं ज्यादा आत्मसात किया था । और, "मार्क्स की चिंतन प्रक्रिया की आत्मा को भाववाद और पदार्थवाद को सिर्फ परस्पर विरोध में प्रस्तुत करके हासिल नहीं किया जा सकता है, और यदि जर्मन विचारधारा की विरासत से काट दिया जाता है तो मार्क्स को नहीं समझा जा सकता है ।"(That the spirit of Marx's thought process can not be understood if he is delinked from the legacy of German idealism)
इसी समीक्षा में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार आख़िरी दिनों में मार्क्स का ध्यान औद्योगिक यूरोप की तुलना में खेतिहर रूस पर केंद्रित हो गया था । समीक्षा का अंतिम, सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि "अंतत:, इस आख्यान से नये मार्क्स की जो तस्वीर बनती है वह शायद यही बताती है कि मार्क्स जिस प्रकार एक विषय को छोड़ दूसरे की ओर बढ़ते जाते हैं, उनमें एक प्रकार की अपूर्णता का भाव-बोध था । उनकी चिंतन प्रणाली में आने वाले बदलाव, जो इस किताब के पाठक इससे गुज़रते हुए देख पाते हैं, वे इसी दिशा की ओर महत्वपूर्ण संकेत हैं "
(Finally, the image of the new Marx that emerges from this account would perhaps confirm that there was a sense of incompleteness in Marx, as he continuously changed gear. The shifts in his thought process, which the reader encounters throughout the book, provide important leads in this direction.)
यहाँ हम शोभनलाल दत्तागुप्ता की इस समीक्षा को मित्रों से साझा कर रहे हैं :
KARL MARX: GREATNESS AND ILLUSION By Gareth Stedman Jones,
Allen Lane, Rs 1,999
https://www.telegraphindia.com/1170310/jsp/opinion/story_139858.jsp#.WMI3w-nE1fs.email
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