(उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में विचार का एक विषय )
-अरुण माहेश्वरी
हिंदू पादशाही का समर्थक आरएसएस हमेशा हिंदू समाज में समरसता की बात कहता रहा है । इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में सचेत रूप से अति-दलितों के सामाजिक संगठनों में घुसपैठ के ज़रिये जो सोशल इंजीनियरिंग की गई, उसका एक परिणाम जहाँ भाजपा की भारी जीत के रूप में सामने आया, वहीं इसे संघ के समरसता के लक्ष्य की दिशा में एक बड़ी सफलता के तौर पर भी देखा जा रहा है ।
एक प्रकार की जातीय समरसता को भारत की आजादी की लड़ाई और वामपंथी आंदोलन ने भी क़ायम किया था, जिसमें जातिवाद पर नहीं, राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता पर बल था । लेकिन आजादी के अढ़ाई दशक के अंदर ही विभिन्न राज्यों में शिक्षा और आरक्षण के बल पर सशक्त हुए पिछड़े हुए समाजों का एक नेतृत्व पेरियार और अंबेडकर के झंडे के साथ तैयार हो गया और देश के कोने-कोने में ब्राह्मणवाद के विरोध के आधार पर पिछड़ी हुई जातियों और अनुसूचित जातियों के अपने-अपने जातिवादी संगठनों ने सिर उठाना शुरू कर दिया ।
प्रकृति का नियम है कि स्थिरता और यथास्थिति की किसी भी दीर्घकालीन परिस्थिति में पहले से मजबूत शक्तियां ही और ज्यादा मजबूत होती है । किसी भी प्रकार से इसके टूटने का एक समताकारी प्रभाव होता है ; अथवा कम से कम वंचितों में वैसा भ्रम तो पैदा होता ही है ।
कांग्रेस की राष्ट्रीय एकता और वामपंथियों की वर्गीय एकता ने हिंदू समाज की जातिवादी संरचना में जिस प्रकार की एक स्थिरता कायम की उसने स्वाभाविक रूप से इसमें पहले से मज़बूत, प्रभुत्वशाली सवर्ण जातियों के वर्चस्व को और ज्यादा बल पहुँचाया । इन दोनों के ही नेतृत्वकारी स्थानों में सवर्णों के वर्चस्व पर कभी कोई आँच नहीं आई । राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता का यह जातिवादी सच ही इन दलों के प्रभुत्व के रहते पिछड़े हुए समाजों में जातिवादी वंचना की अनुभूति और जातिवादी भेद-भाव के खिलाफ जाति विशेष के अपने संगठनों के जन्म के लिये काफी थे । और वैसा ही हुआ भी ।
लेकिन तमिलनाडू में द्रविड़ समाज की व्यापक संरचना में जिस प्रकार की प्रतिद्वंद्विताएं संभव थी, हिंदी भाषी क्षेत्रों में वह पिछड़ों और अनुसूचित जातियों के बीच बँट गई । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में बसपा के उदय ने हिंदू सामाजिक संरचना में ग़ैर-सवर्णों को साफ तौर पर दो भागों में बाँट दिया । अब सत्ता पर आने के लिए किसी न किसी सवर्ण जाति और ख़ास तौर पर अल्प-संख्यकों का समर्थन दोनों के लिये ज़रूरी होता चला गया । इन दलों के शासनों ने ग़ैर- सवर्ण जातियों में भी क्रीमी लेयर तैयार किये, जिसके चलते वंचना और अधिकार-चेतना की नई अनुभूतियों के साथ अति-दलितों की कई और नई जमातें सिर उठाने लगी । यहाँ तक कि कुछ दूसरी दबंग जातियाँ भी अपने लिये आरक्षण की माँग के साथ राजनीतिक ताक़तों के रूप में लामबंद होने लगी । जातिवादी लामबंदियों के इस पूरे उपक्रम में कांग्रेस और वामपंथ का तो इन क्षेत्रों से एक बार के लिये जैसे निर्वासन ही हो गया ।
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें आरएसएस की सोशल इंजीनियरिंग की पुरानी राजनीतिक स्कीम काम आई । पिछले लोक सभा चुनाव के वक़्त उत्तर प्रदेश में अमित शाह ने जातिवादी सामाजिक संगठनों पर अलग से काम करना शुरू किया था । लोक सभा चुनावों में जो चीज़ ख़ास तौर पर जाटों के इलाक़े में दिखाई दी, इस विधान सभा चुनाव में उसका और व्यापक असर हुआ । यादव, दलित और मुसलमान बँटे रह गये, दूसरी ओर सवर्ण जातियों के साथ अति दलित समुदायों की एकता ने पूर्व के सारे जातिवादी समीकरणों को गड़बड़ा दिया ।
जातिवादी संगठनों की मदद से तैयार की गई इस स्थिति को ही आज संघ परिवार के लोग जातिवाद के अंत और अपने समरसतावादी सोच की जीत कह रहे हैं । अब, महाराष्ट्र में जिस प्रकार सभी अंबेडकरवादियों को एक फडनवीस नेतृत्व दे रहा है, उत्तर प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही होगा । न किसानों की आत्म-हत्या की दर में कोई कमी आएगी और न ही जातिवादी भेद-भाव और अन्याय रुकेंगे । उल्टे, अधिक आसानी से आरक्षण के हर रूप के अंत को शासन का समानतावादी और न्यायपूर्ण निर्णय कहा जा सकेगा । सामाजिक तौर पर कमज़ोर तबक़ों के लिये सरकार की पक्षधरता की तरह की अवधारणाओं का कोई मोल नहीं रहेगा । सामाजिक डार्विनवाद के खुले खेल की जमीन तैयार होगी ।
अंत में, कहने का तात्पर्य यही है कि संघ की इस समरसता को सामाजिक स्थिरता के एक नये दौर के श्रीगणेश के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसमें फिर एक बार हिंदू धर्म की भेद-भाव से भरी हुई आज भी यथावत संरचना में फिर एक बार सवर्णों और दबंगों को खुला बल मिलेगा । सामाजिक समता की लड़ाई का भविष्य अब सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष की नई लामबंदियों पर निर्भर करेगा । कांग्रेस और वामपंथी दलों के अंदर भी नेतृत्व के अब तक के पूरे ढाँचे का ढहना इस लड़ाई के हित में सबसे बड़ी ज़रूरत है । संघर्षों के नये कार्यक्रमों के साथ ही इनके अंदर की ऐसी अस्थिरता ही व्यापक समाज में इनकी विश्वसनीयता को क़ायम करने में सहायक हो सकती है ।
-अरुण माहेश्वरी
हिंदू पादशाही का समर्थक आरएसएस हमेशा हिंदू समाज में समरसता की बात कहता रहा है । इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में सचेत रूप से अति-दलितों के सामाजिक संगठनों में घुसपैठ के ज़रिये जो सोशल इंजीनियरिंग की गई, उसका एक परिणाम जहाँ भाजपा की भारी जीत के रूप में सामने आया, वहीं इसे संघ के समरसता के लक्ष्य की दिशा में एक बड़ी सफलता के तौर पर भी देखा जा रहा है ।
एक प्रकार की जातीय समरसता को भारत की आजादी की लड़ाई और वामपंथी आंदोलन ने भी क़ायम किया था, जिसमें जातिवाद पर नहीं, राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता पर बल था । लेकिन आजादी के अढ़ाई दशक के अंदर ही विभिन्न राज्यों में शिक्षा और आरक्षण के बल पर सशक्त हुए पिछड़े हुए समाजों का एक नेतृत्व पेरियार और अंबेडकर के झंडे के साथ तैयार हो गया और देश के कोने-कोने में ब्राह्मणवाद के विरोध के आधार पर पिछड़ी हुई जातियों और अनुसूचित जातियों के अपने-अपने जातिवादी संगठनों ने सिर उठाना शुरू कर दिया ।
प्रकृति का नियम है कि स्थिरता और यथास्थिति की किसी भी दीर्घकालीन परिस्थिति में पहले से मजबूत शक्तियां ही और ज्यादा मजबूत होती है । किसी भी प्रकार से इसके टूटने का एक समताकारी प्रभाव होता है ; अथवा कम से कम वंचितों में वैसा भ्रम तो पैदा होता ही है ।
कांग्रेस की राष्ट्रीय एकता और वामपंथियों की वर्गीय एकता ने हिंदू समाज की जातिवादी संरचना में जिस प्रकार की एक स्थिरता कायम की उसने स्वाभाविक रूप से इसमें पहले से मज़बूत, प्रभुत्वशाली सवर्ण जातियों के वर्चस्व को और ज्यादा बल पहुँचाया । इन दोनों के ही नेतृत्वकारी स्थानों में सवर्णों के वर्चस्व पर कभी कोई आँच नहीं आई । राष्ट्रीय एकता और वर्गीय एकता का यह जातिवादी सच ही इन दलों के प्रभुत्व के रहते पिछड़े हुए समाजों में जातिवादी वंचना की अनुभूति और जातिवादी भेद-भाव के खिलाफ जाति विशेष के अपने संगठनों के जन्म के लिये काफी थे । और वैसा ही हुआ भी ।
लेकिन तमिलनाडू में द्रविड़ समाज की व्यापक संरचना में जिस प्रकार की प्रतिद्वंद्विताएं संभव थी, हिंदी भाषी क्षेत्रों में वह पिछड़ों और अनुसूचित जातियों के बीच बँट गई । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में बसपा के उदय ने हिंदू सामाजिक संरचना में ग़ैर-सवर्णों को साफ तौर पर दो भागों में बाँट दिया । अब सत्ता पर आने के लिए किसी न किसी सवर्ण जाति और ख़ास तौर पर अल्प-संख्यकों का समर्थन दोनों के लिये ज़रूरी होता चला गया । इन दलों के शासनों ने ग़ैर- सवर्ण जातियों में भी क्रीमी लेयर तैयार किये, जिसके चलते वंचना और अधिकार-चेतना की नई अनुभूतियों के साथ अति-दलितों की कई और नई जमातें सिर उठाने लगी । यहाँ तक कि कुछ दूसरी दबंग जातियाँ भी अपने लिये आरक्षण की माँग के साथ राजनीतिक ताक़तों के रूप में लामबंद होने लगी । जातिवादी लामबंदियों के इस पूरे उपक्रम में कांग्रेस और वामपंथ का तो इन क्षेत्रों से एक बार के लिये जैसे निर्वासन ही हो गया ।
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें आरएसएस की सोशल इंजीनियरिंग की पुरानी राजनीतिक स्कीम काम आई । पिछले लोक सभा चुनाव के वक़्त उत्तर प्रदेश में अमित शाह ने जातिवादी सामाजिक संगठनों पर अलग से काम करना शुरू किया था । लोक सभा चुनावों में जो चीज़ ख़ास तौर पर जाटों के इलाक़े में दिखाई दी, इस विधान सभा चुनाव में उसका और व्यापक असर हुआ । यादव, दलित और मुसलमान बँटे रह गये, दूसरी ओर सवर्ण जातियों के साथ अति दलित समुदायों की एकता ने पूर्व के सारे जातिवादी समीकरणों को गड़बड़ा दिया ।
जातिवादी संगठनों की मदद से तैयार की गई इस स्थिति को ही आज संघ परिवार के लोग जातिवाद के अंत और अपने समरसतावादी सोच की जीत कह रहे हैं । अब, महाराष्ट्र में जिस प्रकार सभी अंबेडकरवादियों को एक फडनवीस नेतृत्व दे रहा है, उत्तर प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही होगा । न किसानों की आत्म-हत्या की दर में कोई कमी आएगी और न ही जातिवादी भेद-भाव और अन्याय रुकेंगे । उल्टे, अधिक आसानी से आरक्षण के हर रूप के अंत को शासन का समानतावादी और न्यायपूर्ण निर्णय कहा जा सकेगा । सामाजिक तौर पर कमज़ोर तबक़ों के लिये सरकार की पक्षधरता की तरह की अवधारणाओं का कोई मोल नहीं रहेगा । सामाजिक डार्विनवाद के खुले खेल की जमीन तैयार होगी ।
अंत में, कहने का तात्पर्य यही है कि संघ की इस समरसता को सामाजिक स्थिरता के एक नये दौर के श्रीगणेश के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसमें फिर एक बार हिंदू धर्म की भेद-भाव से भरी हुई आज भी यथावत संरचना में फिर एक बार सवर्णों और दबंगों को खुला बल मिलेगा । सामाजिक समता की लड़ाई का भविष्य अब सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष की नई लामबंदियों पर निर्भर करेगा । कांग्रेस और वामपंथी दलों के अंदर भी नेतृत्व के अब तक के पूरे ढाँचे का ढहना इस लड़ाई के हित में सबसे बड़ी ज़रूरत है । संघर्षों के नये कार्यक्रमों के साथ ही इनके अंदर की ऐसी अस्थिरता ही व्यापक समाज में इनकी विश्वसनीयता को क़ायम करने में सहायक हो सकती है ।
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