गुरुवार, 9 मार्च 2017

नीलकांत : वर्ग-च्युत आत्म-विहीनता का एक सच


-अरुण माहेश्वरी


नीलकांत जी से लगभग पिछले चालीस साल का परिचय है। मार्कण्डेय भाई के घर जाने-आने का सिलसिला जबसे शुरू हुआ, तभी से नीलकांत जी से परिचय भी हुआ। मार्कण्डेय से कई मायनों में अनोखा साम्य और कई मायनों में बिल्कुल विपरीत धुरी पर खड़े नीलकांत जी हमारे लिये कोई अबूझ पहेली तो नहीं रहे, फिर भी हमेशा एक कौतुहल और सम्मान के पात्र जरूर बने रहे। कोलकाता से लेकर बीकानेर तक में उनके साथ कई-कई दिन बिताने के अवसर भी मिलें। उनके लेखन की धार और एक अकिंचन भाव के साथ दृढ़ विचारधारात्मक निष्ठा से भरे उनके वक्तव्यों को भी यदा-कदा सुनने का मौका मिलता रहा। अन्यों के बारे में उनकी दो टूक राय और बेबाक उक्तियों से एक प्रकार के रोमांच की अनुभूति भी होती रही है।

इनकी तुलना में मार्कण्डेय अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद दैनन्दिन व्यवहारिक जीवन में एक शालीन व्यक्ति थे, जिनके साथ निबाह करने में कभी किसी को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। एक समझौताहीन जीवन जीने के बावजूद मार्कण्डेय में कभी किसी प्रकार का कोई अकिंचन का भाव नहीं था। विरले ही कोई मसीजीवी लेखक उनकी तरह का समझौता-विहीन भव्य जीवन जीता होगा।

बहरहाल, नीलकांत जी को हमने हमेशा उनके लेखन के माध्यम से ही ज्यादा जाना था। बाद के सालों में उनके पारिवारिक जीवन को भी थोड़ा जानने का जो मौका मिला, वह इतना यथेष्ट नहीं था कि उससे इस पूरे व्यक्तित्व के बारे में कोई पुख्ता राय बनाई जा सके। ‘कथा’ और ‘कलम’ में उनके लेखों की धार में एक अजब कौंध हुआ करती थी, जिसे कोई आसानी से भुला नहीं सकता था। और एक पाठक के नाते हम उसी चमक की रोशनी में उन्हें देखने के अभ्यस्त रहे हैं। खास तौर पर जब 80 के दशक के अंत में रामचंद्र शुक्ल पर उनकी पूरी किताब आई, तब आलोचक नीलकांत हमें हिंदी में एक नई जमीन तोड़ने वाले मार्क्सवादी चिंतक के रूप में दिखाई दिये थे।

वह दौर था हिंदी में जनवादी साहित्य के नये प्रतिमानों की तलाश और निर्माण का दौर। वह प्रगतिवाद के अंत के बाद अकविता, अकहानी, भूखी और श्मशानी पीढ़ी के तमाम तूफानों के थम जाने का भी दौर था। उसी समय हम कोलकाता में इसराइल को देख रहे थे। चटकल मजदूरों के जीवन की अंतरंग सचाइयों पर उनकी कहानियां हिंदी में अपना एक अलग ही संदर्भ बिंदु तैयार कर रही थी। मजदूरों और ट्रेडयूनियन आंदोलनों के संघर्षों पर तब सतीश जमाली, रमेश उपाध्याय, स्वयंप्रकाश आदि कइयों ने कहानियां लिखी थी, लेकिन इसराइल की कहानियों का अपना एक अलग ही संसार था। यह बिहार से बंगाल की चटकलों में काम करने वाले मजदूरों के जीवन की एक ऐसा यथार्थ आख्यान था जिसमें संभवत: लेखक की मध्यवर्गीय फंतासियों, उसकी दिव्य या क्षुद्र किसी भी कामना का कोई प्रवेश नहीं था। वह संघर्षरत मजदूर की अकूत शक्ति और दारिद्र्य से जूझते आदमी की क्षुद्रताओं को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में कुछ इस प्रकार पेश करता था, जो संघर्षों की आदर्श तस्वीरें बनाने वाले लेखकों से पूरी तरह से अलग थी। वह मध्यवर्गीय पाठकों के लिये भले एक अबूझ सा संसार रहा हो, लेकिन अपने जेहन के बाहर होने के कारण ही उसके लिये बेहद आकर्षक और रोमांचक भी था। इसराइल साहब की कहानियों के पात्र स्मृति पटल पर हमेशा के लिये अटक कर रह जाते थे।

यही वह परिप्रेक्ष्य था, जिसमें हमने नीलकांत को देखा। उनका पहला उपन्यास आया था - ‘एक बीघा गोइड़’ (1982)। भारत के गांवों पर प्रेमचंद से लेकर भैरवप्रसाद गुप्त और मार्कण्डेय की कथाओं तक को पढ़ने के अभ्यस्त हम जैसे लोगों के लिये नीलकांत का गांव बिल्कुल वैसा ही अलग और अनूठा था, जैसे इसराइल का मजदूरों का संसार। भारत के गांवों में आजादी के बाद चकबंदी का उत्पात और गांव के सभी निहित स्वार्थों के एक साथ सक्रिय हो जाने की पृष्ठभूमि में धनेसर और लक्ष्मण सिंह, लालमन बाबू, दरोगा, पटवारी, इंजीनियर ओवरसियर आदि सबको लेकर बनी वह दुनिया अपने बाहरी ताने-बाने में भले ही किसी ग्रामीण विलगाव का चित्र न पेश करती हो, लेकिन इसके चरित्रों की आत्मिक दुनिया तब तक एक बिल्कुल अलग-थलग जीवन के भाव से निर्मित दुनिया थी। इस अर्थ में इसे गांवों के चरित्रों के पूर्ण विलगाव का एक क्लासिक उदाहरण कहा जा सकता है। प्रेमचंद सामान्य मानवीय मूल्यों के अपने निकष पर इस अलगाव को तोड़ते हैं, उनकी परंपरा के परवर्ती लेखकों में भी लेखक की कामनाएं चरित्रों के जीवन में प्रवेश करती दिखाई देती है। लेकिन नीलकांत के चरित्र इस मामले में बिल्कुल आत्म-विजड़ित चरित्र जान पड़ते हैं। यह उनकी कहानियों की भाषाई संरचना में और भी साफ दिखाई देता है।  इसके जरिये गांव के इस आदमी की भाषा, उसका दैनंदिन जीवन किसी भी साधारण पाठक के लिये एक नये और कुछ हद तक शायद अबूझ से संसार में प्रवेश की चुनौती पेश करती है। आज तो जब हम ‘एक बीघा गोइड़’ को पढ़ते हैं, जब हम संचार क्रांति के कारण भारत के सुदूरतम इलाकों के जीवन की झांकियां भी देख पाते हैं, उनमें रेणु के मैला आंचल की तरह डा. प्रशांत की तरह के चरित्रों के प्रवेश की परिणतियों की जानकारी भी रखते हैं, तब ‘एक बीघा गोइड़’ का संसार मानो किसी अजायबघर की चीज लगता है। लेकिन इसमें शक नहीं कि नीलकांत इस अर्थ में अपने को ग्रामीण जीवन के बारे में प्रेमचंद के आख्यानों से अलगाते हुए एक बिल्कुल अलग प्रकार की लेखनी का उदाहरण पेश कर रहे थे।

इसी क्रम में उनकी कहानियों के संकलन ‘अजगर और बूढ़ा बढ़ई’ (1990) की कहानियों और हाल में प्रकाशित ‘मटखन्ना’( 2011) की कहानियों और ‘बंधुआ रामदास’ (2014) उपन्यास को भी देखा जा सकता है। ये सभी रचनाएं अपनी कथा-वस्तु और रूप-विधान, दोनों ही लिहाज से गहराई से परखे जाने के लिये साहित्य के नये मानदंडों की तलाश की मांग करती है। ये हमारे बहुत जाने-पहचाने संसार की बहुत ही परिचित ढांचों में गढ़ी गई कहानियां नहीं है।

और, यही वह बिंदु है, जहां हम यह सोचने के लिये मजबूर होते हैं कि नीलकांत के लेखन में ऐसा क्या और क्यों है, जो हमें उनपर अलग से विचार करने के लिये प्रेरित करता है ?

नीलकांत दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी, राजनीतिक तौर पर जागरूक और अपने समय के मार्क्सवादी दर्शनशास्त्रीय विमर्श से पूरी तरह से परिचित, उसकी वाद-विवाद-संवाद की श्रेष्ठ परंपरा से समृद्ध चिंतक, आलोचक रहे हैं और इलाहाबाद की तरह के हिंदी के बौद्धिकों की एक समय राजधानी माने जाने वाले शहर के निवासी हैं। उनके आलोचनात्मक लेखों में उनकी इस शक्ति की साफ झलक दिखाई देती है। गांवों से उनके जितने भी जैविक संपर्क क्यों न रहे हो, अपना वयस्क जीवन उन्होंने शहर में, गंभीर बौद्धिक चुनौतियों से भरे परिवेश में ही गुजारा है। एक ऐसा व्यक्ति जब भी कथा लेखन की दिशा में कदम बढ़ाता है उसे देख कर ऐसा लगता है मानो वह अपनी और अपने इर्द-गिर्द की बौद्धिकता के सारे बोझ को एक झटके में दरकिनार करके कलम उठाता है।

इसी बिंदु पर हमें, इस टिप्पणी के प्रारंभ में हमने नीलकांत के व्यक्तित्व में जिस अकिंचन भाव की चर्चा की है, उसकी एक बड़ी भूमिका दिखाई देने लगती है। वे शहर में होते हुए भी शहरी नहीं होते थे, वे विराटों के बीच विचरण करते हुए भी कभी अपने को विराट नहीं महसूस करते थे। लुइस आल्थुसर की आत्मकथा है - ‘The future lasts forever : A Memoir’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘मैंने अपनी सारी वयस्क जिंदगी इस भाव के साथ व्यतीत की जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। सिर्फ इस डर से कि मेरी किताबों के पाठक कहीं मेरी इस अस्तित्वहीनता को देख न लें और मुझे कोरा ढोंगी न मानने लगें, मैं अपने होने का स्वांग जरूर करता रहा।’’

यह जो आदमी के अस्तित्वहीन होने, आत्म-विहीन होने का बोध है, यह जो अपनी बौद्धिकता के प्रति पूरी तरह से निर्मोही, निवैर्यक्तिक होने का भाव है, यही आदमी को जीवन की उन कथाओं की ओर ले जा सकता है जो हम शहरी बुद्धिजीवियों के लिये किसी अजायबघर या भुतहा से दिखाई देने वाले निर्जन स्थान सरीखा जान पड़ता है। एक सामान्य आत्मवादी बौद्धिक बाहरी संसार में तो परिवर्तन को स्वीकारता है लेकिन अपने आत्म को लेकर बिल्कुल अविचल रहता है। लेकिन सचाई यह है कि हमारे से बाह्य संसार का तो बाकायदा अस्तित्व होता है, जो अस्तित्वहीन होता है वह हमारा आत्म है। इस मायने में हमें बार-बार महाभारत की गांधारी की याद आती है जो अपने पुत्र को अपने सामने बिल्कुल निर्वस्त्र होकर आने के लिये कहती है ताकि वह उसके पूरे शरीर को वज्र के समान अजेय बना दे सके। लज्जावश दुर्योधन पूरी तरह से विवस्त्र होकर जाने के बजाय उनके सामने एक लंगोट में हाजिर होता है और दुर्योधन के शरीर का वही, ढका हुआ अंश उसकी कमजोरी बन जाता है, जिसपर गदा से प्रहार करके भीम उसे मार देता है।

यह जो जीवन के यथार्थ का साक्षात्कार अपनी बौद्धिकता के पूरे लबादे को फेंक कर करने की बात है, आत्म-विजड़ित हो कर, बुद्धि की गुह्यता के बजाय निर्बुद्धि की नग्नता के जरिये आगे का रास्ता पाने का जो रास्ता है, वह नीलकांत में ही नहीं, हमें मुक्तिबोध के कथित आत्म-संघर्ष में भी एक बड़ी भूमिका अदा करता दिखाई देता है। यह एक ऐसा भाव बोध है जिसमें आदमी आत्मलीनता की हद तक अपने काम में डूबा हुआ अपने चारों ओर के परिवेश को नकारते हुए जीता है। इसमें विश्लेषक और विषय का संबंध एक का अन्य के साथ संबंध नहीं होता है, क्योंकि विश्लेषक के विश्लेषण कार्य के बीच किसी अन्य की कोई उपस्थिति नहीं होती है। और कहना न होगा, इस अर्थ में कथाकार खुद एक कथा-वस्तु की भूमिका में भी आ जाता है।

यह आत्म-विहीनता का एक ऐसा खास भाव है, जिसे हम कुछ हद तक मार्क्सवादी पदावली में वर्ग-च्युत होने के भाव से भी जोड़ कर देख सकते हैं, बल्कि नीलकांत के वैचारिक व्यक्तित्व के संदर्भ में उसी से जोड़ कर देखा भी जाना चाहिए। यह आदमी के अपने निजीपन को निर्मित करने वाले सारे तत्वों के सायास अस्वीकार की एक परिणति है। हम जानते हैं कि यह भी कोई स्वयंसिद्ध, परम या समस्या-मुक्त स्थिति नहीं है। अंतोनियो ग्राम्शी ने इस वर्ग-च्युतीकरण के विषय पर अपनी प्रिजन नोटबुक में बहुत करीने से प्रकाश डाला है। कम्युनिस्ट हलकों में यह एक सामान्य अवधारणा है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक विज्ञान है और इस विज्ञान की ‘जटिल वाणी’ को वहन करके मजदूर वर्ग के पास ले जाने में शिक्षित मध्यवर्ग की एक बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्ट पार्टियों का आम अनुभव यह है कि इसी चक्कर में कम्युनिस्ट आंदोलन कभी भी मध्यवर्ग के नेतृत्वकारी वर्चस्व से मुक्त नहीं हो पाया है। मध्यवर्ग तथाकथित रूप में अपने को ‘वर्ग-च्युत’ करके मजदूरों का नेता बन जाने का हकदार बन जाता है। लेकिन यह वर्ग-च्युतीकरण अपने आप में कितना बड़ा प्रहसन है, इसकी सचाई को एक यही तथ्य खोल कर रख देता है कि सारी दुनिया में ऐसे कम्युनिस्ट नेताओं की संततियों में से बमुश्किल ही कोई बाद में जीवन में मजदूर की तरह काम करता हुआ जीवन-यापन करता दिखाई देता है। इसीलिये ग्राम्शी ने खुद मजदूर वर्ग को नेतृत्वकारी स्थान पर लाने की बात पर बल दिया था और बुद्धिजीवियों की भूमिका को अलग से, परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया में एक ‘जाग्रत अल्पतम’ (enlightened minority) की भूमिका के रूप में देखा था।

कहना न होगा, ग्राम्शी की दी हुई यही वह समझ है जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया में बौद्धिकों की अपनी निजी स्वतंत्र भूमिका की एक पूरी अवधारणा देती है और उसे आल्थुसर की तरह के ‘अस्तित्वहीन’ जीवन के भाव बोध से मुक्त होने का रास्ता भी बताती है। इसके विपरीत जब हम अपनी कामनाओं के बारे में किसी प्रकार की फंतासी में फंस जाते हैं, तब अगर वह ईर्ष्या की तरह अन्य की किसी चीज की कामना की तरह की कोई अधम वृत्ति नहीं है, तब भी वह वास्तव में जितनी हमारी अपनी नहीं होती उससे ज्यादा हमारे से अन्यों की कामना की कल्पना होती है। यह हमारी अपने बारे में गढ़ ली गई एक दिव्यता की फंतासी भी होती है। इसीलिये जिजेक की तरह का मनोविश्लेषक दार्शनिक कहता है कि व्यक्ति की खुद के बारे में अवधारणा में अक्सर दिव्यता के भाव के साथ ही एक प्रकार की क्षुद्रता का भाव भी एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़े होते हैं। आलोचना का दायित्व लेखक को उसकी काल्पनिक दुनिया से निकाल कर ठोस जमीन पर उतारने की होती है।

नीलकांत जी ने इधर फिर एक बार नये सिरे से अपनी आलोचना की कलम उठाई है। ‘लहक’ पत्रिका के पृष्ठों पर उस कलम की धार की चमक से अभी कई स्थापित जनों की नींद भी हराम हुई है। लेकिन हमें उनकी इस नई इनिंग्स को देखकर आंतरिक खुशी का अहसास होता है। इसे हम उनके अस्तित्वहीनता के भाव-बोध से मुक्त होकर पूरी ताकत के साथ अपने ठोस अस्तित्व का परिचय देने की कोशिश के रूप में देखते हैं। नीलकांत के लेखकीय जीवन के एक ऐसे चरण पर ‘लहक’ पत्रिका ने अपना पहला ‘मानबहादुर सिंह’ पुरस्कार उन्हें देकर उनके अब तक के संपूर्ण कृतित्व के सम्मान के साथ ही उनसे हम सबकी और भी बड़ी उम्मीदों का संदेश प्रेषित किया है। इसके लिये हम ‘लहक’ के इस पुरस्कार के चयनकर्ताओं के शुक्रगुजार है। हम उनकी लंबी और लगातार कर्मरत उम्र की कामना करते हैं ।

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