सफदर हाशमी की शहादत पर एम एफ हुसैन का तैल चित्र
अरुण माहेश्वरी
सफदर हाशमी की शहादत को याद करते हुए -
चौथाई सदी बीत चुकी है। साल का पहला दिन - कितनी ही आशाओं और उम्मीदों की शुभकामनाओं के साथ क्यों न आयें, सच्ची खुशियों और हमारे बीच किसी अलंघ्य रेखा की तरह पड़ी हुई सबके प्रिय सफदर हाशमी की लाश हमेशा इस जीवन के दुखों की, गैर-बराबरी और अन्यायों से भरे क्रूर यथार्थ से क्षण भर के लिये भी नजर न हटाने के संकल्प की याद दिलाती है।
1 जनवरी 1989 के दिन, जब गाजियाबाद में नगरपालिका चुनावों के मौके पर सफदर जन नाट्य मंच (जनम) की मंडली के साथ साहिबाबाद के झंडापुर गांव में ‘हल्ला बोल’ नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन कर रहे थे, तभी कांग्रेस के कुछ गुंडों ने सफदर को निशाना बना कर, उस असाधारण मस्तिष्क को हमेशा के लिये कुचल देने के लिये उस प्रदर्शन पर हमला किया था। सफदर ने 2 जनवरी को प्राण त्याग दिये।
सफदर पर हुए उस पाशविक हमले ने दिल्ली सहित पूरे देश के सांस्कृतिक जगत को झकझोर कर रख दिया था। ऐसा लगा जैसे साहित्य और संस्कृति की दुनिया का एक-एक व्यक्ति इस हमले से खुद के अस्तित्व और अस्मिता पर छाये गहरे संकट की अनुभूति से सिहर उठा हो! देश भर में तब जो प्रदर्शन और सभाएं हुई, जितनी बड़ी संख्या में आवेशित बुद्धिजीवियों के जत्थे तब सड़कों पर उतर आये थे, वह सांस्कृतिक दुनिया के यथार्थ बोध में एक नयी गहनता और विस्तार के सूचक थे।
आज भी जब हम उन दिनों को याद करते हैं, एक अलग ही रोमांच के साथ उस अनुभव की विशिष्टता से जुड़े कई सवाल दिलो-दिमाग को मंथने लगते हैं।
सफदर की हत्या यदि महज एक राजनीतिक हत्या होती, जैसा कि तब भी कांग्रेस-पोषित कुछ अखबारों ने प्रचारित करने की कोशिश की थी, तो किसी भी राजनीतिक पार्टी के एक अदने से कार्यकर्ता की हत्या को पचा लेने जितनी राक्षसी क्षमता माफिया-तंत्रों पर टिके शासक वर्गों के राजनीतिक संगठनों की कृपा से भारतीय जनतंत्र में तभी प्रभूत मात्रा में विकसित हो चुकी थी। यह प्रति दिन जनवादी आंदोलन के शहीदों की लंबी होती सूची में सिर्फ और एक पंक्ति का इजाफा भर कर पाती। स्थानीय स्तर पर सामयिक उत्तेजना भी होती, लेकिन उस शहादत ने तब देश भर में कला और विचारों की दुनिया में जो आलोड़न पैदा किया, वैसा शायद ही कुछ देखने को मिलता!
तब, सवाल उठता है, उस अकल्पनीय आलोड़न की वजह क्या थी? तथ्य तो यह भी बताते हैं कि तब तक कला और संस्कृति की दुनिया इतनी जागरूक और संवेदनशील नहीं हो गयी थी कि अपनी पांत के किसी भी कार्यकत्र्ता पर आंच आने पर उसकी शंकालु आंखों की भवे तन जाया करती हो और इस क्षेत्र के लोग प्रतिवाद में सड़कों पर आजाने के लिये सदा तत्पर रहते हो। पंजाब में पाश और गढ़वाल में डोभाल की हत्याओं को बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए थे। सफदर की शहादत के चंद रोज पहले ही त्रिपुरा में जनकवि ब्रजलाल की नृशंस हत्या हुई थी। पहले उनकी गीत लिखने वाली उंगलियों को काटा गया, फिर गाने वाल कंठ-नली को न जाने कितने टुकड़ों में कतर डाला गया था।
इन सभी घटनाओं का प्रतिवाद हुआ। लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के संगठनों ने अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर गहरी चिंताएं जाहिर की। लेकिन सफदर की हत्या पर जिस प्रकार के रोष की लहर देश भर में दौड़ी थी, वह जैसे गुणात्मक रूप में ही भिन्न थी। वह कोई सीमित प्रतिवाद नहीं था। उसने बयानों, विशाल प्रदर्शनों से लेकर कलाकारों की देश-व्यापी हड़तालों, कलाकारों की एकजुटता के देश-व्यापी भावी कार्यक्रमों और फिल्मोत्सवों की तरह के अन्तरराष्ट्रीय मंचों तक को आलोडि़त कर दिया था। संसद से सड़क तक आवेग और आक्रोश का तब जो लावा फूटा था, उसकी आज शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती।
यह सच है कि वह समय देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में संक्रमण का एक ऐसा समय था जब समाज और राजनीति के सारे अन्तर्विरोध तीव्र हो रहे थे और वे किसी तार्किक समाधान के लिये विकल हो उठे थे। लेकिन सफदर की शहादत पर देश भर में प्रतिवाद का जो दृश्य देखने को मिला, उसके पीछे वे ‘सफदर-बाह्य’ कारण नहीं, बल्कि उनसे बहुत ज्यादा बड़े कारण स्वयं सफदर में, उसके व्यक्तित्व, उसकी सोच और उसकी कार्य-शैली में मौजूद थे। एक संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी के नाते सफदर की यही बात किसी के लिये भी सबसे ज्यादा जानने और आभ्यांतरित करने की बात है।
सफदर तब सिर्फ 34 साल का था। लेकिन इस छोटी सी उम्र में ही उसने अपनी उपलब्धियों के कुछ ऐसे कीर्तिमान स्थापित कर लिये थे, जो ‘औसत प्रतिभा’ के इस युग में किसी के लिये भी अविश्वसनीय और चौंकाने वाले प्रतीत हो सकते हैं। हमें याद है, सफदर की हत्या के ठीक बाद कोलकाता में जो प्रतिवाद सभाएं और कार्यक्रम हुए, उनमें उत्पल दत्त, विभाष चक्रवर्ती, नीलकंठ सेनगुप्त, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, अरुण मुखर्जी, मनोज मित्र, अशोक मुखर्जी के स्तर के बांग्ला रंग-जगत की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से लेकर गणनाट्य मंच के अदने से कार्यकर्ता तक ने उस नृशंस हत्या पर न सिर्फ अपनी घृणा और आक्रोश को ही व्यक्त किया, बल्कि सबने सफदर से अपने व्यक्तिगत संपर्कों, उसकी प्रतिभा, उसकी विनम्रता, मेहनतकश जनता के प्रति उसकी दृढ़ प्रतिबद्धता तथा जन-जागरण के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति उसकी आंतरिक निष्ठा के निजी अनुभवों का हवाला देते हुए उसके प्रति अपने गहरे स्नेह और सम्मान की भावनाओं को व्यक्त किया था। भारत के आधुनिक रंग-जगत की उन विचक्षण प्रतिभाओं ने सफदर को विशाल हिन्दी क्षेत्र में ऐसे आधुनिक रंगकर्म का प्रवर्त्तक बताया जो रंगकर्म आम जनता की प्रतिवादी भूमिका से नैसर्गिक रूप से जुड़ा हुआ था। इन प्रतिवाद सभाओं में दसियों हजार लोग मौजूद रहते थे।
तब पूर्णेन्दु पत्री ने कविता लिखी, जिसकी एक पंक्ति थी -‘सफदर का अर्थ है जागना, जगे रहना और जगाना।’
दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में हुई प्रतिवाद सभाओं आदि की तस्वीर भी अलग नहीं थी। हर जगह एक ही नजारा था। 34 साल के नौजवान रंगकर्मी के व्यक्तिगत संपर्कों में आयें, उसकी प्रतिबद्धता और कला के प्रति निष्ठा के लिये अपने दिलों में गहरे स्नेह और सम्मान के भाव के साथ उम्रदराज प्रतिष्ठित लेखकों, कलाकारों, रंगकर्मियों से लेकर तरुण संस्कृतिकर्मियों , लेखकों, प्रत्रकारों और संवाददाताओं की लंबी फौज दिखाई दे रही थी।
उन्हीं दिनों, बांग्ला दैनिक ‘गणशक्ति’ में बांग्ला के एक सबसे प्रतिष्ठित नाट्यकार मनोज मित्र के नाम सफदर का एक पत्र प्रकाशित हुआ था। वह सन् ‘82 का पत्र था जब दिल्ली में जनवादी लेखक संघ का प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन होने जारहा था। सफदर मनोज मित्र को लिखते हैं :
‘‘प्रिय मनोज दा,
कैसे हैं। तीन महत्वपूर्ण कामों के लिये यह पत्र लिख रहा हूं।
1.आप शायद जानते हैं कि आगामी 13-14 फरवरी को दिल्ली में जनवादी लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन होने जा रहा है। छ: सौ से भी ज्यादा प्रतिनिधि आयेंगे। हमारी सामर्थ्य बहुत ही कम है। इसीलिये सभी दोस्तों-समर्थकों से दान मांग रहे हैं। आप खुद अपनी मंडली की तरफ से चन्दा भेजिये। कान्तिमोहन शर्मा, 222 वी पी हाउस, नई दिल्ली-110001 के पते पर भेजना होगा। आशा है जितना ज्यादा संभव होगा, भेजेंगे। रुपये मिलने पर रशीद भेज दूंगा।
आपका चन्दा आते-आते निश्चित ही सम्मेलन समाप्त हो जायेगा। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इस बीच इसराइल अथवा अन्य किसी ने चन्दा ले लिया हो तो न भेजें।
2.रंगकर्मियों को अब तक अपने राज्य में अथवा अन्य राज्यों में नाटक करने के लिये जाने पर ‘सिंगल फेयर डबल जर्नी’ की सहूलियत मिलती थी। लेकिन रेल विभाग ने इसे अब समाप्त कर दिया है। इसके प्रतिवाद में हम हस्ताक्षर संग्रह अभियान चला रहे हैं। आप लोगों को भी कलकत्ते में संगठित रूप से कुछ करना चाहिए। उचित लगे तो व्यक्तिगत रूप से अथवा बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर संग्रह करके भेज सकते हैं। बंशी कौल, निदेशक, श्रीराम सेंटर, कालेज रोड, नई दिल्ली - 110001 के ठिकाने पर भेजना होगा। या सीधे रेल मंत्री और प्रधानमंत्री को, किसी को भी भेज सकते हैं।
3.आपकी मंडली की कोई नियमित पत्रिका प्रकाशित होती है क्या ? होने पर एन सी जैन, 1/47, जंगपुरा ऐक्सटेंशन, नई दिल्ली - 110014 के पते पर भेजते रहिये। बदले में हम अपनी नाट्यमंडली की पत्रिका ‘नटरंग’ भेजेंगे।
धन्यवाद, आपका
सफदर हाशमी
कोलकाता में एक संवाददाता सम्मेलन में उन्हीं दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के एक निदेशक रामगोपाल बजाज ने एनएसडी के प्रांगण में सफदर के साथ होने वाली बहसों-मुबाहिसों का उल्लेख करते हुए कहा था कि उसने अपने जीवन और कार्य से हमें सिखा दिया है कि अब हम नाटक सिर्फ श्रंगार के लिये नहीं करेंगे।
‘जनसत्ता’ दैनिक में आलोक तोमर ने सफदर के यदाकदा ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में यकबयक अवतरित होने और अपने व्यवहार से सबको मोह लेने के अनुभव को लिखा था।
एक छोटी से जिंदगी में सफदर के संपर्कों, कामों और उसकी चिंताओं की व्यापक परिधि के और भी कई अनोखे आयाम थे। दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल हाउस में जब सफदर का शव पड़ा था, तब एक बूढ़ी मजदुरिन सिर्फ उसके पैर छूने तथा उसके चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने के लिये आकुल-व्याकुल थी। वह रो-रोकर बता रही थी, इस मसीहा ने उसे नयी जिंदगी दी, उसीने उसके मालिक से लड़ाई करके उसकी नौकरी को स्थायी करवाया और उसका वेतन बढ़वाया।
दिल्ली और उसके आस-पास के औद्योगिक क्षेत्र की मजदूर बस्तियां तब एक दशक से भी ज्यादा समय से अपनी हर छोटी-बड़ी लड़ाई में जननाट्य मंच और उसके नायक सफदर को हमेशा अपने बीच पाया करती थी। उन बस्तियों में ही उन दस वर्षों में जननाट्य मंच के ‘मशीन’ से लेकर ‘हल्ला बोल’ तक के लगभग 21 नाटकों के चार हजार से भी ज्यादा प्रदर्शन हो चुके थे।
सफदर की गतिविधियों का यह विशाल फलक, मजदूर बस्तियों में अपनी टोली के साथ अलख जगाना, एनएसडी के प्रांगण में सार्थक रंगकर्म से जुड़ी गंभीर से गंभीर चर्चाओं में हमेशा शिरकत करना, रंगकर्मियों की निजी समस्याओं से लेकर एक आम मजदूर के जीवन की समस्याओं तक को समान गंभीरता से लेना और उनके जूझना, जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन के विकास के काम में मदद के लिये देश के हर कोने को टटोलना और इन सबके बीच भी नये से नये नाटक की रचना और उनकी अभिनव प्रस्तुति-शैलियों को विकसित करना - यह सब एक साथ, एक भाव े करते जाना कोई साधारण बात नहीं थी।
इतने सारे कामों का बीड़ा कोई भी कलाकार तभी उठा सकता है जब उसमें अपने समय के सांस्कृतिक परिदृश्य का एक यथार्थ और सम्यक बोध हो; जब अपने जीवन विचार और उद्देश्य के प्रति उत्कट विश्वास और आस्था हो।
सफदर में वे सारी क्षमताएं थी जिनसे वह अपने समय के अन्य अनेकों की तरह एक सुविधाभोगी जीवन जी सकता था। उसने तीन-तीन विश्वविद्यालयों में अध्यापक की नौकरी पाकर उन्हें छोड़ दिया। पश्चिम बंगाल सरकार के एक बड़े सांस्कृतिक अधिकारी की नौकरी भी उसे रास नहीं आयी। बनिस्बत, उसने सीपीआई(एम) के एक पूरा-वक्ती कार्यकर्ता के रूप में जनता की जनवादी क्रांति के काम में खुद को समर्पित कर दिया। वह जात-पांत, अंधविश्वास, छूआछूत तथा सांप्रदायिकता की तरह की पूर्व-पूंजीवादी बीमारियों से जर्जर हिंदी प्रदेशों की सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ने को इसी क्रांति का एक अभिन्न हिस्सा मानता था। यह जड़ता सिर्फ आम जनता में ही नहीं, इस क्षेत्र के तथाकथित बौद्धिक जगत की भी एक सामान्य बीमारी है। ऊपर से शासक वर्गों के राजनीतिक माफियाओं ने जीवन में बर्बरता और असभ्यता के तेजी से फैलाव के रास्ते खोल दिये थे।
यही वजह है कि सफदर की लड़ाई का क्षेत्र मजदूर बस्तियों से लेकर राष्ट्रीय विद्यालयों तथा अखबारों के दफ्तरों तक समान रूप में फैला हुआ था। नुक्कड़ नाटकों के अपने शास्त्र की रचना करना, उन्हें अनिवार्य और जैविक तौर पर व्यवस्था-विरोध के नाटक के रूप में स्थापित करने की उसकी चिंता के साथ ही ‘नटरंग’ की तरह की पत्रिका के साथ उसका आंतरिक जुड़ाव उसके सोच के ऐसे ही विरल और विस्तृत फलक का एक उदाहरण था।
जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के एक इतने विस्तृत फलक की सही समझ ही सफदर की बहुआयामी रचनाशीलता की शक्ति थी। उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में यही समझ मूर्त होकर एक सही जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के विकास का कारक बन रही थी।
उसकी शहादत ने उसकी समझ के सहीपन को, उसकी समझ की शक्ति और संभावअनों को एक झटके में जैसे सबके सामने उन्मोचित कर दिया था। जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन की परिधि न्यूनतम सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा से लेकर मजदूरों-किसानों के जीवन-संघर्ष में प्रत्यक्ष भागीदारी तक फैली हुई है। सफदर के सिर्फ 34 साल के जीवन ने इस सत्य को पूरी शक्ति के साथ प्रतिपादित किया था। इसीलिये ‘औसत प्रतिभाओं’ के युग में वह एक ‘असाधारण प्रतिभा’ के रूप में उद्भासित हुआ।
सफदर का अर्थ है जीवन की तमाम जटिलताओं में जनवादी सांस्कृतिक संघर्ष की एक सही नीति और व्यवहार। कांग्रेसी गुंडों ने उसकी हत्या करके संस्कृति की इस सटीक नीति और आचरण पर हमला किया था। इसीलिये पूरा सांस्कृतिक जगत प्रतिवाद में उठ खड़ा हुआ।
पचीस साल बाद, आज की बेहद अलग सी दिखाई दे रही दुनिया में भी, सफदर का यही संदेश है कि हर स्तर पर झूठ और अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद को वाणी देने के प्रभावशाली औजारों को विकसित करने में लगे रहो।
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