शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

काश, हम लातिन अमेरिका वाला रास्ता चुन लें!

(विकास के ‘गैर-पूंजीवादी रास्ते’ की सालों पुरानी बहस को उकसाने वाले प्रभात पटनायक के एक महत्वपूर्ण लेख पर एक टिप्पणी :)


चंद रोज पहले ही हमने ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) से तत्काल अपनी सभी नीतियों के खुलासे की मांग को ग्राम्शी की भाषा में ‘आदिम बचकानापन’ (primitive infantilism) कहा था। ग्राम्शी का मानना था कि किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की एक स्थिर तस्वीर (photographic picture) खींचना मुमकिन नहीं होता। इसमें हर समय नाना स्तर के वर्ग और समूह सक्रिय रहते हैं। और, इसीलिये अस्थिर अर्थ-व्यवस्था के संदर्भ में समसामयिक राजनीति की भी कोई स्थिर तस्वीर नहीं बन सकती ।

ग्राम्शी की अर्थ-व्यवस्था में अस्थिर आर्थिक संवर्गों की यह समझ हर राजनीतिक पार्टी के लिये अपने समय की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिये बहुत गतिशील, लचीली और व्यवहारिक भूमिका की मांग करती है। इसीलिये चंद वामपंथी पार्टियों में अब तक का चला आ रहा सोच का यह ढर्रा कि सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ शोषकों का कोई 'बोर्ड आफ डायरेक्टर्स' राजनीतिक पार्टियों के रूप में काम कर रहे अपने दलालों को कठपुतलों की तरह इशारों पर नचाता है, रोजमर्रा की राजनीतिक-कार्यनीतिक समझ के मामले में नितांत यांत्रिक प्रकार की नादानियों  को जन्म देता है। किसी भी लंबे कालखंड के ऐतिहासिक विश्लेषण या उसपर अंतिम निष्कर्ष के लिये इसप्रकार की पद्धति कुछ काम की जरूर हो सकती है, लेकिन नाना प्रकार के सूक्ष्म घात-प्रतिघातों के बीच से बन-बिगड़ रही सामाजिक परिस्थितियों के आकलन में यह यांत्रिक साबित होती है। 

बहरहाल, आज के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक का एक बहुत महत्वपूर्ण लेख छपा है - नवउदारवाद का संकट : अन्तर्वर्ती वर्ग (The crisis of neo-liberalism : Intermediary classes)  

इस लेख में प्रभात ने राजसत्ता के चरित्र के बारे में वामपंथ के अब तक चले आ रहे विमर्श कि यह इजारेदारों के नेतृत्व में सामंती-पूंजीवादी गंठजोड़ जो सामंतवाद और साम्राज्यवाद से सहयोग करता है, या राष्ट्रीय पूंजीवाद की राजसत्ता अथवा, पूंजीवादी राजसत्ता की तरह की पदावलियों से बिल्कुल भिन्न इसमें ‘अन्तर्वर्ती’ वर्गों के शासन की चर्चा की है। अन्तर्वर्ती, अर्थात दो के मध्य का लेकिन अस्थिर, गतिशील, सुपरिभाषित नहीं और न पूर्व-कल्पित। 

अपने इस लेख में प्रभात ने प्रसिद्ध पोलिश अर्थशास्त्री मिक्सौ कालेत्स्की का जिक्र किया है जिसने प्रभात के अनुसार 1964 में नवस्वाधीन नेहरू के भारत, नासिर के मिस्र और सुुकर्णो के इंडोनेशिया के अनुभव के आधार पर एक ऐसे ‘अन्तवर्ती वर्गों के शासन’ का अभिनव विचार दिया जहां राजसत्ता निम्नपूंजीवादी (पेटी बुर्जुआ) अन्तवर्ती वर्गों के हाथ में है, जो इसके पहले इतिहास में कभी नहीं हुआ था। इतिहास में पेटी बुर्जुआ अनिवार्य तौर पर सामंतशाही से सहयोग करते हुए पूंजीपति वर्ग के हितों का सेवक भर माना जाता रहा है। 

कालेत्स्की ने इसके पीछे इन देशों के अंदुरूनी और बाहरी, दोनों कारण बताये थे। अंदुरूनी कारण यह कि इनके औपनिवेशिक अतीत के कारण यहां पूंजीवाद का सही ढंग से विकास अवरुद्ध था। और बाहरी कारण यह कि तब दुनिया दो शिविरों में बंटी हुई थी - एक ओर पूंजीवादी अमेरिका और दूसरी ओर समाजवादी सोवियत संघ। इसीलिये इन सरकारों पर किसी एक रास्ते को ही अपनाने का दबाव नहीं था। इसी कारण कालेत्स्की ने इस घटनाचक्र (फेनामेनां) को सामयिक नहीं बल्कि टिकाऊ (durable) बताया और राजकीय पूंजीवाद (state capitalism) तथा गुट-निरपेक्षता को इसकी प्रमुख लाक्षणिकता। 

प्रभात बताते हैं कि कालेत्स्की के इस विचार की - पेटी बुर्जुआ के वर्चस्व की - तीखी आलोचना हुई। कहा गया कि सार्वजनिक क्षेत्र तो पूंजीवाद की ही सेवा के लिये है। इसके अलावा नासिर की जगह अनवर सदात के मिस्र में आने और सुकर्णो की जगह सुहर्तो के आने ने ‘टिकाऊपन’ की बात को भी मजाक बना दिया। इन दोनों जगह ही कम्युनिस्टों का भारी कत्ले-आम भी हुआ। और, यह कथित ‘अन्तवर्ती शासन’ अपनी गति को प्राप्त कर गया। 

फिर भी, प्रभात के अनुसार, नवस्वाधीन देशों में पेटी बुर्जुआ अथवा अंतवर्ती वर्गों ( जिनमें शहरी मध्यवर्ग के साथ ही किसान जनता भी शामिल होती है) के राजनीतिक महत्व का प्रश्न खारिज नहीं हुआ। 

इसी संदर्भ में प्रभात ने इस लेख में भारतीय अर्थनीति और राजनीति के प्रसंग पर चर्चा की है। 

मिस्र और इंडोनेशिया से भिन्न भारत में क्या हुआ? यहां ’80 के मध्य तक आते-आते नेहरू वाले शासन का संकट सामने आने लगा था और ‘90 तक आते-आते उसका अंत ही होगया। इसकी एक वजह सभी आर्थिक मामलों में राज्य की प्रमुखता का एक पहलू था, जिसके कारण सरकार के खर्च बढ़ते चले गये, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिये उतने साधन जुटाना मुश्किल हो रहा था। खर्च चलाने भर के वित्तीय साधनों के जुगाड़ के कारण विकास में गतिरोध पैदा हुआ, प्रगति रुक गयी। भारत के पूंजीपति अधिक कर अदा करने के लिये तैयार नहीं थे। आज भी राष्ट्रीय आमदनी में कर-राजस्व का योगदान यहां दुनिया में सबसे कम है। बाजार से सरकार द्वारा अनाप-शनाप कर्ज लेने, रुपये छापने और अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाने का फल है - महंगाई, विकास में गिरावट और बेरोजगारी। और, इन्हीं कारणों से मध्यवर्ग का सरकार से मोहभंग हुआ ।

प्रभात अपने लेख में बताते हैं कि ’60 के मध्य में इस संकट से हरित क्रांति के जरिये उबरा गया था। सरकारी संसाधनों को बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में झोंक दिया गया। लेकिन, शहरों में बेरोजगारी का भारी संकट - ‘70 के जमाने में शहरी नौजवानों के सामने छाये भारी अंधेरे का कारण बना, जिसे बताने के लिये प्रभात ने मृणाल सेन की प्रसिद्ध फिल्म ‘कोरस’ का उल्लेख किया है। यही काल था जब जयप्रकाश का आंदोलन सामने आया । इसी समय पश्चिम बंगाल में वामपंथ की जड़ें मजबूत हुई।

इस पूरे इतिहास पर एक नजर डालते हुए प्रभात बताते हैं कि सन् ‘84 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के काल में वामपंथ को भारत की राजनीति के केंद्र में आजाना चाहिए था, लेकिन वह नहीं आपाया क्योंकि तब तक एकओर वैश्विक वित्तीय व्यवस्था का निर्माण हो गया था और भारत के उससे संपर्क हो गये थे और दूसरी ओर सोवियत संघ तथा समाजवादी शिविर का पतन होगया। इसने भारत में नव-उदारवाद का रास्ता साफ किया। 

नव-उदारवाद के बारे में प्रभात बताते हैं कि इसने सबसे पहले शहरी मध्यवर्ग और किसान जनता को मिला कर बने अन्तर्वर्ती वर्ग में दरार डाली। किसान जनता को इससे भारी नुकसान हुआ लेकिन शहरी मध्यवर्ग के महत्वपूर्ण तबके इससे लाभान्वित हुए। तथाकथित विकास नव-उदारवाद का पर्याय बन कर लुभावना बना। प्रभात के अनुसार भारत के वामपंथ ने भी विकास के इसी एजेंडे से खुद को जोड़ने और अंतवर्ती वर्ग के शहरी घटक को साथ में लेने के चक्कर में अपने पश्चिम बंगाल के मजबूत किले को भी गंवा दिया। 

प्रभात इस पूरी पृष्ठभूमि में नव-उदारवाद के वर्तमान संकट पर आते हैं - धीमा विकास, महंगाई, मैनुफैक्चरिंग में पूर्ण गतिरोध, बढ़ती बेरोजगारी और शहरी मध्यवर्ग में भी फैलता अनिश्चय। अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा विश्व अर्थ-व्यवस्था में बेशुमार डालर छोड़ने पर भी भुगतान-संतुलन की समस्या। इसने पहले से विपन्न देहात के लोगों के साथ ही शहरी मध्यवर्ग को भी, अर्थात अन्तर्वर्ती कहे जाने वाले पूरे वर्ग को शासन से काट दिया है। 

इसके राजनीतिक परिणाम को प्रभात दो प्रकार के विकल्पों के अभ्युदय में देखते हैं - एक नरेन्द्र मोदी का, कारपोरेट-वित्तीय प्रभुओं द्वारा समर्थित नव-उदारवाद का सबसे नग्न प्रवक्ता,  और दूसरा अन्ना हजारे, आम आदमी पार्टी वाला कथित रूप से स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त पूंजीवाद का विकल्प। 

प्रभात कहते हैं कि इन दोनों विकल्पों के मंचों से ही मध्यवर्ग का आक्रोश व्यक्त हो रहा है। दोनों मंचों पर ही इस बात को माना जा रहा है कि नव-उदारवाद के संकट का कारण नव-उदारवाद में नहीं है, उस भारतीय अर्थ-व्यवस्था में नहीं है जो नव-उदारवादी विश्व अर्थ-व्यवस्था का अंग है। बल्कि इस संकट का कारण मनमोहन सिंह सरकार, उसका non-governance, भ्रष्टाचार, निर्णयहीनता और भाई-भतीजावाद (crony capitalism) है। 

यहीं पर प्रभात पूछते हैं कि क्यों यह सवाल नहीं उठाया जाता कि यही मनमोहन सिंह की सरकार है जिसने आज तक की सबसे तेज गति से विकास करते हुए भारत को दुनिया के आर्थिक सुपर-पावर की कतार में शामिल करा दिया, वह अचानक कैसे इतनी अक्षम और निर्णयहीनता की सरकार में बदल गयी? क्या भ्रष्टाचार और नव-उदारवाद को एक दूसरे से अलग करना कभी भी संभव है? जिस व्यवस्था में कारपोरेट-वित्तीय प्रभु (corporate-financial elite) विनिवेशन आदि से सार्वजनिक संपत्ति को, जमीन के अधिग्रहण से आदिवासियों, किसानों और आम जनता की संपत्तियों को लूटते हैं, उसमें क्या उन रोगों से मुक्त रहा जा सकता है, जिनके आरोप मनमोहन सिंह सरकार पर लगाये जा रहे हैं? 

प्रभात बताते हैं कि इस मामले में अभी पूरे अंतवर्ती वर्ग में भेद नहीं है। कालोस्की के समय की तुलना में काफी ज्यादा हाशिये पर है और उसके पास कारपोरेट-वित्तीय प्रभुओं के एजेंडे से कोई अलग एजेंडा नहीं है। और लगता है जैसे घूम-फिर कर यहां फिर ये अन्तर्वर्ती वर्ग बड़े पूंजीपतियों की सेवा करने की अपनी एक प्रकार की नियत ऐतिहासिक भूमिका में आगये हैं। 

भारत में ‘अन्तर्वर्ती वर्गों’ की भूमिका के इस पूरे महत्वपूर्ण आख्यान के बाद भी प्रभात उनकी इस ‘ऐतिहासिक भूमिका’ को ही उनकी नियति मानने के लिये तैयार नहीं है, और कहते है कि नहीं, उनके लिये एक और रास्ता भी बचा हुआ है - लातिन अमेरिका का रास्ता। दूसरे वर्गों, किसानों-मजदूरों के साथ हाथ मिला कर चलने का रास्ता। लातिन अमेरिका के देशों में लोगों ने नव-उदारवाद के प्रतिरोध में विकास का एक वैकल्पिक रास्ता अपनाया है। वहां का शहरी मध्यवर्ग इस नतीजे पर पहुंच गया है कि नव-उदारवाद के संकट से निकलने का यही एक सही रास्ता है। 

प्रभात ने अपने लेख का अंत इस एक प्रश्न से किया है - ‘‘क्या भारत में ऐसा होगा ?’’

फिर एक बार विकास के ‘गैर-पूंजीवादी’ रास्ते की दशकों पहले की बहस को उकसाने वाली प्रभात की इस सार्थक टिप्पणी के बारे में एक बिन्दु पर हमारी गहरी असहमति है, वह है आम आदमी पार्टी (आप) के बारे में कोई अंतिम राय सुनाने की उनकी जल्दबाज़ी पर । इस लेखक ने इन विषयों पर लगातार लिखा है और खास तौर पर ‘आप’ के इस पूरे घटनाक्रम को लातिन अमेरिकी घटनाक्रम के संदर्भ में देखने पर भी काफी बल दिया है। यहां अंत में हम अपनी ही पूर्व-टिप्पणियों के उद्धरण देने चाहेंगे :

‘‘हमें तो ‘आप’ और वामपंथ के गठबंधन में फिलहाल भविष्य की कुछ संभावनाएं दिखाई देने लगी है। लातिन अमेरिका का वर्तमान सच भी इसी ओर इशारा कर रहा है।‘‘

तथापि, हमारा भी यही सवाल है : ‘‘देखना यह है कि इस दल के साथ भारत की वामपंथी पार्टियों का कोई संवाद, कोई ताल-मेल बैठता है या नहीं!’’ 

अंत में हम अपनी पुरानी बात ही दोहराना चाहेंगे :

‘‘ ग्राम्शी की शब्दावली में ही कहे तो जरूरत इस बात की है कि ‘‘किसी भी जन-उभार में एक क्रांतिकारी पार्टी की भूमिका समाज के दूसरे तबकों और सर्वहारा वर्ग के बीच एक प्रभुत्वशाली गठबंधन कायम करने की होनी चाहिए और उसे निश्चित तौर पर ‘बौद्धिक और नैतिक जागरण’ की प्रक्रिया को एक रूप देने में सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। तभी कोई पार्टी अपने को मात्र गिने-चुने काडरों का संगठन बनने से, नौकरशाही उपकरण में अधोपतन (degenerate) से खुद को बचा सकती है।’’ 


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