गुरुवार, 9 जनवरी 2014

‘आप’ और वामपंथ पर फिर एक बार

अरुण माहेश्वरी

‘आप’ और वामपंथ पर फिर एक बार

‘इंडियन एक्सप्रैस’ के 8 जनवरी के अंक में प्रभात पटनायक का एक उल्लेखनीय लेख प्रकाशित हुआ है - ‘Rule of Messiah’। इस लेख का मूल प्रतिपाद्य विषय है - आम आदमी पार्टी (आप) और वाम के बीच का ‘बुनियादी फर्क’। एक ओर वाम ‘विचार का चरम’ और दूसरी ओर ‘आप’ ‘विचार-शून्यता का चरम’। ‘Apotheosis of thoughts ’ और ‘Apotheosis of non-thought’।

प्रभात ने वामपंथ की विचार-प्रमुखता के चरम के प्रमाण के तौर पर ‘पूंजी’ के प्रथम खंड में उसके फ्रांसीसी संस्करण के साथ कार्ल मार्क्‍र्स की भूमिका के उस अंश को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने फ्रांसीसी भाषा में इसके प्रकाशन का स्वागत करते हुए लिखा है कि उन्हें खुशी है कि यह ‘‘पुस्तक वहां के मजदूर वर्ग के लिये अधिक सुलभ बन जायेगी’’ और इसके साथ ही अगले पैरा में ही इस पुस्तक के बारे में एक कठिनाई का अनुमान लगाते हुए कहा है कि ‘‘मैंने विश्लेषण की जिस पद्धति का प्रयोग किया है, और जिसका पहले कभी प्रयोग नहीं हुआ था, उसने शुरू के अध्यायों को पढ़ने में कुछ कठिन बना दिया है।’’ 

‘कठिनाई’ के बारे में अपने इस अहसास को लेकर भूमिका के तीसरे और अंतिम पैरा में मार्क्स लिखते हैं - ‘‘ यह एक ऐसी कठिनाई है, जिसे दूर करना मेरी शक्ति क बाहर है। मैं तो केवल इतना ही कर सकता हूं कि जिन पाठकों को सत्य की खोज करने की धुन है, उनको पहले से चेतावनी देकर आने वाली कठिनाई का सामना करने के लिये तैयार कर दूं।’’ इसके आगे मार्क्स ने यह भी जोड़ा था कि ‘‘ विज्ञान का कोई सीधा और सपाट राजमार्ग नहीं है, और उसकी प्रकाशमान चोटियों तक वे ही पहुंच सकते हैं, जो खड़े रास्तों की थका देने वाली चढ़ाई से नहीं डरते।’’

प्रभात ने इसी आधार पर बिल्कुल सही, गूढ़ विषयों में प्रवेश के अध्यवसाय को वामपंथियों की नैसर्गिकता बताया है। इसमें उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख्त की एक उद्धृति भी जोड़ी है - ‘भूखा आदमी किताब की शरण में जाओ’। 

वामपंथ की इस ‘विचार-प्रमुखता’ के बरक्स प्रभात ने ‘आप’ की ‘विचारशून्यता’ की बात कही है जो सिद्धांत से परहेज करती है और इसप्रकार किसी भी समस्या के मूल में जाने में असमर्थ है। उनके अनुसार जनता से बात-बात पर राय लेने की ‘आप’ की पद्धति उनके अंदर ‘सिद्धांत के अभाव का लक्षण’ है और इसे ही प्रभात ने ‘चिंताजनक’ बताया है। 

प्रभात का कहना है कि किसी भी परिवर्तन में जनता की सामूहिक शक्ति की भूमिका किसी सिद्धांत के आधार पर ही बन सकती है। शासन की निर्मितियों (structures) के खिलाफ लड़ाई के लिये गोलबंद करने का कोई सैद्धांतिक आधार न होना, बल्कि खास-खास सवालों पर व्यक्ति-व्यक्ति से सलाह-मशविरा करना, वह भले कितने ही बड़े पैमाने पर क्यों न हो, जनता की सामूहिक भूमिका (as agency) को गौण करने की एक अवधारणात्मक (conceptual) समस्या है। 

इसी सिलसिले में वे लेख के अंत में लेबर पार्टी के बार में उस मजाक का उल्लेख करते हैं कि उसने ‘‘जनमत के आधार पर अपना कार्यक्रम तैयार किया है।’’ प्रभात के लेख का अंतिम वाक्य है - ‘‘जो भी पार्टी ऐसा करती है, वह सामाजिक-आर्थिक निर्मितियों का मुकाबला नहीं कर सकती; यह सच है, यदि है तो, विचार-शून्यता (non-thought) का चरम उसे बल पहुंचाता है।’’ 

इस संदर्भ में हम कहना चाहेंगे कि कल ही अरविंद केजरीवाल की पुस्तक ‘स्वराज’ पर अपनी एक समीक्षात्मक टिप्पणी में इस लेखक ने उसकी सीमित समझ की बात कही थी। 

‘‘हमारी राय में तो इतनी सीमित और एनजीओ-छाप समझ के बल पर राष्ट्रीय नीतियों में सुधार के क्षेत्र में तो केजरीवाल और उनकी पार्टी का रत्ती भर योगदान भी संभव नहीं होगा। वामपंथी पार्टियां, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उनसे अपनी मूलभूत नीतियों के खुलासे की जो मांग कर रही है, वह बेजा नहीं है। ‘स्वराज’ को पढ़ने के बाद तो यह सचमुच एक चिंताजनक बात लगती है।’’
इसके काफी पहले 13 दिसंबर 2013 की अपनी एक पोस्ट ‘‘आप के संदर्भ में’’ के अंत में इसी लेखक ने लिखा था -
“अब तक का इसका सारा जोर ‘भ्रष्टाचार-विरोध’ पर है। ‘अच्छे आदमी’ पर है। कोई सांप्रदायिक हो, जातिवादी, खापवादी, पूंजीपति, सामंत, मुनाफाखोर, कालाबाजारी हो- कुछ भी क्यों न हो, बस ‘भला और अच्छा’ हो ! यह इसकी कार्यक्रम-विहीनता की समस्या है। दूसरी पुरानी, कार्यक्रम-विहीन यथास्थितिवादी पार्टियों की भी य़ह समस्या है।“

केजरीवाल की पुस्तक पर हमारी पोस्ट पर उदयप्रकाश ने टिप्पणी की थी कि

 ‘‘अनुभव अब तक का रहा है कि जो बौद्धिक धरातल पर अधिक जागरूक और सैद्धांतिक स्तर पर अधिक तार्किक , सूचित और सुचिंतित रहे हैं या भाषिक अभिव्यक्ति के मामले में अधिक समृद्ध, उन्होंने कभी अपने ज्ञान पर अमल नहीं किया है । यदि किया होता तो 'आप' और अरविंद आज संभव ही नहीं होते । 
हो सकता है 'प्रैक्सिस' उन्हें अपडेट करे । गांधी ने भी नेहरू के 'भारतीय करण' के लिए उन्हें अवध के इलाक़े के दौरे पर भेजा था, जो बैलगाड़ी में तय हुई ।’’

उदयप्रकाश की इस टिप्पणी पर हमारा जवाब था : ‘‘ मैंने भी इसपर अविश्वास व्यक्त किया है कि यह पुस्तक 'आप' वालों की मार्ग- दर्शक हो सकती है । अगर उन्हें सचमुच कोई बड़ी भूमिका अदा करनी है तो उन्हें बहुत ज़्यादा जानकारियाँ और समझ की ज़रूरत होगी । वह वे किस प्रक्रिया से हासिल करेंगे, उन पर है । 
…मेरा मक़सद इस नये उभार को बदनाम करने का नहीं था, केजरीवाल की इस किताब की एक समीक्षा और उसके नज़रिये की गंभीर सीमाओं की ओर संकेत करने भर का था । निश्चित तौर पर उम्मीद की जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में उतरने के पहले इनका कोई समग्र घोषणापत्र सामने आयेगा ।“

उपरोक्त चर्चा से साफ है कि ‘आप’ की अन्तनिर्हित कमजोरी को समझते हुए भी, हम यह उम्मीद करते हैं कि वह अपनी इन कमजोरियों से निकलने का रास्ता निकालेगी। आज के हालात में उसकी इस कमी को ही उसपर किसी अंतिम राय का आधार नहीं बनाया जा सकता है। 

इसी सिलसिले में दूसरी सभी पारंपरिक पार्टियों के संदर्भ में ‘आप’ की स्थिति का जिक्र करते हुए 13 दिसंबर की अपनी पोस्ट में हमने जो लिखा, उसे भी यहां उद्धृत करना उचित होगा :

“आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के नवीकरण मात्र की नहीं, एक प्रकार से आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। दुनिया इतनी तेजी से और इतनी ज्यादा बदल चुकी है कि अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाये रखने और परिस्थितियों की अधिकतम संभावनाओं का उपयोग करने के लिये राजनीतिक दलों को बदलना ही होगा। 

“वामपंथी पार्टियां, जो निश्चित कार्यक्रमों द्वारा चालित होती है, कार्यक्रमों को तो अद्यतन करती हैं, लेकिन संगठन को तदनुरूप अद्यतन बनाना उनके लिये सबसे टेढ़ी खीर है। 

“कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों के सामने कार्यक्रम वाली बाधा नहीं, ये कमोबेस यथास्थितिवाद की पार्टियां है। लेकिन इनके लिये भी संगठन संबंधी समस्या वैसी ही है। 

“यह समस्या सभी पुरातन समाजों की समस्या की तरह है। जो समाज जितना प्राचीन होगा, उसकी समस्याएं उतनी जटिल होगी। परिवर्तन के हर नये चरण के अवशेष के तौर ऐसे समाजों पर परजीवी तत्वों के न जाने कितने संस्तरों का बोझ लदता जाता है। ये परजीवी (parasites) तत्व, इनके बढ़ते कदमों की बाधा, जोंक की तरह इनका खून चूसते हैं। अतीत के बोझ से मुक्त अमेरिका सबसे तेज गति से आगे बढ़ने में सक्षम है। इसीलिये़, सामाजिक क्रांति जरूरी है क्योंकि इसका अर्थ होता है समाज की परजीवी तत्वों से मुक्ति। 

“इस लिहाज से भारत की पुरानी राजनीतिक पार्टियों के अंदर क्रांति की जरूरत है। 

“इस अर्थ में ‘आप’ एक बिना कार्यक्रम वाली बिल्कुल नयी पार्टी है। अभी इसपर परजीवियों का कोई बोझ न होने से यह आज के समय की संभावनाओं का भरपूर लाभ उठाने में समर्थ है। 

“ ‘आप’ का आकर्षण एक यथास्थितिवादी पार्टी की सुविधाजनक और पुरातनता के अवशेषों से मुक्त स्थिति का आकर्षण है। यह खाते-पीते, भ्रष्ट होने के अवसरों से वंचित ‘अच्छे लोगों’ का दल है।“

‘आप’ को लेकर इस पूरे विमर्श की पृष्ठभूमि में ही हम अपनी ही एक और पोस्ट ‘‘लातिन अमेरिका, ‘आप’ और भारतीय वामपंथ’’ का भी उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें भारत की समग्र आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों के ऐतिहासिक संदर्भों में कहा गया था :

‘‘ आज एक बार फिर भारत की राजनीति जिस मुहाने पर खड़ी है, उसमें एक नये, वामपंथी और जनतांत्रिक विकल्प के विकास की सभी संभावनाएं मौजूद है। लेकिन अपनी आंतरिक-जड़ताओं से मुक्त होने में असमर्थ नजर आरही वामपंथी पार्टियों की वजह से नरेंद्र मोदी की तरह का एक फासिस्ट और चरम दक्षिणपंथी लफ्फाज नेता इस राजनीतिक परिदृश्य पर छाजाने की कोशिश कर रहा है। देशी-विदेशी पूंजीपति भी उसीमें अपने ‘स्वर्ग-राज्य’ की सुरक्षा देख रहे हैं। 

‘‘ ऐसे समय में, जन-आकांक्षाओं से पूरी तरह मेल खाता, दिल्ली में एक नये प्रकार का विकल्प तैयार हुआ है - आम आदमी पार्टी का विकल्प। इसका कोई अपना अतीत न होने के कारण यह वामपंथियों की तरह ही हर लिहाज से एक स्वस्थ और भ्रष्टाचार मुक्त विकल्प है। इसने जनतंत्र में जन-भागीदारी के प्रश्न को मुख्य रूप से उठाते हुए, दिल्ली में बिजली-पानी की तरह के सवालों पर जिस नयी बहस को उठाया है, वह भी सीधे तौर पर वाशिंगटन कंसेंसस के निर्देशों को एक प्रकार की खुली चुनौती जैसा है। भारत के शहरी मध्यवर्ग की कल्पनाओं को वह छूने लगा है। वह इसमें भविष्य को देख रहा है। लेकिन आने वाले आम चुनाव में यह कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके, इसके लिये इसे अभूतपूर्व गति से अपना विस्तार करना होगा। गांव-गांव तक इसका सांगठनिक विस्तार इतने कम समय में एक असंभव काम जान पड़ता है। 

‘‘ फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि भारत में वामपंथियों सहित जो लोग भी किसी तीसरे विकल्प की तलाश कर रहे हैं, वे मुलायम, लालू, मायावती, जयललिता आदि-आदि की तुलना में ‘आप’ को इस विकल्प के कही ज्यादा सशक्त घटक के रूप में देखते हैं। दूसरे सभी कांग्रेस और भाजपा की तरह ही बदनाम और कलंकित दल है। अकेले भ्रष्टाचार के सवाल पर ही ‘आप’ और वामपंथ में एक प्रकार की जैविक समानता दिखाई देती है। लेकिन चुनाव और राजनीति का जहां तक सवाल है, अब देखना यह है कि इस दल के साथ भारत की वामपंथी पार्टियों का कोई संवाद, कोई ताल-मेल बैठता है या नहीं। 

‘‘ हमें तो ‘आप’ और वामपंथ के गठबंधन में फिलहाल भविष्य की कुछ संभावनाएं दिखाई देने लगी है। लातिन अमेरिकी राजनीति का वर्तमान सच भी इसी ओर इशारा कर रहा है।’’

इसप्रकार, पुन: यह साफ है कि प्रभात पटनायक ‘विचार-प्रमुखता’ और ‘विचार-शून्यता’ के प्रश्न को उठाकर जिस प्रकार ‘आप’ और ‘वाम’ को दो विपरीत छोर पर खड़ा हुआ बताना चाहते हैं, हम उससे सहमत नहीं हो सकते। 

शायद, यही वह बिन्दु है जहां जरूरत इस बात की भी है कि हम संसदीय राजनीति में ‘राजनीति’ से अपने तात्पर्य को थोड़ा गहराई से समझे। 

दरअसल, राजनीति कोई गवेषणा का काम मात्र नहीं है। यह सिद्धांतों के साथ ही एक दैनंदिन, गंभीर व्यवहारिक काम भी है। इसमें समसामयिकता की प्रमुखता से कभी इंकार नहीं किया जा सकता। नीति-नैतिकता के मूलभूत मानदंडों पर टिके रहते हुए भी, ‘आज निरीह कल फतहयाब’ वाला सिद्धांत शायद इसमें नहीं चलता। आज अप्रासंगिक होकर कल प्रासंगिक नहीं हुआ जाता। इसीलिये तो इसमें गंठजोड़ों, मोर्चों, संयुक्त मोर्चों का रास्ता अपनाया जाता है। हमेशा एक सही कार्यनीति के संधान पर बल दिया जाता है। 

इसलिये, अंत में, पुन: हम दोहरायेंगे कि ‘आप’ के घटनाक्रम से मूंह मोड़ने या उसपर मूंह बिचकाने के बजाय उससे वामपंथ के एक प्रकार के संवाद और अन्तर्क्रिया के महत्व को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। 

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