शनिवार, 4 जनवरी 2014

लातिन अमेरिका, ‘आप’ और भारतीय वामपंथ


कानकुन में लातिन अमेरिकी नेताओं की एक बैठक (22 फरवरी 2010)

अरुण माहेश्वरी
लातिन अमेरिका, ‘आपऔर भारतीय वामपंथ

भारत मेंआपके तेज उभार से अनायास ही लातिन अमेरिका के राजनीतिक यथार्थ की एक झलक दिखाई देने लगी है।

वही आर्थिक परिस्थितियां। ‘90 के दशक की लड़खड़ाती हुई अर्थ-व्यवस्थाओं को संभालने के लिये वाशिंगटन कंसेंसस के नव-उदारवादी नुस्खें। और परिणाम - भीषण सामाजिक गैर-बराबरी, भ्रष्टाचार और अपराध हिंसा से भरा समाज। लातिन अमेरिका ही था आईएमएफ और विश्व बैंक की ढांचागत समायोजन की नीतियों पर अमल का प्रमुख प्रयोग स्थल। और उनके चलते इन समाजों में जो जन-असंतोष पैदा हुआ, उसीका आख्यान तैयार किया था जोसेफ स्टिगलिट्ज ने अपनी किताबग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेंटमें, जिस किताब की चर्चा कामरेड ज्योति बसु अपने अंतिम सालों में अक्सर किया करते थे। मुक्त बाजार, अर्थ-व्यवस्था से राज्य का प्रस्थान और वाणिज्य के जरिये अमेरिकी प्रभुत्व का विस्तार, सभी राष्ट्रों की संप्रभुता में अमेरिका का नग्न हस्तक्षेप।

‘90 के दशक के शुरू से भारत भी उसी रास्ते पर बढ़ा था। हम यहां उसके पहले की आर्थिक दुरावस्था की कहानी पर नहीं जाते हैं। सन् ‘91 की नरसिम्हा राव सरकार और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह - वाशिंगटन कंसेंसस की सिफारिशों का अंधानुकरण का दौर-दौरा। विदेशी निवेश आया, विदेशी मुद्रा की स्थिति सुधरी, लेकिन पांच साल बीतते बीतते, सामाजिक गैर-बराबरी और घोटालों का ऐसा विस्फोट हुआ कि विकास के सारे दावे धरे के धरे रह गये। 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की निर्णायक पराजय हुई। 

हमारा दुर्भाग्य कि कांग्रेस का विकल्प - भाजपा नीत एनडीए सरकार - और भी जघन्य था। हालत यहां तक पहुंच गयी कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष ही हथियारों के सौदे के नाम पर सरे आम घूस लेता हुआ पकड़ा गया। एनडीए का काल प्रमोद महाजनों और रंजन भट्टाचार्यों के उदय का दौर था। इसके साथ ही वह आडवाणी की शह पर नरेंद्र मोदी सरीखे सांप्रदायिक अपराधी के भी उदय का दौर था। परिणाम - : साल के अंदर ही अमेरिकी नुस्खों पर चमकाये गयेशाइनिंग इंडियाकी कलई खुल गयी। और, 2004 के आमचुनाव में एनडीए की जगह यूपीए की सरकार बनी। सीधे वामपंथी रूझान की सरकार। लातिन अमेरिका में हो रहे परिवर्तनों की ही एक भारतीय सूरत। फर्क सिर्फ यह था कि सरकार के नेतृत्व में कांग्रेस थी और वामपंथी, सरकार के अंदर भी और बाहर भी। यूपीए के घटक के नाते अंदर और कोई मंत्री पद लेने के नाते बाहर।

जो भी हो, पहली यूपीए सरकार के कदम जमीन पर टिके रहे। हजार दबावों के बावजूद अनेक क्षेत्रों में वाशिंगटन कंसेंसस के निर्देश नहीं चलें। लेकिन उस सरकार के अंतिम काल में, ऐन चुनाव के साल भर पहले परमाणविक ऊर्जा के विषय में अमेरिका के साथ समझौते का मसला कुछ इस कदर उठा कि कांग्रेस और वामपंथ का वह सफल ताल-मेल बिखर गया। अमेरिकी मंशा पूरी हुई। आगे के चुनाव में यूपीए सरकार की उपलब्धियां कांग्रेस के हाथ लगी और वामपंथी अपने मत को किसे समझाएं, कैसे समझाएं की उहा-पोह में, जैसे अपना सबकुछ लुटा बैठे।

चुनाव में कांग्रेस फिर सत्ता पर लौट आयी। यूपीए - 2 की सरकार बनी। वामपंथियों को लोकसभा के इतिहास में सबसे कम सीटें मिली। और इसके साथ ही, आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में शुरू हुआ - नव-उदारवाद का नंगा खेल। विदेशी पूंजी की बाढ़ और गठबंधन धर्म के नाम पर भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को केंद्र सरकार का खुला संरक्षण। यूपीए-2 के भ्रष्ट शासन ने राज्यों में भाजपा को बल पंहुचाया, श्रेय मिला नरेन्द्र मोदी को सुशासन का। क्रमश: फिर वैसी ही, सन् ‘96 से भी बदतर स्थिति तैयार होगयी। अकेले भ्रष्टाचार ने पूरे राष्ट्र में ऐसी त्राहि-त्राहि मचायी है कि अब इसकी चपेट से कोई भी नहीं बच पा रहा है। भ्रष्ट नौकरशाह राजनीतिज्ञों को दबोचे रहते हैं, राजनीतिज्ञ आम जनता की छाती पर चढे़ हुए हैं और सरकारी बाबू जोंक बनकर पूरे राष्ट्र का खून चूस रहे हैं। यूपीए-2 के ये अंतिम दिन तो भ्रष्टाचार-निरोध का जाप करते हुए ही गुजर रहे हैं।

यह वही परिस्थिति है जो कभी लातिन अमेरिका के तमाम देशों की थी। इन परिस्थितियों में ही उन सभी देशों में 21वीं सदी के आगमन के साथ ही वामपंथी रूझान की पार्टियोंं के उभार का सिलसिला शुरू हुआ और देखते-देखते वेनेजुएला में हुगो सावेज, चिले में रिकार्डो लागोस और मिशैल बाशलेत, ब्राजील में लुला सिल्वा और दुल्मा रूसेफ, अर्जेन्तिना में नेस्तर किर्शने और उनकी पत्नी क्रिस्तिना फर्नान्दिज, उरुग्वे में होशे मुखीका, बोलीविया में एवो मोरालेस, निकारागुआ में दनियल ओर्तेगा, इक्वाडोर में रफायल कोरिआ, पैरागुआ में फर्नांदो लुगो, होंडुरस में मैनुअल खेलाया, अल सल्वाडोर में मोरिशिओ फ्यूनस की सरकारें बन गयी। ये सभी अपने को वामपंथी, समाजवादी, लातिन अमेरिकापंथी अथवा साम्राज्यवाद-विरोधी कहते हैं। आज सिर्फ होंडुरस, कोलंबिया और पनामा में दक्षिणपंथी सरकारें है। इनमें होंडुरस और पनामा बहुत छोटे देश है।

आज एक बार फिर भारत की राजनीति जिस मुहाने पर खड़ी है, उसमें एक नये, वामपंथी और जनतांत्रिक विकल्प के विकास की सभी संभावनाएं मौजूद है। लेकिन अपनी आंतरिक-जड़ताओं से मुक्त होने में असमर्थ नजर आरही वामपंथी पार्टियों की वजह से नरेंद्र मोदी की तरह का एक फासिस्ट और चरम दक्षिणपंथी लफ्फाज नेता इस राजनीतिक परिदृश्य पर छाजाने की कोशिश कर रहा है। देशी-विदेशी पूंजीपति भी उसीमें अपनेस्वर्ग-राज्यकी सुरक्षा देख रहे हैं।

ऐसे समय में, जन-आकांक्षाओं से पूरी तरह मेल खाता, दिल्ली में एक नये प्रकार का विकल्प तैयार हुआ है - आम आदमी पार्टी का विकल्प। इसका कोई अपना अतीत होने के कारण यह वामपंथियों की तरह ही हर लिहाज से एक स्वस्थ और भ्रष्टाचार मुक्त विकल्प है। इसने जनतंत्र में जन-भागीदारी के प्रश्न को मुख्य रूप से उठाते हुए, दिल्ली में बिजली-पानी की तरह के सवालों पर जिस नयी बहस को उठाया है, वह भी सीधे तौर पर वाशिंगटन कंसेंसस के निर्देशों को एक प्रकार की खुली चुनौती जैसा है। भारत के शहरी मध्यवर्ग की कल्पनाओं को वह छूने लगा है। वह इसमें भविष्य को देख रहा है। लेकिन आने वाले आम चुनाव में यह कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके, इसके लिये इसे अभूतपूर्व गति से अपना विस्तार करना होगा। गांव-गांव तक इसका सांगठनिक विस्तार इतने कम समय में एक असंभव काम जान पड़ता है।

फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि भारत में वामपंथियों सहित जो लोग भी किसी तीसरे विकल्प की तलाश कर रहे हैं, वे मुलायम, लालू, मायावती, जयललिता आदि-आदि की तुलना मेंआपको इस विकल्प के कही ज्यादा सशक्त घटक के रूप में देखते हैं। दूसरे सभी कांग्रेस और भाजपा की तरह ही बदनाम और कलंकित दल है। अकेले भ्रष्टाचार के सवाल पर हीआपऔर वामपंथ में एक प्रकार की स्वाभाविक समानता दिखाई देती है। लेकिन चुनाव और राजनीति का जहां तक सवाल है, अब देखना यह है कि इस दल के साथ भारत की वामपंथी पार्टियों का कोई संवाद, कोई ताल-मेल बैठता है या नहीं।

हमें तोआपऔर वामपंथ के गठबंधन में फिलहाल भविष्य की कुछ संभावनाएं दिखाई देने लगी है। लातिन अमेरिकी राजनीति का वर्तमान सच भी इसी ओर इशारा कर रहा है।    
    
   


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