गुरुवार, 16 जनवरी 2014

आर एस एस का मिथ

आर एस एस का मिथ 

मित्रों, 
दया कर मत कहिये, आरएसएस को हम नहीं जानते। सन् ‘92 के बाद, इसके रहस्य के संधान में ही पूरी किताब लिखी है - आरएसएस और उसकी विचारधारा। इसका हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं। 
जब तक किसी चीज पर रहस्य के आवरण होते हैं, उसके बारे में तमाम प्रकार के भ्रम पैदा किये जा सकते हैं। रहस्यों से ही मिथ तैयार किये जाते हैं। कोरी कपोल-कल्पनाओं से एक साधारण डोरी को भारी भरकम अजगर बना कर पेश किया जा सकता है। यही तो प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ में वर्णित ‘myth of cave’ है। इस गुहा के अंधकार में फंसा आदमी अज्ञान की जकड़ में रहता है। ज्ञान-तत्व बाहर सूरज की रोशनी में होता है। 

बहरहाल, अपने मित्रों की सुविधा के लिये अपनी पुस्तक के एक छोटे से पैरा को यहां दे रहे है, ताकि संघ की शाखा में जाकर संघ को जानने की चुनौती देने वालों के सच को सभी जान सके :

नाजी टेकनिक

आर एस एस के असली उद्देश्यों पर रोशनी डालनेवाले प्रारम्भिक व्यक्तियों में एक प्रमुख नाम गोविन्द सहाय का है। उत्तर प्रदेश के राज्य सचिवालय के अधिकारी गोविन्द सहाय गांधी जी की हत्या के पहले से ही आर एस एस के बारे में लिखते रहे थे, लेकिन गांधी जी की हत्या के ठीक बाद उन्होंने उसके बारे में एक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी-नाजी टेकनिक एण्ड आर एस एस। 

गोविन्द सहाय की इस पुस्तिका पर आर एस एस के तमाम लोग बुरी तरह बिफर गए थे और उन्होंने गोविन्द सहाय को गाली-गलौज के साथ ही बुरे अंजामों की धमकियाँ देने के अलावा अपने अखबारों में उनके खिलाफ कुत्सा का भारी अभियान छेड़ दिया था। आर एस एस के मुखपत्र आर्गनाइजर के पृष्ठों पर गोविन्द सहाय द्वारा सरकारी पद के दुरुपयोग के ने जाने कितने मनगढ़ंत किस्से छापे गए। 

गोविन्द सहाय ने ही 1948 में एक और पुस्तक लिखी - आर एस एस : आईडियोलोजी, टेकनिक, प्रोपेगैण्डा। 

इस पुस्तक में सहाय यह प्रश्न करते हुए कि आर एस एस क्या चाहता है, बताते हैं कि आर एस एस एक रहस्य है। ऐसा जान पड़ता है कि यह संघ के नेतृत्व के हित में है कि जान बूझकर उसके रहस्य को बड़ा और गहरा बनाया जाए। वे समझते हैं कि तभी वे जनता की अज्ञानता का सबसे अधिक लाभ उठा सकते हैं; जैसा उन्हें अपने हित में उचित लगे तथा जैसी परिस्थिति की माँग हो उसके अनुरूप वे बातों को मोड़ कर उन्हें बहला सकते हैं। इसीलिए अलग-अलग तबकों और सम्प्रदाय के लोगों को बहलाने के लिए वे अलग-अलग बातें कहा करते हैं - अर्थात उतना ही कहा जाता है जितना उन्हें अच्छा लगे। 
जैसे यदि संघ के उद्देश्य के बारे में कोई किसी संघी से पूछे तो उसे बहुत ही बँधे-बँधाए ढंग से रहस्यमयी जुबान में उत्तर मिलेगा : अभी हम तुम्हें क्या बताए कि संघ का क्या उद्देश्य है, जब समय आएगा, तब तुम्हें स्वयं ही इसका पता लग जाएगा कि हम क्या चाहते हैं। फिर भी यदि तुम जानना चाहते हो तो तुम शाखा में आओ, गुरुजी में आस्था रखो तथा हमारा विश्वास प्राप्त करने के लिए आवश्यक अनुशासन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओ, तो तुम्हें स्वयं सब पता चल जाएगा।

इस पहेली को और भी रहस्यमय तथा रोमांचक बनाने के लिए गोपनीय ढंग से यह भी कह दिया जाता है कि संघ का कोई दफ्तर नहीं है, और न कोई हिसाब-किताब ही। फिर भी संघ का जाल देश भर में फैला हुआ है, इसकी शक्ति अतुलनीय है। 

गुरुजी के खुद के शब्दों में - ‘संघ एक अजेय, अभेद्य किला है’।

गोविन्द सहाय ने इस पर आगे एक बहुत सही टिप्पणी की है कि उनकी इस कार्यपद्धति से हमें जर्मनी में नाजियों तथा भारत में मुस्लिम लीगियों की याद ताजी हो जाती है। ... हिटलर ने अपने अनुयायियों को यह समझाया था कि नाजी मत के आलोचकों को कभी भी अपने आदर्श के बारे में मत जानने दो। यदि परेशान होकर कोई तुमसे पूछे कि तुम्हारा येय क्या है, तो उसकी अज्ञानता की खिल्ली उड़ाओ और उससे कहो कि नाजी आदशो को सारी दुनिया जानती है, जबकि सच्चाई यह है कि इस बात को कोई नहीं जानता। (आर एस एस : आईडियोलोजी, टेकनिक, प्रौपेगैण्डा, पृष्ठ 13-14)

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