गुरुवार, 5 मार्च 2015

अरविंद केजरीवाल के नाम खुला पत्र


प्रिय अरविंद जी,

आज (4 मार्च 2016) आम आदमी पार्टी (आप) की राजनीतिक परामर्श समिति(पीएसी) में जो कुछ हुआ उससे हम ज्यादा हतप्रभ नहीं है। जो भी हमारे देश में और सारी दुनिया में राजनीतिक पार्टियों के काम करने के तौर-तरीकों के इतिहास को जानता है, उसे इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं लगेगा। किसी भी विषय में लंबी बहस के बाद भी जब किसी फैसले पर पहुंचना मुमकिन नहीं दिखाई देता है तब संगठन के संचालन की यह एक साधारण रीति है कि मतदान का रास्ता अपनाया जाए और जो भी बहुमत में हो उसकी बातों को मान्य माना जाए। संगठन जितना भी जनतांत्रिक क्यों न हो, बहुमत के सामाने अल्पमत की अधीनता को ‘आंतरिक जनतंत्र’ वाले संगठनों का एक अटल सिद्धांत माना जाता है। ‘आप’ की पीएसी में भी संगठनों की इस सर्वमान्य परिपाटी को ही दोहराया गया। इसीलिये एक नजर में किसी का इससे विस्मित या दुखी होना गैर-लाजिमी ही माना जायेगा।

संगठन संबंधी इस सर्वकालिक और सर्वमान्य सिद्धांत की सचाई के बावजूद यह बात भी समान रूप से सच है कि ‘आप’ के इस घटनाक्रम ने बहुत सारे लोगों को काफी आहत किया है। हमीं ने इसपर फेसबुक में अपनी पोस्ट में लिखा कि ‘‘कहा जा रहा है कि योगेंद्र यादव को 'आप' की पीएसी से हटा दिया गया है । अगर यह सच है तो यह दिल्ली की जनता के साथ विश्वासघात और 'आप' के क्रमश: एक गिरोह में तब्दील होने की प्रक्रिया की ओर संकेत करता है ।**

राजनीतिक पार्टियों के सांगठनिक सिद्धांतों के बारे में इतिहासबोध पर टिके अपने सारे विवेक के बावजूद जब हम आज के इस घटनाक्रम को आसानी से नहीं स्वीकार पा रहे हैं तब हमें खुद की आहत-भावनाओं पर ही सोचने की जरूरत पड़ रही है। जो बात राजनीतिक संगठनों के मामले में आम दिखाई देती है, वही ‘आप’ के बारे में हमें उतनी साधारण क्यों नहीं नजर आती?

इस सवाल के साथ विचार करने पर हमें लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम अभी तक ‘आप’ को सामान्य अर्थों में एक राजनीतिक पार्टी नहीं मानते हैं और इसीलिये उस पर उन सांगठनिक सूत्रों और सिद्धांतों का लागू होना उतना अनिवार्य या वांछित नहीं मानते जिन्हें अन्य पार्टियों के मामले में हम नितांत सामान्य बात के तौर पर देखते रहे हैं?

दरअसल, हम समझ रहे थे कि ‘आप’ का उदय भारतीय राजनीति की नयी परिघटना है जो हिंदुत्व की एक फासीवादी पार्टी की चुनौतियों के सामने कांग्रेस और पारंपरिक वामपंथी दलों की प्रकट विफलता की पृष्ठभूमि में एक नये स्वस्थ जनतांत्रिक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है और जिसका रूझान भ्रष्टाचार-विरोधी तथा गरीबों के पक्ष में होने के कारण वामपंथ की ओर थोड़ा झुका हुआ है। इसके अलावा, यह भी सच है कि हमें ‘आप’ की यह परिघटना भारत की अपनी कोई अनोखी परिघटना भी नहीं लगती थी। इसप्रकार के वामपंथी रूझान वाले नये प्रकार के जन-आंदोलन के प्रमाण हाल के सालों में दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिले हैं। पूरा लातिन अमेरिका ऐसे नये वाम-जनतांत्रिक विकल्प की राजनीति का पिछले एक दशक से बहुत बड़ा प्रयोगस्थल बना हुआ है। कमोबेस भारत की तरह की परिस्थितियों में ही इन देशों में 21वीं सदी के आगमन के साथ वामपंथी रूझान की पार्टियों के उभार का सिलसिला शुरू हुआ और देखते-देखते वेनेजुएला में हुगो सावेज, चिले में रिकार्डो लागोस और मिशैल बाशलेत, ब्राजील में लुला द सिल्वा और दुल्मा रूसेफ, अर्जेन्तिना में नेस्तर किर्शने और उनकी पत्नी क्रिस्तिना फर्नान्दिज, उरुग्वे में होशे मुखीका, बोलीविया में एवो मोरालेस, निकारागुआ में दनियल ओर्तेगा, इक्वाडोर में रफायल कोरिआ, पैरागुआ में फर्नांदो लुगो, होंडुरस में मैनुअल खेलाया, अल सल्वाडोर में मोरिशिओ फ्यूनस की सरकारें बन गयी। ये सभी अपने को वामपंथी, समाजवादी, लातिन अमेरिकापंथी अथवा साम्राज्यवाद-विरोधी कहते हैं। आज सिर्फ होंडुरस, कोलंबिया और पनामा में दक्षिणपंथी सरकारें है। इनमें होंडुरस और पनामा बहुत छोटे देश है। हाल में ग्रीस में बनी सिर्जिया की सरकार को भी इसीका एक नया विस्तार माना जा सकता है।

जब हम दुनिया की 1990 के बाद की इन 25 सालों की राजनीतिक स्थिति पर गौर करते है तो एक ओर अमेरिकी वाशिंगटन कंसेंशस वाली नव-उदारवादी नीतियों की मुहिम है तो इसके विपरीत छोर पर उन नीतियों को एक सिरे से ठुकराने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां है, जिनके समाजवादी विकल्प को सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में ठुकराया गया था और जो आज भी चीन की सारी उपलब्धियों के बावजूद किसी जनतांत्रिक विकल्प का भरोसा पैदा नहीं कर पा रही है। नाना कारणों से अब तक दुनिया भर में नव-उदारवादी नीतियों के प्रतिकार में कम्युनिस्ट पार्टियों का विकल्प लोगों के गले नहीं उतर रहा है। इसी परिस्थिति में लातिन अमेरिका में जो नया जनतांत्रिक उभार देखने को मिला, उसी से संगति रखते हुए दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उभार ने भी सभी जनतंत्रप्रिय लोगों की अन्याय के खिलाफ एक नये जन-आंदोलन की कल्पनाओं को छुआ है। भारत में फासीवाद के खतरे के सामने इसमें जनतंत्र की रक्षा के एक व्यापक मंच की संभावनाओं ने भी सबको इसके प्रति उत्साहित किया है। दिल्ली में ‘आप’ की इतनी बड़ी ऐतिहासिक जीत सिर्फ उसके संगठन की बदौलत नहीं, बल्कि जनता की कल्पनाओं को छूने वाली उसकी इसी आंदोलनात्मक छवि की वजह से संभव हुई है।

अरविंद जी, जब कोई पार्टी उदीयमान जन-आंदोलन के रूप में सामने आती है तब उसपर आम तौर पर राजनीतिक पार्टी के सामान्य सांगठनिक सिद्धांत लागू नहीं होते हैं। आजादी की लड़ाई के पूरे काल में राष्ट्रीय कांग्रेस का पूरा इतिहास देख लीजिये। उसके संचालन के लिये विरले ही कभी अनुशासन के सख्त डंडे की कोई जरूरत पड़ी होगी। वह आजादी की लड़ाई का एक व्यापक मंच था जिसमें लोगों का अपनी मर्जी से आना-जाना अबाध रूप से चलता रहता था। तमाम विचारों के लोगों ने उस आंदोलन के मंच को विकसित करने में अपनी भूमिका अदा की थी।

‘आप’ को भी आज के इस दौर में राष्ट्रीय जीवन की भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता की तरह की कुछ खास समस्याओं से निपटने के मंच के रूप में लोग देखते हैं। पिछले अक्तूबर महीने में जब दिल्ली में ‘आप’ की विजय हुई थी, तब बहुत से लोगों ने उसे स्वाभाविक तौर पर एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में भी देखना शुरू कर दिया था। लेकिन लोक सभा चुनाव में इजारेदार घरानों की खुली मदद से मोदी के तूफानी अभियान के कारण दूसरी कई पार्टियों की तरह ही ‘आप’ भी उसमें कोई विशेष उपलब्धि नहीं कर पाई। फिर भी, ‘आप’ की ओर से देश के विभिन्न हिस्सों में रातो-रात एक सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के जो दुस्साहसी कदम उठाये गये थे, उसने सबको चौका दिया था। ‘आप’ द्वारा चंदा उगाहने और पार्टी के आय-व्यय के हिसाब के मामले में जिसप्रकार की पारदर्शिता का परिचय दिया गया था उससे पार्टी संगठन के निर्माण को लेकर भी कुछ नयी प्रकार की उद्भावनाओं के संकेत लोगों को दिखाई दिये थे।

ऐसी परिस्थति में, दिल्ली के आज के घटनाक्रम ने हम जैसों को हताश किया है क्योंकि इससे कुछ ऐसा लगता है कि जैसे ‘आप’ ने जिस नयी सांगठनिक पहलकदमी का परिचय देकर अपने को अन्य बंद संगठनों से एक भिन्न स्थान पर रखा था और जनतांत्रिक राजनीति की नयी संभावनाओं की ओर संकेत किया था, वह क्रम इस घटना से यकबयक जैसे थम ही नहीं गया बल्कि पूरी तरह उलट सा गया है। यह एक व्यापक जन-आंदोलन के संभावनापूर्ण विस्तार के पहले ही उसे सख्त अनुशासन की जंजीरों से बांध देने की तरह का उपक्रम लगता है। निश्चित तौर पर किसी भी संगठन को अपने नियमों के आधार पर चलाने से ही उसे व्यक्तियों के स्वेच्छाचार से बचाया जा सकता है। लेकिन किसी को यह समझ में नहीं आरहा है कि ऐसी कौन सी आपदा आ गयी थी कि जिसके कारण अभी-अभी जनता के इतने व्यापक समर्थन को पाने के बाद इतनी हड़बड़ी में पार्टी के दो वरिष्ठ और लोकप्रिय नेताओं के खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई करने की जरूरत आगयी ?

योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण, दोनों की ईमानदारी को लेकर कोई किसी प्रकार का सवाल नहीं उठा रहा है और इस बात को भी कोई झुठला नहीं सकता कि ये दोनों ही आम लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय ऐसे व्यक्ति रहे है जिन्होंने जनता के दिलों में ‘आप’ की इस पूरी परिघटना का एक खाका तैयार करने में अहम भूमिका अदा की है। ऐसे महत्वपूर्ण नेतृत्वकारी लोगों को संगठन में तत्काल उनकी औकात बताने वाली कार्रवाई की क्या जरूरत थी ?

अरविंद जी, जनतंत्र एक लगातार विकासमान अवधारणा है। यह एक ऐसी बहुमतवादी सामूहिकता है जिसमें व्यक्ति और समूह के अधिकारों के बीच द्वंद्व जितने कम होंगे, जनतंत्र के लिये उतना ही अच्छा होगा । समूह की संगति में व्यक्ति की शक्ति का बढ़ना ही जनतंत्र की सफलता है । दार्शनिक लहजे में कहें तो जनतंत्र नामक 'परम चित्त' का आरोहण व्यक्ति स्वातंत्र्य को अधिक से अधिक साध कर ही संभव है।  लक्ष्य हमेशा समूह और व्यक्ति के बीच के फासलों को कम करना होता है। समूह के बरक्स व्यक्ति का सशक्तीकरण जनतंत्र के विकास के स्तर की कसौटी है। इसीलिये एक ऐतिहासिक विजय के तीन हफ़्तों के अंदर ही उस विजय के दो प्रमुख कर्णधारों पर लगभग अकारण ही गाज का गिरना अनुचित सा जान पड़ता है ।

अरविंद जी, शास्त्रीय ढंग से सोचा जाए तो राजनीतिक पार्टी व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का समूह है। उन लोगों का समूह जो एक मान्य विचारधारा के अनुसार पूरे समाज को ढालने के लिये एकत्रित हुए हैं। उनका लक्ष्य होता है कि यह पार्टी क्रमश: फैलते-फैलते पूरे समाज या पूरी जनता का रूप ले लें। पार्टी का जनता में पूरी तरह से लोप ही पार्टी का अंतिम गंतव्य है। जनहित और पार्टी-हित अभिन्न, और हमेशा के लिये एकाकार हो जाते हैं। कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक तौर पर पार्टी का कोई अंतिम रूप नहीं होता, बल्कि जनता में उसका विलोपन होता है। इस अंत तक पहुंचने की दीर्घ प्रक्रिया में संक्रमण के कई पड़ाव आते हैं, ऐतिहासिक तौर पर संभव नये-नये तत्वों, व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों को यह अपने में आत्मसात करती है।

लेकिन जब तक कोई पार्टी अपने इस अंत तक नहीं पहुंचती, वह पार्टी ही रहती है, समाज या जन नहीं हो पाती, उसे संपूर्ण समाज या जनता नहीं माना जा सकता।  इसीलिये यह जरूरी नहीं होता कि पार्टी-हित और जन-हित हमेशा एक और अभिन्न हो। यद्यपि, कुछ ऐतिहासिक संधि-क्षणों में जब जन-हित और पार्टी-हित एक समान हो जाते हैं, तब पार्टी वास्तव अर्थों में जन-आंदोलन का रूप लेकर सामने आती है।
इसके अलावा, जो समस्या पार्टियों और उनके पार्टी-हितों की है, वे किसी भी जनतांत्रिक व्यक्ति और नागरिक की नहीं होती है। शायद यही कारण है कि कोई स्वतंत्र व्यक्ति या नागरिक जितनी आसानी से अपने समय के जन-हित के विषयों के साथ खुद को एकात्म कर लेता है, पार्टियां नहीं कर पाती है - इस प्रकार की तमाम उदात्त घोषणाओं के बावजूद कि जनहित के अलग पार्टी-हित कुछ भी नहीं होता है। इस वजह से भी पार्टी में व्यक्ति की भूमिका को जितना बना कर रखा जा सके, व्यापक अर्थों में वह उतना ही श्रेयस्कर होता है।

जिन दो व्यक्तियों को ‘आप’ की इस बैठक में निशाना बनाया गया है वे दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र के जाने-माने बुद्धिजीवी है। और इसी वजह से उनकी भूमिका को अक्षुण्ण रखने में हमें ‘आप’ के जनतांत्रिक स्वरूप के हित दिखाई पड़ते हैं। इस मामले में सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां एक गहरे संकट से गुजर रही है। समाजवाद के श्रेष्ठ दिन वे थे जब दुनिया के तमाम बौद्धिक विमर्शों में भी समाजवाद की श्रेष्ठता बनी हुई थी।

ऐसे में ‘आप’ का यह संकट हमें गहराई से आशंकित करता है। यदि इस मामले को विवेक और उदारता के साथ नहीं सुलझाया जाता है और उनकी भूमिका को सुरक्षित नहीं रखा जाता है तो यह ‘आप’ की विश्वसनियता के लिये भी खतरा पैदा कर देगा।

सादर
अरुण माहेश्वरी

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