सोमवार, 30 मार्च 2015

एक नीच ट्रेजेडी


अरुण माहेश्वरी

सचमुच आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे जो हुआ वह एक ऐसी नीच ट्रेजेडी का दृश्य है जिसके अंत में सिवाय छुद्रताओं के और कुछ बचा दिखाई नहीं देता। श्आपश् के उदय और विकास के समय उसकी विचारधारा को लेकर सवाल पूछने वालों से हमारी शिकायत होती थी कि इतनी हड़बड़ी क्या है? क्या हम विचारधाराओं वालों की गलाजतों को नहीं जानते!

इसके दो दिन पहले टेलिविजन चैनलों पर केजरीवाल का एक स्टिंग आया था। बेहद चौंकाने वाला । सत्ता इतनी जल्दी उनके सर पर चढ़ कर बोलने लगेगी कि वे सभ्यजनों के साथ उठने-बैठने लायक भी न रह जाए, यह कल्पना के बाहर था। इतनी सी सत्ता से उनकी विनम्रता का आवरण दरक गया] एक और भ्रष्टतम राजनीतिक नेता के उदय का संकेत है?

हम समझ सकते थे, अरविंद केजरीवाल की भाषा हूबहू वैसी ही थी, जैसी सत्ताधारियों की आम तौर पर निजी वार्तालापों में भाषा हुआ करती है । वे अब 67 विधायकों के प्रतिनिधि है, मिल्कियत के बोध के साथ ।
एक शासक अरस्तुओं को उनकी जगह दिखा रहा था। प्लेटो का मानना था कि सत्ता की बीमारियां उस वक़्त तक दूर नहीं हो सकती है जब तक या तो दार्शनिक राजा न बन जाए या राजा दार्शनिक न बन जाए । अरस्तु ने अपने गुरू की बात को सुधारते हुए कहा, राजा का दार्शनिक होना नुक़सानदेह साबित हो सकता है । इसके बजाय राजा को अपने पास बुद्धिमान सलाहकार रखने चाहिए, उनकी बात सुननी चाहिए, लेकिन फैसला अपने विवेक से करना चाहिए । एक अच्छे शासक को बुद्धिमान ज़रूर होना चाहिए । अरस्तु ने शुद्ध सैद्धांतिक राजनीति और व्यवहारिक, समय के अनुसार खपने वाली राजनीति में भेद किया था । दृष्टि मात्र से कुछ भी पैदा नहीं होता । वह तो जो भौतिक रूप में दिखाई देता है, उसे परखने और हमारे कामों की निदेशिका भर की भूमिका अदा करती है ।

हम समझ सकते हैं, अरविंद केजरीवाल की भाषा हूबहू वैसी ही है, जैसी सत्ताधारियों की आम तौर पर निजी वार्तालापों में भाषा हुआ करती है । वे अब 67 विधायकों के प्रतिनिधि है, मिल्कियत के बोध के साथ ।
आम आदमी पार्टी का यह खुला झगड़ा हमें अच्छा लग रहा था, क्योंकि इसमें राजनीतिक पार्टियों के सांगठनिक सिद्धांतों के कुछ बुनियादी प्रश्न जुड़े हुए हैं । ऐसे मसलों पर आम लोगों की नजर से बचते हुए अंदर ही अंदर, गुपचुप सब तय कर लेना और भले -भले में सबकुछ निपटा कर 'वही चाल बेढंगी' पर बने रहना बिल्कुल अवांछनीय है ।


लेकिन, राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में केजरीवाल दुल्लती झाड़ कर बैठक से चले गये । जो उन्होंने स्टिंग वाले टेप में कहा था, उसे कर दिखाया गया।  विरोध से निपटने के लिये बाउंसर्स का प्रयोग किया गया। अब लंपटों और बाउंसर्स राजनीति का सरताज, समाज के तलछट, कूड़े-कर्कट और सभी वर्गों के मैल को अपना आधार बना कर चलने वाले इस असली केजरीवाल ने ‘वैकल्पिक राजनीति’ को जितनी तेजी के साथ माफिया गिरोह वाली गुप्त और हिंसक ढंग की राजनीति के गड्ढे में ले जाकर पटका है, वह कल्पना के परे है। भाजपा का पतन मोदी पार्टी में हुआ, तो कल पैदा हुई आम आदमी पार्टी केजरीवाल पार्टी बन गयी। कल तक जिनमें भविष्य के भारत के सपने दिखाई दे रहे थे, अचानक ही वह संदिग्ध प्रकार के स्टिंगबाज, ठग और लंपट ‘स्वयंसेवकों’ का गिरोह बन गया है।

कल तक टेलिविजन चैनलों पर जिसके सदस्यों की उपस्थिति से तथ्यों और तर्क की चमक दिखाई देती थी, अब वे लोग ही किसी माफिया सरदार के मुंह पर कपड़ा लपेटे लठैत से बेहतर नहीं दिखाई देते। सत्ता की छोटी से कसौटी पर केजरीवाल की असली सूरत सामने आगयी है। यह भी साबित हुआ है कि केजरीवाल की चमक उसके योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार जैसे सहयोगियों की बदौलत ही थी। अन्यथा, वे कोरे अंधेरे के प्राणी हैं - अधिक गंभीरता प्रदर्शित करेंगे तो ज्यादा से ज्यादा किसी संजीदा विदूषक से प्रतीत होंगे।

अब दिल्ली में पूरे पाँच साल 'बाउंसर्स' की सेवा की जायेगी । फिर भी  ग़नीमत यह है कि पुलिस का महकमा पूरी तरह से दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है । इस मामले में दिल्ली जनतांत्रिक प्रयोगों के लिये कुछ बेहतर जगह है ।

आशुतोष ने एक पत्र लिख कर योगेन्द्र यादव के खिलाफ पाँच आरोप लगाये हैं । पहला यह कि वे हरियाणा में पार्टी की ज़िम्मेदारी लेना चाहते थे । दूसरा, लोकसभा चुनाव में आप की पराजय का कारण उनकी ग़लत राजनीतिक समझ था । तीसरा, हरियाणा में विधान सभा चुनाव में लड़ने का उन्होंने ग़लत राजनीतिक फैसला किया था। चौथा, उन्होंने अरविंद की अनुपस्थिति में लोक सभा चुनाव में पराजय की समीक्षा करने की पेशकश की थी । और अंतिम आरोप यह कि इन सबके बाद ही अख़बारों में पार्टी की छवि बिगाड़ने वाली ख़बरें आने लगी ।

इन अभियोगों में सार की बात एक भी नहीं है। सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उन्होंने अरविंद की राय पर हमेशा मोहर लगाने से इंकार किया । ऐसे ही कुमार विश्वास राजनीतिक व्यक्तियों की आपस की बातों, गप्पों को योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पर आरोपों का आधार बना रहे हैं । ऐसे लोग किसी भी जनतांत्रिक पार्टी के लिये घातक है । वे शान के साथ अपनी उच्छृंखलता की भी शेखी बघारते हैं ।

केजरीवाल ने ‘आप’ की गीता के तौर पर अपनी जिस पुस्तिका ‘स्वराज’ को बहुत प्रचारित किया था, उसे पढ़ कर ही उनके सोच के छोटे दायरे का एक अंदाज मिल गया था। इस लेखक ने तभी उसकी एक समीक्षा लिखी थी जिसमें साफ कहा गया था कि ‘इस किताब को पढ़ने के बाद हम सोच भी नहीं सकते कि एक इतनी सीमित दृष्टि की किताब कैसे किसी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा वाली पार्टी का कार्यक्रम बन सकती है।

‘इस किताब का महत्व किसी एनजीओ द्वारा किये गये भारत के पंचायती राज के अध्ययन से अधिक कुछ नहीं है, जिसमें भारत के गांवों के प्रशासन में जन-भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये कुछ ढांचागत सुधारों के सुझाव दिये गये हैं। अधिक से अधिक, इसे Participatory Democracy की समस्याओं के एक सीमित पक्ष का अध्ययन कहा जा सकता है। पंचायती राज में कैसे जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो, सरकारी कोष और खर्च के मामलों में जनता की आवाज सुनी जाए और सरकारी अधिकारी तथा जन-प्रतिनिधि जनता के निर्देशों का पालन करें, इसके बारे में इसमें ग्राम सभाओं और उसी तर्ज पर शहरों में मोहल्ला सभाओं को शक्ति प्रदान करने के उपाय कुछ ठोस उदाहरणों के साथ बताये गये हैं। जनतंत्र का अर्थ सिर्फ मतदान का अधिकार नहीं, दैनंदिन शासन का अधिकार है। और इसे सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा कानूनों में जिन चंद तब्दीलियों की जरूरत है, यह किताब उसके कुछ पक्षों पर प्रकाश डालती है।

‘इसे इसलिये सीमित महत्व की किताब कह रहा हूं क्योंकि इससे हमारी अर्थ-व्यवस्था के बारे में श्रीमान केजरीवाल की समग्र समझ का जरा भी परिचय नहीं मिलता। जिसे अर्थ-व्यवस्था के विकास का इंजन कहा जा सकता है, उस औद्योगिक विकास के बारे में इसमें एक शब्द भी नहीं है। न एक शब्द उन सामाजिक-संबंधों के बारे में कहा गया है जो वर्तमान उत्पादन-संबंधों की उपज है। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व, संपत्ति के अधिकार की अनुलंघनियता और तमाम राष्ट्रीय संसाधनों को पूंजीपतियों को सुपुर्द करने की नीतियों के चलते हम मुनाफे पर टिका अपना जो समाज तैयार कर रहे हैं, वही तो हमारी तमाम नीति-नैतिकताओं, संस्कृति और सभ्यता के रूप की जड़ में है। गांव, शहर कुछ भी इस बुनियादी, भौतिक सच्चाई के प्रभावों से मुक्त नहीं रह सकता है।

‘यहां तक कि गांव के स्तर पर भी सामंती प्रभुत्व को समाप्त करने के बारे में, सच्चे भूमि-सुधार के बारे में इसमें एक शब्द नहीं कहा गया है। अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों के बारे में सोच तो शायद इस किताब के लिये दूर-दराज का भी कोई विषय नहीं है!

‘केजरीवाल की सबसे प्रमुख चिंता भ्रष्टाचार है। और दूसरी चिंता है - नक्सलवाद। इन दोनों में से किसी का भी स्थायी समाधान पूंजीवाद के रहते तो कभी संभव नहीं है। उन्होंने जिस अमेरिका, स्वीट्जरलैंड और ब्राजील के उदाहरण अपनी इस किताब में दिये हैं, वे समाज भी भ्रष्टाचार और तमाम प्रकार के कदाचारों से मुक्त समाज नहीं है। इन समाजों के यथार्थ के बारे में ऐसे ढेर सारे अध्ययन मौजूद हैं जो केजरीवाल की समझ के विपरीत इन देशों में होने वाले आर्थिक घोटालों, राजनीतिक कदाचारों और सामाजिक विकृतियों की कहानियां कहते हैं।

‘हमारी राय में तो इतनी सीमित और एनजीओ-छाप समझ के बल पर राष्ट्रीय नीतियों में सुधार के क्षेत्र में केजरीवाल और उनकी पार्टी का रत्ती भर योगदान भी संभव नहीं होगा। वामपंथी पार्टियां, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां उनसे अपनी मूलभूत नीतियों के खुलासे की जो मांग कर रही है, वह बेजा नहीं है। ‘स्वराज’ को पढ़ने के बाद तो यह सचमुच एक चिंताजनक बात लगती है।‘

आज फिर यह कहना पड़ रहा है कि आम आदमी पार्टी यदि किसी ऐतिहासिक ज़रूरत की उपज है, तो उसके नेता का यह बौनापन ज्यादा दूर तक चल नहीं सकता । भारी बहुमत मात्र इसकी सरकार के स्थायित्व की भी गारंटी नहीं होगा । इतिहास आगे उनके साथ नहीं रहेगा। केजरीवाल गिरोह ने आगे के लिये जो आंदोलन का कार्यक्रम घोषित किया है, उसकी साख अब दो कौड़ी की नहीं रह गयी है, भले ही वे अपने कार्यक्रमों में दूसरी पार्टियों की तरह कितने ही लोग क्यों न जुटा लें।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें