शनिवार, 7 मार्च 2015

विश्व महिला दिवस के मौके पर :

रूढि़वादी विचारों से मुक्ति जरूरी है
सरला माहेश्वरी
क्लारा जेटकिन


क्लारा जेटकिन, जर्मनी की विश्व प्रसिद्ध माक्र्सवादी सिद्धांतकार और महिलाओं के हितों की लड़ाई की एक अथक योद्धा। सन् 1911 में उन्होंने ही आठ मार्च के दिन पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया था। 8 मार्च 1908 में न्यूयार्क की पंद्रह हजार से भी ज्यादा महिलाओं ने काम की दयनीय परिस्थितियों और पुरुषों की तुलना में कम वेतन के खिलाफ और मताधिकार की मांग पर एक हड़ताल का पालन किया था। प्रथम विश्वयुद्ध की पूर्व संध्या पर सन् 1910 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में समाजवादी महिलाओं के द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में युद्ध और सैन्यवाद, भूख और गरीबी के खिलाफ कई प्रस्ताव पारित किये गये थे। उसी सम्मेलन के मंच से क्लारा जेटकिन ने ट्रेडयूनियन आंदोलन की दूसरी महिलाओं के साथ मिल कर यह आह्वान किया था कि महिलाओं के खिलाफ जुल्मों के प्रतिरोध के लिये सारी दुनिया में उसी प्रकार अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया जाना चाहिए जिस प्रकार 1 मई के दिन अन्तरराष्ट्रीय श्रम दिवस का पालन किया जाता है। उस सम्मेलन ने जेटकिन के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार लिया था, लेकिन तब भी कोई दिन निश्चित नहीं किया गया था।
इसके बाद ही क्लारा जेटकिन ने ही अपनी पहल पर 8 मार्च के दिन के न्यूयार्क की महिलाओं के संघर्ष को याद करते हुए 8 मार्च 1911 को जर्मनी मेंं पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया और तभी से दुनिया की इस सबसे अधिक प्रताडि़त आधी आबादी को न्याय दिलाने के लिये संघर्ष के दिन के तौर पर इसे विश्व भर में मनाया जाता है।
सन् 1908 के बाद से अब तक 107 साल पूरे हो चुके हैं। 1908 में न्यूयार्क की महिलाओं ने जिन मांगों के लिये हड़ताल का पालन किया था उनमें समान वेतन की मांग के साथ ही एक प्रमुख मांग थी काम की परिस्थितियों में सुधार की मांग।
इन 107 सालों में गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है। पहले विश्व युद्ध और दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक दुनिया वह नहीं रही है, जो तब हुआ करती थी। हाल में थामस पिकेटी के दुनिया में सामाजिक गैर-बराबरी के बारे में आए ऐतिहासिक अध्ययन से भी पता चलता है कि तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी अन्य गैर-बराबरियों की तरह ही लैंगिक गैर-बराबरी का ग्राफ भी हमेशा एक सा नहीं रहा है। दुनिया की  राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार इसमें उतार-चढ़ाव दिखाई देता है। जिस दौर में भी दुनिया व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच से गुजरी है, सामाजिक गैर-बराबरी में कमी आई है और जब भी पूंजी का प्रभुत्व बिना किसी बाधा के बढ़ता चला गया है, सामाजिक गैर-बराबरी भी उसी अनुपात में बढ़ती चली गयी है। दोनों विश्व युद्धों और समाजवादी शिविर के उदय और यहां तक कि शीत युद्ध के काल में भी गैर-बराबरी का ग्राफ अबाध रूप से बढ़ा नहीं बल्कि उसमें कुछ कमी या ठहराव आया था। लेकिन इन्हीं अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि आज, 1990 के बाद के एकध्रुवीय विश्व की इस चौथाई सदी में आधुनिकता की सारी लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद फिर एक बार सामाजिक गैर-बराबरी में तेजी से वृद्धि के खतरनाक संकेत मिलने लगे हैं। जाहिर है कि इसमें लैंगिक गैर-बराबरी के भी तेजी से बढ़ने का खतरा शामिल है।
आज जब हम अपने देश को देखते है तो 107 साल पहले काम की परिस्थितियों की जिस समस्या को न्यूयार्क की महिलाओं ने उठाया था, वह आज भी हमारे देश की कामकाजी महिलाओं के लिये एक सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। काम का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें महिलाओं के साथ दुराचार आम बात न हो। अखबारों में रोजाना न्यायपालिका से लेकर पत्रकारिता की तरह के अपेक्षाकृत जागरूक और पवित्र माने जाने वाले क्षेत्रों में भी महिला कर्मचारियों के साथ बदसलूकी की खबरें आती रहती है। कारपोरेट क्षेत्र की तो यह एक सामान्य बीमारी है।
अभी निर्भया कांड और उसके एक फांसी की सजा पाए अपराधी के जिस साक्षात्कार को लेकर संसद और पूरे देश में हंगामा हो रहा है, उसमें भी एक बात खुल कर सामने आरही है कि उस अपराधी ने जो जघन्य बातें कही है, वे कोई नई बातें नहीं हैं। राजनीति से लेकर समाज के दूसरे सभी क्षेत्रों के प्रभावशाली लोग तक स्त्रियों के प्रति उन्हीं प्रकार की बातों को दोहराते हुए पाये जाते हैं। स्त्रियों को एक समय के बाद घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, उन्हें अपनी पोशाक के मामले में सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इन सबसे पुरुषों को बलात्कार करने की उत्तेजना मिलती है आदि, आदि।  और, इसप्रकार, प्रकारांतर से स्त्रियों को ही उनके बलात्कार के लिये दोषी बताने की दलीलें संसद के अंदर और बाहर, लगभग हमेशा सुनाई देती रही हैं। तमाम प्रकार के धार्मिक संगठनों के नेता तो इस मामले में सबसे अधिक आगे दिखाई देते हैं।
दुनिया के धर्मशास्त्रों में ऐसी अनेक बातें पाई जाती है जो स्त्रियों की स्वतंत्र मानवीय अस्मिता के विपरीत दिखाई देती है। भारत की प्राचीन संहिताओं में तो ऐसे असंख्य उदाहरण भरे हुए हैं। इसीलिये सारी दुनिया में जनतंत्र के विकास के स्तर के एक मानदंड के रूप में स्त्रियों के विकास को माना जाता है। तदनुरूप दुनिया में स्त्रियों की समानता के अधिकारों को लेकर आधुनिक कानूनी प्राविधानों का भी अपना एक पूरा इतिहास है। उस इतिहास के पूरे ब्यौरे में जाने के बजाय यहां हम सिर्फ यही कहना चाहेंगे कि भारत में भी, स्त्रियों की समानता की कानूनी व्यवस्थाओं का समान रूप से एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें भारतीय नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय से लेकर ईश्वरचंद विद्यासागर और नवजागरण के दूसरे सभी पुरोधाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही वजह थी कि भारत स्त्रियों को समान मताधिकार देने वाले दुनिया के देशों की अग्रिम कतार में शामिल दिखाई देता है। गांधीजी ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को स्त्रियों के मानवाधिकार के आंदोलन से अभिन्न रूप में जोड़ दिया था।
भारत की स्वतंत्रता और समाज-सुधार के इस गौरवशाली इतिहास के बावजूद आज भी सचाई यही है कि हमारा समाज पुरातन स्त्री-विरोधी रूढि़वादी विचारों से मुक्त नहीं हुआ है। इसी के चलते उस मानसिकता का जन्म होता है, जो निर्भया के बलात्कारी की मानसिकता है। अभी बीबीसी के लिये लेसली उडविन की फिल्म ‘भारत की बेटी’ (इंडियाज डाटर) के संदर्भ में भारत सरकार का जो अविवेकपूर्ण रवैया देखने को मिला, वह भी हमारे समाज पर चरम रूढि़वादी शक्तियों की जकड़ का ही उदाहरण है।
भारत का अनुभव यह है कि पंजाब, हरयाणा की तरह के जो प्रदेश प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से सबसे आगे है, उन्हीं प्रदेशों में स्त्री-पुरुष अनुपात सबसे बुरा है। हाल में ‘वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम’ द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार 2014 की स्त्री-पुरुष अंतर सूचकांक में भारत का स्थान दुनिया के 142 देशों में 114वां है जबकि बांग्लादेश का स्थान 65वां है। सिर्फ एक दशक पहले तक 2006 में भारत का स्थान 96वां था, जो 2010 में गिरकर 112 पर पहुंच गया। वही गिरावट आज तक जारी है।
इकोनोमिक फोरम की इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘आम लोग और उनकी योग्यताएं ही दीर्घकालीन टिकाऊ विकास के प्रमुख चालक होते हैं। यदि उनकी प्रतिभाओं का आधा हिस्सा अविकसित रह जाता है या उसे पूरा काम में नहीं लगाया जाता है तो अर्थ-व्यवस्था कभी भी वांछित रूप में विकसित नहीं हो सकती है।’’
इस बार के आठ मार्च के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सारी दुनिया से यह आान किया है कि इस दिन को इस रूप में पेश किया जाना चाहिए जिससे सबको यह संदेश मिले कि महिला सशक्तीकरण का अर्थ है मानवता का सशक्तीकरण। इस वर्ष के अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर संयुक्त राष्ट्र का यही मुख्य नारा भी है। गौर करने की बात यह है कि जिस समय इस बात का आान किया जा रहा है कि महिला सशक्तीकरण को मानव सशक्तीकरण का पर्याय बताते हुए उसे सबके सामने प्रदर्शित किया जाए, उसी समय हमारे देश में एक ऐसी फिल्म पर सरकार ने पाबंदी लगादी है जिसमें एक महिला पर बलात्कार और उसकी हत्या के बाद उसके प्रतिवाद में गूंज उठी भारत की सड़कों का एक जीवंत चित्र पेश किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र की महिला कार्यकारी निदेशक फ्लुमजिलो मिलाम्बो नूको ने दुनिया के सामने यह लक्ष्य रखा है कि सन् 2030 तक स्त्री-पुरुष अनुपात को बराबर के स्तर तक लाकर लैगिंक समानता के लक्ष्य को हासिल किया जाना चाहिए। यह काम उस समय तक संभव नहीं है जब तक हम अपने समाज को स्त्री-विरोधी सभी रूढि़वादी विचारों से मुक्त करके स्त्री-पुरूष समानता के आधार पर एक स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं करते। आज का दिन इसी की शपथ लेने का दिन है।








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