मंगलवार, 17 मार्च 2015

एन एच - 10 : एक छवि

एन एच 10' फिल्म पर सरला माहेश्वरी की एक कविता :


राष्ट्रीय राजमार्ग - 10
यह सिर्फ एक संख्या नहीं
न कोई इकलौता राष्ट्रीय राजमार्ग
इसकी सीमा सार्वभौम है
इसकी पहचान सार्वभौम है
इसका चरित्र सार्वभौम है
इसका मालिक सार्वभौम है
इसका शिकार सार्वभौम है
यह पितृसत्ता का वो नर्क-मार्ग है
जहाँ सारी पवित्र घोषणाएँ ख़त्म हो जाती हैं
लुप्त हो जाती है सारी मानवीय सत्ताएँ
जैसे लुप्त हो जाती है
नदियों की लय, उनका छंद, उनका मिठास
और बचा रह जाता है
सिर्फ खारा, नमकीन पानी समुद्र का
नदियाँ चीख़ती हैं, चिल्लाती हैं
बेचैन, बदहवास भागती हैं
तपते किनारों से चोटें खा-खाकर लहुलुहान हो जाती हैं
थक-थक जाती हैं, पर हारकर बैठती नहीं
क्या यही पीड़ा, छटपटाहट
और सीने में बंद आक्रोश
किसी हठ की तरह
फूट पड़ते हैं सुनामी बन ?
तोड़ डालते हैं
सारी हदें, बंदिशें
पितृसत्ता के सारे क़ैदखाने
बची रह जाती है सिर्फ चीख़ें
मौत और दहशत
श्मशान की नीरवता
शायद ऐसे ही खिलेगा कोई नया अंकुर
जन्म लेगा नया प्राण
खुलेगा नया मार्ग
एक नया जनपथ ।

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