- सरला माहेश्वरी
(23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। उस दिन को याद करते हुए उनकी स्मृति में श्रद्धार्थ सरला माहेश्वरी का लेख )
‘‘ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिंह जीवित भगतसिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की खुशबू हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी। यह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे स्वतंत्रता और क्रांति के लिए पागल हो जायेंगे। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विनाश को नजदीक ले आयेगा। यह मेरा दृढ विश्वास है। मैं बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा। (फांसी पर चढ़ाये जाने के लगभग आठ महीना पहले जेल में भगतसिंह से मिलने गये प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा को कही गयी भगतसिंह की बात।)
उपरोक्त जो बात जुलाई 1930 में भगतसिंह ने कामरेड शिव वर्मा को कही थी, इतिहास गवाह है कि भगतसिंह की फांसी (23 मार्च 1931) के ठीक बाद वह पूरी तरह से सच साबित हुई थी। आजादी की लड़ाई के दौरान सन् 30-32 के व्यापक जनउभार से लेकर सन् 45-46 के अभूतपूर्व क्रांतिकारी संघषोंर् के बीच के लगभग 15-16 वर्षों का पूरा घटनाक्रम देख लीजिये, इस बात की सच्चाई के लिये किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं रहेगी।
आज भले ही कोई एक दल आजादी की पूरी लड़ाई पर अपने एकाधिकार का दावा क्यों न करे, उस लड़ाई में भगतसिंह और उनके साथियों के अवदान से इंकार करने की हिम्मत किसी में नहीं है। सन् 47 में भारत आजाद हुआ; अंग्रेज चले गये, लेकिन दिल पर हाथ रखकर कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि भारत तब पूरी तरह से साम्राज्यवाद के नागपाश से मुक्त हो गया था। आजादी के इन 59 वर्षों बाद आज की विश्व परिस्थति और भी ज्यादा जटिल है। इसे एकध्रुवीय विश्व कहा जा रहा है। लगता है जैसे अब सिर्फ एक साम्राज्य रह गया है, और बाकी पूरा विश्व उसका उपनिवेश है। ऐसे काल में भारत कितना संप्रभु है, अपनी तमाम आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक नीतियों को निर्धारित करने में वह कितना स्वतंत्र है, इसपर गहरा संदेह किया जा सकता है। कहना न होगा कि ऐसे जटिल और चुनौती भरे समय में साम्राज्यवाद से समझौताहीन संघर्ष का संदेश देने वाले शहीद भगतसिंह फिर एक बार जीवित भगतसिंह से भी कहीं ज्यादा विशाल और प्रभावी रूप में हमें अपने आगे के रास्ते की दिशा दिखा सकते हैं। अर्थात, जो बात भगतसिंह ने 75 साल पहले कामरेड शिव वर्मा से कही थी, वह आज भी उतनी ही सत्य दिखाई देती है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
भगतसिंह का जन्म 5 अक्तूबर 1907* के दिन तत्कालीन पंजाब के लायलपुर जिले (अब पाकिस्तान में) के बंगा गांव में हुआ था। यही वह वर्ष था जब ब्रिटिश शासकों ने सन् 1818 के रेगुलेशन तीन का, जिसमें बिना कोई मुकदमा चलाये किसी को भी जेल के सींखचों में बंद करने का अधिकार भारत की ब्रिटिश सरकार को दिया गया था, राष्ट्रीय आंदोलन के दमन के लिए निरंकुश ढंग से प्रयोग करना शुरू किया था। दुनिया की सबसे सभ्य कही जाने वाली अंग्रेज जाति के इस ‘जनतांत्रिक कानून‘ के प्रयोग पर तब पूरे भारत में भारी गुस्सा छाया हुआ था। सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संघर्ष से शिक्षा लेकर ही ब्रिटिश सरकार ने अपने तरकश में दमन के इन तीरों को भरा था। इसके अलावा, इसी काल में पुणे में चापेकर बंधुओं द्वारा प्लेग कमीश्नर मि. रैण्ड और एवस्र्ट की हत्या, बंगाल में अनुशीलन समिति के नाम से बने क्रांतिकारियों के संगठन और राष्ट्रीय कांग्रेस सहित विभिन्न मंचों से उठ रही स्वतंत्रता की आवाज उस समय की फिजा में गूंज रही थी।
भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह और उनके दोनों चाचा अजीतसिंह और स्वर्णसिंह भी इसी नये उभार की उपज थे। इन तीनों भाइयों को अपने आर्यसमाजी पिता अर्जुनसिंह से तर्क और विवेक की चेतना मिली थी। चाचा स्वर्णसिंह 23 वर्ष की अल्पायु में ही जेल की यातनाओं के कारण इस दुनिया से चल बसे। चाचा अजीतसिंह को 1818 के रेगुलेशन तीन के चलते जलावतन का दंड दिया गया था। आजादी के कुछ दिनों पहले ही वे स्वदेश लौटे थे और इसे नियति की अजीब विडम्बना ही कहा जायेगा कि जिस दिन देश आजाद हुआ, उसी दिन इस वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने प्राण त्यागे;
जैसे शायद इसी दिन के लिए उन्होंने अपने प्राणों को संजो कर रखा था! भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह भी आजादी के आंदोलन से पूरी तरह जुड़े हुए थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।
गदर पार्टी और 20 के दशक का भारत
एक ऐसे पारिवारिक और राजनीतिक माहौल में पैदा हुए भगतसिंह का पंजाब तब भारत की आजादी के क्रांतिकारी संघर्ष के नये दौर की एक अग्रिम चौकी हुआ करता था। यह शायद इतिहास की एक और नियति ही थी कि सन् 57 के पहले स्वतंत्रता संघर्ष से उत्तरी भारत के जो दो प्रमुख प्रदेश बंगाल और पंजाब अलग रहे थे, वे ही परवर्ती दिनों में एक नये उग्र राष्ट्रवादी उभार के प्रमुख केंद्र बने। सन् 1913 में पंजाब में जिस गदर पार्टी का गठन हुआ, उसके स्थापनाकर्ताओं में सोहन सिंह भखना (अध्यक्ष), केशर सिंह (उपाध्यक्ष) और लाला हरदयाल (महासचिव) शामिल थे। इनमें लाला हरदयाल को भारत का प्रथम मार्क्स वादी होने का गौरव प्राप्त है, जिन्होंने मार्क्स और एंगेल्स के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र का सबसे पहले हिंदी में अनुवाद किया था। ‘ऋषि मार्क्स‘ शीर्षक से लिखी गयी उनकी पुस्तिका भारत में कार्ल मार्क्स के जीवन पर लिखी गयी पहली पुस्तक थी। गदर पार्टी का असली नाम हिंदी एशोशियेसन आफ पैसिफिक कोस्ट था। इसकी स्थापना अमेरिका के ओरिगन राज्य के पोर्टलैंड में की गयी थी। चूंकि इस एशोशियेसन के उर्दू मुखपत्र का नाम ‘गदर’ था, इसीलिये भारत में इसे लोग ‘गदर पार्टी’ के नाम से जानते थे। लाला हरदयाल ही इस मुखपत्र के संपादक थे। भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में गदर पार्टी को पहला धर्मनिरपेक्ष हस्तक्षेप कहा जा सकता है। गदर पार्टी के धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण के विपरीत बंगाल की अनुशीलन समिति और पुणे के चापेकर बंधुओं और उनके सहयोगियों के दृष्टिकोण में एक प्रकार का हिंदू पूर्वाग्रह काम किया करता था। गदर पार्टी की खूबी यह थी कि उसने शुरू से ही राजनीति को धर्म से अलग रखने और आर्थिक प्रश्नों को राजनीति के केंद्र में रखने की नीति अपनायी थी। उसका दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय था। लाला हरदयाल हर उस देश में क्रांति चाहते थें जहां गुलामी और शोषण मौजूद हो। उनका कहना था-‘‘स्वामी और सेवक में कोई समानता नहीं हो सकती भले ही वे दोनों मुसलमान हों, सिख हों अथवा वैष्ण्व हों। दौलतमंद हमेशा गरीब आदमी पर शासन करता रहेगा। आर्थिक समानता के अभाव में भाईचारे की बात सिर्फ एक सपना है।‘‘ अमेरिका में अप्रवासियों द्वारा गठित किये जाने के बावजूद गदर पार्टी की गतिविधियों का प्रभाव भारत के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर पड़ रहा था।
इसी गदर पार्टी के मात्र 19 वर्षीय कार्यकर्ता करतारसिंह सराभा को 16 नवम्बर 1915 के दिन ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ाया था। यह घटना तब मात्र आठ वर्ष के भगतसिंह के दिल पर सदा के लिए अंकित हो गयी थी। अदालत में जब जज ने करतारसिंह को आगाह किया कि वह सेाच समझकर बयान दें वरना परिणाम बहुत भयावह हो सकता है, तब इस दिलेर नौजवान ने मस्ती में बड़े बेफिकराना अंदाज में कहा था-‘‘फांसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।‘‘ आखिरी समय में जेल में मुलाकात के लिए आए दादा ने जब उससे कुछ सवाल किये तो उसने लंबी उम्र पाकर मरने वाले अपने कई परिचितों का हवाला देते हुए यह प्रतिप्रश्न किया था कि लम्बी उम्र हासिल करके उन्होंने कौन सी उपलब्धि हासिल कर ली? मात्र साढे़ अठारह वर्ष का यह युवक उस समय वास्तव में अपनी कुर्बानी से राष्ट्रनायक बन गया था। भगतसिंह पर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा था इसे उन्होंने बाद के दिनों में हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘‘चांद‘‘ के फांसी अंक में करतारसिंह सराभा पर लेख लिखकर जाहिर किया था। भगतसिंह इसी सराभा की तस्वीर को हर समय अपने सीने से लगाये रहते थे और कहा करते थे कि यह मेरा गुरू, साथी व भाई है।
भगतसिंह की आरम्भिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई थी। सन् 1916-17 में वे लाहौर में अपने पिता के पास आगये और वहां के डी ए वी स्कूल में दाखिला लिया। यह वह काल था जिस समय 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति ने सारी दुनिया के मुक्तिकामी लोगों में एक नयी प्रेरणा का संचार किया था। सन् 1919 से 1922 के काल को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के भी एक स्वर्णिम काल के रूप में याद किया जाता है। इसी दौरान सन् 1919 में ब्रिटिश सरकार के दमनकारी रौलट ऐक्ट के खिलाफ गांधी जी ने ‘सत्याग्रह सभा’ का गठन करके देश भर में जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा था। 13 अप्रैल 1919 के दिन अंग्रेजों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार किया जहां बदनाम अंग्रेज फौजी अधिकारी डायर ने सैंकड़ो लोगों को एक स्थान पर गोलियों से भून दिया था। इसके खिलाफ देश भर में तीव्र गुस्से की लहर दौड़ गयी थी। मजदूरों के मोर्चे पर अहमदाबाद के 40 हजार कपड़ा मिल मजदूरों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जंगी लड़ाई शुरू कर दी थी। कलकत्ता, मुंबई, आदि सभी शहरों में, पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहरा-उड़ीसा में व्यापक जन-असंतोष फूट पड़ा था। मजदूरों की हड़तालें चरम पर थी। अकेले 1920 के छ: महीनों में 200 से ज्यादा हड़तालें हुई जिनमें 5 लाख से ज्यादा मजदूरों ने हिस्सा लिया था। किसान आंदोलन ने पंजाब में अकाली आंदोलन का, मालाबार में मोपला विद्रोह का और संयुक्त प्रांत में जमींदारों तथा साम्राज्यवाद के विरुद्ध व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया। आदिवासियों का प्रसिद्ध काडो डोरा विद्रोह (आंध्रप्रदेश) और राजपुताने का भील विद्रोह इसी काल में हुआ। सन् 1921 में मजदूरों द्वारा हड़तालों की संख्या बढ़ कर 396 होगयी जिनमें 6 लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया था।
इतिहासकारों ने 1920-22 के जमाने को क्रांतिकारी परिस्थिति का काल बताया है, जब राष्ट्रीय मुक्ति की विभिन्न शक्तियां साम्राज्यवादी शत्रुओं पर टूट पड़ने को तैयार थीं। सन् 1920 के सितंबर महीने में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पंजाब के नेता लाला लाजपत राय ने अध्यक्ष पद से कहा था, इस सचाई से आंख बंद कर लेने से कोई लाभ नहीं कि हम एक क्रांतिकारी जमाने से गुजर रहे हैं। ...परंपरा से हम धीरे-धीर बढ़ने वाले लोग हैं, लेकिन जब हम चलने का फैसला लेते हैं तो हम जल्दी से और तेज लंबे डग भर कर चलते हैं। कोई भी जीवित प्राणी अपने जीवन में क्रांतियों से एकदम बचकर नहीं रह सकता। ( रजनी पाम दत्त, इंडिया टुडे, पृ.339)
सन् 1921 में गांधी जी ने भी एक सम्मेलन में कहा था कि वर्ष के अंत के पहले स्वराज्य पाने का मुझे इतना पक्का विश्वास है कि 31 दिसंबर के बाद स्वराज पाए बिना जिंदा रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। (द इंडियन स्ट्रगल 1920-1934, सुभाष चंद्र बोस, लंदन, पृ.84)
कांग्रेस के उसी कलकत्ता अधिवेशन में गांधीजी ने क्रमिक अहिंसक आंदोलन का कार्यक्रम स्वीकार किया था जिसके आह्वान पर अनेक लोगों ने सरकारी खिताब लौटा दिये, हजारों छात्रों ने सरकारी और अद्र्ध-सरकारी स्कूल और कालेज छोड़ दिए। इसी समय भगत सिंह भी स्कूल छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे।
इसी काल में दिसंबर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में हसरत मोहानी ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पेश किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए ‘नेशनल वालंटियर्स’ का गठन किया गया और सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन एक निर्णायक मुकाम पर पहुंचा हुआ दिखाई देता था। 1 फरवरी 1922 के दिन गांधी जी ने वायसराय को ‘अल्टीमेटम’ दिया था कि यदि एक हफ्ते में अंग्रेज सरकार ने अपने दमनचक्र को बंद न किया तथा सभी गिरफ्तार लोगों को रिहा न कर दिया तो वे सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करेंगे।
लेकिन इसी समय 5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के चौरी चौरा की घटना घटी। इस घटना का आरंभ एक सुसंगठित स्वयंसेवी दस्ते द्वारा अनाज की बढ़ती हुई कीमतों और शराब की बिक्री के विरोध में स्थानीय बाजार में धरना देने से हुआ था। गांधीजी ने भी यह स्वीकारा था कि उकसावे के पर्याप्त कारण मौजूद थे। स्वयंसेवकों के नेता भगवान अहीर को पुलिस ने पीटा था तथा थाने के सामने प्रदर्शन करने आए लोगों पर गोलियां चलाईं। भीड़ उत्तेजित हो गई तथा उसने थाने में आग लगा दी। इसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गांधी जी इस घटना से बहुत क्षुब्ध हुए। उन्होंने इस घटना के बाद ही एक आदेश जारी करके अपने सत्याग्रह आंदोलन को रोक दिया और सत्याग्रह आंदोलन के सिपाहियों को आदेश दिया कि अब केवल रचनात्मक काम करो, चरखा कातो, खादी बुनो, लोगों को नशे की आदत छुड़ाओ, शिक्षा का प्रचार करो, अस्पृश्यता दूर करो आदि।
गांधी जी के इस आकस्मिक फैसले का तत्कालीन पूरे आंदोलन पर काफी बुरा असर पड़ा। लोगों में बेहद निराशा फैली। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मजीवनी में लिखा : जब हमें मालूम हुआ कि ऐसे वक्त जबकि हम अपनी स्थिति को मजबूत करते जा रहे थे और सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहे थे, हमारी लड़ाई बंद कर दी गयी है, तो हम काफी बिगड़े।
सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि इससे कांग्रेस शिविर में बाकायदा विद्रोह फैल गया। कोई भी न समझ सका कि महात्मा ने चौरी चौरा की विच्छिन्न घटना का इस्तेमाल सारे देश के आंदोलन का गला घोंट देने के लिये क्यों किया।
लाला लाजपतराय ने गांधीजी के यंग इडिया की भूमिका में लिखा कि 1921 में कंाग्रस सदस्यों की संख्या एक करोड़ थी, 1923 में घट कर वह कुछ लाख रह गयी। 1925 उन्होंने में उस समय की परिस्थति का वर्णन कुछ इस प्रकार किया-राजनीतिक परिस्थिति और चाहे जो कुछ हो, लेकिन वह आशाप्रद और उत्साहवद्र्धक नहीं। लोग हताशा में डूबे हुए हैं। हर चीज, सिद्धांत, पार्टियां और राजनीति विभाजन और विघटन की हालत में दीख पड़ती हैं।
लालाजी का आकलन बिल्कुल सही था। देखते ही देखते राष्ट्रीय कांगे्रस से अलग कई राजनीतिक धाराएं फूट पड़ी। जो तमाम लोग गांधीजी के असहयोग के आह्वान पर एक झंडे के नीचे इकट्ठा हुए थे वे सभी उनके इस एकतरफा निर्णय से हताश हुए और इसप्रकार राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक बारगी भारी बिखराव दिखाई देने लगा। यही वह काल था जब साम्प्रदायिक शक्तियों ने फिर से सर उठाना शुरू कर दिया था। इतिहासकारों ने इस काल को भारतीय राजनीति में एक अवसाद का काल कहा है और इसी अवसाद के चलते बाद में सांप्रदायिकता आदि अनेक प्रकार के भटकावों का जन्म हुआ।
गांधीवाद से मोहभंग
भगतसिंह भी उन लोगों में एक थे जिन्होंने सन् 1921 में गंाधीजी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ दी और असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। अपने पारिवारिक संस्कारों और रोज ब रोज राजनीतिक क्षेत्र में घट रही घटनाओं ने भगत सिंह को आजादी की भावनाओं से भर दिया था। जब जलियांवाला बाग का जनसंहार हुआ तब भगतसिंह सिर्फ 12 वर्ष के थे। इस घटना के चंद रोज बाद वे जलियांवाला बाग गये थे और वहां की मिी को अपने साथ ले आये थे। ऐसे भगत सिंह 20 के जमाने के इस क्रांतिकारी उभार के दिनों में खामोश नहीं रह सकते थे। इसीलिये गांधीजी के असहयोग के आान का उनपर सीधा असर पड़ा और अपना स्कूल छोड़ने में उन्होंने जरा भी देर नहीं लगायी।
लेकिन असहयोग आंदोलन को अचानक वापस लिये जाने की घटना ने भगत सिंह को उतना ही अधिक मर्माहत भी किया था और यहीं से गांधी तथा उनके विचारों से भगतसिंह का एक प्रकार से मोहभंग होगया। 1922 में वे फिर से आगे की पढ़ाई के लिये लाहौर के नेशनल कालेज में दाखिल होगये। सन् 1923 में एफ.ए (इंटर मीडिएट) की परीक्षा पास की तथा बीए में भर्ती हुए। गांधीवाद से मोहभंग के साथ ही भगत सिंह ने क्रांतिकारी राजनीति की ओर कदम बढ़ाए। कालेज में ही उनका संबंध क्रांतिकारी अध्यापकों और साथियों से हो गया था। अपने कालेज जीवन में वे जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब आदि की तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लिया करते थे। उन दिनों भारत की आजादी कैसे हासिल की जाए, इस विषय पर राजनीतिक क्षेत्र में भारी बहस-मुबाहिसा चला करता था। भगतसिंह भी इस पूरे विमर्श में पूरी शिद्दत से शामिल हो गये।
‘खिदमते वतन’ का क्रांतिकारी रास्ता
उधर, भगतसिंह के घर पर कुछ दूसरा ही विमर्श चल रहा था। घर में दादी अपने पोते की शादी के लिए उत्सुक थी। उन्होंने एक जगह बात भी चला दी। इस खबर के मिलते ही भगत सिंह चिंतित होगये। उन्होंने दादी को समझाने की भी कोशिश की, लेकिन दादी के सामने अपना तर्क न चलते देखकर पिता के नाम एक पत्र लिखा और तत्काल अपने घर से रुखसत हो लिए। यह पत्र इस बात का सूचक है कि तब तक भगत सिंह ने अपने भविष्य का रास्ता निश्चित कर लिया था। यहां हम उस पूरे पत्र को ही उद्धृत कर रहे है:
पूज्य पिताजी,
नमस्ते।
मेरी जिंदगी मकसदे-आला (उच्च उद्धेश्य) यानी आजादी-ए-हिंद के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है।इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियाबी खाहशात (सांसारिक इच्छाएं) बायसे कशिश (आकर्षक) नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बाबूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देश सेवा) के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतीज्ञा पूरी कर रहा हूं।
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।
आपका ताबेदार
भगतसिंह
(कोष्ठ में दिये गये शब्दार्थ लेखक द्वारा)
पत्र को घर में छोड़कर भगतसिंह कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के पास पहुंच गये और उनके अखबार ‘प्रताप‘ में काम करने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा की तरह के क्रांतिकारियों से हुई।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, आधुनिक क्रांतिकारी विचारों की भगतसिंह की पाठशाला लाहौर का नेशनल कालेज था। यहीं पर वे प्रिंसिपल छबीलदास, आचार्य जुगलकिशोर, भाई परमानंद और जयचंद विद्यालंकार के संपर्क में आए और इन सबने उनके अंदर क्रांति की जो ज्योति जलाई, उसकी आंच बाद में उनके जीवन की आखिरी घड़ी तक कभी भी मद्धिम नहीं हुई थी। छात्र भगतसिंह कालेज के पुस्तकालय और लाला लाजपतराय की द्वारकादास लाइब्रेरी में बैठकर सारी दुनिया के क्रांतिकारी आंदोलनों का अध्ययन करते थे। उनके अध्ययन की इन्हीं तैयारियों ने कानपुर के प्रताप कार्यालय में रंग दिखाया और उस कार्यालय में ही सन् 1924 से विभिन्न विषयों पर उनकी लेखनी जो चल पड़ी, तो उसने जीवन के अंतिम दिन तक रुकने का नाम नहीं लिया।
द्वारकादास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजा राम शास्त्री ने लिखा है कि 1924 से 1928 के बीच भगतसिंह जैसे ‘‘किताबों का भक्षण‘‘ किया करते थे। शिव वर्मा के अनुसार तब उनके प्रिय विषय थे-रूसी क्रांति, सोवियत संघ,आयरलैंड, फ्रांस, भारत के क्रांतिकारी अंादोलन,अराजकतावाद और माक्र्सवाद। इस गहन अध्ययन का ही परिणाम हुआ कि 1928 के अंत तक भगतसिंह ने समाजवाद को अपने आंदोलन का चरम लक्ष्य घोषित कर दिया।
गौर करने लायक बात है कि तब तक समाजवाद क्रांतिकारियों के एक नये आदर्श के रूप में सामने आ गया था। विभिन्न स्रोतों से रूस में समाजवादी क्रांति के प्रयोग की खबरें भारत में आने लगी थी और बिटिश सरकार भी समाजवाद के इस नये आदर्श को कुचलने के लिए पूरी तरह तत्पर हो गयी थी।
हिप्रसं और काकोरी कांड
बहरहाल, 1922 के बाद के अवसाद के काल में देश के क्रांतिकारियों में भी गांधीजी के प्रति काफी रोष था और उन्होंने फिर से शस्त्र उठाने का मन बना लिया और नये विकल्प के निर्माण की दिशा में अपनी गतिविधियां तेज कर दी। बंगाल के क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल ने देश भर के क्रांतिकारियों को एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में संगठित करने का बीड़ा उठाया और 1923 के अंतिम दिनों में रामप्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जी, चंद्रशेखर आजाद की तरह के तपे-तपाये क्रांतिकारियों को लेकर सशस्त्र क्रांति के जरिये भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन का अंत करके ‘फेडरल रिपब्लिक आफ यूनाइटेड स्टेट्स आफ इंडिया’ (भारत के संयुक्त राज्य का संघीय गणतंत्र) की स्थापना के लिये ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन’ (हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ) (हिप्रसं) का गठन किया। शचीन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक बंदी जीवन‘‘ उस समय के क्रांतिकारियों के लिये गीता की तरह काम कर रही थी। भगत सिंह और उनके साथी इसी ‘हिप्रसं’ से जुड़ गये।
‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ’ की शाखाएं पूरे देश में फैली हुई थी। इसके जरिये लाहौर, कानपुर और बंगाल के क्रांतिकारियों के सूत्र जुड़ गये थे। उन्हीं दिनों, सन् 1924 के जनवरी महीने में क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा ने कलकत्ता के घृणित पुलिस आयुक्त चाल्र्स टेगर्ट की हत्या की कोशिश की। लेकिन गल्ती से उन्होंने डे नामक एक अंग्रेज को मार डाला और पकड़े गये। तब देश भर में भारी विरोध के बावजूद ब्रिटिश सरकार ने गोपीनाथ साहा को फांसी दे दी थी।
हिप्रसं की एक बड़ी कार्रवाई 9 अगस्त 1925 के दिन हुई जब लखनऊ के निकट के एक गांव काकोरी में 8-डाउन गाड़ी पर दस लोग चढ़ गये और उस गाड़ी से जारहे रेलवे के सरकारी खजाने को लूट लिया। इसपर ब्रिटिश सरकार ने व्यापक गिरफ्तारियां की और काकोरी मुकदमे में ही अशफाकउल्लाह खान, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी के फंदे पर लटका दिया, और चार लोगों को कालापानी की सजा सुनाई गयी तथा 17 को लंबी कैद की सजा सुनाई गयी।
भगतसिंह के साथी शिव वर्मा के अनुसार तब क्रांतिकारियों की प्रथम पंक्ति के नेताओं में सिर्फ चंद्रशेखर आजाद और कुंदनलाल गुप्ता गिरफ्तार होने से बच गये थे। उन दिनों हिप्रसं का काम भगतसिंह और सुखदेव देखा करते थे।
भगतसिंह और उनके साथियों ने 1927 में ‘नौजवान भारत सभा‘ का गठन किया जिसमें क्रांग्रेस के कुछ वामपक्षी लोग भी शामिल थे। संगठन के घोषणापत्र में कहा गया था कि जन-क्र्रांति के जरिए ही देश की गुलामी खत्म की जा सकती है। इस संगठन के निर्माण के पीछे भगतसिंह पर दुनिया के अराजकतावादी आंदोलन का भारी प्रभाव था। भगतसिंह की नौजवान भारत सभा के अलावा भी उस समय देश के विभिन्न हिस्सों में युवकों के खुले और गुप्त संगठन काम कर रहे थे। बंगाल के युगांतर, अनुशीलन और चट्रगांव रिपब्लिकन आर्मी, संयुक्त प्रांत आगरा व अवध को केंद्र बनाकर काम कर रही हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी आदि ऐसे ही दल थे।
समाजवाद और हिसप्रसं
भगतसिंह के परिपक्व राजनीतिक व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए उनके लेखों के संग्रहकर्ता चमनलाल ने अपने निबंध ‘भारतीय क्रांतिकारी चिंतन के प्रतीक भगतसिंह‘ में बताया है कि 1925 के काकोरी बम कांड के बाद क्रांतिकारियों का संगठन ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ‘ बिखर गया था। उस संघ के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़कर समाजवाद की नयी विचारधारा के आधार पर एक नया संगठन, ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ‘ (हिसप्रसं) का गठन करने में भगतसिंह ने ही नेतृत्वकारी भूमिका अदा की थी। चमनलाल ने बताया है कि किसप्रकार विश्व के क्रांतिकारी चिंतन के अध्ययन से भगतसिंह माक्र्सवाद की ओर बढ़ रहे थे तथा माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन के लेखन और व्यक्तित्व ने उन पर जबरदहस्त असर छोड़ा। इसीका प्रभाव था कि 8 व 9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में चार प्रांतों, पंजाब, राजस्थान, बिहार और संयुक्तप्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के 8 क्र्रांतिकारी कार्यकर्ता भारत के क्र्रांतिकारी आंदोलन को नयी दिशा देने के लिए एकत्र हुए थे। इस बैठक में चंद्रशेखर आजाद भी आने वाले थे लेकिन सुरक्षा के कारणों के चलते वे नहीं आ पाये। बैठक के मूल विषयों पर उनसे पहले ही सहमति ले ली गयी थी। इस बैठक में भगतसिंह ने भारत में क्रांति के जरिये समाजवाद की स्थापना का प्रस्ताव रखा था और ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ‘ का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ‘ रख दिया गया। शिव वर्मा के अनुसार इस बैठक में भगतसिंह के प्रस्ताव को दो के मुकाबले 6 के बहुमत से स्वीकारा गया। इसके सैनिक संगठन का नाम रिपब्लिकन आर्मी ही रह गया।
अत्यंत सीमित साधनों के बावजूद इस संगठन की क्रांतिकारी गतिविधियों ने इसे बहुत जल्द ही सारे देश में लोकप्रिय बना दिया था। इस संगठन के निर्माण के ठीक बाद दिसम्बर 1928 में भगतसिंह कलकता आये थे। शिव वर्मा ने बताया है कि कलकता में उनकी मुलाकात क्रांतिकारी त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती और प्रतुल गांगुली से हुई थी। दिल्ली बैठक के समय ये दोनों क्रांतिकारी नेता जेल में थे और उनकी अनुपस्थिति में किसी दूसरे नेता ने दिल्ली बैठक का बहिस्कार कर दिया था। भगतसिंह ने अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान दोनों नेताओं को दिल्ली बैठक की जानकारी दी और उसपर उनकी सहमति भी प्राप्त कर ली। दोनों नेताओं ने उन्हें बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए यतीन्द्रनाथ दास को आगरा भेजने का आश्वासन दिया।
डा. महादेव साहा ने अपने एक लेख में यह बताया है कि भगतसिंह की मुलाकात प्रसिद्ध क्रांतिकारी भूपेन्द्रनाथ दत्त से भी हुई थी। भूपेन्द्रनाथ दत्त तब बम-पिस्तौल की राजनीति छोड़कर मजदूरों-किसानों को संगठित करके सामाजिक क्रांति करने की कम्युनिस्ट राजनीति को अपना चुके थे। भूपेन्द्रनाथ दत्त का स्थान उग्रवादी क्रांतिकारी राजनीति में पितामह समान रहा है। भगतसिंह जब उनसे मिलने गये तो भूपेन्द्रनाथ दत्त उन्हें बम-पिस्तौल की राजनीति की असारता को समझाने की कोशिश की थी। डा. महादेव साहा ने यह भी बताया है कि भूपेन्द्रनाथ दत्त ने भगतसिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के नेता का. मुजफ्फर अहमद से मिलने की सलाह भी दी थी।
बहरहाल, अपने अध्ययन और भूपेन्द्रनाथ की तरह के वरिष्ठ क्रांतिकारी के परामर्श से अराजकतावादी राजनीति की सीमाओं को समझने के बावजूद भगतसिंह अपने ‘हिसप्रसं‘ के संगठन के साथ इतना आगे बढ गये थे कि शायद तब उनके लिए अपने पुराने रास्ते को छोड़कर किसी नये रास्ते पर बढ़ना नामुमकिन सा हो गया था।
सन् 1927 में भारत में राजनीतिक सुधारों के बारे में सुझाव देने के लिये ब्रिटिश सरकार ने साइमन आयोग का गठन किया था। इस आयोग में सर जॉन साइमन के अलावा बाकी सभी छ: सदस्य भी अंग्रेज ही थे। राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1927 की अपनी मद्रास बैठक में इस आयोग के ब्हिष्कार का फैसला किया। इसके कारण देश भर में इस आयोग के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन हुए।
सान्डर्स की हत्या
इन्हीं विरोध प्रदर्शनों की श्रंखला में 30 अक्तूबर 1928 के दिन लाहौर में लाला लाजपतराय और मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में एक जोरदार प्रदर्शन किया गया। वहां के पुलिस प्रमुख स्काट ने शहर भर में जुलूसों और सभाओं पर रोक लगा दी थी। लेकिन इसके बावजूद हजारों लोग इस प्रदर्शन में शामिल हुए। स्काट ने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को अपने बर्बर हमले का निशाना बनाया। लालाजी के सर पर लाठी से जबरदस्त एक के बाद एक कई प्रहार किये गये। अंत में लालाजी निढ़ाल होकर जमीन पर गिर गये। इस हमले के चलते 18 दिनों बाद 17 नवंबर 1928 के दिन लाला जी की मृत्यु होगयी। भगतसिंह ने लालाजी पर हुए इस बर्बर हमले को खुद अपनी आंखों से देखा था। लालाजी की मौत के बाद जाहिर है भगतसिंह और उनके साथियों के दिलों में अत्याचारी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नफरत का ज्वार उबल पड़ा। भगत सिंह के शब्दों में यह हमारे पौरुष को चुनौती थी। भारत के क्रांतिकारियों ने इस चुनौती को स्वीकार लिया। तय किया गया कि लालाजी की मृत्यु के लिये जिम्मेदार, लाठी चार्ज कराने वाले पुलिस अधिकारी को कलंक मान कर उसे धोया जाए। उन्होंने इस अत्याचार का मुंहतोड़ जवाब देने का निश्चय किया।
इस काम को पूरा करने के लिये चन्द्रशेखर ‘आजाद’ लाहौर आए। क्रांतिकारियों से बातचीत के बाद इस पुलिस अफसर को मार डालने की योजना बनी और इसके लिये चार लोगों को नियुक्त किया गया: चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू और जयगोपाल। उस घटना के ठीक एक महीने बाद, 17 दिसम्बर 1928 को ही भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और सुखदेव ने स्काट को मारने की योजना बनाई थी। दुर्भाग्य से गलत पहचान की वजह से स्काट के बदले एक जूनियर अधिकारी साण्डर्स मारा गया।
सान्डर्स की हत्या के बाद हिसप्रसं की ओर से पोस्टर लगाये गय जिन पर लिखा था: लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देश का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कत्र्तव्य था। सांडर्स की हत्या का हमें दुख है, पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिये हम संघर्ष कर रहे हैं।
गौर करने लायक बात यह है कि जिन लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिये भगत सिंह और उनके साथियों ने स्काट की हत्या करने की योजना बनायी थी, उन्हीं लालाजी के साथ भगत सिंह और उनके साथी कितने तीखे विवाद किया करते थे, यह ‘किरती’ पत्रिका की संपादकीय टिप्पणियों और लालाजी के नाम भगतसिंह के खुले पत्रों को देखने से पता चलती है। इनमें लालाजी पर विदेशों में बसे भाइयों से बंटोर कर लाये गये रुपयों के एक हिस्से को खुद हड़प जाने तक का आरोप है। एक पत्र में भगत सिंह ने उन पर 1. राजनीतिक ढुलमुलपन, 2. राष्ट्रीय शिक्षा के साथ विश्वासघात, 3. स्वराज्य पार्टी के साथ विश्वासघात, 4. हिन्दू-मुस्लिम तनाव को बढ़ाने और 5. उदारवादी बन जाने के अभियोग लगाये थे।
उस समय पूरे देश में एक नये प्रकार का जन उभार भी दिखाई दे रहा था। शिव वर्मा लिखते हैं-‘‘मजदूर वर्ग की ओर से देश भर में लड़ाकू किस्म की हड़तालें हो रही थीं और संगठित मजदूर संघों की गतिविधियां बढ रही थी जिसके फलस्वरूप मजदूर काम करने की बेहतर स्थितियों और अधिक वेतन के लिए ज्यादा प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने में समर्थ हो रहे थे। श्रमिकों ,युवकों और छात्रों में साम्यवाद का प्रभाव तेजी से बढ रहा था। देश में पहली बार एक संगठित और व्यापक वामपंथी राजनीतिक आंदोलन आकार गृहण कर रहा था। ‘‘
बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट
इसी सिलसिले में शिव वर्मा लिखते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी इस समूचे घटनाक्रम से भारी चिंतित थे और उन्होंने इस जन उभार को कुचलने के लिए केंद्रीय एसेम्बली में दो विधेयक लाने का निर्णय किया। पहला था पब्लिक सेफ्टी बिल और दूसरा था ट्रेड डिस्प्यूट बिल। इन दोनों का उद्धेश्य साम्यवादियों और टे्रड यूनियन आंदोलन का दमन था। तत्कालीन केंद्रीय एसेम्बली में समूचे विपक्ष ने इसका विरोध किया था और 24 सितम्बर 1928 को इन्हें अस्वीकृत भी कर दिया गया। फिर भी, सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही और 1929 के जनवरी महीने में पब्लिक सेफ्टी बिल को फिर से संशोधित रूप में पेश किया गया।
शिव वर्मा बताते हैं कि सरकार के इस निर्णय से भगतसिंह और उनके साथी बेहद नाराज थे। उन्होंने इसके प्रतिवाद में कोई न कोई ठोस कार्रवाई करने का निर्णय लिया। आगरा में हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की केंद्रीय समिति की बैठक बुलाई गयी और इसमें जो प्रस्ताव रखे गये वे संक्षेप में इसप्रकार हैं-‘‘(1) पार्टी को एसेम्बली में बम फेंककर सरकार की हठधर्मिता के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट करना चाहिए। (2) इस काम के लिए जो लोग चुने जांए वे कार्रवाई करने के बाद भागने की कोशिश न करें बल्कि आत्मसमर्पण कर दें, और मुकदमें के दौरान अदालत का इस्तेमाल पार्टी के उद्धेश्यों और प्रयोजनों के प्रचार के लिए करें तथा (3) एक और कामरेड के साथ मिलकर उन्हें इस निर्णय को क्रियान्वित करने की अनुमति दी जाए।‘‘
केंद्रीय समिति ने भगतसिंह के पहले दो प्रस्तावों को तो तत्काल मान लिया लेकिन अंतिम प्रस्ताव को दो दिनों की बहस के बाद ही माना गया।
बहरहाल, 4 सितम्बर 1928 के दिन केंद्रीय एसेम्बली में दूसरा बिल टे्रड डिस्प्यूट बिल पेश किया गया था जिसे विचार के लिए सलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया। यही बिल थोड़े रद्दोबदल के बाद 2 अप्रैल 1929 के दिन फिर से एसेम्बली में रखा गया। 8 अप्रैल 1929 को यह बिल 38 के मुकाबले 56 के बहुमत से पारित कर दिया गया। शिव वर्मा के शब्दों में-‘‘अध्यक्ष महोदय मतदान का परिणाम घोषित करने के लिए खड़े हुए, भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों ने एक-एक बम फेंका। इसके साथ ही उन्होंने नारे लगाए और इश्तहार बांटे। इश्तहारों में यह समझाया गया था कि बम विस्फोट की कार्रवाई के पीछे क्या उद्धेश्य है।‘‘
उल्लेखनीय है कि बम फेंकने के बाद ये दोनों नौजवान ‘इन्कलाब जिंदाबाद‘ और ‘हिंदुस्तान हिंदुस्तानियों का है‘ के नारे लगाते हुए बैठे रहे। बमों के धमाकों से भय से कंाप रहे अंग्रेज सरकार के रक्षकों को बुलाकर इन्होंने खुद को गिरफ्तार करवाया। अपनी पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का उदय और अस्त‘ में अयोघ्यासिंह ने इस घटना के बारे में लिखा है-‘‘ इस घटना के बाद ही ब्रिटिश शासकों ने सारे देश के नौजवान क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी शुरू कर दी,हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसियेशन के लाहौर में गुप्त केंद्र और बम के कारखाने का पता उन्हें लग गया। चन्द्रशेखर आजाद को जो बाद में इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में हथियारबंद पुलिस के साथ अकेले लड़ते मारे गये, छोड़कर सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गये। गिरफ्तारियां पंजाब से लेकर बंगाल तक हुई और लाहौर में ले जाकर मामला चलाया गया। यह मामला इतिहास में लाहौर ाड़यंत्र के नाम से मशहूर है। भगतसिंह, सुखदेव राजगुरु, यतीनदास, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, जो बाद में हिंदुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेके्रटरी बने, शिव वर्मा जो कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय मुखपत्र ‘लोकलहर‘ के संपादक बने, विजय कुमार सिन्हा, यशपाल जो आज हिंदी के उच्च कोटि के कहानी और उपन्यास लेखक हैं, जयदेव कपूर, का. गयाप्रसाद, कुंदनलाल गुप्त वगैरह इसके अभियुक्त थे।‘‘
असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की ओर से जो पर्चा फेंका था उसका प्रारम्भ इन शब्दों से होता है- ‘‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है, प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलिया के यह शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।‘‘
इस पर्चे में उन्होंने उपरोक्त दोनों विधेयकों के दमनकारी स्वरूप पर गुस्सा जाहिर करते हुए कहा था कि ‘‘ विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परंतु उसकी वैद्यानिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।‘‘ इस पर्चे के अंत में कहा गया कि‘‘हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इस पर्चे में साफ कहा गया था कि भारतीय क्रांतिकारी दल का मकसद समाजवाद की स्थापना है और हमारा नारा है इंकलाब जिन्दाबाद।
अदालत में मुकदमे के दौरान भगतसिंह और उनके साथियों ने अपने उद्धेश्य के प्रचार के लिए उस मंच का भरपूर इस्तेमाल किया और देखते ही देखते जी.एस. देओल के अनुसार इससे राष्ट्रीय आंदोलन को नयी गति मिली और ‘‘भारतीय राष्ट्रीय क्रांग्रेस के लिए दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने और पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास करने का पथ प्र्रशस्त किया।‘‘
मार्क्सवाद की ओर
कामरेड शिव वर्मा ने बताया है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त, दोनों पर रूसी अराजकतावादी बकुनिन का भारी प्रभाव था। यहां यह गौर किया जा सकता है कि 8 अप्रैल 1929 के दिन जब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरों को सुनाने के लिए केंद्रीय एसेम्बली में बम फेंका था, तब भी उनकी यह कार्रवाई यूरोपीय अराजकतावादी वैलेट के कारनामे से प्रेरित थी। वीर भारत तलवार ने हंस के अप्रैल 1987 के अंक में अपने एक लेख में यह बताया है कि वैलेंट ने भी भगतसिंह की भंाति एसेम्बली में बम फेंकने के बाद कहा था- ‘बहरों को सुनाने के लिए बड़ी बुलंद आवाज की जरूरत है’।
कामरेड शिव वर्मा लिखते हैं कि भगतसिंह को अराजकतावाद के प्रभाव से मुक्त करके समाजवाद की तरफ लाने का श्रेय दो व्यक्तियों को है- स्वर्गीय कामरेड सोहनसिंह जोश और लाला छबीलदास। 1928 के शुरू होते न होते उन्होंने (भगतसिंह) ने अराजकता को छोड़ कर समाजवाद को स्वीकार लिया, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने माक्र्सवाद को पूरी तरह समझ लिया था। अतीत के कुछ प्रभाव अभी बाकी थे।
भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में भगतसिंह और उनके साथियों का जेल जीवन एक नये निर्णायक मोड़ का सूचक था। उधर बंगाल में भी क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास से पता चलता है कि जेल और काला पानी की सजा के दिनों में यहां के क्रांतिकारियों को माक्र्सवाद से संबंधित साहित्य के अध्ययन का जो मौका मिला उसने बहुतों को कम्युनिस्ट क्रांतिकारी में तब्दील कर दिया। बिल्कुल उसी प्रकार भगतसिंह और उनके साथियों को भी जेल जीवन में अध्ययन और विचार-विमर्श का जो मौका मिला, उसने उनके अंदर एक नयी समझ पैदा की। ‘‘इसके आधार पर उन्होंने अपने पूर अतीत को खासकर वैयक्तिक कार्यकलापों और शौर्य-प्रदर्शन के आदर्श को नये सिरे से जांचा-परखा और अब तक की कार्यप्रणाली को छोड़कर समाजवादी क्रांति का रास्ता अपनाने का निश्चय किया। गहन अध्ययन और बोस्टल जेल में दूसरे साथियों के लम्बे विचार-विमर्श के बाद भगतसिंह इस निर्णय पर पहुंचे कि यंहा-वंहा कुछ भेदियों और सरकारी अफसरों की वैयक्तिक हत्याओं से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।‘‘ (शिव वर्मा, क्रांतिकारी अंादोलन का वैचारिक प्रकाश, भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ 27)
गौर करने लायक बात हेै कि जेल से ही भगतसिंह ने 19 अक्तूबर 1929 के दिन पंजाब स्टूडेंट्स कांफ्रेंस के नाम अपने संदेश में कहा था-‘‘आज नौजवानों को बम और पिस्तौल अपनाने के लिए नहीं कह सकते...उन्हें औद्यौगिक क्षेत्रों की गंदी बस्तियों और गांवों के टूटे-फूटे झोंपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जगाना है।‘‘
8 अप्रैल 1929 के बाद से लेकर उम्र की आखिरी घड़ी (23 मार्च 1931) तक भगतसिंह जेल की सींखचों से बाहर नहीं आ पाये। जेल में रहते हुए उन्होंने और उनके साथियों ने कई बार जेल अधिकारियों के दुव्र्यवहार के खिलाफ भूख हड़तालें की। भगत सिंह के साथी यतीन दास 63 दिन तक भूख हड़ताल पर रह जिसके अंत में उनकी मृत्यु भी होगयी। अप्रैल 1929 से लेकर 1930 के आखिर तक ये देशभक्त जेल में रहे।
6 जुन 1929 को दिल्ली की सेशन अदालत में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बयाान दिया था वह उनके क्रांतिकारी दर्शन को जानने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। अपने इस बयान में उन्होंने कहा था कि-‘‘यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है। ...बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था का औचित्य हमारी समझ में नहीं आ सका, जो बावजूद उस तमाम शानौ-शौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र एक दिल को बहलाने वाली थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई संस्था है। ... मानवत के प्रति हार्दिक सद्भाव और अमिट प्रेम के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है।‘‘
इस घटना के पीछे के अपने अभिप्राय को बताते हुए उन्होंने साफ किया कि वे किसी भी व्यक्ति को कोई नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते थे। असेम्बली भवन में फेंके गये बमों से वंहा की एक खाली बैंच को ही कुछ नुकसान पहुंचा। क्रांति से अपने अभिप्राय को जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि-
‘‘क्रांति में व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह बम और पिस्तौल का सम्प्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है-अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।‘‘ अपने इस वक्तव्य के अंत में उन्होंने कहा-‘‘क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।‘‘
दिल्ली के सेशन जज ने असेम्बली बम कांड के लिए भगतसिंह को आजीवन कारावास का दंड दिया था। लाहौर के हाईकोर्ट में उसकी अपील की गयी। हाईकोर्ट के समक्ष उन्होंने अपने बयान में सेशन अदालत के फैसले की आलोचना करते हुए फिर इस बात को दोहराया कि-‘‘इंकलाब जिंदाबाद से हमारा यह उद्धेश्य नहीं था, जो आम तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। और यही चीज थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे।
इसी दौरान ब्रिटिश सरकार को मुखबिरों से यह पता लग गया कि सान्डर्स की हत्या में भगत सिंह और उनके साथियों का हाथ था। भगत सिंह और उनके साथियों पर इस कांड के लिये भी मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा लाहौर षड़यंत्र मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है।
उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश सरकार ने बाकायदा एक अघ्यादेश जारी करके लाहौर षड़यंत्र मुकदमे को जल्द निपटाने के लिए एक ट्रिब्यूनल की नियुक्ति की थी। इस ट्रिब्यूनल के गठन के पीछे काम कर रही ब्रिटिश सरकार की बदनीयती को समझते हुए ही भगतसिंह सहित उने छ: साथियों ने इस मुकदमे की कार्रवाई में भाग न लेने का ऐलान किया था। ट्रिब्यूनल के कमीश्नर के नाम अपने पत्र में उन्होंने कहा था-‘‘हमारा विश्वास है कि ऐसी सरकारें, विशेषकर अंग्रेजी सरकार जो असहाय और असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गयी है, गुंडो, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों का टोला है जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सबप्रकार की शक्तियां जुटाई हुई है। ...वर्तमान सरकार के कानून विदेशी शासन के हितों के लिए चलते हैं और हम लोगों के हितों के विपरीत है। इसलिए उनकी हमारे ऊपर किसी भी प्रकार की सदाचारिता लागू नहीं होती।‘‘
उपरोक्त तमाम उद्धरणों से जाहिर है कि किसप्रकार भगतसिंह अदालत के मंच से उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष करने के अपने इरादों का ऐलान करते हैं। भगतसिंह और उनके साथियों ने जिस विशेष ट्रिब्यूनल के साथ सहयोग न करने का निर्णय लिया था उसी ट्रिब्यूनल ने 7 अक्तूबर 1930 के दिन भगतसिंह, सुखदेव और शिवरात राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई थी। फांसी पर चढ़ाये जाने के पहले भगतसिंह ने अपने साथियों के नाम जो अंतिम पत्र लिखा था उसमें उन्होंने कहा था कि-‘‘एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्रत, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।‘‘
यह था भगतसिंह के जेल-जीवन और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनकी घृणा तथा मानवता की सेवा की उनकी अधूरी रह गयी इच्छाओं का एक पहलू।
अदालत में भगतसिंह और उनके साथी लगातार अंग्रेज सरकार से वैचारिक लड़ाई लड़ते रहे और देश की आजादी के लिए अपनी लड़ाई के औचित्य को साबित करने के प्रयास में लगे रहे । देश भर में भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को छोड़ देने की जबरदस्त मांग उठ रही थी। लेकिन इन सबका अंगेज सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। निर्दयी अंग्रेज हुकूमत ने भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फांसी का हुक्म सुनाया। 23 मार्च 1931 की शाम 7 बज कर 23 मिनट पर इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गयी। इसके बाद ही देश भर में ‘‘भगतसिंह जिंदाबाद‘‘ की आवाज गंूज उठी। जवाहरलाल नेहरू को जैसे ही यह खबर लगी, उन्होंने कहा कि ‘‘हमारे और इंगलैंड के बीच अब भगतसिंह की लाश रहेगी‘‘। 24 मार्च को शोक दिवस का पालन किया गया। महात्मा गांधी के जीवनीकार जी. डी. तेंदुलकर ने लिखा है कि लाहौर में अधिकारियों ने यूरोपीयन महिलाओं को 10 दिन तक यूरोपीयन क्र्वाटर में ही रहने की चेतावनी दी। मुम्बई और मद्रास में जोरदार विरोध प्रदर्शन हुए। कोलकाता की सड़कों पर सशस्त्र पुलिस बल पहरा दे रहे थे। प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़पें हुई जिनमें 141 लोग मारे गये,586 लोग घायल हुए और 341 लोगों को गिरफ्तार किया गया। असेम्बली में वित्त विध्ेायक पर चल रही बहस की उपेक्षा करते हुए सदस्यों ने सदन से वाक आउट किया।
जेल में अध्ययन
भगतसिंह के जेल-जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक उत्कट अघ्येता और क्रांतिकारी विचारक के विकास का पहलू है। जेल में रहते हुए ही उन्होंने राष्ट्रीय क्रांग्रेस की विचारधारा और गांधीजी के दर्शन को अस्वीकारते हुए क्रांति के अपने दर्शन की व्याख्या की थी जिसे ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र‘ का घोषणापत्र कहा गया था। यह भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी भगवतीचरण वोहरा का ‘बम का दर्शन‘ शीर्षक लेख था जिसे भगतसिंह ने जेल में रहते हुए अंतिम रूप दिया था। अपने जेल जीवन में ही भगतसिंह ने अपना प्रसिद्ध लेख, ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘‘ लिखा था। इस लेख में उन्होंने सभी आस्थावान लोगों से यह सवाल किया था कि -‘‘तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ? ... उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की ? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इसप्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय,वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवाद की बेडि़यों से मुक्त करे। ... मैं आपको यह बता दूं कि अंग्रजों की हुकूमत यंहा इसलिए नहीं है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। ... कहां है ईश्वर ? वह क्या कर रहा है ? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है ? वह नीरो है, वह चंगेज है, तो उसका नाश हो।‘‘(भगतसिंह और उनके दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन,पृष्ठ 367 से 380)
इसी प्रकार उनका एक दूसरा महत्वपूर्ण लेख जिसका अनुवाद शिव वर्मा ने किया है, उनके एक दोस्त लाला रामशरण दास की कविताओं का संकलन ‘ड्रीम लैंड‘ की भूमिका है। इस भूमिका में उन्होंने कविता की समीक्षा करने में अपनी असमर्थता को जाहिर करते हुए मुख्य रूप से एक क्रांतिकारी राजनीतिक नेता के नाते अपनी टिप्पणी की है। वे कहते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में ‘ड्रीम लैंड‘ का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वह सामान्यतौर पर राजनीति के आदर्शविहीन स्वरूप की कमी को पूरा करता है। इसी सूत्र के आधार पर उन्होंने इसमें क्रांति की अपनी अवधारणा, रहस्यवादी विचारों से अपनी असहमति और भविष्य के कम्युनिस्ट समाज के बारे में अपने सोच को रूपायित किया है। लाला रामशरन दास को आजीवन कैद की सजा मिली थी। अपने जेल जीवन में ही उन्होंने जो कविताएं लिखी, यह पुस्तक उन्हीं कविताओं का संकलन थी। इसमें उन्होंने एक माक्र्सवादी के नजरिये से रामशरन दास के विचारों को परखा था और यह साफ शब्दों में कहा था कि-‘‘अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा क्रांतिकारी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों से नहीं हो सकती बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फूटित और विकसित होना चाहिए।
इसी निबंध में भगत सिंह ने अपने भविष्य के कम्युनिस्ट समाज के बारे में जो टिप्पणी की है, वह काफी महत्वपूर्ण है। इसमें वे कहते हैं : भविष्य के समाज में अर्थात् कम्युनिस्ट समाज में जिसका हम निर्माण करना चाहते हैं, हम धर्मार्थ संस्थाएं स्थापित करने नहीं जा रहे हैं, बल्कि उस समाज में न गरीब होंगे न जरूरतमन्द, न दान देनेवाले न दान लेनेवाले। ...पुस्तक में लेखक ने समाज की जिस साधारण रूपरेखा पर बहस की है वह बहुत कुछ वैसी ही है जैसी वैज्ञानिक समाजवाद की।
इसीमें आगे भगतसिंह ने समाजवाद में कायिक और मानसिक श्रम के विषय पर विचार करते हुए अपनी जिस वैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचय दिया, वह देखने लायक है। वे कहते हैं : उसमें (ड्रीमलैंड पुस्तक में - लेखक) कुछ ऐसी बातें भी है जिनका विरोध या प्रतिवाद आवश्यक है, या यूं कहा जाय कि उनमें सुधार आवश्यक है। मिसाल के तौर पर 427वें पद के नीचे दी हुई टिप्पणी में वह लिखता है कि राजकर्मचारियों को अपनी रोजी कमाने के लिये प्रतिदिन चार घंटे खेतों पर या कारखानों में काम करना चाहिए। लेकिन यह अव्यवहारिक तथा हवाई बात है। यह बात शायद आज की व्यवस्था में राजकर्मचारियों को जो ऊंचा वेतन दिया जाता है, उसके खिलाफ प्रतिक्रिया की ही उपज है। दरअसल बोल्शेविकों को भी यह स्वीकार करना पड़ा था कि दिमागी काम उतना ही उत्पादक श्रम है, जितना कि शारीरिक श्रम, और आने वाले समाज में जब विभिन्न तत्वों के आपसी संबंधों का समायोजन समानता के आधार पर होगा तो उत्पादक और वितरक दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण माने जायेंगे। आप एक नाविक से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह हर 24 घंटे बाद अपना जहाज रोक कर रोजी कमाने के लिये चार घंटे काम करने चला जायेगा, या एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला और अपना प्रयोग (काम) छोड़ का खेत पर अपने काम का कोटा पूरा करने चला जायेगा। यह दोनों ही बहुत उत्पादक काम कर रहे हैं। समाजवादी समाज में इतने ही अंतर की आशा की जाती है कि दिमागी काम करने वाला शारीरिक काम करने वाले से ऊंचा नहीं माना जायेगा।(भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन, पृ. 385-386)
भगतसिंह ने 2 फरवरी 1931 को ‘‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम ‘‘ एक अपील लिखी थी। इस अपील में उन्होंने जनसाधारण के बीच काम करने के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि -‘‘गांवों और कारखानों में किसान और मजदूर ही असली क्रांतिकारी सैनिक हैं।‘‘ उन्होंने पूरी ताकत के साथ अपने पर लगाये गये इस इल्जाम से इंकार किया कि वे एक आंतकवादी हैं। उनके शब्दों में-‘‘मैंने एक आंतकवादी की तरह काम किया है, लेकिन मैं आंतकवादी नहीं हूं। मैं तो एक ऐसा क्रांतिकारी हूं जिसके पास एक लम्बा कार्यक्रम और उसके बारे में सुनिश्चित विचार होते हैं। ... मैं पूरी ताकत के साथ बताना चाहता हूं कि मैं आंतकवादी नहीं हूं और कभी था भी नहीं, कदाचित उन कुछ दिनों को छोड़कर जब मैं अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत कर रहा था। मुझे विश्वास है कि हम ऐसे तरीकों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।‘‘ उन्होंने नौजवानों से माक्र्स और एगेंल्स को पढ़ने,उनकी शिक्षाओं को अपना मार्ग-दर्शक बनाने, जनता के पास जाने, मजदूरों, किसानों, और शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करने, उन्हें राजनीतिक रूप से सचेत बनाने, उनमें वर्ग चेतना पैदा करने और उन्हें संघों में संगठित करने का आह्वान किया था। लेनिन के शब्दों को दोहराते हुए उन्होंने कहा था कि हमें पेशेवर क्रांतिकारियों की जरूरत है। उन्होंने क्रांति के लिए एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की जरूरत पर भी बल दिया था।
यहां उल्लेखनीय है कि जिस समय भगतसिंह ने यह पत्र लिखा था, उस समय भारत के राजनीतिक वातावरण में गांधी-इर्विन समझौता वार्ताओं की चर्चा सबसे अधिक गर्म थी। भगत सिंह ने तब एक क्रांतिकारी की दृष्टि से संघर्ष की राह में समझौतों के सवाल पर अपनी राय दी थी। इसमें उन्होंने 1917 की रूस की क्रांति के बाद लेनिन द्वारा किये गये शान्ति के लिये समझौते का भी जिक्र करते हुए कहा था :
“समझौता एक ऐसा जरूरी हथियार है जिसे संघर्ष के विकास के साथ ही साथ इस्तेमाल करना जरूरी बन जाता है, लेकिन जिस चीज का हमेशा ध्यान रहना चाहिए वह है आन्दोलन का उद्देश्य। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये हम संघर्ष कर रहे हैं, उनके बारे में, हमें पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। ...आप अपने शत्रु से सोलह आना पाने के लिये लड़ रहे हैं। आपको एक आना मिलता है, उसे जेब में डालिए और बाकी के लिये संघर्ष जारी रखिये।“
इसी संदर्भ में उन्होंने कांग्रेस के अंदर चल रही कसमकश पर टिप्पणी की और कहा कि नरम दल के लोगों में जिस चीज की कमी हम देखते हैं, वह उनके आदर्श की है। वे इकन्नी के लिये लड़ते हैं और इसलिये उन्हें मिल ही कुछ नहीं सकता।
आगे वे कांग्रेस के उद्देश्य पर टिप्पणी करते हैं और राय देते हैं कि वर्तमान आंदोलन किसी न किसी समझौते या पूर्ण असफलता में समाप्त होगा। वे इसके पीछे कांग्रेस के आंदोलन के वर्ग चरित्र की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि यह संघर्ष मध्यवर्गीय दुकानदारों और चंद पूंजीपतियों के बल किया जा रहा है। यह दोनो वर्ग, विशेषत: पूंजीपति, अपनी सम्पत्ति या मिल्कियत खतरे में डालने की जुर्रत नहीं कर सकते। वास्तविक क्रांतिकारी सेना तो गांवों और कारखानों में हैं - किसान और मजदूर। लेकिन हमारे ‘बूज्र्वा’ नेताओं में उन्हें साथ लेने की हिम्मत नहीं है, न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। गांधीजी को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं, ‘1920 में अहमदाबाद के मजदूरों के साथ अपने प्रथम अनुभव के बाद महात्मा गांधी ने कहा था, हमें मजदूरों के साथ सांठ-गांठ नहीं करनी चाहिए। कारखानों के सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना खतरनाक है।
भगत सिंह का यह पत्र दरअसल उनके द्वारा तैयार किया गया क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा था। इसी के अंतिम हिस्से में वे गांधीवाद और आतंकवाद पर भी सारगर्भित टिप्पणी करते है, जिसे यहां उद्धृत करना जरूरी है क्योंकि इस लेख में आगे हम गांधी और भगतसिंह के विषय में काफी विस्तार से चर्चा करेंगे। ‘गांधीवाद’ उपशीर्षक के साथ वे लिखते हैं : कांग्रेस आन्दोलन की सम्भावनओं, पराजयों और उपलब्धियों के बारे में हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए। आज चल रहे आन्दोलन को गांधीवाद कहना ही उचित है। यह दावे के साथ आजादी के लिए स्टैण्ड नहीं लेता, बल्कि सत्ता में ‘हिस्सेदारी’ के पक्ष में है। ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के अजीब अर्थ निकाले जा रहे हैं। इसका तरीका अनूठा है, लेकिन बेचारे लोगों के किसी काम का नहीं है। साबरमती के सन्त को गांधीवाद कोई स्थायी शिष्य नहीं दे पायेगा। यह एक बीच की पार्टी - यानी लिबरल-रैडिकल मेल-जोल - का काम कर रही है और करती भी रही है। मौके की असलियत से टकराने में इसे शर्म आती है। इसे चलानेवाले देश के ऐसे ही लोग है जिनक हित इससे बंधे हुए हैं और वे अपने हितों के लिए बूज्र्वा हठ से चिपके हुए हैं। यदि क्रांतिकारी रक्त से इसे गर्मजोशी न दी गयी तो इसका ठण्डा होना लाजिमी है। इसे इसीके दोस्तों से बचाने की जरूरत है।
इसमें आगे वे ‘आतंकवाद’ उपशीर्षक के तहत लिखते हैं :बम का रास्ता 1905 से चला आरहा है और क्रांतिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है।...आतंकवाद हमारे समाज में क्रांतिकारी चिंतन की पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है; या एक पछतावा। ...सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है।
इसीमें आगे वे फिर एक बार गांधीवाद पर जो टिप्पणी करते हैं, वह बताती है कि भगत सिंह ने किस प्रकार क्रांति की वास्तविक प्रक्रिया के मर्म को समझ लिया था। इसमें वे कहते है, एक प्रकार से गांधीवाद अपना भाग्यवाद का विचार रखते हुए भी, क्रान्तिकारी विचारों के कुछ नजदीक पहुंचने का यत्न करता है, क्योंकि यह सामूहिक कार्रवाई पर निर्भर करता है, यद्यपि यह कार्रवाई समूह के लिए नहीं होती। उन्होंने मजदूरों को आन्दोलन में भागीदार बना कर उन्हें मजदूर-क्रांति के रास्ते पर डाल दिया है। यह बात अलग है कि उन्हें कितनी असभ्यता या स्वार्थ से अपने राजनीतिक कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल किया गया है। क्रांतिकारियों को ‘अहिंसा के फरिश्ते’ को उसका योग्य स्थान देना चाहिए। (देखे, भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, राजकमल प्रकाशन, पृ. 389-401)
आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित,चमनलाल द्वारा संपादित ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज‘ में भगतसिंह की वह जेल डायरी भी संकलित है जिसे उन्होंने 404 पृष्ठों में लिखा था। इस डायरी में उन्होंने दुनिया के अनेक विचारकों की उद्धृतियों को नोट किया था। इस डायरी को देखने से पता चलता है कि किसप्रकार अपने जेल जीवन के दौरान भगतसिंह अन्य अनेक विचारकों के साथ ही मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की कृतियों का गहराई से अध्ययन कर रहे थे। शिव वर्मा ने बताया है कि भगतसिंह ने जेल में चार और पुस्तकें लिखी थी जिनके शीर्षक थे-(1) समाजवाद का आदर्श (2) आत्मरक्षा (3) भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास (4) मृत्यु के द्वार पर। ये चारों पुस्तकें पता नहीं कहां गुम हो गयी हैं। यदि ये पुस्तकें प्रकाशित हो पाती तो भगतसिंह ने अपने गहन अघ्ययन के आधार पर जिस माक्र्सवादी विचारधारा को अर्जित किया था उसकी एक बहुत ही साफ तस्वीर हमारे सामने आती। निश्चित तौर पर इससे भारत में समाजवादी क्र्रांति की रणनीति और कार्यनीति के बारे में उनके विचारों को जानने का हमें मौका मिलता।
इस महान क्रांतिकारी जीवन पर गहराई से विचार करने पर एक बात खुलकर सामने आती है कि उन्होंने एक सच्चे क्रांतिकारी की तरह किसी भी प्रकार के सुधारवादी और समझौतावादी दृष्टिकोण को स्वीकारने से इंकार किया था। उन्होंने एक बहरी औपनिवेशिक सत्ता को सुनाने कि लिए बम का धमाका अवश्य किया था लेकिन वे इस सच्चाई को अच्छी तरह समझते थे कि क्रांति का अर्थ सिर्फ बम और पिस्तौल को चमकाना नहीं है जिसे उन्होंने पटाखेबाजी भी कहा था। क्रांति का अर्थ देश के मजदूरों और किसानों को संगठित करना और उनके नेतृत्व में एक व्यापक सामाजिक रूपान्तरण को हासिल करना होता है। क्रांति का अर्थ साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के जुए से मानव सभ्यता को मुक्त करके समता और न्याय के आधार पर एक सुखी और समृद्ध समाज का निर्माण करना होता है।
भगत सिंह का अन्य लेखन
जैसा कि हमने पहले ही कहा है, भगत सिंह जब कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ कार्यालय में आये, तभी से भारत की आजादी और क्रांतिकारी संघर्षों से जुड़े विभिन्न विषयों पर उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। देश की स्वतंत्रता का संघर्ष भारत की विभिन्न जातियों की अस्मिता की लड़ाई से गहरे से जुड़ा हुआ था। भगतसिंह ने 1924 के अपने प्रारम्भिक लेख में ही पंजाबी की भाषा और लिपि की समस्या पर विचार किया था। किसी भी सामाजिक परिवर्तन में साहित्य की कितनी बड़ी भूमिका होती है इसे रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा था-शायद गैरीबाल्डी को इतनी सेनाएं न मिल पाती यदि मेजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जाग्रति पैदा करने में ही न लगा दिये होते। आयरलैंड के पुनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा का प्रभाव भी उसी वेग से किया गया।...यदि टालस्टाय, कार्ल माक्र्स तथा मैक्सिम गोर्की इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षों व्यतीत न कर दिये होते, तो रूस की क्रांति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा। इसी संदर्भ को सिख गुरुओं के मत के प्रचार तथा गुरुमुखी लिपि के विकास से जोड़ते हुए भगतसिंह ने गुरुमुखी तथा आगे हिंदी के संबधों पर मजहब से दूर रहकर विचार करने पर बल दिया। वे लिखते हैं-हरेक अपनी बात के पीछे डंडा लिये खड़ा है। इसी अडं़गे को किस तरह दूर किया जाय यही पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या है। परन्तु आशा केवल इतनी है कि सिखों में इस समय जाग्रति पैदा हो रही है। हिंदुओं में भी है। सभी समझदार लोग मिल-बैठकर निश्चय ही क्यों नहीं कर लेते। यही एक उपाय है इस समस्या के हल करने का।‘‘ इस लेख पर भगतसिंह के विचारों पर आर्यसमाज के किंचित प्रभाव को देखा जा सकता है। यह एक परिपक्व क्रांतिकारी के रूप में भगतसिंह के निर्माण का प्रारम्भिक काल था।
जातीय अस्मिता का सवाल परवर्ती दिनों में भी भगतसिंह की चिंता का एक प्रमुख विषय रहा। पंजाब के एक भूतपूव गवर्नर सर माईकेल ओडायर ने अपनी एक पुस्तक में यह आरोप लगाया था कि पंजाब राजनीतिक हलचलों में सबसे पीछे है। भगतसिंह को यह बात नागवार गुजरी थी। यह सवाल उठाते हुए कि पंजाब क्यों राजनीतिक आंदोलनों में पीछे है, अन्य बातों के अलावा उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि पंजाब की अपनी कोई विशेष भाषा नहीं है। भाषा न होने के कारण साहित्य के क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं हो सकी। अत: शिक्षित समुदाय को पश्चिमी साहित्य पर ही निर्भर रहना पड़ा। इसका खेदजनक परिणाम यह हुआ कि पंजाब का शिक्षित वर्ग अपने प्रांत की राजनीतिक हलचलों से अलग-थलग सा रहता था। इसी सिलसिले में उन्होंने 20 वीं सदी के प्रारम्भ से ही पंजाब में राजनीतिक हलचलों का एक ब्यौरा लिखा जिसका शीर्षक था-‘स्वाधीनता के आंदोलन में पंजाब का पहला उभार‘। यह लेख उन्होंने अपने जेल के दिनों में लिखा था जिसके कुछ अंश 1931 में लाहौर के साप्ताहिक ‘वंदे मातरम‘ में प्रकाशित हुए थे।
इसके बाद हर बीतते दिन के साथ भगतसिंह का दृष्टिकोण किसप्रकार और ज्यादा व्यापक होता चला गया, इसकी झलक उनके बाद के लेखों में मिलती है। कोलकाता से प्रकाशित ‘मतवाला‘ के 15 नवम्बर 1924 और 22 नवम्बर 1924 के अंकों में बलवंतसिंह के छद्म नाम से उनका एक लेख ‘विश्व प्रेम‘ प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने लिखा-‘‘जब तक काला-गोरा, सभ्य-असभ्य, शासक-शासित, धनी-निर्धन, छूत-अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है तब तक कहां विश्व-बंधुता और विश्व-प्रेम? यह उपदेश स्वतंत्र जातियां कर सकती है। भारत जैसी गुलाम जाति इसका नाम नहीं ले सकती।‘‘ इस लेख का अंत वे इसप्रकार करते है-‘‘यदि वास्तव में चाहते हो कि संसारव्यापी सुख-शांति और विश्व-पे्रम का प्रचार करो तो पहले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो। मां के बंधन काटने के लिए कट मरो। बंदी मां को स्वतंत्र करने के लिए आजन्ंम काले पानी में ठेाकरें खाने के लिए तैयार हो जाओ। सिसकती मां को जीवित रखने के लिए मरने को तत्पर हो जाओ। तब हमारा देश स्वतंत्र होगा। हम बलवान होंगे। हम छाती ठोंककर विश्वप्रेम का प्रचार कर सकेगें। संसार को शांतिपथ पर चलने को बाध्य कर सकेगें।‘‘
‘प्रताप‘ के 15 मार्च के अंक में ‘भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय‘ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ। उसी की श्रंखला में मई 1927 में ‘काकोरी के वीरों से परिचय‘ लेख प्रकाशित हुआ जिसे उन्होंने ‘विद्रोही‘ नाम से छपवाया था। इस लेख के प्रकाशन के बाद ही भगतसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया था। ‘भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज‘ के संपादक चमनलाल के अनुसार चारपाई पर हथकड़ी लगे बैठे भगतसिंह का प्रसिद्व चित्र इसी गिरफ्तारी के समय लिया गया था। जनवरी 1928 की किरती में काकोरी के शहीदों के बारे में एक और लेख लिखा जिसमें राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशनसिंह, अशफाकउल्ला, और रामप्रसाद बिस्मिल के बहुत ही भावनापूर्ण चित्र खींचे गये हैं। इसी प्रकार उन्होंने एक लम्बा लेख ‘कूका विद्रोह‘ पर लिखा था जो ‘महारथी‘ पत्रिका के फरवरी 1928 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इनके अतिरिक्त मदनलाल ढींंगरा, सूफी अम्बाप्रसाद, श्री बलवंत सिंह, डा. मथुरासिंह, शहीद करतारसिंह सराभा की तरह के क्रांतिकारियों के बारे में उनके लेख उस समय की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। ‘किरती’ पत्रिका में उन्होंने ‘आजादी की भेंट शहादतें‘ शीर्षक से एक लेखमाला भी लिखी थी। भगतसिंह पर उस वक्त के बंगाल के विद्रोही कवि नजरूल इस्लाम का कितना प्रभाव था यह श्री मदनलाल ढींगरा पर लिखे उनके लेख को देखने से ही पता चलता है। ढींगरा के निर्भीक चरित्र का चित्रण करते हुए उन्होंने नजरूल इस्लाम की प्रसिद्ध कविता ‘विद्रोही‘ को उद्धृत किया -
बोलो वीर-चिर उन्नत मम शीर
शिर नेहारी आमारि नत शिर ओेई शिखर हिमाद्रीर।
(कहो वीर चिर उन्नत मेरा मस्तक, नत है वह हिमालय की चोटी, देखकर मेरा उन्नत मस्तक)
यहां साम्प्रदायिकता के बारे में भगत सिंह के विचारों के कुछ उद्धरण रखना भी जरूरी है। ‘किरती’ के जून 1928 के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ था - ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’। इसमें वे सांप्रदायिकता की आर्थिक जड़ों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं : विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। ...इसी सिद्धांत के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई जो अवर्णनीय है।
धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको मिल कर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़ कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। (भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज, आधार प्रकाशन, पृ. 152-155)
मात्र 24 वर्ष की उम्र में भगतसिंह शहीद हो गये थे। लेकिन इस छोटी सी उम्र में ही उन्होंने क्रांतिकारी भावनाओं के साथ जिस प्रखर क्र्रांतिकारी चिंतन और समाजवाद के आदर्शों को आत्मसात किया था, वह सचमुच अपने आप में एक मिसाल है।
* भगत सिंह की जन्म तिथि को लेकर कई मत देखने को मिलते हैं। चमन लाल ने ‘भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज में उनकी जन्म तिथि 28 सितंबर 1907 बताई है; रमेश विद्रोही ने अपनी ‘भगतसिंह जीवन, व्यक्तित्व, विचार’ पुस्तक में इसे 29 सितंबर 1907 बताया है; ‘भगत सिंह क्रांति संबंधी धारणा’ पुस्तिका में इसे 5 अक्तूबर 1907 कहा गया है; ज्योत्सना कामथ ने इस तिथि को 27 सितंबर 1907 बताया है; वीकीपीडिया के वेबसाइट पर यह तिथि 17 अक्तूबर 1907 है; ईश्वर चन्द्र ने इसे 28 सितंबर 1907 बताया है।
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