शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

संसद में बजट पेश किये जाने की पूर्व बेला में विचार का एक बिंदु :


हमारे मित्र अजय तिवारी ने लिखा - "यूरोप फिर भयानक मंदी से घिर रहा है। 2008 की मंदी पूरी तरह ख़त्म हुई नहीं थी और यह नया दौर आन पड़ा।उनके अब तक के प्रयोग अल्पकालिक सिद्ध हुए हैं। ... मेरी राय यह है कि संकट पूँजीवादी वितरण प्रणाली की देन है। वह सामाजिक पूँजी को समेटकर क्रमशः कुछ लोगों के हाथ में इकठ्ठा करती जाती है। इसीसे विषमता जन्म लेती है। जब तक कोई व्यवस्था इस विषमता को घटाने का रास्ता नहीं निकालती तब तक इन ऊपरी उपायों से कोई लाभ होनेवाला नहीं है।"

इस पर हमने लिखा -
"यह अति-उत्पादन और मुनाफ़े की आम दर में गिरावट का संकट है जिसका पूँजीवाद के पास इलाज नहीं है । सामाजिक विषमता वाली बात आपने बिल्कुल सही कही है, लेकिन इसे दूर करने की बात ग़ैर-पूँजीवादी बात होगी । पूँजीवाद की तो चालक शक्ति है यह वैषम्य । अमेरिका में 1930 से 1970 के काल में आयकर में वृद्धिमान (progressive) दर को लागू करके और न्यूनतम मजूरी को लगातार बढ़ा के इस विषमता पर अंकुश लगाया गया था । कैनेडी के काल में अधिकतम आय पर 92 प्रतिशत आयकर हो गया था । और यही चार दशक अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था का स्वर्णिम युग रहा जब बेरोज़गारी नहीं रही और आर्थिक विकास की दर सबसे ज्यादा हो गई ।

सत्तर के दशक में वियतनाम युद्ध में पराजय और जर्मनी तथा जापान की तरह की युद्ध में पराजित शक्तियों की अर्थ-व्यवस्था में आए नये उभार और उनके द्वारा अमेरिकी उत्पादों को दी गई भारी चुनौती ने अमेरिका में एक प्रकार की पस्त-हिम्मती पैदा की और चार दशकों के बाद रेगन का रिपब्लिकन शासन आगया । रेगन ने आयकर की वृद्धिमान दरों के सूत्र को उलट दिया और न्यूनतम वेतन में वृद्धि पर रोक लगाने की कोशिश की । आयकर की अधिकतम दर को सिर्फ 28 प्रतिशत पर बाँध दिया गया । अमेरिका फिर क्रमश: बढ़ती हुई सामाजिक ग़ैर-बराबरी के चलते अंत में आर्थिक गतिरोध में फँसता चला गया ।

क्लिंटन और ओबामा के काल में आयकर की अधिकतम दर बढ़ कर 40 प्रतिशत पर गई, न्यूनतम मजूरी बढ़ कर फिर दस डालर प्रति घंटा हो गई, लेकिन इन्होंने भी वृद्धिमान दर के फ़ार्मूले को लागू नहीं किया । ओबामा ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य की अपनी योजना पर अडिग रह कर आम लोगों को थोड़ी अतिरिक्त राहत देने का काम किया है । आज डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स इसी बात पर कि वह आयकर में वृद्धिमान दर को लागू करेगा और न्यूनतम मजूरी को पंद्रह डालर प्रति घंटा पर ले जायेगा, हिलैरी क्लिंटन को कड़ी टक्कर दे रहा है । सैंडर्स का कहना है कि अमेरिका इस ग़ैर-बराबरी से थक गया है । संभव है कि इस बार क्लिंटन किसी तरह सैंडर्स की चुनौती का मुक़ाबला कर ले, लेकिन उसकी बातों ने अमेरिका के पचास साल से नीचे के मतदाताओं पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है । और, इस बात को लंबे दिनों तक दबा कर रखा नहीं जा सकेगा ।
कहना न होगा, अगर अमेरिका में फिर से चार दशक पहले की भावना विजयी होती है तो यह सारी दुनिया के लिये एक सबसे बड़ी ख़बर होगी । यह उस मिथक को तोड़ती है कि पूँजीपतियों को तमाम छूट देकर ही अार्थिक विकास मुमकिन है । बल्कि आर्थिक विकास और ख़ुशहाली की रामवाण दवा सामाजिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करना है ।

अगर ऐसा होता है तो फिर कभी किसी को मुकेश अंबानी की तरह सात हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके पाँच लोगों के परिवार के लिये एक घर बनाने की अश्लीलता के प्रदर्शन का मौक़ा नहीं मिलेगा । "

सवाल है कि क्या मोदी सरकार भारत की तरह के सबसे भयंकर ग़ैर-बराबरी से ग्रस्त समाज में सुधार के लिये ऐसे किसी वृद्धिमान आयकर के सूत्र और न्यूनतम मजूरी में वृद्धि तथा अधिकतम वेतन की सीमा तय करने के किसी रास्ते पर विचार भी करने के लिये तैयार है ?

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